मशहूर साहित्यकार गिरिराज किशोर का जन्म 08 जुलाई 1937 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में हुआ। 1960 में आगरा से मास्टर आॅफ सोशल वर्क की डिग्री हासिल की और फिर आईआईटी कानपुर में सचिव के पद पर कार्यरत रहे और यहीं से सेवानिवृत्त भी हुए। आप साहित्य अकादमी नई दिल्ली के सदस्य भी रहे हैं। साहित्य में उल्लेखनीय कार्य के लिए वर्ष 2007 में उन्हें पद्मश्री सम्मान से नवाजा जा चुका है। गांधी जी के दक्षिण अफ्रीकी जीवन पर लिखा उनका महाकाव्यात्मक उपन्यास ‘पहला गिरमिटिया’ खासी उल्लेखनीय है और चर्चा का विषय रहा है। अब तक प्रकाशित उनकी कहानी संग्रहों में नीम के फूल, चार मोती, बेआब, पेपरवेट, शहर-दर-शहर, हम प्यार कर लें, जगत्तरानी, वल्द रोजी, यह देह किसकी है, मालिक सबके मालिक आदि हैं। जबकि लोग, चिडि़याघर, दो, इंद्र सुनें, दावेदार, तीसरा सत्ता,यथा प्रस्तावित, परिशिष्ट, असलाह, अंर्तध्वंस, ढाई घर और यातनाघर नामक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। अमर उजाला, दैनिक जागरण और हिन्दुस्तान समेत अनेक सामचार पत्रों में प्रायः इनके आलेख प्रकाशित होते रहते हैं। गुफ्तगू के संस्थापक इम्तियाज़ अहमद ग़ाजी ने उनसे बात की-
सवाल: साहित्य के प्रति लोगों की रुचि कम हो रही है ?
जवाब: हिन्दी प्रदेशों में शिक्षा की कमी है। मां-बाप पढ़ने में रुचि नहीं दिखाते, इसी वजह से बच्चे भी नहीं पढ़ते। पहले लगता था कि हिन्दी पढ़ना देश सेवा है, मगर अब ऐसा नहीं है। पुस्तकें पढ़ने की प्रवृत्ति अब नहीं रह गई है। साहित्य पढ़ने से समझदारी और संवेदना का विकास होता है। इसीलिए अब मानवीयता खत्म होती जा रही है। दूसरी तरफ किताबें बहुत महंगी हो गईं हैं। प्रकाशक महंगी किताबें छापकर सरकारी लाइब्रेरियों में बेचकर मालामाल होते जा रहे हैं और लेखक गरीब होता जा रहा है उसे कुछ नहीं मिलता। ऐसे में लेखक नई किताबें किस तरह लिखेंगे और अच्छा साहित्य कैसे लोगों के सामने आएगा।
सवाल: टीवी चैनलों पर प्रसारित होने वाले सीरियलों में घर-घर के झगड़े दिखाकर महिलाओं को वरगलाने का काम किया जा रहा है। क्या आप इस बात से सहमत हैं ?
जवाब: बिल्कुल, आजकल जो पारिवारिक सीरियल प्रसारित हो रहे हैं, उन एक-एक सीरियलों में चार-चार, पांच-पांच खलनायिकाएं होती हैं, जिसका असर हमारे परिवार की नई लड़कियों पर पड़ रहा है, वो इन्हीं करेक्टरों को माॅडल समझने लगी हैं। यह देखकर अफसोस होता है कि आखिर टीवी चैनल भारतीय स्त्रियों को खलनायिका के रूप में क्यों पेश कर रहे हैं, इसके खिलाफ आवाज़ उठाया जाना चाहिए। तमाम स्वयंसेवी संस्थाएं महिला सशक्तीकरण की बात तो कर रही हैं, लेकिन उसकी बिगड़ती छवि की बात नहीं की जा रही है। ऐसा लगता है कि सामाजिक मुद्दों पर आंदोलन करने का जमाना ही खत्म हो गया है। आज सिर्फ़ तनख्वाह और दूसरी सुविधाओं के लिए आंदोलन किए जा रहे हैं।
सवाल: समाज में भ्रष्टाचार बढ़ रहा है, क्या वजह है ?
जवाब: इसकी सबसे बड़ी वजह पैसा है। आज के इंसान की सबसे बड़ी ज़रूरत पैसा है, इसके लिए हर नैतिक और अनैतिक काम करने के लिए वह तैयार हो गया है। बच्चे अपने मां-बाप और मां-बाप अपने बच्चों को पैसा के लिए मार डालते हैं। सबकुछ पैसे के लिए किया जाने लगा है। पिछले 10-15 साले में भ्रष्टाचार सबसे अधिक बढ़ा है। बुराई के खिलाफ आंदोलनों का दौर खत्म हो गया।
सवाल: उर्दू की तमाम किताबों का हिन्दी में अनुवाद किया जा रहा है ?
जवाब: अनुवाद पुल का काम करता है। अनुवाद होने से चीज़ें दूसरी भाषा के जानकारों के पास पहंुचती हैं। बंगाली के कई ऐसे लेखक हैं, जो कहते थे कि मेरे साहित्य का अनुवाद हिन्दी में होने की वजह से लोकप्रियता और पैसा मिलता है, बंगाली की वजह से नहीं। उसी तरह उर्दू की तमाम किताबों का अनुवाद हिन्दी में हो रहा है और उसका एक बड़ा पाठक वर्ग भी है। पाकिस्तान में छपी तमाम किताबों का भारत में अनुवाद करके बेचा जा रहा है। अब तो हिन्दी उर्दू इस तरह मिल गए हैं कि बोली के स्तर पर फ़कऱ् समझना मुश्किल हो गया है। हिन्दी और उर्दू एक दूसरे की सहयोगी भाषायें हैं, कोई बैर भाव नहीं है।
सवाल: समाचारों के प्रसारण एवं प्रकाशन के मामले में प्रिन्ट मीडिया और इलेक्टृानिक मीडिया को आप किस रूप में देखते हैं ?
जवाब: प्रिन्ट मीडिया का स्वरूप अब काफी बदल चुका है। कानुपर में बैठा आदमी सिर्फ़ कानपुर की ख़बरें की पढ़ पाता है, लखनउ और इलाहाबाद की नहीं। क्योंकि सारे अख़बारों के स्थानीय संस्करण हो गए हैं। दूसरी ओर इलेक्टृानिक मीडिया ने ख़बर को खेल तमाशा बना दिया है। तमाम चीज़ों को बढ़ा-चढ़ाकर उत्तेजक रूप में पेश किया जा रहा है। समाचार चैनलों पर डांस और लतीफे दिखाए जा रहे हैं, तमाम महत्वपूर्ण ख़बरों का दबा दिया जा रहा है। क्राइम को खूब बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है। मुझे तो लगता है कि आज भी ख़बरों के मामले में आल इंडिया रेडियो सबसे बेहतर है।
सवाल: कहा जा रहा है कि नये लोग अच्छा नहीं लिख रहे हैं?
जवाब: ऐसा बिल्कुल नहीं है। तमाम नए लिखने वाले आ रहे हैं और बहुत अच्छा लिख रहे हैं। अभी साहित्य अकादमी ने 13 कहानियों और 20 उपन्यासों की किताबें प्रकाशित की है। तमाम नए लिखने वाले साहित्य में आ रहे हैं। ये और बात है ये कितने दिन तक टिकते हैं। फिलहाल नया साहित्य खूब आ रहा है, नए लोगों में रुचि है।
सवाल: नए लिखने वालों को क्या सलाह देंगे ?
जवाब: नए लोगों को लगता है कि जल्दी और ज्यादा लिखना ही महत्वपूर्ण है। पहले अपने आपको और समाज को ठीक ढंग से समझें और लिखें। ये भी ठीक नहीं है कि चार-छह कहानियां और ग़ज़लें लिखकर काम समाप्त कर दिया और उन्हीं को जि़न्दगीभर ढोते रहे। साहित्य में लंबी दौड़ की जरूरत है, और समाज के सही मूल्यांकन को पेश करना ज़रूरी है।
गुफ्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2008 अंक में प्रकाशित
सवाल: साहित्य के प्रति लोगों की रुचि कम हो रही है ?
जवाब: हिन्दी प्रदेशों में शिक्षा की कमी है। मां-बाप पढ़ने में रुचि नहीं दिखाते, इसी वजह से बच्चे भी नहीं पढ़ते। पहले लगता था कि हिन्दी पढ़ना देश सेवा है, मगर अब ऐसा नहीं है। पुस्तकें पढ़ने की प्रवृत्ति अब नहीं रह गई है। साहित्य पढ़ने से समझदारी और संवेदना का विकास होता है। इसीलिए अब मानवीयता खत्म होती जा रही है। दूसरी तरफ किताबें बहुत महंगी हो गईं हैं। प्रकाशक महंगी किताबें छापकर सरकारी लाइब्रेरियों में बेचकर मालामाल होते जा रहे हैं और लेखक गरीब होता जा रहा है उसे कुछ नहीं मिलता। ऐसे में लेखक नई किताबें किस तरह लिखेंगे और अच्छा साहित्य कैसे लोगों के सामने आएगा।
सवाल: टीवी चैनलों पर प्रसारित होने वाले सीरियलों में घर-घर के झगड़े दिखाकर महिलाओं को वरगलाने का काम किया जा रहा है। क्या आप इस बात से सहमत हैं ?
जवाब: बिल्कुल, आजकल जो पारिवारिक सीरियल प्रसारित हो रहे हैं, उन एक-एक सीरियलों में चार-चार, पांच-पांच खलनायिकाएं होती हैं, जिसका असर हमारे परिवार की नई लड़कियों पर पड़ रहा है, वो इन्हीं करेक्टरों को माॅडल समझने लगी हैं। यह देखकर अफसोस होता है कि आखिर टीवी चैनल भारतीय स्त्रियों को खलनायिका के रूप में क्यों पेश कर रहे हैं, इसके खिलाफ आवाज़ उठाया जाना चाहिए। तमाम स्वयंसेवी संस्थाएं महिला सशक्तीकरण की बात तो कर रही हैं, लेकिन उसकी बिगड़ती छवि की बात नहीं की जा रही है। ऐसा लगता है कि सामाजिक मुद्दों पर आंदोलन करने का जमाना ही खत्म हो गया है। आज सिर्फ़ तनख्वाह और दूसरी सुविधाओं के लिए आंदोलन किए जा रहे हैं।
सवाल: समाज में भ्रष्टाचार बढ़ रहा है, क्या वजह है ?
जवाब: इसकी सबसे बड़ी वजह पैसा है। आज के इंसान की सबसे बड़ी ज़रूरत पैसा है, इसके लिए हर नैतिक और अनैतिक काम करने के लिए वह तैयार हो गया है। बच्चे अपने मां-बाप और मां-बाप अपने बच्चों को पैसा के लिए मार डालते हैं। सबकुछ पैसे के लिए किया जाने लगा है। पिछले 10-15 साले में भ्रष्टाचार सबसे अधिक बढ़ा है। बुराई के खिलाफ आंदोलनों का दौर खत्म हो गया।
सवाल: उर्दू की तमाम किताबों का हिन्दी में अनुवाद किया जा रहा है ?
जवाब: अनुवाद पुल का काम करता है। अनुवाद होने से चीज़ें दूसरी भाषा के जानकारों के पास पहंुचती हैं। बंगाली के कई ऐसे लेखक हैं, जो कहते थे कि मेरे साहित्य का अनुवाद हिन्दी में होने की वजह से लोकप्रियता और पैसा मिलता है, बंगाली की वजह से नहीं। उसी तरह उर्दू की तमाम किताबों का अनुवाद हिन्दी में हो रहा है और उसका एक बड़ा पाठक वर्ग भी है। पाकिस्तान में छपी तमाम किताबों का भारत में अनुवाद करके बेचा जा रहा है। अब तो हिन्दी उर्दू इस तरह मिल गए हैं कि बोली के स्तर पर फ़कऱ् समझना मुश्किल हो गया है। हिन्दी और उर्दू एक दूसरे की सहयोगी भाषायें हैं, कोई बैर भाव नहीं है।
सवाल: समाचारों के प्रसारण एवं प्रकाशन के मामले में प्रिन्ट मीडिया और इलेक्टृानिक मीडिया को आप किस रूप में देखते हैं ?
जवाब: प्रिन्ट मीडिया का स्वरूप अब काफी बदल चुका है। कानुपर में बैठा आदमी सिर्फ़ कानपुर की ख़बरें की पढ़ पाता है, लखनउ और इलाहाबाद की नहीं। क्योंकि सारे अख़बारों के स्थानीय संस्करण हो गए हैं। दूसरी ओर इलेक्टृानिक मीडिया ने ख़बर को खेल तमाशा बना दिया है। तमाम चीज़ों को बढ़ा-चढ़ाकर उत्तेजक रूप में पेश किया जा रहा है। समाचार चैनलों पर डांस और लतीफे दिखाए जा रहे हैं, तमाम महत्वपूर्ण ख़बरों का दबा दिया जा रहा है। क्राइम को खूब बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है। मुझे तो लगता है कि आज भी ख़बरों के मामले में आल इंडिया रेडियो सबसे बेहतर है।
सवाल: कहा जा रहा है कि नये लोग अच्छा नहीं लिख रहे हैं?
जवाब: ऐसा बिल्कुल नहीं है। तमाम नए लिखने वाले आ रहे हैं और बहुत अच्छा लिख रहे हैं। अभी साहित्य अकादमी ने 13 कहानियों और 20 उपन्यासों की किताबें प्रकाशित की है। तमाम नए लिखने वाले साहित्य में आ रहे हैं। ये और बात है ये कितने दिन तक टिकते हैं। फिलहाल नया साहित्य खूब आ रहा है, नए लोगों में रुचि है।
सवाल: नए लिखने वालों को क्या सलाह देंगे ?
जवाब: नए लोगों को लगता है कि जल्दी और ज्यादा लिखना ही महत्वपूर्ण है। पहले अपने आपको और समाज को ठीक ढंग से समझें और लिखें। ये भी ठीक नहीं है कि चार-छह कहानियां और ग़ज़लें लिखकर काम समाप्त कर दिया और उन्हीं को जि़न्दगीभर ढोते रहे। साहित्य में लंबी दौड़ की जरूरत है, और समाज के सही मूल्यांकन को पेश करना ज़रूरी है।
गुफ्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2008 अंक में प्रकाशित
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