शनिवार, 3 मई 2025

  मुशायरों के शहंशाह थे मुनव्वर राना

 पिता के नाम के साथ लगा ‘ड्राइवर’ शब्द हटाना चाहते थे

जी-तोड़ मेहनत करके व्यापार और शायरी में हुए कामयाब

                                                                    - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

 मुनव्वर राना के पिता का नाम अनवर था। अनवर साहब ट्रक ड्राइवर थे। इस काम के जरिये ही वे अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। ड्राइवर के रूप में वे काफी मशहूर भी थे। यहां तक कि उस दौर में उनके घर जब चिट्ठी आती थी तो लिफ़ाफ़े पर उनका नाम ‘अनवर ड्राइवर’ लिखा होता था। जब मुनव्वर थोड़ा परिपक्व हुए तो उनको अपने पिता के साथ ड्राइवर का लगा लक़ब बहुत ही नागवार लगता था। मुनव्वर राना के बेटे तबरेज़ राना बताते हैं कि मेरे वालिद अपने पिता के साथ लगा ‘ड्राइवर’ का लक़ब हटाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने व्यापार में जी-तोड़ मेहनत की और इस लक़ब को हटवाने में कामयाब हुए। मुनव्वर राना का नाम जब शायरी की दुनिया में उभरा तो लोग उन्हेें अनवर ड्राइवर कहने की बजाय मुनव्वर राना के पिता कहने लगे, यही मुनव्चर चाहते थे। मुनव्वर राना अपने बच्चों को पढ़ाना तो चाहते थे, लेकिन उनकी पढ़ाई की वाचिंग खुद ही पूरे तौर पर नहीं करते थे, लेकिन पढ़ाई का पूरा इंतज़ाम करते थे। जब परीक्षा का रिजल्ट आना होता था तो पहले से ही सचेत हो जाते थे। अच्छा रिजल्ट आने पर बच्चों को खूब शाबाशी देते थे।

 मुनव्वर राना

 तबरेज़ बताते हैं-‘वर्ष 1996 में शाहरूख़ ख़ान की एक फिल्म आयी थी। उसी समय चुनार में मुशायरा था। पिताजी ने हमसे पूछा कि मुशायरा में चलोगे या फिल्म देखने जाओगे ? मैंने फिल्म देखने की इच्छा ज़ाहिर की। इस पर बोले-तुम बेकार लड़के हो।’ इस घटना से मेरे उपर काफी असर पड़ा, फिर मैंने उनकी किताबें और घर में रखी दूसरे शायरों की किताबें पढ़नी शुरू की। धीर-धीरे शायरी में दिलचस्पी बढ़ी।’ शायरी से संबंधित अपने ज़्यादातर काम मुनव्वर राना रात 10 बजे के बाद करते थे। तबरेज़ बताते हैं कि अक्सर रात 11 बजे के बाद मुझे बुलाकर कहते- ‘चाय पियोगे’, मेरे ‘हां’ कहने पर बोलते-तो फिर दो कप चाय बनाओ, दोनो लोग पीते हैं। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी किताब भेंट करते मुनव्वर राना। (फोटो गूगल से साभार)

 अपने इंतिक़ाल से ठीक पहले मुनव्वर राना बीमारी की हालत में अस्पताल में भर्ती थे। उनका मोबाइल तबरेज़ से खो गया। इसके बाद डर के मारे वे अपने पिता के सामने नहीं आ रहे थे। धीरे से अपनी मां को बता दिया था कि पापा का मोबाइल खो गया है। पूरा दिन बीत गया, तबरेज़ अपने पिता के सामने नहीं आये तो उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा की तबरेेज़ कहां है? उन्होंने बताया कि मोबाइल खो जाने के डर से आपके सामने नहीं आ रहा है। इस पर उन्होंने तबरेज़ को बुलाया और कहा-‘अगर मोबाइल नहीं खोता तो मैं समझता कि तुम एक नालायक बेटे हो। पिता की बीमारी की हालत में तुम्हारा सारा ध्यान मोबाइल पर होना तुम्हारे नालायक होने का सुबूत होता। लेकिन अपने पिता की देख-रेख और इलाज़ में तुम इतने मशरूफ़ रहे कि मोबाइल खो गया। तुम नालायक बेटे नहीं हो।’

 तबरेज़ बताते हैं कि पिताजी अपने पोता उमर से बहुत प्यार करते थे। इंतिक़ाल से ठीक पहले जब मुनव्वर राना साहब अस्पताल में थे, आखि़री वक़्त था। उसी वक़्त उन्होंने तबरेज़ की तरफ़ हाथ हिलाकर ‘टा-टा’ किया। उनका इशारा था कि अब मैं इस दुनिया से जा रहा हूं। इस इशारे पर तबरेज़ ने कहा कि कैसी बात करते हैं, ज़रा सोचिए उमर का क्या होगा आपके बिना। यह कहकर तबरेज़ ने उमर को फोन लगाकर मुनव्वर राना के कान के पास मोबाइल लगा दिया। मुनव्वर ने कहा- कैसे हो उमर, तुम्हारे दादू तो अब मर रहे हैं।’ उमर ने रोनी सी आवाज़ में उनसे बात की थी।

 मुनव्वर राना जितने बड़े शायर थे, उतने हीे दिलचस्प इंसान भी थे। कई बार ऐसा भी हुआ, जब मैं टीम गुफ़्तगू के लोगों को लेकर लखनऊ उनके ढींगरा अपार्टमेंट स्थित आवास पर गया और घंटों हमलोग उनकी बात सुनें। कई बार उनके साथ खाना भी खाये।

मुनव्वर राना के इंतिक़ाल के बाद उनकी मिट्टी में शामिल मशहूर गीतकार जावेद अख़्तर

कुल मिलाकर मुनव्वर राना हमारे दौर के ऐसे शायर रहे हैं, जिनकी मक़बूलियत सर चढ़कर बोलती थी। जबकि मुनव्वर राना के अलावा बशीर बद्र, राहत इंदौरी, निदा फ़ाज़ली, शह्रयार, वसीम बरेलवी और बेकल उत्साही जैसे बड़े शायर भी हमारे ही दौर के हुए हैं, जिन्होंने ख़ासकर मुशायरों के मंच पर ख़ास मक़बूलियत हासिल की है। लेकिन इन सबमें से मुनव्वर राना इसलिए अलग हो जाते हैं कि ये आम आदमी के शायर थे। एक आम आदमी जिसको शायरी में कोई दिलचस्पी नहीं है, वह भी मुनव्वर राना का नाम ज़रूर जानता है। अब तक के सभी शायरों की बात की जाए तो ग़ालिब के बाद मुनव्वर राना ही ऐसे अकेले शायर हैं, जिनका नाम आम आदमी भी जानता है। जिस प्रकार ग़ज़ल की शायरी के लिए मीर तक़ी मीर को ग़ालिब से भी बड़ा शायर माना जाता है, लेकिन आम जनता में ग़ालिब ज़्यादा मक़बूल हैं। 

 इसी तरह हमारे दौर में मुनव्वर राना से बड़ा शायर बशीर बद्र को माना जाता है, लेकिन आम जनता में मुनव्वर की मक़बूलियत बशीर बद्र से कहीं ज़्यादा है। इसलिए मुनव्वर की अलग पहचान बनती है। मुनव्वर की एक अलग पहचान यह भी है कि इनके यहां पारंपरिक उर्दू शायरी से हटकर अलग तरह के बिंब दिखाई देते हैं। मुनव्वर से पहले आमतौर पर उर्दू शायरों के यहां गुले-बुलबुल, माशूक़ा और राजा-महाराजाओं की जी-हुजूरी ही दिखाई देती है। भारत में वली दकनी से शुरू हुई उर्दू शायरी में ख़ासकर ग़ज़ल शायरी एक कमरे की शायरी की तरह रही है। उर्दू शायरों ने माशूक़ा की प्रसंशा और राजाओं की जी-हुजूरी के बाहर कुछ ख़ास शायरी नहीं की है। इनको पढ़ने से लगता है कि उर्दू शायरी की विषय-वस्तु बहुत ही सीमित रही है। इसके विपरीत मुनव्वर के यहां समाज के लगभग हर पहलू पर बात करती हुई शायरी नज़र आती है।

मुनव्वर राना के लखनउ स्थित अवास परं बाएं से सिद्धार्थ पांडेय, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, मुनव्वर के बेटे तबरेज़ राना, और आसिफ़ उस्मानी।


‘मां’ भी शायरी की विषय वस्तु हो सकती है, यह मुनव्वर ने ही सिख़ाया है। आज हिन्दी-उर्दू का लगभग हर शायर ‘मां’ की शान में शायरी करता हुआ नज़र आता है, यह रास्ता मुनव्वर राना का ही दिखाया हुआ है। ‘मां’ के साथ-साथ भी समाज के अन्य जितने भी विषय हो सकते हैं, लगभग सभी पर मुनव्वर ने शेर कहा है। सिर्फ़ शेर कहा ही नहीं है बल्कि नये-नये मायने भी पैदा कर दिये हैं। मुशायरों के मंच  पर भी उनकी एक अलग स्टाइल और पहचान थी। आमतौर पर दूसरे शायर मंच पर आकर तरह-तरह की अदायें दिखाते हैं, तरन्नुम से लोगों का ध्यान खींचना चाहते हैं, दाद पाने के लिए तरह-तरह की जी-हुजूरी भी करते हैं। लेकिन मुनव्वर राना ने यह काम कभी नहीं किया। वे माइक पर आकर सीधा-सीधा अपना कलाम पेश करते थे। अपने कलाम के ज़रिए ही श्रोताओं की वाहवाही बटोरते थे।

(गुफ़तगू के जुलाई-सितंबर 2024 अंक में प्रकाशित )


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