शनिवार, 24 मई 2025

हिन्दी नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर उमाशंकर तिवारी

                                                                          - अमरनाथ तिवारी अमर 

  हिन्दी नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. उमाशंकर तिवारी का जन्म 31 जुलाई 1940 को ग़ाज़ीपुर जनपद के बहादुरगंज में हुआ था। इनकी शुरूआती शिक्षा घर पर ही हुई थी। इनकी प्रतिभा से चकित होकर तत्कालीन उप-विद्यालय निरीक्षक कृष्ण बिहारी अस्थाना ने प्रांथमिक नाम पांचवीं कक्षा में लिखाने का आदेश दे दिया था। विद्यार्थी जीवन से ही ये प्रतिभावान एवं मेधावी थे। इन्होंने छठवीं से आठवीं तक की शिक्षा जूनियर हाईस्कूल बहादुरगंज, फिर नवीं और दसवीं की शिक्षा गांधी स्मारक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय बहादुरगंज से पूरी की। इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए ग़ाज़ीपुर शहर स्थित सिटी उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में प्रवेश लेकर वर्ष 1955 में यहीं से इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की। हिन्दी, अंग्रेज़ी एवं संस्कृत विषय के साथ वर्ष 1957 में सतीशचंद्र कॉलेज, बलिया से स्नातक किया।

डॉ. उमाशंकर तिवारी

18 वर्ष की आयु में ही सिटी इंटर कॉलेज में अध्यापन करने लगे। एक वर्ष पश्चात् काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में एम.ए. की कक्षा में प्रवेश ले लिया। उस समय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी थे। हिन्दी विभाग अत्यंत समृद्ध था। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, डॉ. जगन्नाथ शर्मा, पं. करुणापति त्रिपाठी, डॉ. श्रीकृष्ण लाल और प्रो. विद्याशंकर मल्ल हिन्दी विभाग से जुड़े थे। ऐसे आचार्यों में डॉ. उमाशंकर तिवारी को संस्कारित एवं प्रशिक्षित किया। ये आचार्य द्विवेदी के प्रिय शिष्यों में थे। आचार्य द्विवेदी के सन्निध एवं मार्गदर्शन में ही इनकी काव्य प्रतिभा परवान चढ़ीं।

  काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के पश्चात इन्होंने ज़मानियां, ग़ाज़ीपुर, रानीपुर-आज़मगढ़ में अध्यापन किया। तत्पश्चात डी.सी.एस.के. महाविद्यालय मउ में हिन्दी विभाग से जुड़े। इसी महाविद्यालय से वर्ष 2001 में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए। वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय जौनपुर की विद्या परिषद एवं शोध समिति के संयोजक भी रहे। ‘छायादवोत्तर गीत-काव्य के शिल्पगत विकास’ विषय पर शोध प्रबंध प्रस्तुत कर वर्ष 197ं4 में काशी विद्यापीठ के डॉ. शंभुनाथ सिंह के निर्देशन में पी.एच-डी. किया। वर्ष 1969 से 2001 तक उच्च शिक्षा के अध्ययन-अध्यापन से जुड़े रहकर डॉ. तिवारी ख़्याति व यश अर्जित किया।

 डॉ. उमाशंकर तिवारी की गणना नवगीत के चर्चित हस्ताक्षर और व्याख्याता के रूप में अत्यंत सम्मान के साथ की जाती है। नवगीत के उन्नायक डॉ. शंभुनाथ सिंह ने अपने अंतिम समय में इनकी इमानदार सृजनशीलता पर विश्वास करते हुए ‘नवगीत’ के विकास के अधूरे पड़े कार्य को पूरा करने की जिम्मेदारी इन्हें ही सौंप दी थी।

 वर्ष 1968 में इनका पहला नवगीत संग्रह ‘जलते शहर में’ प्रकाशित हुआ। वर्ष 1968 में ‘तोहफं कांच घर के’ प्रकाशित हुआ। इस नवगीत संग्रह के लिए प्रधानमंत्री द्वारा उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के निराला पुरस्कार से इन्हें सम्मानित किया गया। इसी कृति के लिए इन्हें डॉ. जगदीश गुप्त द्वारा डॉ. शंभुनाथ सिंह नवगीत पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1996 में ‘धूप कड़ी है’ प्रकाशित हुआ। 

 इनका शोध प्रबंध ‘आधुनिक गीत काव्य’ वर्ष 1997 में प्रकाशित हुआ। इन्होंने कई पुस्तकों का संपादन किया। जिनमें प्रमुख है- नवगीत के प्रतिमान और आयाम, गद्य-विधिक़़ा, कथा यात्ऱा, कथा सेतु, समकालीन काव्य, नवलेखन की पत्रिका-पूर्ण। 

  कई पुरस्कारों और सम्मानों से सम्मानित डॉ. उमाशंकर तिवारी ने हिन्दी नवगीत को महत्तर उंचाई प्रदान की। शिक्षा एवं साहित्य के क्षेत्र में योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। डॉ. तिवारी का निधन 28 अक्तूबर 2009 को हो गया, लेकिन आपने नवगीतो के माध्यम से वे आज भी जीवित हैं।


( गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2024 अंक में प्रकाशित )


गुरुवार, 22 मई 2025

 गुफ़्तगू का कार्य अप्रत्याशित है: राजेंद्र गुप्ता

‘गुफ़्तगू साहित्य समारोह-2025’ में प्रतिभावान लोगों को  मिला अवार्ड


राजेंद्र गुप्ता

प्रयागराज। आमतौर पर साहित्यिक संस्थाएं बनती हैं, कुछ ही दिनों में टूट जाती हैं। क्योंकि अधिकतर मामलों में लोगो कें इगो हर्ट होने लगता है। मगर, प्रयागराज में गुफ़्तगू लगातार 23 वर्षों से संचालित हो रही है, यह बहुत बड़ी बात है, यह अप्रत्याशित है। पूरे देश से प्रतिभावानों का चयन करके प्रत्येक वर्ष सम्मानति किया जाना अपने-आप में बहुत बड़ा काम है। प्रयागराज में आकर इस तरह आयोजन देखना मुझे ही अच्छा लगा। संस्था के अध्यक्ष डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने अपनी कार्यकुशलता से यह काम करके मिसाल कायम किया है। यह बात 19 मई 2025 को मुट्ठीगंज स्थित आर्य कन्या इंटर कॉलेज में आयोजित ‘गुफ़्तगू साहित्य समारोह-2025’ के दौरार मशहूर फिल्म अभिनेता और रंगकर्मी राजेंद्र गुप्ता ने कही।

सीमा अपराजिता अवार्ड ग्रहण करती अलका सोनी

कार्यक्रम की भूमिका प्रस्तुत करते हुए डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि हमने एक टीम बनाने बनाकर साहित्य को समर्पित काम किया है। हमेशा से कोशिश रही है कि अच्छे कार्य करने वालों का सम्मान किया जाए, ताकि अच्छे कामों का प्रोत्साहन मिले।

कुलदीप नैयर अवार्ड ग्रहण करते रतिभान त्रिपाठी


कुलदीप नैयर अवार्ड ग्रहण करते रोहिताश्व कुमार वर्मा


सुभद्रा कुमारी चौहान अवार्ड करती डॉ.शहनाज़ ज़ाफ़र बासमेह

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए न्यायमूर्ति  क्षितिज शैलेंद्र ने कहा कि इस कठिन दौर में इमानदारी के साथ गुफ़्तगू ने बहुत ही परिश्रम से अपने-आपको खड़ा किया हैै। यह कार्य अपने आपमें अतुलनीय है।

न्यायमूर्ति क्षितिज शैलेंद्र


न्यायमूर्ति अशोक कुमार


डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

न्यायमूर्ति अशोक कुमार ने कहा कि साहित्यिक आयोजन की रूपरेखा तैयार करके उसे करके दिखा देना बड़ी बात है, यह काम टीम गुफ़्तगू ने करके दिखा दिया है। सिविल डिफेंस के चीफ वार्डेन अनिल कुमार ‘अन्नू भइया’ ने कहा कि प्रयागराज इलाहाबाद बहुत ही अच्छा कार्य कर रही है। इससे अन्य लोगों को भी सबक लेना चाहिए। वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र, शिक्षाविद् पंकज जायसवाल और पूर्व एडीशनल एडवोकेट जनरल क़मरुल हसन सिद्दीक़ी, नरेश कुमार महरानी, ने भी विचार व्यक्त किया। इस अवसर ‘गुफ़्तगू’ पत्रिका का भी विमोचन किया गया। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया।

अनिल कुमार उर्फ़ अन्नू भइया


पंकज जायसवाल


मुनेश्वर मिश्र

 दूसरे दौर में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। हकीम रेशादुल इस्लाम, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’, प्रभाशंकर शर्मा, मासूम रज़ा राशदी, डॉ. वीरेंद्र कुमार तिवारी, नीना मोहन श्रीवास्तव, अनिल मानव, राजेश राज जौनपुरी, अर्चना जायसवाल ‘सरताज’, शिवाजी यादव, अफसर जमाल, शैलेंद्र जय, मधुबाला गौतम, राम नारायण श्रीवास्तव, सिद्धार्थ पांडेय, भारत भूषण वार्ष्णेय, दयाशंकर प्रसाद, उत्कर्ष मालवीय, कमल किशोर कमल आदि ने काव्य पाठ किया।

 

गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2025 अंक का हुआ विमोचन

इन्हें मिला अवार्ड

शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी - अकबर इलाहाबादी अवार्ड


कुलदीप नैयर अवार्ड -

रोहिताश्व कुमार वर्मा (दैनिक जागरण-मुजफ्फरनगर),

रतिभान त्रिपाठी (राजनैतिक संपादक-देशबंधु)

दिनेश सिंह (टीवी-9)

अचिन्त्य रंजन मिश्र (आज)


सुभद्रा कुमारी चौहान अवार्ड -

डॉ. शहनाज़ जाफ़र बासमेह (औरंगाबाद, महाराष्ट्र)

डॉ. कामिनी व्यास रावल (उदयपुर)

निरुपमा खरे (भोपाल)

वंदना रानी दयाल (ग़ाज़ियाबाद)


कैलाश गौतम अवार्ड -

अविनाश भारती (मुजफ्फरपुर)

विनोद कुमार विक्की (खगड़िया)

डॉ. आकांक्षा पाल (प्रयागराज)

डॉ. संतोष कुमार मिश्र (प्रयागराज)


उमेश नारायण शर्मा अवार्ड-

एडवोकेट रोहित पांडेय

एडवोकेट सत्येंद्र सिंह

एडवोकेट सय्यद आफ़ताब मेंहदी

एडवोकेट अमरेंद्र कुमार मिश्र 


डॉ.सुधाकर पांडेय अवार्ड-

अलीशेर राईनी ‘भोलू’ (मरणोपरांत, दिलदानगर)

विनय राय ‘बबुरंग’ (ग़ाज़ीपुर)

संतोष कुमार शर्मा (ज़ामानिया)

मोहम्मद आरिफ़ अंसारी (प्रयागराज),


सीमा अपराजिता अवार्ड-

डॉ. प्रीता पंवार (फरीदाबाद)

डॉ. ऋषिका वर्मा (पौड़ी गढ़वाल)

अलका सोनी (बर्नपुर, पश्चिम बंगाल)

ज्योति सागर सना (दिल्ली)


मिल्खा सिंह अवार्ड-

ज़हीर हसन (फुटबाल)

प्रो. राकेश कुमार नायक (बॉक्सिंग)

भास्कर चंद्र भट्ट (बॉक्सिंग)

रणविजय सिंह (शॉटफुट थ्रोवर)


गुफ़्तगू अवार्ड-

अनुराग मिश्र (लखनऊ)

बसंत कुमार शर्मा (जबलपुर)

सरफराज हुसैर फराज (मुरादाबाद)

डॉ. रामावतार सागर (कोटा)

सुशील खरे ‘वैभव’ (पन्ना)

मंजुलता नागेश (प्रयागराज)



बुधवार, 14 मई 2025

1929 से निकली ‘माया’ पत्रिका देशभर में छा गई

मनोहर कहानियां’, ‘सत्यकथा’ और ‘गंगा-जमुना’ भी यहीं से निकलीं 

इसकी सफलता को देखकर ही हिन्दी में शुरू हुई ‘इंडिया टुडे’ 

                                                                               - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

 इलाहाबाद जो अब प्रयागराज है। यहां से पत्रिकाओं और अख़बारों का प्रकाशन नेशनल लेवल पर होता रहा है। पब्लिकेशन का हब तो यह शहर रहा ही है, इसके साथ ही पत्रिकाओं और अख़बारों का भी प्रमुख केंद्र रहा है। मित्र प्रकाशन, पत्रिका हाउस और इंडियन प्रेस प्रमुख रूप से अपनी ख़ास पहचान रखते थे। ख़ासतौर पर मित्र प्रकाशन से निकलने वाली पत्रिका ‘माया’ ने अपनी अलग पहचान और हनक बनाई थी, जिसके किस्से आज भी वरिष्ठजन बड़ी शान से सुनाते हैं। मित्र प्रकाशन से ‘माया’ के अलावा भी कई पत्रिकाएं और अख़बार निकलते थे, लेकिन माया ने राजनैतिक ख़बरों की दुनिया में जो छाप छोड़ी है, उसे क्रास करना आज भी लगभग नामुमकिन ही लगता है। उन दिनों पूरे देश में ‘माया’ की लगभग चार लाख प्रतियां बिकती थीं।

लगभग खंडहर में तब्दील हो चुके मित्र प्रकाशन के ऑफिस को देखते डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी। प्रयागराज के मुट्ठीगंज स्थित इसी ऑफिस से निकलती थी माया पत्रिका।

  वर्ष 1929 में 151, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद से मित्र प्रकाशन के अंतर्गत अन्य पत्रिकाओं के साथ मासिक पत्रिका ‘माया’ की भी शुरूआत हुई। कुछ ही दिनों बाद 151, मुद्ठीगंज की जगह इसके सामने वाली बिल्डिंग 281, मुद्ठीगंज में यह ऑफिस स्थानांतरित हो गया। क्षितिद्र मोहन मित्र ‘मुस्तफ़ी’ ने अपनी देख-रेख और संपादन में कई पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारभ किया था। इनमें ‘माया’ का नाम प्रमुख रूप से आता है, क्योंकि राजनैतिक स्तर पर माया ने जो छाप छोड़ी है। उसकी कहानी और इतिहास सबसे अलग है। 

माया पत्रिका के शुरूआती अंक का कवर पेज

इस पत्रिका की हनक इतनी अधिक थी कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह, नारायण दत्त तिवारी, मुलायम सिंह यादव, तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल वोरा और केंद्रीय मंत्री सलीम इक़बाल शेरवानी तक इसके आफिस आते रहे। जब पत्रिका शुरू हुई तब देश अंग्रेज़ों की गुलामी में जकड़ा हुआ था और किसी चीज़ का प्रकाशन करके आम जनता तक पहुंचाना आसान काम नहीं था। मगर, इस माहौल में भी माया ने अपनी अलग छाप छोड़ी। वर्ष 1929 में जब इस पत्रिका की शुरूआत हुई तो इसमें सिर्फ़ कहानियां ही प्रकाशित होती थीं। इन कहानियों में मुख्यतः देश और समाज को रेखांकित करने वाली घटनाओं और यथार्थ को दर्शाया हुआ होता था। तब तकनीक के नाम पर कुछ भी नहीं था। हाथ से एक-एक अक्षर जोड़कर कम्पोजिंग होती थी। उस दौर में कई अंक ऐसे भी प्रकाशित हुए जिनमें एक भी चित्र या रेखांकन नहीं था। फोटो प्रकाशित करने की तकनीक इतनी विकसित नहीं थी। किसी-किसी अंक में बड़ी मुश्किल से किसी कहानी में रेखांकन प्रकाशित हो पाता था।

मनोहर कहानियां’ शुरूआती अंक का पत्रिका का कवर पेज।

 डॉ. मुश्ताक़ अली बताते हैं कि आर्थिक तंगी के कारण शुरू के कई अंकों के छपने के बाद इसका प्रकाशन रोक दिया गया। फिर दो अंकों के विराम के बाद किसी तरह आर्थिक व्यवस्था जुटाकर प्रकाशन शुरू हुआ। विराम के बाद जब प्रकाशन शुरू हुआ तो क्षितिंद्र मोहन मित्र ‘मुस्तफ़ी’ ने अपने संपादकीय में लिखा-‘बहुत समय बाद मैं आज ‘माया’ को पुनः आप लोगों के सम्मुख उपस्थित कर सका हूं। इस बीच आप लोगों के अनेक पत्र मेरे पास आये, पर उनमें से केवल कुछ का ही उत्तर दे सका। अब मैं आरंभ से ‘माया’ की कहानी आपको सुनाता हूं। इसके अवलोकन से आप लोगों को उसके कुछ समय तक बंद रहने और प्रारंभ से ही विलंब से निकलने का कारण ज्ञात हो जाएगा। बीस वर्ष की आयु में मैंने भविष्य की चिंता किये बिना अपने हिन्दी-प्रेम एवं उत्साह की प्रेरणा से ‘माया’ निकाली। मेरी वन्दनीया पुत्रहीना बुआजी, जिन्होंने तीन साल की अवस्था से ही निज संतानवत मेरा लालन-पालन किया था, इस अवसर पर किंचिन्त् धन द्वारा मेरा उत्साहवर्धन किया। मुझे भविष्य में उनसे धन प्राप्ति का पूर्ण निश्चय था। किन्तु दो ही अंक निकल पाये थे कि उनका निधन हो गया। मृत्यु के पहले दानपत्र नहीं लिख सकीं। इस कारण उनका अवशिष्ट धन पौष्यपुत्र को मिला। अब मेरे लिये धनप्राप्ति का कोई द्वार नहीं रह गया। कई दिक्कतों के बाद आज ’माया’ फिर आप के सामने प्रस्तुत हो सकी है। अब हर महीने से पहले सप्ताह में ही माया आप लोगों के पास पहुंचा करेगी।’

चित्र में बाएं से: नन्दा रानी मित्र, अशोक मित्र, आलोक मित्र, दीपक मित्र, क्षितेंद्र मोहन मित्र और बीच में बैठे हुए मनमोहन मित्र।

 प्रकाशन जारी रहा और 1986 में यह पत्रिका पाक्षिक हो गई। इससे पहले मासिक ही छपती रही। क्षितिंद्र मोहन मित्र ‘मुस्तफ़ी’ के पौत्र संदीप मित्र बताते हैं-‘माया’ तब अधिक हाईलाइट हुई जब इमरजेंसी में जेपी के निधन और संघर्ष पर एक्सक्ल्यूसिव स्टोरी छपी। यह स्टोरी रवींद्र किशोर ने किया था। इस स्टोरी के बाद पूरे देश में यह पत्रिका चर्चा में आ गई। इससे पहले ‘माया’ कहानियों की पत्रिका थी। रवीन्द्र किशोर के सलाह पर ही इसे राजनैतिक पत्रिका बना दी गई। जब ‘माया’ राजनैतिक पत्रिका बनी, तब आलोक मित्र प्रधान संपादक और संपादक बाबू लाल शर्मा थे।

वर्तमान समय में मित्र प्रकाशन के अंदर का दृश्य।

  निशीथ जोशी बताते हैं-’राजनैतिक पत्रिका बनाने के बाद माया में एक ख़ास स्टोरी ‘मीसा ने किसको पीसा’ छपी। उस दौरान हाजी मस्तान, युसूफ पटेल, करीम लाला समेत कई लोगों पर ‘मीसा’ लगाया गया था। यह स्टोरी बहुत ही पापुलर हुई।’ श्री जोशी का कहना है कि ‘माया’ की पापुलेरेटी को देखकर ही हिन्दी की ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका निकली। मेरे एक मित्र इंडिया टुडे में काम करते थे, वे बुलंदशहर में किसी रिपोर्टिंग के लिए गये तो लोगों ने कहा - अच्छा वह पत्रिका जो ‘माया’ की तरह निकली है। विभिन्न कारणों से वर्ष 2000 में ‘माया’ पत्रिका बंद हो गई। 


हिन्दी साहित्य सम्मेलन की लाइब्रेरी में ‘माया’ पत्रिका की फाइल खंगालते लाइब्रेरियन दुर्गानंद शर्मा, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ और डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी।


 सूरज नंदा का कहना है- मित्र प्रकाशन से ही बच्चों की पत्रिका ‘मनमोहन’ का भी प्रकाशन शुरू हुआ था। इसके संपादक सत्यव्रत रॉय थे। लेकिन यह पत्रिका चल नहीं पाई। वर्ष 1975 में बंद हो गई। इस पत्रिका के चित्रकार राजा हुस्न थे। ये अपने समय के बहुत ही माने हुए चित्रकार थे। 

पूर्व केंद्रीय मंत्री सलीम इक़बाल शेरवानी, पूर्व राज्यपाल मोतीलाल बोरा, मैनेजिंग डायरेक्टर आलोक मित्र और मार्केटिेग डायरेक्टर दीपक मित्र।

‘माया’ और ‘मनमोहन’ के साथ-साथ इसी प्रकाशन से ‘मनोहर कहानियां’ ‘सत्यकथा’ और साप्ताहिक पत्रिका ‘गंगा-जमुना’ निकलीं। गंगा-जमुना के संपादक रवीन्द्र कालिया थे। ‘गुफ़्तगू’ को दिए गए एक इंटरव्यू में रवीन्द्र कालिया ने बताया था-‘पिछली सदी के अंतिम दशक में मित्र प्रकाशन का आमंत्रण मिला। मित्र बंधुओं का आग्रह था कि ‘माया’ और ‘मनोहर कहानियां’ आदि के साथ-साथ एक साप्ताहिक पत्र भी प्रकाशित किया जाये। तब मित्र प्रकाशन, माया प्रेस अत्याधुनिक उपकरणों से लैस एक ऐसा प्रेस था, जो पूरे भारत को टक्कर दे सकता था। उनके यहां विश्व की नवीनतम मशीनें, स्कैनर आदि थे। उनका विश्लेषण था कि पत्रिकाओं की बिक्री के मामले में इलाहाबाद सबसे कठिन शहर है। वे इलाहाबाद को पूरे देश का एक पैमाना मानते थे। मुझसे उन्होंने कहा कि स्थानीय स्तर पर एक साप्ताहिक पत्र निकाला जाए जो इलाहाबाद के जनजीवन, राजनीति का चित्र हो, जिससे इलाहाबाद का पूरा चरित्र सामने आ सके। साहित्य, राजनीति और सांस्कृतिक स्तर पर पहले अंक से ही धमाका हो गया। कुल 5000 प्रतियां छापी गईं, जबकि 30,000 प्रतियों के आर्डर आ गए। उसका उसी रात द्वितीय संस्करण छपा। 25,000 प्रतियां और छापी गईं। स्थानीय समाचारों के अलावा एक मुख्य पृष्ठ राष्टीय समाचारों पर आधारित था। एक फीचर लोकनाथ पर था। मुट्ठीगंज का पूरा इतिहास बताया गया था। पत्र ठेठ इलाहाबादी भाषा में था। जिसका मूल्य केवल दो रुपये रखा गया था, जबकि पत्र की लागत 8-10 रुपये थी। ज़ाहिर है जितना अधिक बिकता उतना अधिक नुकसान होता। मुझसे कहा गया धीरे चलो। लोकप्रियता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि सुबह दूध के पैकेट के साथ-साथ सप्ताह में एक बार ‘गंगा-जमुना’ भी बिकने लगा। दूसरे शहरों से भी मांग आ रही थी, जबकि सामग्री केवल इलाहाबाद पर होती थी। ‘गंगा-जमुना’ इलाहाबाद के साथ-साथ देश के साहित्य, सांस्कृतिक और कला का आइना बन गया था। वैसे भी इलाहाबाद का समय भारत का मानक समय माना जाता है। इलाहाबाद की नब्ज़ देखकर आप बता सकते थे कि देश में अब क्या होने वाला है। इससे पहले कि माया प्रेस एक राष्टीय साप्ताहिक के रूप में इसे पेश करता, माया प्रेस के मालिकों के बीच उनकी मां के मरते ही मतभेद उभरने लगे। संकट यहां तक बढ़ गया कि माया प्रेस की तमाम पत्रिकाएं अंतर्विरोधों और पारिवारिक मतभेदों के कारण पटरी से उतरती गईं और प्रेस पर ताला लग गया। मैं भी इलाहाबाद छोड़कर भारतीय भाषा पर रिसर्च करने कोलकाता चला गया।’

 रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के साथ संदीप मित्र।

पत्रकार शिवाशंकर पांडेय ने बताया कि इसी प्रकाशन से अंग्रेज़ी में ‘प्रोब इंडिया’ और बंग्ला में ‘आलोक पाथ’ नामक पत्रिकाएं भी निकली थीं। संदीप मित्र ने अप्रैल 2004 में दिल्ली से फिर से इसका प्रकाशन शुरू किया। फरवरी  2007 तक इसका प्रकाशन सफलतापूर्वक जारी रहा। संदीप मित्र के मुताबिक कोर्ट के आदेश पर इसको बंद कर देना पड़ा। 

(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2024 अंक में प्रकाशित)



 

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शनिवार, 10 मई 2025

 साहित्य  का  मूल काम लोगों की सम्वेदना को उभारना है: डॉ. मुश्ताक़ अली

डॉ. मुश्ताक़ अली से बात करते अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’।


इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे डॉ. मुश्ताक़ अली ‘माया’ पत्रिका में उप-संपादक रहे हैं। इनके कार्य के लिए भारतेन्दु हरिश्चंद्र सम्मान पुरस्कार, गोस्वामी तुलसीदास सम्मान, अकबर इलाहाबादी सम्मान, बाबू गुलाबराय सम्मान और भीमसेन अलंकरण नआदि से इन्हें नवाजा जा चुका है। इनकी पहचान हिन्दी साहित्य एवं पत्रकारिता के विद्वान शिक्षक, प्रखर विचारक तथा अपने विचारों को स्पष्ट रूप से रखने लाले गंभीर वक्ता के रूप में है। आपका जन्म 15 जुलाई  सन् 1953 को राजवारी गांव, वाराणसी में हुआ है। आपने प्रारंभिक शिक्षा, अपने गांव से प्राप्त करने के पश्चात,  बीए, एमए  तथा डीफिल की उपाधि, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त किया है। अब तक आपकी सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। कई पुस्तक देशभर की यूनिवर्सिटीज़ में पढ़़ाई जाती हैं। इनके पचास से अधिक लेख देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इलाहाबाद आकाशवाणी और दूरदर्शन से, साठ से अधिक आपकी वार्ताएं, परिचर्चाएं एवं साक्षात्कार प्रसारित हो चुके हैं। एक दर्जन विद्यार्थियों ने आपके कुशल निर्देशन में डीफिल की उपाधि अर्जित की है। अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने इनसे विस्तृत बातचीत की है। प्रस्तुत है इस बातचीत पर आधारित प्रमुख अंश-


सवाल: हिंदी साहित्य की तरफ आपका रुझान कब, क्यों और कैसे हुआ?

जवाब: दरअसल हम बनारस के रहने वाले हैं। मेरा गांव बहुत छोटा सा गांव है। उसमें हमारे ही घर में पढ़ने लिखने का माहौल था। हमारे यहां पढ़ने लिखने का माहौल अदबी न होकर इस तरीके का था कि  मस्जिद में कुरान पढ़ने के लिए जाना पड़ता था। मौलवी साहब या मोअज्जिन पढ़ाते थे। बाकी माहौल, सब हिन्दी-संस्कृत का ही था। रात में भी स्कूल में पढ़ाई होती थी और खाना खाने के बाद रात आठ बजे, हम लोग स्कूल में पढ़ने चले जाते थे और दस बजे तक पढ़ते थे। टीचर साथ में रहते थे, सुबह चार बजे वो उठाते थे। लड़के उस समय नींद में रहते थे तो वो संस्कृत के श्लोक और खासकर गीता का श्लोक, त्वमामि देवः पुरुषरू पुराणा वाला श्लोक और कई श्लोक सुनाने को कहते थे, क्योंकि श्लोक याद करने से और उच्चारण करने से नींद भाग जाती थी। हिन्दी के प्रति रूझान हम लोग का गांव से ही है। यही कारण है कि हमारे बैक ग्राऊंड में हिन्दी-संस्कृत ही है।

सवाल: साहित्य का पत्रकारिता से क्या संबंध है?

जवाब: त्रकारिता दो तरह की है। एक समसामयिक पत्रकारिता है, जिसमें पत्रिकाएं वगैरह आती है और एक राजनीतिक पत्रकारिता होती है, जिसमें समाचार-पत्र मूलतः आते हैं। यद्यपि अख़बारों के रविवारीय परिशिष्ट में भी साहित्य के लिए जगह होती है, लेकिन उनका मूल उद्देश्य साहित्य का विकास नहीं होता। साहित्य में खासकर साहित्य के केंद्र में सम्वेदनाएं होती हैं। मीडिया में समसामयिक घटनाक्रम होता है। मूल बात यह है कि हर घटनाक्रम के पीछे भी कोई न कोई साहित्यिक मूल्य होता है, जैसे सम्वेदना वाला। जब हम बेरोजगारी पर या महंगाई पर बात करते हैं तो ये भी पोलिटकल विषय है, लेकिन जब हम उस बेरोजगारी और महंगाई से जो परिवार गुजर रहा है, जब हम उसकी दुर्दशा दिखाने लगते हैं और उसका चित्रण करते हैं तब वह साहित्य बन जाता है। पत्रकारिता बाहरी चीज़ों को कवर करती है, जिसका सम्वेदनाओं से बहुत मतलब नहीं होता। हालांकि अख़़बारों में भी कुछ फीचर होते हैं जैसे ‘जनसत्ता’ का शुरू से मैं पाठक था। मैं देखता था, उसके फीचर बहुत अच्छे होते थे। कई बार बहुत भावनात्मक भी होते थे। आमतौर पर किसी राष्ट्रनायक के देहावसान पर, या किसी एक्सीडेंट पर, कुछ इस तरह के फीचर वगैरह आते हैं जो बड़े भावनात्मक होते हैं लेकिन आमतौर पर सदा ऐसा नहीं होता। सम्वेदनाओं का जैसे-जैसे जीवन में स्थान कम होता जा रहा है वैसे-वैसे पत्रकारिता में भी कम होता जा रहा है। केवल चीजों का तकनीकी महत्व रह गया है। पैकेजिंग का महत्व बढ़ रहा है। भारतेंदु युग में जो भी उस समय की  पत्रकारिता में था वो ही धीरे-धीरे साहित्य में आता था। उस समय की कविताएं व्यंग्य, बहुत सारे लेख, यात्रावृत्तांत हैं, वो सब साहित्य में धीरे-धीरे आये। द्विवेदी युग तक भी आता रहा। ‘सरस्वती’ का सम्पादन जो महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 1903 से 1920 तक किया, उस दौर में भी जो साहित्यिक पत्रकारिता वो करते थे वो चीजें स्थायी मूल्य की हुई और वो पाठ्यक्रमों में भी आती रही। फिर धीरे-धीरे ये कम होता गया, लेकिन अब भी पाठ्य-पुस्तकों को बनाने का या पाठ्यक्रमों को तय करने का जो तरीका होता है उसमें पत्र-पत्रिकाओं की अपनी भूमिका रहती थी। हम कोई विषय पर कोई चीज लेना चाहें तो लोग मीटिंग्स में डिस्कस करते थे कि यह अच्छी चीज वहां छपी है इसको लेना चाहिए। उस दौर की जितनी भी कहानियां हैं प्रेमचंद, चंद्रधर शर्मा गुलेरी वगैरह की हैं। ‘उसने कहा था’, ‘मंत्र’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहकनियां, ये सब मैगजीनों से ही तो आई हैं और धीर-धीरे साहित्य का अटूट हिस्सा बन गई। अब या तो ऐसा कुछ नहीं छप रहा है, जिसको वो उसमे डायरेक्ट ले रहे हों। इसका जो प्रसार है वो दूसरी तरह का हो गया है। इसमे कुछ विचारधारा भी आ गई है। उस विचार धारा को जो जो चीज हो, चाहे जैसी भी हो, उसको ही लेंगे। मेरिट पर चयन नहीं हो रहा है।


सवाल: तेजी से बदलते वर्तमान दौर का विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम और शिक्षा स्तर  पर क्या असर है?

जवाब: दिल्ली यूनिवर्सिटी में 70 से अधिक कालेज हैं। उसका मानक बहुत अच्छा था। पहले जो आनर्स का पाठ्यक्रम होता था वो बहुत अच्छा था। इंग्लिश का जो पाठ्यक्रम था उसमें देखिए अभिज्ञान शाकुंतलम,  मृच्छकटिकम और महाभारत का शांति पर्व, इस तरीके की चीजें, इंग्लिश में भी पढ़ाई जाती थीं। लेकिन धीरे-धीरे सब तब्दील हो गया। मेरा बेटा डीयू में पढ़ता था तो उसका पाठ्यक्रम जो मैंने देखा था वैसा पाठ्यक्रम मैंने कहीं नहीं देखा। बहुत अच्छा था। पुराने लोग, पढ़े लिखे लोग थे जो इनके चयन का कार्य करते थे। आजकल बोर्ड ऑफ स्टडीज में ऐसे लोग हैं जिनका कोई संबंधित अनुभव नहीं है और मनचाहे तरीके से कार्य करते हैं। जो लोग पीसीएस वगैरह का पाठ्यक्रम बना रहे हैं, उन्होने इतने अधिक उपन्यास रख दिए हैं कि बच्चे उपन्यास पढ़-पढ़ कर परेशान हो गए हैं। पहले भी उपन्यास रखे जाते थे, लेकिन मशहूर उपन्यासकारों के चुनिन्दा उपन्यास को, प्रतिनिधित्व के लिए, एक एक रखते थे। अब कोई  दृष्टि ही नहीं, सब घालमेल हो गया है। विश्वविद्यालय में सेमेस्टर सिस्टम जब से लागू हुआ है तब से पढ़ाई का माहौल बदल गया है। पहले पढ़ाई का जो वातावरण-माहौल था वो दूसरी तरह का था। परीक्षा एक होती थी और पढ़ाई साल भर होती थी लेकिन अब हर महीने, तीसरे महीने इम्तिहान है और उसका पाठ्यक्रम सब यूनिट में बंटा हुआ है। 16 जुलाई को अगर विश्वविद्यालय खुला तो 16 जुलाई से 16 अगस्त तक दो यूनिट खत्म हो जानी चाहिए और उसका इम्तिहान उसका टेस्ट हो जाना चाहिए। लेकिन होता यह है कि 16 जुलाई को विश्वविद्यालय खुल तो जाएगा लेकिन पढ़ाई नहीं होगी। एडमिशन सहित सारे कार्य होंगे लेकिन क्लास नहीं होगा। पाठ्यक्रम धीरे-धीरे पिछड़ता जाता है। पढ़ने का ही वक्त नहीं है। पहले वाला माहौल अब नहीं है। सब बदल गया है। अब लड़के नंबर बहुत पाते हैं। नब्बे फीसदी लिट्रेचर में भी पाते हैं लेकिन आता कुछ नहीं है। पहले 60 फीसदी पाने का, बहुत मतलब होता था। 

सवाल: आपने विश्वविद्यालय के छात्रों को पत्रकारिता भी पढ़ाया भी पढ़ाया है। इस दायित्व के निर्वहन के समय छात्रों की क्या प्रतिक्रिया रही ? 

जवाब:  इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मीडिया वाला एक विभाग भी है, जो पहले पत्रकारिता और जनसंचार वाला विभाग था। हिंदी विभाग के अलावा तीन साल तक हमने वहां भी पढ़ाया है। हमको ‘माया’ में रहने की वजह से एडिटिंग वगैरह की जानकारी पहले से थी, उन लोगों ने हमको एडिटिंग सिखाने के लिए रखा था। बच्चों को सिखाते थे कि कॉपी कैसे हैंडिल करें और कैसे करेक्शन करें। दो तीन साल तक हमने वहां भी कार्य किया था। मेरा अनुभव उनके बारे में बहुत अच्छा नहीं रहा। उसकी वजह यह थी कि विश्वविद्यालय के अन्य विभागों के छात्र, अपने पाठ्यक्रम के प्रति बहुत जागरूक और गंभीर होते है,ं लेकिन पत्रकारिता वाले छात्र, कक्षा में भी ठीक से नहीं, बल्कि मनचाहे ढंग से बैठते थे। बहुत मतलब नहीं रखते थे।  वो गंभीरतापूर्वक इस विषय को नहीं पढ़ते थे।


सवाल: आपके निर्देशन में होने वाले शोध किन विषयों से संबंधित रहे हैं। पर्याप्त संख्या में शोध होने के बावजूद, आजकल देश की महत्वपूर्ण लाइब्रेरियों में भी, शोधकर्ताओं की उपस्थिति नगण्य ही रहती है। आपकी नज़र में इसका क्या कारण है ?

जवाब: म लोगों के समय, हिन्दी विभाग में रिसर्च का रुख बदल गया था। यह विमर्शों की तरफ उन्मुख हो गया। नब्बे के दशक में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, पिछड़ों का विमर्श आया। ये जो विमर्श आए उन विमर्शों ने शोध की दिशा ही बदल दी। नब्बे के बाद से ज्यादातर शोध, विमर्श पर ही हैं। जो पुरानी लाइब्रेरियां हैं उनमें विमर्श से संबंधित साहित्य नहीं है। इसका एक नुकसान यह हुआ कि ज्यादातर लाइब्रेरियां उजाड़ हो गई हैं। अब लड़कों का काम गूगल पर ज्यादा होता है। गूगल पर शोध संबंधित बहुत सी साईट है उस पर आप जाएंगे तो आपको पता चल जाएगा कि किस विश्वविद्यालय में किस विषय पर कितना शोध हो रहा है।

पहले क्या होता था कि जैसे हिन्दी अनुशीलन पत्रिका, भारतीय हिन्दी परिषद से निकलती थी। सन् 1935 में धीरेन्द्र वर्मा ने इसको शुरू किया था। इसका ऑफिस हिन्दी विभाग में था। हिन्दी अनुशीलन के बहुत सारे अंक, शोध पर निकलते  थे। पूरे देश भर भें कितने शोध कहां-कहां, किस विषय पर हुए थे, सारी जानकारी होती थी। अतः पहले मदद इस सब से ली जाती थी। इस कम्प्यूटर युग में अब हर चीज कम्प्यूटर पर है। उस पर बहुत कुछ सामग्री मिलती है लेकिन टेक्स्ट कम मिलता है। शोध करना है तो पूरा टेक्स्ट चाहिए। कम्प्यूटर पर थोड़ा-बहुत ही मिलेगा। इसलिए वो तो आपको लेना पड़ेगा शोध आधार है। बाकी जो संदर्भ वगैरह के लिए नई किताब लेनी पड़ेगी लेकिन लाइब्रेरियों में इस तरह की सामग्री, अब कम मिलती है इसलिए नये शोधकर्ताओं के लिए, ये लाइब्रेरियां अब उतनी उपयोगी नहीं रह गई  हैं। पहले शोधकर्ता को बताया जाता था कि सम्मेलन संग्रहालय जाओ। अगर आप आजकल सम्मेलन संग्रहालय जाएंगे तो शायद ही एक दो छात्र वहां आपको नज़़र आएं। हम लोग के ज़माने में, कोई भी अगर  शोध करता था तो सबसे पहले कहा जाता था, सम्मेलन संग्रहालय जाओ, वहां हर विषय पर सामग्री मिलेगी। पर अब शोध की दिशा बदल गई  है। शोध की  दिशा बदलने से पुरानी लाइब्रेरियां उजाड़ पड़ी हैं। 

सवाल: नई और निष्पक्ष विचारधारा को हिंदी साहित्य में निरंतर प्रवाहित करने के लिए आप अपने विद्यार्थियों को कैसे प्रेरित करते थे ?

जवाब: सन 2019 तक हम विश्वविद्यालय में कार्यरत थे। तब तक इतनी बंदिशे नहीं थे और हम लोग हर विषयों पर खुलकर बोलते थे। लड़कों को भी वैसे ही तैयार करते थे। लेकिन धीरे-धीरे ऊपर का दबाव बढ़ा है। अब लोग जागरूक भी हो गए हैं। हर विचारधारा के लोग क्लासों में बैठे हैं। जो बोलो, छात्र वो उसको रिकार्ड कर लेते हैं। अगर आप सत्ता के खिलाफ बोलते हैं तो वो तबका, उसे रिकॉर्ड करके आगे तक पहुंचा देता है फिर उसके खिलाफ एक्शन होता है। पहले ऐसा नहीं था। पहले हम लोग बेबाक होकर किसी भी विचार धारा पर बोलते थे। अगर आप दलित विमर्श की बात करिएगा, अल्पसंख्यक की बात करिएगा, ट्राइब की बात करिएगा तो दलित तबका बड़े ध्यान से सुनेगा। अगड़े भी चूंकि पढ़ना है तो वो भी जानना चाहते है कि हमारे बारे में दलित क्या कह रहा हैं। लेकिन पहले कोई बंदिश नहीं थी, अब हो गई है। हम लोग बहुत अच्छे समय में थे। कुछ भी बोल-बालकर निकल गए। अब कोई बोल नहीं सकता। अब तो आपने बोला नहीं कि ख़बर आगे तक पहुंच जाती है। 

बाएं से: डॉ. मुश्ताक़ अली, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ और डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी।                       


सवाल: जैसा आपने बताया कि आजकल साहित्य, विमर्श के इर्द-गिर्द घूम रहा है। इसको देखते हुए आप, नये साहित्यकारों को क्या संदेश देना चाहेंगे? 

जवाब:  चूंकि हवा में यही है और राजनीतिक विचारधारा के साथ यह जुड़ा है इसलिए इससे उलट कोई नयी बात करना, संभव नहीं है। साहित्य का काम समाज में व्याप्त सम्वेदना को देखना है और सम्वेदना दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श या जनजातीय विमर्श में भी है। उसमें मूल चीज़ तो निश्चित तौर पर विद्यमान है। जब भी आप गरीब की बात करेंगे तो अमीर अपने आप आ जाएगा। शासक की बात करेंगे तो शोषित सामने आ जाएगा। रहेगा तो दोनों तरफ, ऊपर से नाम आप चाहे जो दे दें। साहित्य का मूल काम ही सम्वेदना को उभारना है। सम्वेदनाएं जहां भी हैं, वो साहित्य का ही विषय है। अत: मुझे इसमें कोई दुराव नहीं लगता।

(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2024 अंक में प्रकाशित)


शुक्रवार, 9 मई 2025

 गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर-2024 अंक मे



3..संपादकीय (अब बुद्धिजीवी वर्ग कवि सम्मेलन सुनने नहीं आता)

4-7. मीडिया हाउस-3 -1929 से निकली 'माया' पत्रिका देशभर में छा गई - डॉ. ग़ाज़ी

8-11. खास पेशकश - समाज का अक्स हैं प्रेमचंद के अफसाने - डॉ. अब्दुर्रहमान फ़ैसल

12-13. दास्तान-ए-अदीय-4- उमाकांत जी के घर में दलित महिला बनाती थी ....- डॉ. ग़ाज़ी

14-20. गज़लें (उदय प्रताप सिंह, यश मालवीय, पवन कुमार, अनुराग मिश्र गैरश्, ओम प्रकाश नदीम, मासूम रज़ा राशदी, अरविन्द श्असरश्, डॉ. के.के.मिश्र श्इश्कश् सुलतानपुरी, शमा ‘फिरोज़’, मनमोहन सिंह श्तन्हाश्, राज जौनपुरी, मधुकर वनमाली, सीमा सक्सेना ‘वर्णिका’)

21-27. कविताएं ( अमर राग, पुष्पिता अवस्थी, बृज राज किशोर श्राहगीरश्, डॉ. प्रमिला वर्मा,, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’, डॉ. पीयूष मिश्र श्पीयूषश्, सिरोज आलम, मंजुला शरण, सीमा शिरोमणि, केशव प्रकाश सक्सेना, धीरज पाल ‘प्रीतो’, ज्योत्सना)

28-31. इंटरव्यू: साहित्य का मूल काम संवेदना को उभारना है - डॉ. मुश्ताक़ अली

32. लघु कथा (लुका-छिपी_ खलील जिब्रान, मेरा प्रेम- डॉ. प्रमिला वर्मा)

33-37. चौपाल (पत्रकारिता के लिए साहित्य कितना महत्वपूर्ण है?)

38-45. तव्सेरा 

46-47. उर्दू अदब

48-49. गाजीपुर के वीर-28: हिन्दी नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर उमाशंकर तिवारी

50-53. अदबी खबरें 


54-85. परिशिष्ट-1ः शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’

54. परिचय -शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी

55-56. सहयोगी की कविताओं में विसंगतियों, विडम्बनाओं ....- डॉ. आदित्य कुमार गुप्ता

57-60. कविताओं में समाज का सही चित्रण - जगदीश कुमार धुर्वे

61-62. शिवानन्द सिंह श्सहयोगीश् के नवगीत

63-85. शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी की कविताएं


86-115. परिशिष्ट-2 

86.वसंत कुमार शर्मा (आई.आर.टी.एस.) - परिचय

87. बसंत शर्मा की ग़ज़लों में नये-नये क़ाफिये - डॉ. रामावतार सागर

88-89.. काव्य में लोकतंत्र की चिंता और चुनौतियां - डॉ. शहनाज जाफर बासमेह

90-91.  अलग तरह के शायर हैं बसंत कुमार शर्मा - सोमनाथ शुक्ल

92-115. बसंत कुमार शर्मा की ग़ज़लें


116-144. परिशिष्ट-3 

116. सुशील खरे ‘वैभव’ - परिचय

117-118.बसजग अनुभव की सरल अभिव्यक्ति - डॉं. पीयूष मिश्र ‘पीयूष’

119. महाकाव्य रचने वाले सुशील खरे वैभवश् - अरविन्द श्असरश्

120-121 सामाजिक चेतना के प्रश्न उठाती कविताएं -डॉ. शैलेष गुप्त श्वीरश्

122-144. सुशील खरे वैभवश् की कविताएं


गुरुवार, 8 मई 2025

                       ज़िंदगी की तर्जुमानी करती ‘खुशबू’

                                                                    - डॉ. वारिस अंसारी 

   

 अदब की तमाम सिंफ़ हैं, जिसमें से एक सिंफ है अफ़साना निगारी। दरअस्ल अफ़साना निगारी देखने में तो आसान है, लेकिन अफसाने का हक़ अदा करना उतना ही मुश्किल काम है। चंद ही ऐसे लोग मिलते हैं, जिनके अफसानों से अदबी दुनिया को नाज़ होता है। उन्हीं में एक नाम इरफान अहमद अंसारी का है, जो कि एक बकामाल अफ़साना निगार हैं। ‘खुशबू’ उनका पहला मजमूआ है। इरफान अहमद का तअल्लुक शाहजहांपुर से है। जो कि शहीदों की सरज़मीन रही है, लेकिन फरहत एजाज़, मुज़फ्फर अंसारी, मीम. ऐन. गम, डॉ. इज़हार सहबाई जैसे चोटी के अफसाना निगार भी इसी सर ज़मीन से हुए हैं। दौरे-हाज़िर में इरफान अहमद अंसारी शिद्दत के साथ अफसाना निगारी का हक़ अदा कर रहे हैं। वह एक साधी पसंद अफसाना निगार हैं, इसीलिए अदबी दुनिया में नुमाया मुकाम रखते हैं। उनकी ज़बान सादा और आसान है। जिससे क़ारी (पाठक) को पढ़ने और समझने में कोई परेशानी नहीं होती। उनके अफसानों में खुदा ने वह असर बख्शा है कि पढ़ने वाले के दिलो-दिमाग पर एक कैफियत सी छा जाती है।  इसी मजमुआ (संग्रह) का पहला अफसाना ‘नई जिं़दगी’ की चांद लाइन बतौर नमूना देखते चलें-‘एक दिन की बात है घर के सब लोग शादी की तकरीब में गए हुए थे और वह लड़की किसी वजह से उस तकरीब में न जा सकी थी। घर पर ही थी। दोपहर का वक़्त था, वह सो रही थी। उसके कानों में खट-खट की आवाज़ आई और वह हड़बड़ा कर उठी। चूंकि गहरी नींद में सो रही थी। आंखें मालती हुई दरवाज़़े पर पहुंची, दरवाज़ा खोला तो वह लड़का सामने खड़ा था।’ 

   इन चंद लाइनों से उनकी सादह ज़बानी का अंदाज़ा बखूबी लगाया जा सकता है। अफ़साना निगारी के मुश्किल फ़न को उन्होंने बड़ी आसानी के साथ समाज को सौंपा जो कि अदबी दुनिया में तादेर याद किया जायेगा। इरफान अहमद अंसारी का ये अफसानवी मजमूआ ‘खुशबू’ में 136 पेज हैं जिसकी कीमत केवल सौ रुपए है। इस संग्रह में अठारह अफसाने हैं जो कि बहुत ही दिलनशीं हैं। किताब की कंपोजिंग फहीम बिस्मिल ने की है, जबकि जिल्द को हिना शकील ने अपनी आर्ट से सजाया है और इस किताब को राही प्रिंटर्स शाहजहांपुर से सन 2014 में फखरुद्दीन अली अहमद मेमोरियल कमेटी लखनऊ के माली इमदाद से प्रकाशित किया गया है ।

   इब्ने सफी और उनके किरदार


 नावेल की दुनिया में इब्ने सफी वह नाम है जिसके बारे में हिंदोस्तान पाकिस्तान ही नहीं बल्कि जहां जहां उर्दू बोली जाती है वहां-वहां उनके बारे में खूब लिखा गया और ये लिखने का सिलसिला आज भी जारी है। तैयब फुरकानी ने भी इब्ने सफी पर लिखा, लेकिन फुरकानी के लिखने का अंदाज़ सबसे जुदागाना रहा। उन्होंने इब्ने सफी के अलावा उनके नावेल में जो किरदार रहे उन पर भी लिखा और उन्होंने बड़े मुनफरिद अंदाज़ में अपना कलम चलाया। उन्होंने अपने मखसूस (विशेष) अंदाज़ और मेहनत से तहरीरी काम करके अदबी दुनिया में अपनी शिनाख्त कायम की। तैयब फुरकानी का शुमार भले ही नई नस्ल के लिखने वालों में किया जाता हो लेकिन उनके तहरीर में जो पुख्तगी (परिपक्वता) है, वह काबिले तारीफ है।  ‘इब्ने सफी किरदार निगारी और नुमाइंदा किरदार’ किताबी शक्ल में उनकी पहली कामयाब कोशिश है। इस किताब को उन्होंने चार हिस्सों में तकसीम किया है। मुकदमा के बाद पहले हिस्से में इब्ने सफी की शख्सियत और उनकी हयात पर रोशनी डाली है। दूसरे हिस्से में उन्होंने उनकी किरदार निगारी का पुर लुत्फ जिक्र किया है। तीसरे हिस्से को उन्होंने इब्ने सफी की किरदार निगारी और नुमाइंदा किरदार को अपना मरकजे सुखन बनाया और चौथे हिस्से में उन्होंने इब्ने सफी के नावेल में जो किरदार हैं उनका बड़े सलीके़ से जिक्र किया है। यही नहीं उन्होंने मर्द ,औरतों के किरदार को अलग अलग पेश किया है। उनकी ज़बान में सलासत है और आसान अल्फाज़ के इस्तेमाल भी। जिससे कारी रवानगी के साथ बिना बोझिल हुए उनके मजमून पढ़ता चला जाता है। 

नमूने के तौर पर चंद लाइन-‘शौकत की मां हमारे खानदान की न थीं लेकिन वह किसी निचले तबके से भी ताल्लुक न रखती थीं। उनमें सिर्फ इतनी खराबी थी कि उनके वालदैन हमारी तरह दौलतमंद न थे।’ नावेल नसरी किस्से के जरिए इंसानी जिंदगी की तर्जुमानी करता हैं। वह बजाए एक शायराना व जज़्बाती नजरिया ए हयात एक फलसफाना साइंटिफिक या कम से कम एक ज़हनी तनकी़द-ए-हयात पेश करता है। यह किताब स्कॉलर्स तलबा के लिए भी बड़ी कारामद साबित होगी। किताब के मुसन्निफ (लेखक) तैयब फुरकानी ने इस किताब को पश्चिम बंगाल उर्दू अकादमी के माली मदद से अंजला ग्राफिक्स से कंपोज करा कर भारत आर्ट प्रेस कलकत्ता से सन 2022 में प्रकाशित किया है। खूबसूरत हार्ड जिल्द के साथ इस किताब में 496 पेज हैं जिसकी कीमत मात्र 500 रुपया है।

(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2024 अंक में प्रकाशित)


शनिवार, 3 मई 2025

  मुशायरों के शहंशाह थे मुनव्वर राना

 पिता के नाम के साथ लगा ‘ड्राइवर’ शब्द हटाना चाहते थे

जी-तोड़ मेहनत करके व्यापार और शायरी में हुए कामयाब

                                                                    - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

 मुनव्वर राना के पिता का नाम अनवर था। अनवर साहब ट्रक ड्राइवर थे। इस काम के जरिये ही वे अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। ड्राइवर के रूप में वे काफी मशहूर भी थे। यहां तक कि उस दौर में उनके घर जब चिट्ठी आती थी तो लिफ़ाफ़े पर उनका नाम ‘अनवर ड्राइवर’ लिखा होता था। जब मुनव्वर थोड़ा परिपक्व हुए तो उनको अपने पिता के साथ ड्राइवर का लगा लक़ब बहुत ही नागवार लगता था। मुनव्वर राना के बेटे तबरेज़ राना बताते हैं कि मेरे वालिद अपने पिता के साथ लगा ‘ड्राइवर’ का लक़ब हटाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने व्यापार में जी-तोड़ मेहनत की और इस लक़ब को हटवाने में कामयाब हुए। मुनव्वर राना का नाम जब शायरी की दुनिया में उभरा तो लोग उन्हेें अनवर ड्राइवर कहने की बजाय मुनव्वर राना के पिता कहने लगे, यही मुनव्चर चाहते थे। मुनव्वर राना अपने बच्चों को पढ़ाना तो चाहते थे, लेकिन उनकी पढ़ाई की वाचिंग खुद ही पूरे तौर पर नहीं करते थे, लेकिन पढ़ाई का पूरा इंतज़ाम करते थे। जब परीक्षा का रिजल्ट आना होता था तो पहले से ही सचेत हो जाते थे। अच्छा रिजल्ट आने पर बच्चों को खूब शाबाशी देते थे।

 मुनव्वर राना

 तबरेज़ बताते हैं-‘वर्ष 1996 में शाहरूख़ ख़ान की एक फिल्म आयी थी। उसी समय चुनार में मुशायरा था। पिताजी ने हमसे पूछा कि मुशायरा में चलोगे या फिल्म देखने जाओगे ? मैंने फिल्म देखने की इच्छा ज़ाहिर की। इस पर बोले-तुम बेकार लड़के हो।’ इस घटना से मेरे उपर काफी असर पड़ा, फिर मैंने उनकी किताबें और घर में रखी दूसरे शायरों की किताबें पढ़नी शुरू की। धीर-धीरे शायरी में दिलचस्पी बढ़ी।’ शायरी से संबंधित अपने ज़्यादातर काम मुनव्वर राना रात 10 बजे के बाद करते थे। तबरेज़ बताते हैं कि अक्सर रात 11 बजे के बाद मुझे बुलाकर कहते- ‘चाय पियोगे’, मेरे ‘हां’ कहने पर बोलते-तो फिर दो कप चाय बनाओ, दोनो लोग पीते हैं। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी किताब भेंट करते मुनव्वर राना। (फोटो गूगल से साभार)

 अपने इंतिक़ाल से ठीक पहले मुनव्वर राना बीमारी की हालत में अस्पताल में भर्ती थे। उनका मोबाइल तबरेज़ से खो गया। इसके बाद डर के मारे वे अपने पिता के सामने नहीं आ रहे थे। धीरे से अपनी मां को बता दिया था कि पापा का मोबाइल खो गया है। पूरा दिन बीत गया, तबरेज़ अपने पिता के सामने नहीं आये तो उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा की तबरेेज़ कहां है? उन्होंने बताया कि मोबाइल खो जाने के डर से आपके सामने नहीं आ रहा है। इस पर उन्होंने तबरेज़ को बुलाया और कहा-‘अगर मोबाइल नहीं खोता तो मैं समझता कि तुम एक नालायक बेटे हो। पिता की बीमारी की हालत में तुम्हारा सारा ध्यान मोबाइल पर होना तुम्हारे नालायक होने का सुबूत होता। लेकिन अपने पिता की देख-रेख और इलाज़ में तुम इतने मशरूफ़ रहे कि मोबाइल खो गया। तुम नालायक बेटे नहीं हो।’

 तबरेज़ बताते हैं कि पिताजी अपने पोता उमर से बहुत प्यार करते थे। इंतिक़ाल से ठीक पहले जब मुनव्वर राना साहब अस्पताल में थे, आखि़री वक़्त था। उसी वक़्त उन्होंने तबरेज़ की तरफ़ हाथ हिलाकर ‘टा-टा’ किया। उनका इशारा था कि अब मैं इस दुनिया से जा रहा हूं। इस इशारे पर तबरेज़ ने कहा कि कैसी बात करते हैं, ज़रा सोचिए उमर का क्या होगा आपके बिना। यह कहकर तबरेज़ ने उमर को फोन लगाकर मुनव्वर राना के कान के पास मोबाइल लगा दिया। मुनव्वर ने कहा- कैसे हो उमर, तुम्हारे दादू तो अब मर रहे हैं।’ उमर ने रोनी सी आवाज़ में उनसे बात की थी।

 मुनव्वर राना जितने बड़े शायर थे, उतने हीे दिलचस्प इंसान भी थे। कई बार ऐसा भी हुआ, जब मैं टीम गुफ़्तगू के लोगों को लेकर लखनऊ उनके ढींगरा अपार्टमेंट स्थित आवास पर गया और घंटों हमलोग उनकी बात सुनें। कई बार उनके साथ खाना भी खाये।

मुनव्वर राना के इंतिक़ाल के बाद उनकी मिट्टी में शामिल मशहूर गीतकार जावेद अख़्तर

कुल मिलाकर मुनव्वर राना हमारे दौर के ऐसे शायर रहे हैं, जिनकी मक़बूलियत सर चढ़कर बोलती थी। जबकि मुनव्वर राना के अलावा बशीर बद्र, राहत इंदौरी, निदा फ़ाज़ली, शह्रयार, वसीम बरेलवी और बेकल उत्साही जैसे बड़े शायर भी हमारे ही दौर के हुए हैं, जिन्होंने ख़ासकर मुशायरों के मंच पर ख़ास मक़बूलियत हासिल की है। लेकिन इन सबमें से मुनव्वर राना इसलिए अलग हो जाते हैं कि ये आम आदमी के शायर थे। एक आम आदमी जिसको शायरी में कोई दिलचस्पी नहीं है, वह भी मुनव्वर राना का नाम ज़रूर जानता है। अब तक के सभी शायरों की बात की जाए तो ग़ालिब के बाद मुनव्वर राना ही ऐसे अकेले शायर हैं, जिनका नाम आम आदमी भी जानता है। जिस प्रकार ग़ज़ल की शायरी के लिए मीर तक़ी मीर को ग़ालिब से भी बड़ा शायर माना जाता है, लेकिन आम जनता में ग़ालिब ज़्यादा मक़बूल हैं। 

 इसी तरह हमारे दौर में मुनव्वर राना से बड़ा शायर बशीर बद्र को माना जाता है, लेकिन आम जनता में मुनव्वर की मक़बूलियत बशीर बद्र से कहीं ज़्यादा है। इसलिए मुनव्वर की अलग पहचान बनती है। मुनव्वर की एक अलग पहचान यह भी है कि इनके यहां पारंपरिक उर्दू शायरी से हटकर अलग तरह के बिंब दिखाई देते हैं। मुनव्वर से पहले आमतौर पर उर्दू शायरों के यहां गुले-बुलबुल, माशूक़ा और राजा-महाराजाओं की जी-हुजूरी ही दिखाई देती है। भारत में वली दकनी से शुरू हुई उर्दू शायरी में ख़ासकर ग़ज़ल शायरी एक कमरे की शायरी की तरह रही है। उर्दू शायरों ने माशूक़ा की प्रसंशा और राजाओं की जी-हुजूरी के बाहर कुछ ख़ास शायरी नहीं की है। इनको पढ़ने से लगता है कि उर्दू शायरी की विषय-वस्तु बहुत ही सीमित रही है। इसके विपरीत मुनव्वर के यहां समाज के लगभग हर पहलू पर बात करती हुई शायरी नज़र आती है।

मुनव्वर राना के लखनउ स्थित अवास परं बाएं से सिद्धार्थ पांडेय, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, मुनव्वर के बेटे तबरेज़ राना, और आसिफ़ उस्मानी।


‘मां’ भी शायरी की विषय वस्तु हो सकती है, यह मुनव्वर ने ही सिख़ाया है। आज हिन्दी-उर्दू का लगभग हर शायर ‘मां’ की शान में शायरी करता हुआ नज़र आता है, यह रास्ता मुनव्वर राना का ही दिखाया हुआ है। ‘मां’ के साथ-साथ भी समाज के अन्य जितने भी विषय हो सकते हैं, लगभग सभी पर मुनव्वर ने शेर कहा है। सिर्फ़ शेर कहा ही नहीं है बल्कि नये-नये मायने भी पैदा कर दिये हैं। मुशायरों के मंच  पर भी उनकी एक अलग स्टाइल और पहचान थी। आमतौर पर दूसरे शायर मंच पर आकर तरह-तरह की अदायें दिखाते हैं, तरन्नुम से लोगों का ध्यान खींचना चाहते हैं, दाद पाने के लिए तरह-तरह की जी-हुजूरी भी करते हैं। लेकिन मुनव्वर राना ने यह काम कभी नहीं किया। वे माइक पर आकर सीधा-सीधा अपना कलाम पेश करते थे। अपने कलाम के ज़रिए ही श्रोताओं की वाहवाही बटोरते थे।

(गुफ़तगू के जुलाई-सितंबर 2024 अंक में प्रकाशित )