मीडिया एक बाज़ार है उसे अपने को बेचना है: बद्री
बद्री नारायण का इंटरव्यू मोबाइल में रिकार्ड करते अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’। |
साहित्य अकादमी सम्मान से विभूषित काव्य संग्रह ‘तुमड़ी के शब्द’ और सामाजिक मुद्दों एवं भाषा तथा संस्कृति संबंधित एक दर्जन से अधिक पुस्तकों के रचयिता प्रो. बद्री नारायण तिवारी, प्रसिद्ध सामाजिक इतिहासकार और सांस्कृतिक मानवविज्ञानी हैं। वर्तमान में जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान में निदेशक के पद पर कार्यरत हैं। देश-विदेश के विभिन्न प्रतिष्ठित संस्थानों से विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में संबद्घ रहे हैं। इसके अतिरिक्त आप राष्ट्रीय महत्व के कई संस्थानों की एडवायजरी बाडी के सदस्य भी हैं। कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों पर, आपके शोध लेख, अंग्रेज़ी और हिंदी में प्रकाशित हुए हैं। ‘फैसिनेटिंग हिंदुत्व-सैफ्रान पालिटिक्स एंड दलित मोबिलाइजेशन’, ‘दलित वैचारिकी की दिशाएं’, ‘साहित्य और सामाजिक परिवर्तन’, ‘लोक संस्कृति में राष्ट्रवाद’, ‘औपनिवेशिक संस्कृति के प्रसंग’, ‘लोक संस्कृति और इतिहास’ आदि उनकी महत्वपूर्ण प्रकाशित रचनाएं हैं। अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने इनसे विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत है इसके प्रमुख अंश-
सवाल: आप इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में इतिहास के विद्यार्थी रहें हैं। परंतु आपका मुख्य कार्य सामाजिक मुद्दों से जुड़ा हुआ नजर आता है। एक इतिहासकार का अपने मूल शैक्षिक क्षेत्र से हटकर कार्य करना आपको कैसा प्रतीत होता है।
जवाब: संस्कृति, स्मृति और राजनीति, समकालीन इतिहास, सामाजिक और मानवशास्त्रीय इतिहास, दलित और निम्नवर्गीय मुद्दे और पहचान निर्माण और सत्ता की पॉलिसी/योजना पर प्रश्न मेरे रुचि के विषय हैं। वो इतिहास जो आधुनिक सोशलाजी के इतिहास का हिस्सा है, वह कंटेम्पटरी इतिहास पर आधारित है। समकालीन इतिहास, आज के समाज का अध्ययन करता है। कांटेम्पटरी को जब पास्ट के साथ जोड़कर देखता हूं तो उससे हमें और सुविधा होती है कि पास्ट की समझदारी होने के कारण समकालीन को समझने में आसानी होती है, जो अन्यथा नहीं होती है। जैसे कास्ट सेंसेज के बारे में हमने पहले ही कहा था कि कास्ट सेंसेज हमेशा डिवीजन क्रिएट करता है। कास्ट सेंसेज कभी भी होमोजिनिटी नहीं क्रिएट करता है तो उसका फायदा कांग्रेस को नहीं मिलेगा। हमने देखा कि जब पहला कास्ट सेंसेज हुआ था तो भी इतनी लड़ाईयां हुई थी। लोगों की एक दूसरे से असहमतियां थीं, क्योंकि उसमें फायदे का मामला होता है। ओबीसी को मिला, इवीसी को नहीं मिला, किसी को फायदा मिला किसी को नहीं मिला। इसकी विवेचना पास्ट की समझदारी के कारण ही संभव है। अगर बिना पास्ट को समझे, सिर्फ आज को समझने की कोशिश की जाएगी तो गलती होने की आशंका बहुत बढ़ जाएगी।
सवाल: एक शिक्षक के रूप में आप दलितों के सामाजिक विकास जैसे चुनौतीपूर्ण कार्य में आप अपने आप को कैसे जोड़कर देखते हैं।
जवाब: किसी दूसरे समुदाय एवं भिन्न परिवेश में रहकर अन्य समुदाय पर अध्ययन करना और लिखना बहुत कठिन और चुनौतीपूर्ण होता है, लेकिन उसी से न्यूट्रल आबजर्वेशन भी निकलता है। अगर हम उस समुदाय के होते और खुद ही अपने समुदाय पर अध्ययन करते तो बहुत सारी गलतियां हो सकती हैं। हमारा पूर्वाग्रह एवं बायसनेस इन्वाल्व होता जो निरपेक्षता को प्रभावित करता। मगर जब हम बाहर से देख रहे होते हैं तो समाज विज्ञान या साइंस की दृष्टि से एक तरह की निरपेक्षता आती है। लेकिन उसमें एक समस्या यह होती है कि फिर उस समुदाय के लोग कहते हैं कि आप तो हमारी जाति-समाज के नहीं है, फिर आपको, हमारी बातों, समस्याओं पर बोलने का क्या अधिकार है। अब अगर हर आदमी अपने बारे में ही बोलेगा, अपने पर ही अध्ययन करेगा तो फिर समाज पर कौन लिखेगा। अध्ययन दूसरे पर भी होता है, साहित्य भी दूसरे का लिखा जाता है। साहित्य में अगर हम हमेशा अपने पर ही कविता, कहानी, लेख लिखते रहेंगे तो यह तो पूर्णता नहीं होगी। समाज विज्ञान के पास जो डिवाइस है, जिससे वह समाज को समझता है वो आबजर्वेशन तो दूसरा ही करेगा। जब अपना सेल्फ आबजर्वेशन करना होगा तो आपको दर्शन में जाना पड़ेगा। साहित्य के पास एक और डिवाइस होती है जिसे इम्पैथी कहते हैं। इम्पैथी से आप इस कार्य को कर सकते हैं। मेरा जन्म तो उस जाति समाज में नहीं हुआ है पर हम उस परिस्थिति में अपने को रखकर, एक तरह के परकाया प्रवेश से उन चीजों को समझते हैं। लेकिन अब आज की स्थिति में तो इम्पैथी का स्पेश ही खत्म हो रहा है। लोग कहते हैं आप हमारे वर्ग के नहीं हो तो आप हम पर कैसे लिख रहे हो। अगर इम्पैथी ही खत्म हो जाएगी तो साहित्य ही खत्म हो जाएगा। साहित्य तो हमेशा दूसरों को ऐड्रेस करता है।
सवाल: भाषा एवं विभिन्न बोलियों के उत्तरोतर विकास एवं उनकी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान को आगे बढ़ाने के कार्य में आपका क्या योगदान है ?
जवाब: हम लोगों ने उत्तर प्रदेश की भाषाओं और बोलियों पर अध्ययन किया है जो कई वाल्यूम में प्रकाशित हुआ है, यह एक एकेडमिक कंट्रीब्यूशन है। भाषा के लेवल में जो उसका पालिसी पर इम्पैक्ट है, उसमें हम लोगों का ज्यादा हस्तक्षेप नहीं है। लेकिन एकेडमिक कार्यों के लिए एक अध्ययन है जो डाक्यूमेंटेड हो गया है।
सवाल: हिंदी और उर्दू के साथ-साथ अवधी, बृज, भोजपुरी, बुंदेली, एवं अन्य सहायक भषाओं या बोलियों के आपसी रिश्ते के बारे में आपका क्या विचार है?
जवाब: इनके बीच आपसी रिश्ता, लेन-देन का रहा है। भाषाएं तभी आगे बढ़ती हैं जब वो संवाद की स्थिति में होती हैं। कोई भाषा अगर अपने आप पर ही विकास करना चाहती है तो वह खत्म हो जाती है। भाषाओं की शक्ति इस बात पर निर्भर करती है कि वह दूसरी भाषाओं से कितना संवाद कर सकती है। सामूहिक विकास से ही सबका विकास होता है।
सवाल: पर्यावरण और संस्कृति के क्षेत्र में ‘गंगा गैलरी’ में आपका कार्य काफी महत्वपूर्ण रहा है। इस क्षेत्र में अपने किए गये कार्य के बारे बताइए।
जवाब: संस्थान परिसर में ही ‘‘गंगा गैलरी’ है जिसे एक म्यूजियम का रूप दिया गया है। गंगा के किनारे रहने वाले विभिन्न समुदायों जैसे नाई, कुम्हार, साधु, पंडे आदि हैं। इनके जीवन और सामाजिक संबंध को उसमें दर्शाया गया है। यह परिसर, सभी लोगों को देखने के लिए, बनाया गया है।
सवाल: आप विभिन्न संस्थानों की एडवायजरी बाडी जैसे सेंटर आफ गांधीयन स्टडीज इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, यूजीसी नामिनी सेंटर फॉर इकसक्लूजन एण्ड इन्क्लूसिव पालिसी उत्कल यूनिवर्सिटी भुवनेश्वर, इग्जेक्युटिव कौन्सिल उर्दू अरेबिक पर्सियन यूनिवर्सिटी उत्तर प्रदेश सरकार, एडवायजरी बोर्ड आफ भोजपुरी अध्ययन केंद्र हिंदी विभाग काशी हिंदू यूनिवर्सिटी वाराणसी संस्थानो में रहे हैं। इन विभिन्न एडवायजरी पोजीशनों में आपके कार्य का रूप कैसा रहा है। और आपके विभिन्न एडवायसों तथा उनके इंप्लीमेंटेशन से समाज तथा भाषा के विकास में अपने रोल को लेकर आप कहां तक आप संतुष्ट हैं ?
जवाब: इसमें कोई संतुष्टि या असंतुष्टि का सवाल नहीं है। हम लोग अपनी बात कहते हैं वो बातें कई बार मान ली जाती हैं। कई बार बहुमत असहमत होता है। अन्य लोग उससे सहमत नहीं होते। डेमोक्रेसी तो यही है कि आपकी बात मानी गई तो ठीक, नहीं मानी गई तो भी ठीक। चार लोग अगर आपकी बात से असहमत हैं तो आप अपनी बात अंदर दबा तो नहीं सकते। सरकार का जहां तक सवाल है, सरकार की जो पॉलिसी होती है, उसका हम लोग इवैल्युएशन करते हैं। मल्टीलेवल फीडबैक है। बहुत सारे लोगों में हम भी एक इवैल्युएटर हैं अन्य लोग भी इवैल्युएटर हैं। उस पर हम जो सुझाव देते हैं, उनको एक खास स्तर तक मान लिया जाता है। हम बहुत ज्यादा कामना भी नहीं कर सकते हैं। हम कहते हैं कि आप यह योजना बंद कर दीजिए, परिवर्तित कर दीजिए, योजनाबद्ध कर दीजिए।
सवाल: देश विदेश के विभिन्न यूनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप मे आपके व्याख्यान होते रहते हैं। विदेशी यूनिवर्सिटी/संस्थानों में अपने व्याख्यान के दौरान हुई किसी विशिष्ट/महत्वपूर्ण घटना के बारें में बताइए।
जवाब: हमारे लिए यह एक काम है। हम लोगों के लिए बाहर जाकर शोध-पत्र पढ़ना या लेक्चर देना, अपनी बातों को कहने का एक अवसर है। कई बार लोग उसको एप्रीसिएट करते हैं, कई बार कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। यह सब तो होता रहता है। बाहर भी, भारत को लोग अच्छी तरह से जानते हैं चोट लगने वाली कोई बात नहीं होती, हर्षित करने वाली ही बात होती है।
सवाल: आपकी एक दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इन पुस्तकों में से किस पुस्तक को सामाजिक या साहित्यिक दृष्टिकोण से सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं और अपनी इस पुस्तक के बारे में संक्षिप्त रूप से हमारे पाठकों को कुछ बताइए।
जवाब: ‘तुमड़ी के शब्द’ मेरा कविता संग्रह है। जिसको अभी साहित्य अकादमी एवार्ड मिला है। यह मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक है। फिर उसके अलावा दलित मुद्दे पर मैंने जो भी काम किया है वह भी बहुत महत्वपूर्ण है। दलित अभिकथन और आकर्षक हिदुत्व भी बहुत प्रिय एवं महत्वपूर्ण है।
सवाल: कहा जा रहा है कि वर्ष 2014 के बाद साहित्य लेखन और पत्रकारिता में एक तरह का बड़ा बदलाव आया है। आप इसको किस रूप में देखते है ं?
जवाब: बदलाव नहीं है। मेरा मानना है कि समय बदल रहा है तो पत्रकारिता और साहित्य तो समय का अध्ययन करेगा और लिखेगा ही। आपका काम तो यही है कि समय के साथ-साथ समय को रिस्पांड करना। अगर अब समय ही ऐसा है जो आपके हाथ और वश में नहीं है। परिवर्तन का समय है, अलग परिस्थितियां बन गई है। उसमें कोई क्या कर सकता है। लोग कहते हैं, मीडिया पर बहुत दबाव है। लेकिन यह वही मीडिया है जो राहुल गांधी की भारत यात्रा को बहुत अच्छे से प्रोजेक्ट करता है। मीडिया को तो बेचना है। आपकी ख़बरों को अगर अच्छे से बेच पाएगी तो आपको बेचेगी, हमारी ख़बरों को बेच पाएगी तो हमें बेचेगी। यह इस पर डिपेंड करता है कि आप अपने को कैसे इवाल्व करते हो। उसको अन्य पार्टियों को भी बेचना है। उसको मुद्दे खड़े करना है। आप बेहतर जानते हो। साहित्य में भी यही हाल है। लोग अक्सर कहते हैं गोदी मीडिया, मोदी मीडिया। मगर ऐसा कुछ नहीं है। मीडिया एक बाजार है उसको अपने को बेचना है, जो बाज़ार में बिक रहा है उसे वह बेचेगी। अपने को कलरफुल बनाइए, आपको भी बेचेगी। राहुल गांधी ने भारत यात्रा को कलरफुल बनाया तो मीडिया ने लगभग 80 प्रतिशत कवरेज किया। अगर बीजेपी की खबर बिक रही है तो मीडिया बेचेगी, आप बिक सकते हो तो आपको बेचेगी।
सवाल: आपके विचार से भाषा का धर्म से कोई संबंध है ?
जवाब: भाषा का संबंध धर्म से ऐसे होता है कि धार्मिक उपदेश किसी भाषा में ही गढ़े जाते हैं। भाषा कम्युनिकेशन का माध्यम है, धार्मिक विचारों के संप्रेषण मैं भाषा मदद करती है। भाषा जिसके हाथ में होगी उसकी तरह से वह आगे बढ़ेगी।
सवाल: आज के हिन्दी, उर्दू साहित्य में सामाजिक परिस्थितियों के चित्रण को आप किस दृष्टि से देखते हैं और वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों/सौहार्द को सुधारने मे यह और कैसे मददगार हो सकते हैं?
जवाब: समाज में सौहार्द तो हमारी मूल आत्मा है। वो बीच बीच में खंडित-विखंडित होती रहती है, लेकिन वो लौटकर फिर आ जाती है। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। मूलतः समाज का व्यक्ति मिलन-जुलन, आदान-प्रदान का आदी है, उसको आप रोक नहीं सकते। यह रबर की तरह है, आप खीचते हैं तो यह खिंच जाता है परंतु छोड़ते ही, लौटकर वापस अपनी जगह पर पुनः आ जाता है। फाउंडेशन ऑफ सोसाइटी वही है। सोसाइटी वहीं पहुंचेगी, भले ही बीच में डेविएशन आए।
सवाल: नौजवानों में हिंदी साहित्य के पठन-पाठन एवं सृजन के प्रति निरंतर घटते रुझान के संबंध में आपको क्या महसूस होता है ?
जवाब: यह बहुत गलत एवं चिंताजनक है। हिंदी लेखन को महत्व देना चाहिए। हालांकि हिंदी का पाठक वर्ग भी धीरे-धीरे बढ़ रहा है। अंग्रेजी का डामिनेंस, खत्म होना चाहिए। जब तक भारतीय भाषाओं का साहित्य चिंतन एवं विचार, समाज का चिंतन नहीं बनेगा तब तक भारतीय समाज आत्मनिर्भर नहीं हो पाएगा।
सवाल: नये साहित्यकारों के लिए आपका क्या संदेश है ?
जवाब: संदेश, उपदेश तो बाबा लोग देते हैं। मेरा अपने लिए संदेश है कि रुककर या खड़े होकर बदलते हुए समाज को नहीं समझा जा सकता है। आपको समय के साथ, इस बदलते समाज को गहरे ढंग से अध्ययन कर, समझना होगा और प्रभावित तथा प्रेरित होकर लिखना होगा। लेकिन यह मैं अपने लिए ही कह रहा हूं, दूसरों के लिए नहीं।
(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2024 अंक में प्रकाशित )
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