शनिवार, 18 जनवरी 2025

मिल्लत के मसीहा मौलवी आसिम बिहारी


                                                                  - डॉ. वारिस अंसारी  

     


                                         

 मौलवी अली हुसैन आसिम बिहारी साहब जंगे-आज़ादी का वह मोतेबर नाम है, जिसको आज़ादी का बुनियाद कहा जाए तो गलत नहीं होगा। क्योंकि इस पसे-मंज़र में महात्मा गांधी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, अब्दुल कय्यूम अंसारी व दीगर तमाम मुजाहिदीन-ए-आज़़ादी को पूरी दुनिया जानती है। लेकिन इनके साथ-साथ तमाम ऐसे जांबाज़ हुए हैं, जिन्होंने आज़ादी के लिए अपना तन, मन, धन सब कुछ कुर्बान कर दिया और यही लोग आज़ादी की बुनियाद हैं। इन्हीं में एक नाम मौलवी अली हुसैन आसिम बिहारी का भी नाम है। ज़रूरत इस बात की है कि इन मुजाहिदों के नाम भी तारीख (इतिहास) में शामिल होने चाहिए, जिससे आने वाली नस्लों को भी इन अज़ीम लोगों के किरदार के बारे में भी पता चल सके। 

   किताब ‘मौलवी अली हुसैन आसिम बिहारी’ में उनकी हयात व कारनामों पर रोशनी डाली गई है। एम डब्ल्यू. अंसारी लिखते हैं कि मौलवी साहब ने अपनी पूरी जिं़दगी कौम व मिल्लत और पसमांदा मुस्लिम समाज के लिए ही सर्फ की। उन्होंने मजदूरों, किसानों की आवाज़ उठाई। पसमांदा तबके की तालीम व तरबियत पर ज़ोर दिया। इस किताब में एम. ए हक़ मौलवी साहब के हुस्न सुलूक और किरदार के बारे में तहरीर करते हैं ‘किसी को माफ कर देना सबसे बड़ी कुर्बानी है जो हर किसी के बस की बात नहीं। बड़ी गोदाम में दो अफराद (दो व्यक्ति) की लड़ाई में सुलह कराने में मौलवी साहब को एक आदमी ने उनके सीने में कैंची से वार कर दिया। जहां से उसे जेल भेज दिया गया। ज़़ख्म गहरे होने की वजह से मौलवी साहब को कई हफ्ते अस्पताल में गुजारना पड़ा। मुजरिम मौलवी साहब का पड़ोसी था, मौलवी साहब उसकी माली हालात से भी वाकिफ थे, इसलिए वह उसकी बेवा मां की खामोशी से मदद करते रहे। जब वह मुजरिम जेल से एक साल बाद वापस आया तो मौलवी साहब के कदमों पर गिर पड़ा, माफी मांगी। कौम के इस हमदर्द ने उसे अपने सीने से लगा कर माफ कर दिया। 

  पूरी किताब में मौलवी साहब के किरदार के बारे में तेईस लोगों की तहरीरें हैं, जो कि कबीले-दीद व दाद हैं। हार्ड जिल्द के साथ 168 पेज की इस किताब को एम. डब्ल्यू. अंसारी ने मुरत्तिब (संपादित) किया है। सरे वरक की डिज़ाइनिंग सैयद असद अली वास्ती ने और किताब की कंपोजिंग अंसारी सबीहा अतहर ने किया है। न्यू प्रिंट सेंटर दरियागंज, नई दिल्ली से प्रकाशित इस किताब की कीमत सिर्फ 200 रुपए है।


 शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी की अदबी खि़दमात




 दुनिया-ए-अदब में मरहूम शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का नाम किसी तअरुफ (परिचय) का मोहताज नहीं है। उन्होंने इस दारे-फानी में 15 जनवरी 1935 से 25 दिसंबर 2020 तक यानी 85 बरस तक सफर किया। उन्होंने बालिग होने के बाद उर्दू अदब के लिए जो काम अंजाम दिया वह रहती दुनिया तक याद किया जाएगा। ‘नक़्श-ए-नव; (2020 दृ 2021) ने बड़े ही सलीके से उनकी सहाफत, शायरी और तनकीदनिगारी पर उनकी अदबी खिदमात को समोया है। दरअसल ‘नक़्श-ए-नव’ हमीदिया गर्ल्स डिग्री कालेज प्रयागराज ( इलाहाबाद यूनिवर्सिटी) का सालाना उर्दू जरीदह (पत्रिका) है, जिसकी संपादक मोहतरमा नासेह उस्मानी हैं, जबकि एज़ाज़ी मुदीर  प्रो. अब्दुल हक और उप संपादक मोहतरमा ज़रीना बेगम हैं। 

पूरे रिसालह में लगभग पच्चीस लोगों ने अपने इज़हार-ए-ख़्याल पेश किया है। जिसमें फ़ारूक़ी साहब की हयात और अदबी खिदमात पर रोशनी डाली गई है।  प्रो. सेराज अजमली, प्रो. असलम जमशेदपुरी, शाज़िया गुलाम अंसारी, डॉ. इब्राहिम अफसर, डॉ. अरशद जमील जैसे तमाम अदबी शख़्सियात की मुस्तनद राय मौजूद है। अपनी बात में रिसालह की संपादक नासेह उस्मानी कहती हैं-शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी आसमान-ए-उर्दू के ऐसे ताबनाक (रौशन) सूरज थे, जिसकी रौशनी रहती दुनिया तक कायम रहेगी। वह खुश अख़लाक और हमदर्दी का पैकर थे। वह इतनी बुलंदी पर होते हुए भी अपने अज़ीज़ो, रिश्तेदारों और अहबाब से बहुत ही खुश मज़ाजी से मिलते थे।’ रिसालह में डॉ. आसिम शानावाज़ शिबली ने एक बहुत ही खूबसूरत नज़्म ‘फ़ारूक़ी-नामा’ भी पेश की जो कि काबिले-तारीफ़ है। प्रो. अली अहमद फ़ातमी ने शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी की अकबर शानासी पर चर्चा करते हुए लिखा है कि ‘फ़ारूक़ी ने अकबर को दिमाग से कम बल्कि दिल से ज्यादा पढ़ा और समझा है। यूं तो वह एहतेशाम हुसैन और आल अहमद सुरुर से भी मुतासिर (प्रभावित) थे, लेकिन अकबर इलाहाबादी उनके दिलो-दिमाग में छाए रहे और यही दीवानगी उनकी नई तस्वीर पेश करती है।’ और आखिर में ज़रीना बेगम की नज़्म ‘खिराज-ए-अकीदत’ भी क़ाबिल-ए-दीद है। 

  यूं तो पूरा रिसालह पढ़ने काबिल है और नई नस्ल के तालिब ए इल्म के लिए तो बड़े ही काम का रिसालह है बहुत ही सादह और खूबसूरत कवर के साथ रिसालह 319 पेज पर मुश्तमिल है, जिसे उर्दू विभाग हमीदिया गर्ल्स डिग्री कॉलेज, प्रयागराज से प्रकाशित किया गया है, जब की कंपोजिंग शाजिया गुलाम अंसारी ने की है। रिसालह की कीमत सिर्फ 100 रुपए है।

( गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2023 अंक में प्रकाशित )

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