इलाहाबाद के महत्वपूर्ण व्यक्तियों का विवरण
-अजीत शर्मा ‘आकाश’
इलाहाबाद का एक शानदार अतीत रहा है। यहां के निवासी स्वयं को अत्यन्त गर्व से इलाहाबादी कहते हैं, क्योंकि प्राचीन काल से ही साहित्य एवं संस्कृति की यह नगरी गंगा-जमुनी तहज़ीब की साक्षी रही है। पुराने समय के इलाहाबादियों ने अपनी उल्लेखनीय उपलब्धियों के माध्यम से प्रदेश, देश एवं विश्व स्तर पर इस शहर की ख्याति में निरन्तर वृद्धि की है, जिनके विषय में विभिन्न माध्यमों से जानकारी उपलब्ध है। उनके समय के बाद भी इलाहाबाद की श्रीवृद्धि करने में अनेक लोगों का अमूल्य योगदान रहा है, किन्तु उनके विषय में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। शायर एवं पत्रकार इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की ‘21वीं सदी के इलाहाबादी’ नामक पुस्तक में वर्तमान इलाहाबाद के ऐसे ही कुछ महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय व्यक्तियों के विषय में जानकारी उपलब्ध करायी गयी है।
21वीं शताब्दी के इलाहाबाद के महत्वपूर्ण व्यक्तियों को लेकर इस पुस्तक को तैयार करने के लिए एक टीम बनाकर प्रत्येक क्षेत्र के लोगों पर सर्वे कराया गया, जिसके पश्चात् उन 106 व्यक्तियों का चयन किया गया, जिन्होंने अपने विशिष्ट कार्यों से अपनी एक अलग पहचान बनायी है तथा इलाहाबाद शहर को ख्याति प्रदान की है। इनमें से कुछ व्यक्ति जन्म से इलाहाबाद के निवासी हैं और कुछ व्यक्ति अन्य स्थानों से आकर इलाहाबाद में रहने लगे हैं। जिन महत्वपूर्ण लोगों का निधन वर्ष 2000 या उससे पहले हो गया था, उनको इस पुस्तक में सम्मिलित नहीं किया गया है, क्योंकि उनके विषय में पहले से ही जानकारी उपलब्ध है। पुस्तक में सम्मिलित करने हेतु चयन किये जाने के उपरान्त उक्त सभी 106 लोगों के घर जाकर उनके जीवन परिचय एवं विशिष्ट कार्यों का विवरण एकत्र कर उनके विषय में जानकारी एकत्र की गयी। लेखक के अनुसार यह एक श्रम साध्य कार्य था, जिसे पूर्ण करने में लगभग सात-आठ वर्षों का समय लगा।
‘21वीं सदी के इलाहाबादी’ नामक इस पुस्तक के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्य करने वाले उल्लेखनीय व्यक्तियों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। साहित्य के क्षेत्र में अमरकांत, लक्ष्मीकांत वर्मा, शम्सुर्रहमान फ़़ारूक़़ी, नासिरा शर्मा, मार्कंडेय, कैलाश गौतम, हरीश चन्द्र पाण्डे, राजेंद्र कुमार, सय्यद अक़ील रिज़वी, मार्कण्डेय, दूधनाथ सिंह, लाल बहादुर वर्मा, जगन्नाथ पाठक, नीलकांत, अली अहमद फ़ातमी, डॉ. असलम इलाहाबादी, अनिता गोपेश, यश मालवीय और नायाब बलियावी आदि, राजनीति में-कामरेड ज़ियाउल हक, केशरीनाथ त्रिपाठी, सलीम इक़बाल शेरवानी, रेवती रमण सिंह और अनुग्रह नारायण सिंह, खेल क्षेत्र में- भारत भूषण वार्ष्णेय, अभिन्न श्याम गुप्ता, मोहम्मद कैफ, यश दयाल, पत्रकारिता- वी.एस.दत्ता, प्रेमशंकर दीक्षित, मुनेश्वर प्रसाद मिश्र, चिकित्सा क्षेत्र में- डॉ. राज बवेजा, डॉ. कृष्णा मुखर्जी, डॉ. वन्दना बंसल, डॉ. प्रकाश खेतान, न्याय के क्षेत्र में- न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त, गिरिधर मालवीय, गिरीश वर्मा, व्यापार- श्यामाचरण गुप्ता, शिक्षा में सय्यद अक़ील रिज़वी के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों के आसिफ़ उस्मानी, बादल चटर्जी, एवं अमिताभ बच्चन आदि का विवरण सम्मिलित किया गया है। पुस्तक के अन्त में गुफ़्तगू परिवार के संरक्षकों तथा कार्यकारिणी सदस्यों का परिचय है।
इस पुस्तक में 21वीं सदी के इलाहाबाद के विकास की एक झलक परिलक्षित होती है तथा यह महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय व्यक्तियों का विवरणं एक स्थान पर उपलग्ध कराती है। कहा जा सकता है कि इलाहाबाद शहर को लेकर शोध करने वालों तथा इलाहाबाद की गंगा-जमुनी संस्कृति के पोषकों के लिए यह संग्रहणीय पुस्तक है। इसे पुस्तकालयों में रखा जा सकता है, जिससे जन सामान्य को भी इस विषय में जानकारी प्राप्त हो सके। पुस्तक का मुद्रण एवं गेट अप उत्तम कोटि का है तथा कवर पृष्ठ आकर्षक है। व्यक्तियों के विवरण के शीर्षक में नाम के साथ कोष्ठक में जन्म एवं निधन का वर्ष अंकित किया जाता, तो और बेहतर होता। गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित की गयी 240 पृष्ठों की इस सजिल्द पुस्तक का मूल्य 500 रुपये है।
छन्दबद्ध काव्य-रचनाओं की प्रीति-धारा
डॉ. वीरेन्द्र कुमार तिवारी की पुस्तक ‘प्रीति-धारा’ में उनके 93 गीतों का संग्रह है। वर्ण्य विषय की दृष्टि से संग्रह की रचनाओं में श्रृंगार एवं प्रणय, वर्तमान समाज का चित्रण, जीवन की अनुभूतियाँ तथा संवेदनाएं, सामाजिक सरोकार आदि को अभिव्यक्ति प्रदान की गयी है। रचनाएं हिन्दी साहित्य के रहस्यवाद एवं छायावाद से प्रेरित प्रतीत होती हैं तथा अधिकतर गीत-रचनाओं में दार्शनिकता झलकती है। पुस्तक में प्रमुख रूप से अध्यात्म एवं ईश्वर के प्रति पूर्ण आस्था के भावों से युक्त रचनाओं को स्थान प्रदान किया गया है। प्रेम का निरूपण, अन्तःकरण की शुद्धता, त्याग की भावना तथा पारमार्थिक सत्य की आवश्यकता को गीतों में रेखांकित करने का प्रयास किया गया है। रचनाओं की भाषा शुद्ध साहित्यिक हिन्दी है, जिसमें परिनिष्ठित एवं संस्कृत शब्दावली का प्रयोग भी है। तत्सम शब्दों के साथ तद्भव तथा देशज शब्द भी हैं और उर्दू भाषा के शब्दों के प्रयोग से भी परहेज़ नहीं किया गया है। गीत-रचनाओं में सरलता, सहजता एवं बोधगम्यता है, किन्तु कुछ स्थलों पर दार्शनिकता का पुट होने के कारण सामान्य पाठक के लिए भावों की सम्प्रेषणीयता बाधित-सी प्रतीत हो सकती है। शिल्प की दृष्टि से छन्द विधान एवं छन्दानुशासन के अनुसार रचनाएं की गई हैं। यद्यपि कुछ रचनाओं में शिल्पगत त्रुटियां भी दृष्टिगोचर होती हैं, यथा छन्द की किसी पंक्ति में ‘आप’ का इस्तेमाल और दूसरी पंक्ति में ‘तुम’ का प्रयोग जैसा दोष कहीं-कहीं आ गया है। तुकान्तता सम्बन्धी दोष भी कुछ रचनाओं में हैं, किन्तु सृजनात्मकता एवं रचनाधर्मिता की दृष्टि से गीत-रचनाएं सराहनीय हैं। पुस्तक में सम्मिलित कुछ गीतों की झलक प्रस्तुत हैः। साहित्यिक भाषा का प्रयोग- चंचल मन उद्वेलित करता/उठतीं उर अम्बुधि में लहरें। है अन्तःकरण क्षुब्ध निशि-दिन/ फिर चित्तवृतियाँ क्यों ठहरें। सुन वेणु-गीत मन हिरन मगन (‘तू गीत सुनाए या गीता’)। रहस्यवाद-यह सृष्टि उसी की लीला है/बाहर-भीतर वह समाविष्ट। अन्तर्यामी स्वरूप कैसा/बाहर विराट तो है अदृष्ट।वन-वन कर भ्रमण, थके हारे/अब अन्तर्मन में देखेंगे (‘मन की आँखों से देखेंगे’)। देश प्रेम- जननी जन्मभूमि को माना गया स्वर्ग से बढ़कर (‘देश पुरूष’)। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य उल्लेखनीय पंक्तियाँ- काम-क्रोध-लोभ के फन्दे में जकड़ा मैं भूल गया।दोषी जग ही नहीं, हूँ मैं भी, सत्य सनातन भूल गया। (‘सत्य सनातन’)। प्रीति-धारा के अभाव में प्रेम की शक्ति क्षीण होती जा रही है। अतः रचनाकार की कामना है कि प्रीति-धारा सतत प्रवाहित होती रहे, इसका प्रीतिरस कभी सूखने न पाये। गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित इस सजिल्द पुस्तक की कीमत 200 रुपये है।
वर्तमान सामाजिक जीवन से जुड़ी लघुकथाएं
डॉ. मधुबाला सिन्हा के लघुकथा संग्रह ‘अब और नहीं’में उनकी 51 लघुकथाएं संग्रहीत हैं, जिनका कथ्य एवं विषय हमारे आज के सामाजिक जीवन से जुड़ा हुआ है। कथा साहित्य में लघुकथा एक नई विधा के रूप में पाठकों के समक्ष आयी है, जिसका प्रचलन भारतेन्दु युग (1857-1908) से प्रारम्भ होना माना जाता है, जब कहानियों को उनका आकार छोटा कर लघुकथा के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। वर्तमान समय में लघुकथा के शिल्प एवं आकार में पर्याप्त परिवर्तन हो चुका है। लघुकथा लेखन समय का वास्तविक शब्दचित्र पाठक के समक्ष रखते हुए उसे सोचने पर विवश करता है। इस संग्रह की लघुकथाओं में जीवन के विभिन्न रंग दिखायी देते हैं। इनमें आम आदमी का जीवन संघर्ष, प्रेम, विश्वास, आस्था और समर्पण के भाव हैं तथा हमारे आज के सामाजिक जीवन को चित्रित करने का प्रयास किया गया है। लघुकथाओं के विभिन्न कथानकों के माध्यम से सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त अनेक विसंगतियाँ को उजागर करने की चेष्टा की गयी है। आर्थिक विषमता, भ्रष्टाचार, समाज में घटित होने वाले अपराध, दायित्वों के प्रति कर्तव्यहीनता एवं मानव की स्वार्थपरता के आज के दौर को उसके निदान हेतु सन्देश प्रदान किये गये हैं। विभिन्न कथानकों के माध्यम से किसी न किसी समस्या को दर्शाकर उसके समाधान का मार्ग ढूँढ़ते हुए एक अच्छे समाज के निर्माण हेतु रचनाकार द्वारा किया गया प्रयास इनमें परिलक्षित होता है। लघुकथाओं का कथ्य आम जन तथा रोज़मर्रा की घटनाओं से जुड़ा हुआ है। कथानक की संरचना के अनुसार भाषा-शैली का प्रयोग किया गया है। संवाद-योजना भी देश, काल एवं परिस्थिति के अनुरूप है। किन्तु, पुस्तक में संग्रहीत कुछ रचनाएँ अनावश्यक विस्तार के कारण लघुकथा न होकर छोटी कहानी जैसी प्रतीत होती हैं। आकारगत लघुता’ लघुकथा की एक विशेषता है। इस दृष्टि से कुछ लघुकथाओं में फालतूपन आ गया है। इसके अतिरिक्त अनेक स्थानों पर वर्तनीगत अशुद्धियाँ परिलक्षित होती हैं यथा- गमगिन, उदिप्त, ठंढ, सक्ष्म, इक्छा, गन्तब्य, ख़्याल, बर्षों, झंझावत, सहभागीता आदि। अनुस्वार सम्बन्धी त्रुटियों की तो भरमार है। इसके अतिरिक्त यह भी प्रतीत होता है कि रचनाकार ने वाक्य-विन्यास तथा भाषा एवं व्याकरण के प्रति सजगता का परिचय प्रदान नहीं किया है। सर्व भाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित 110 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 200 रूपये है।
ग़ज़ल इस्मत बचाए फिर रही है
डॉ. एम.डी. सिंह का ‘रोज़नामचा’ ग़ज़लनुमा रचनाओं का संग्रह हैं। रचनाकार ने इस संग्रह की भूमिका में लिखा है, कि ‘‘इरादतन ग़ज़लें नहीं कहता ये कहलवा लेती हैं गला पकड़ कर। सही मायने में तो ये अक्सर ग़ज़लें नहीं लगतीं।“ वस्तुतः, यह सच कहा गया है। संग्रह की रचनाएं ग़ज़लों के विकृत स्वरूप में हैं, जिनके शिल्प की कसौटी पर खरा उतरने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। ये ‘ग़ज़लनुमा’ रचनाएं अपने अधकचरेपन एवं अनगढ़पन के साथ उपस्थित हैं। संग्रह की अधिकतर रचनाओं में सपाटबयानी से ग्रसित है तथा काव्यात्मकता कहीं-कहीं पर ही झलकती है। यथाः-“एयर होस्टेज से बैठने की/विधिवत मिल रही जानकारी है।‘ .... “लड़ें नहीं लोग ता काजियों का क्या होगा/डरें नहीं लोग तो पाजियों का क्या होगा।“ .... “चला भाड़ में जाए देश/उन्हें बजाना बस गाल है।“ इसके अतिरिक्त ‘न’ के स्थान पर ‘ना’का प्रयोग किया जाना साहित्यिक दृष्टि से अशुद्ध है। यदि केवल कथ्य एवं वर्ण्य-विषय को दृष्टिगत रखा जाए, तो इस पक्ष को सराहनीय कहा जा सकता है। वर्तमान समाज का चित्रण, जीवन की अनुभूतियाँ एवं संवेदनाएँ, सामाजिक सरोकार, आदि पहलुओं को स्पर्श किया गया है। इस पुस्तक के विषय में कहा जा सकता है कि रचनाकार की लेखनधर्मिता सराहनीय है तथा आशा की जा सकती है कि लेखक की आगामी रचनाएँ अच्छी एवं अशुद्धि रहित होंगी। 112 पृष्ठों की इस सजिल्द पुस्तक का मूल्य 350 रूपये है, जिसे प्रलेक प्रकाशन, मुंबई ने प्रकाशित किया है।
( गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2023 अंक में प्रकाशित )
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