शुक्रवार, 31 जनवरी 2025

 फ़ारूक़ी साहब ने बेटियों को खुद दी इस्लाम की शिक्षा

इंतिकाल से पहले अपनी बेगम के बगल में दफनाने की मांग की थी

औरतों के पर्दा करने के सख़्त खिलाफ़ थे महान आलोचक फ़ारूक़ी  

                                                                    - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

  अपनी बड़ी बेटी महर अफसां फ़ारूक़ी के साथ शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी 

.शम्सुरर्हमान फ़ारूक़ी वैसे तो इलाहाबाद में रहते थे, लेकिन इनकी अदबी शिनाख़्त वर्ल्ड लेवल पर उर्दू आलोचक के रूप में होती है। आज भले ही वो हमारे बीच मौजूद नहीं हैं, लेकिन उनका लिखा-पढ़ा रहती दुनिया तक याद किया जाएगा। जब भी उर्दू अदब में आलोचना की बात होगी तो सबसे पहले शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का नाम लेना ही पड़ेगा। उनकी अदबी सलाहियतों पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है और आगे भी लिखा जाता रहेगा। लेकिन उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में बहुत कम लोगों को ही पता है। इतना बड़ा अदीब घर में कैसे रहता था, लेखन के अलावा क्या-क्या शौक़ थे और बच्चों के साथ उनकी चिनचर्या कैसी थी? आमतौर पर माना जाता है कि इस्लाम मज़हब की मान्यताओं से वे अपने आपको काफ़ी अलग रखते थे। इन सब चर्चाओं के बीच जब उनकी बेटी बारां फ़ारूक़ी से बातचीत की गई तो बहुत ही दिलचस्प बातें सामने आयीं।

 बारां फ़ारूक़ी जामिया मिल्लिया इस्लामिया में अध्यापिका थीं। अपने वफ़ात से चंद महीने पहले शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने बारां से कहा कि-‘मेरे मरने के बाद इलाहाबाद आ जाना और इसी घर में रहना। घर को न तो बेचना और न ही किसी और को देखभाल के लिए देना।’ इस बात ने बारां को अंदर से हिला दिया। उसी वक़्त बारां ने दिल्ली छोड़ने का फैसला कर लिया। जामिया में प्रोफेसर की नौकरी छोड़कर मुकम्मल तौर पर इलाहाबाद आ गईं और अपने पिता की देखभाल करने लगीं। मां जमीला फ़ारूक़ी का पहले ही निधन हो चुका था। बारां की बड़ी बहन महर अफसां फ़ारूक़ी इनसे सात वर्ष बड़ी हैं, जो अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ वर्जीनिया के साउथ ईस्ट एशियन डिपार्टमेंट में प्रोफेसर हैं। उनका इलाहाबाद कम ही आना होता है।

 बारां बताती हैं कि शुरू में बहुत ही तंगी के हालात थे। वालिद ने बलिया और आज़मगढ़ में कुछ दिनों तक अध्यापन कार्य किया, लेकिन आमदनी इतनी अच्छी नहीं थी। किसी तरह से परिवार का पालन-पोषण हो रहा था। तब थार्नहिल रोड पर किराये के मकान में हमलोग रहते थे। वर्ष 1958 में फ़ारूक़ी साहब का चयन जब आई.ए.एस. में हो गया, तब परिवार की हालत बेहतर हुई। क़िदवई इंटर कॉलेज का जब निर्माण हो रहा था, उन दिनों मेरी मां पूरा दिन उसी में लगी रहती थीं। वहां काम करने वाले कहते थे कि अपनी बेटी को दूध पिला दीजिए, तब उनका ध्यान इस ओर जाता था। मां ने बड़ी मेहनत और लगन से कॉलेज का निर्माण कराया था।

 फ़ारूक़ी साहब के ़ग़ैर-इस्लामिक होने की चर्चा पर बारां इसे सिरे ख़ारिज़ करती हैं। उनका कहना है कि बचपन के दिनों में मेरे वालिद ने ही हम दोनों को कु़रआन की तालीम दी थी। दरूद शरीफ़ भी उन्होंने ही याद कराया था। नमाज कैसे पढ़ी जाती है? कौन सी दुआ कब पढ़ी जाती है? अपने से बड़ों से मिलते हैं तो किस तहज़ीब से मिलते हैं ? ये सारी बातें उन्होंने ही हमे सिखाई और पढ़ाई है। अपने गोंद में बैठाकर अरबी की तालीम देते थे। बाद में मौलवी साहब को लगवाकर पूरी अरबी की तालीम दिलाई। अपने पास बैठाकर दूसरे शायरों के अशआर भी अक्सर सुनाते थे। हां, इतना ज़रूर है कि स्कूल की पढ़ाई में कभी उन्होंने दखल नहीं दिया। हम दोनों बहनें अपनी मर्ज़ी से पाठ्यक्रम चुनते और पढ़ते रहे। बारां बताती हैं कि वे औरतों के पर्दा करने के खिलाफ़ थे। उनके नमाज पढ़ने के सवाल पर बारां बताती हैं कि पांचों वक़्त का नमाज पढ़ते थे, लेकिन जब हृदय रोग की चपेट में आए तो पांचों वक़्त का नमाज छोड़ दिए, सिर्फ़ जुमे की नमाज पढ़ने लगे।

बारां फ़ारूक़ी से बातचीत करते  डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी


 फ़ारूक़ी साहब अपने लेखन में औरतों के श्रृंगार का जिक्र बहुत ही बारीकी से करते थे। इसी को लेकर एक बार एक मौलवी साहब का ख़त उनके पास आया था, जिसमें उन्होंने फ़ारूक़ी साहब को आगाह करते हुए लिखा था कि ’आप औरतों कें श्रृंगार का जिक्र जिस बारीकी से करते हैं, वह बहुत ही गुनाह की बात है। अल्लाह तअला आपसे बहुत नाराज होंगे। ऐसा लेखन न किया करें।’ फ़ारूक़ी साहब को जानवरों को पालने का बहुत शौक़ था। उन्होंने बिल्ली, कुत्ता और चिड़ियों को पाल रखा था। उनकी देखभाल खुद करते थे। वे अपनी दोनों बेटियों के साथ बैडमिंटन और क्रिकेट वगैरह खेलते थे। उन्हें हर तरह की कलम रखने का बहुत शौक़ था। उनके पास लगभग हर कंपनी और हर वैरायटी की कलम होती थी।

 बारां बताती हैं कि हमारे घर अक्सर ही अदीबों का जमावड़ा लगा रहता था। प्रो. एजाज, मसीउज्ज़मा, एहतेशाम हुसैन, नैयर मसूद, महमूद हाशमी, रामलाल वगैरह लोग अक्सर आया करते थे। ‘शबख़ून’ पत्रिका जब उन्होंने शुरू किया तो उसके लिए उन्होंने एक क़ातिब रखा था, जो प्रायः घर आते थे। मैं छोटी थी, इसलिए मुझसे घर में होने वाली अदबी गतिविधियों के बारे में कोई नहीं बताता था। मेरे वालिद अक्सर ही अदबी नशिस्तों का भी आयोजन करते थे। 

 इंतिकाल से कुछ दिनों पहले उन्होंने अख़्तर अमीन से कहा कि राजापुर कब्रिस्तान चले जाओ। वहां जाकर बात कर लो कि मेरी मौत होने पर मेरी बेग़म की कब्र के बगल में ही मुझे दफ़नाया जाए और अगर वो इसके लिए तैयार नहीं होते हैं तो एक दूसरी जगह की निशानदेही करते हुए उन्होंने कहा कि उस जगह कोने में मेरी कब्र बनाने की बात कर लो। अख़्तर अमीन ने जब वहां जाकर बात की तो उनकी बेगम के बगल में ही उन्हें दफनाये जाने की बात मान ली गई। इसलिए उनके इंतिक़ाल के बाद बेगम जमीला फ़ारूक़ी के बगल में उन्हें दफनाया गया।

( गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2024 अंक में प्रकाशित )





 ‘गुफ़्तगू’ के सालाना अवार्ड की प्रक्रिया शुरू-





 

मंगलवार, 28 जनवरी 2025

 मीडिया एक बाज़ार है उसे अपने को बेचना है: बद्री 

बद्री नारायण का इंटरव्यू मोबाइल में रिकार्ड करते अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’।


 साहित्य अकादमी सम्मान से विभूषित काव्य संग्रह ‘तुमड़ी के शब्द’ और सामाजिक मुद्दों एवं भाषा तथा संस्कृति संबंधित एक दर्जन से अधिक पुस्तकों के रचयिता प्रो. बद्री नारायण तिवारी, प्रसिद्ध सामाजिक इतिहासकार और सांस्कृतिक मानवविज्ञानी हैं। वर्तमान में जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान में निदेशक के पद पर कार्यरत हैं। देश-विदेश के विभिन्न प्रतिष्ठित संस्थानों से विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में संबद्घ रहे हैं। इसके अतिरिक्त आप राष्ट्रीय महत्व के कई संस्थानों की एडवायजरी बाडी के सदस्य भी हैं। कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों पर, आपके शोध लेख, अंग्रेज़ी और हिंदी में प्रकाशित हुए हैं। ‘फैसिनेटिंग हिंदुत्व-सैफ्रान पालिटिक्स एंड दलित मोबिलाइजेशन’, ‘दलित वैचारिकी की दिशाएं’, ‘साहित्य और सामाजिक परिवर्तन’, ‘लोक संस्कृति में राष्ट्रवाद’, ‘औपनिवेशिक संस्कृति के प्रसंग’, ‘लोक संस्कृति और इतिहास’ आदि  उनकी महत्वपूर्ण प्रकाशित  रचनाएं हैं। अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने इनसे विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत है इसके  प्रमुख अंश-

सवाल:  आप इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में इतिहास के विद्यार्थी रहें हैं। परंतु आपका मुख्य कार्य सामाजिक मुद्दों से जुड़ा हुआ नजर आता है। एक इतिहासकार का अपने मूल शैक्षिक क्षेत्र से हटकर कार्य करना आपको कैसा प्रतीत होता है।

जवाब:  संस्कृति, स्मृति और राजनीति, समकालीन इतिहास, सामाजिक और मानवशास्त्रीय इतिहास, दलित और निम्नवर्गीय मुद्दे और पहचान निर्माण और सत्ता की पॉलिसी/योजना पर प्रश्न मेरे रुचि के विषय हैं। वो इतिहास जो आधुनिक सोशलाजी के इतिहास का हिस्सा है, वह कंटेम्पटरी इतिहास पर आधारित है। समकालीन इतिहास, आज के समाज का अध्ययन करता है। कांटेम्पटरी को जब पास्ट के साथ जोड़कर देखता हूं तो उससे हमें और सुविधा होती है कि पास्ट की समझदारी होने के कारण समकालीन को समझने में आसानी होती है, जो अन्यथा नहीं होती है। जैसे कास्ट सेंसेज के बारे में हमने पहले ही कहा था कि कास्ट सेंसेज हमेशा डिवीजन क्रिएट करता है। कास्ट सेंसेज कभी भी होमोजिनिटी नहीं क्रिएट करता है तो उसका फायदा कांग्रेस को नहीं मिलेगा। हमने देखा कि जब पहला कास्ट सेंसेज हुआ था तो भी इतनी लड़ाईयां हुई थी। लोगों की एक दूसरे से असहमतियां थीं, क्योंकि उसमें फायदे का मामला होता है। ओबीसी को मिला, इवीसी को नहीं मिला, किसी को फायदा मिला किसी को नहीं मिला। इसकी विवेचना पास्ट की समझदारी के कारण ही संभव है। अगर बिना पास्ट को समझे, सिर्फ आज को समझने की कोशिश की जाएगी तो गलती होने की आशंका बहुत बढ़ जाएगी।


सवाल: एक शिक्षक के रूप में आप दलितों के सामाजिक विकास जैसे चुनौतीपूर्ण कार्य में आप अपने आप को कैसे जोड़कर देखते हैं।

जवाब:  किसी दूसरे समुदाय एवं भिन्न परिवेश में रहकर अन्य समुदाय पर अध्ययन करना और लिखना बहुत कठिन और चुनौतीपूर्ण होता है, लेकिन उसी से न्यूट्रल आबजर्वेशन भी निकलता है। अगर हम उस समुदाय के होते और खुद ही अपने समुदाय पर अध्ययन करते तो बहुत सारी गलतियां हो सकती हैं। हमारा पूर्वाग्रह एवं बायसनेस इन्वाल्व होता जो निरपेक्षता को प्रभावित करता। मगर जब हम बाहर से देख रहे होते हैं तो समाज विज्ञान या साइंस की दृष्टि से एक तरह की निरपेक्षता आती है। लेकिन उसमें एक समस्या यह होती है कि फिर उस समुदाय के लोग कहते हैं कि आप तो हमारी जाति-समाज के नहीं है, फिर आपको, हमारी बातों, समस्याओं पर बोलने का क्या अधिकार है। अब अगर हर आदमी अपने बारे में ही बोलेगा, अपने पर ही अध्ययन करेगा तो फिर समाज पर कौन लिखेगा। अध्ययन दूसरे पर भी होता है, साहित्य भी दूसरे का लिखा जाता है। साहित्य में अगर हम हमेशा अपने पर ही कविता, कहानी, लेख  लिखते रहेंगे तो यह तो पूर्णता नहीं होगी। समाज विज्ञान के पास जो डिवाइस है, जिससे वह समाज को समझता है वो आबजर्वेशन तो दूसरा ही करेगा। जब अपना सेल्फ आबजर्वेशन करना होगा तो आपको दर्शन में जाना पड़ेगा। साहित्य के पास एक और डिवाइस होती है जिसे इम्पैथी कहते हैं। इम्पैथी से आप इस कार्य को कर सकते हैं। मेरा जन्म तो उस जाति समाज में नहीं हुआ है पर हम उस परिस्थिति में अपने को रखकर, एक तरह के परकाया प्रवेश से उन चीजों को समझते हैं। लेकिन अब आज की स्थिति में तो इम्पैथी का स्पेश ही खत्म हो रहा है। लोग कहते हैं आप हमारे वर्ग के नहीं हो तो आप हम पर कैसे लिख रहे हो। अगर इम्पैथी ही खत्म हो जाएगी तो साहित्य ही खत्म हो जाएगा। साहित्य तो हमेशा दूसरों को ऐड्रेस करता है।


सवाल: भाषा एवं विभिन्न बोलियों के उत्तरोतर विकास एवं उनकी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान को आगे बढ़ाने के कार्य में आपका क्या योगदान है ? 

जवाब: हम लोगों ने उत्तर प्रदेश की भाषाओं और बोलियों पर अध्ययन किया है जो कई वाल्यूम में प्रकाशित हुआ है, यह एक एकेडमिक कंट्रीब्यूशन है। भाषा के लेवल में जो उसका पालिसी पर इम्पैक्ट है, उसमें हम लोगों का ज्यादा हस्तक्षेप नहीं है। लेकिन एकेडमिक कार्यों के लिए एक अध्ययन है जो डाक्यूमेंटेड हो गया है।


सवाल: हिंदी और उर्दू के साथ-साथ अवधी, बृज, भोजपुरी, बुंदेली, एवं अन्य सहायक भषाओं या बोलियों के आपसी रिश्ते के बारे में आपका क्या विचार है?

जवाब: इनके बीच आपसी रिश्ता, लेन-देन का रहा है। भाषाएं तभी आगे बढ़ती हैं जब वो संवाद की स्थिति में होती हैं। कोई भाषा अगर अपने आप पर ही विकास करना चाहती है तो वह खत्म हो जाती है। भाषाओं की शक्ति इस बात पर निर्भर करती है कि वह दूसरी भाषाओं से कितना संवाद कर सकती है। सामूहिक विकास से ही सबका विकास होता है।

सवाल: पर्यावरण और संस्कृति के क्षेत्र में ‘गंगा गैलरी’ में आपका कार्य काफी महत्वपूर्ण रहा है। इस क्षेत्र में अपने किए गये कार्य के बारे बताइए।

जवाब: संस्थान परिसर में ही ‘‘गंगा गैलरी’ है जिसे एक म्यूजियम का रूप दिया गया है। गंगा के किनारे रहने वाले विभिन्न समुदायों जैसे नाई, कुम्हार, साधु, पंडे आदि हैं। इनके जीवन और सामाजिक संबंध को उसमें दर्शाया गया है। यह परिसर, सभी लोगों को देखने के लिए, बनाया गया है।


सवाल: आप विभिन्न संस्थानों की एडवायजरी बाडी जैसे सेंटर आफ गांधीयन स्टडीज इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, यूजीसी नामिनी सेंटर फॉर इकसक्लूजन एण्ड इन्क्लूसिव पालिसी उत्कल यूनिवर्सिटी भुवनेश्वर,  इग्जेक्युटिव कौन्सिल उर्दू अरेबिक पर्सियन यूनिवर्सिटी उत्तर प्रदेश सरकार, एडवायजरी बोर्ड आफ भोजपुरी अध्ययन केंद्र हिंदी विभाग काशी हिंदू यूनिवर्सिटी वाराणसी संस्थानो में रहे हैं। इन विभिन्न एडवायजरी पोजीशनों में आपके कार्य का रूप कैसा रहा है। और आपके विभिन्न एडवायसों तथा उनके इंप्लीमेंटेशन से समाज तथा भाषा के विकास में अपने रोल को लेकर आप कहां तक आप संतुष्ट हैं ?

जवाब: इसमें कोई संतुष्टि या असंतुष्टि का सवाल नहीं है। हम लोग अपनी बात कहते हैं वो बातें कई बार मान ली जाती हैं। कई बार बहुमत असहमत होता है। अन्य लोग उससे सहमत नहीं होते। डेमोक्रेसी तो यही है कि आपकी बात मानी गई तो ठीक, नहीं मानी गई तो भी ठीक। चार लोग अगर आपकी बात से असहमत हैं तो आप अपनी बात अंदर दबा तो नहीं सकते। सरकार का जहां तक सवाल है, सरकार की जो पॉलिसी होती है, उसका हम लोग इवैल्युएशन करते हैं। मल्टीलेवल फीडबैक है। बहुत सारे लोगों में हम भी एक इवैल्युएटर हैं अन्य लोग भी इवैल्युएटर हैं। उस पर हम जो सुझाव देते हैं, उनको एक खास स्तर तक मान लिया जाता है। हम बहुत ज्यादा कामना भी नहीं कर सकते हैं। हम कहते हैं कि आप यह योजना बंद कर दीजिए, परिवर्तित कर दीजिए, योजनाबद्ध कर दीजिए।

सवाल: देश विदेश के विभिन्न यूनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप मे आपके व्याख्यान होते रहते हैं। विदेशी यूनिवर्सिटी/संस्थानों में अपने व्याख्यान के दौरान हुई किसी विशिष्ट/महत्वपूर्ण घटना के बारें में बताइए।

जवाब:मारे लिए यह एक काम है। हम लोगों के लिए बाहर जाकर शोध-पत्र पढ़ना या लेक्चर देना, अपनी बातों को कहने का एक अवसर है। कई बार लोग उसको एप्रीसिएट करते हैं, कई बार कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। यह सब तो होता रहता है। बाहर भी, भारत को लोग अच्छी तरह से जानते हैं चोट लगने वाली कोई बात नहीं होती, हर्षित करने वाली ही बात होती है।

सवाल: आपकी एक दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इन पुस्तकों में से किस पुस्तक को सामाजिक या साहित्यिक दृष्टिकोण से सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं और अपनी इस पुस्तक के बारे में संक्षिप्त रूप से हमारे पाठकों को कुछ बताइए।

जवाब:  तुमड़ी के शब्द’ मेरा कविता संग्रह है। जिसको अभी साहित्य अकादमी एवार्ड मिला है। यह मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक है। फिर उसके अलावा दलित मुद्दे पर मैंने जो भी काम किया है वह भी बहुत महत्वपूर्ण है। दलित अभिकथन और आकर्षक हिदुत्व भी बहुत प्रिय एवं महत्वपूर्ण है।

सवाल: कहा जा रहा है कि वर्ष 2014 के बाद साहित्य लेखन और पत्रकारिता में एक तरह का बड़ा बदलाव आया है। आप इसको किस रूप में देखते है ं?

जवाब: बदलाव नहीं है। मेरा मानना है कि समय बदल रहा है तो पत्रकारिता और साहित्य तो समय का अध्ययन करेगा और लिखेगा ही। आपका काम तो यही है कि समय के साथ-साथ समय को रिस्पांड करना। अगर अब समय ही ऐसा है जो आपके हाथ और वश में नहीं है। परिवर्तन का समय है, अलग परिस्थितियां बन गई है। उसमें कोई क्या कर सकता है। लोग कहते हैं, मीडिया पर बहुत दबाव है। लेकिन यह वही मीडिया है जो राहुल गांधी की भारत यात्रा को बहुत अच्छे से प्रोजेक्ट करता है। मीडिया को तो बेचना है। आपकी ख़बरों को अगर अच्छे से बेच पाएगी तो आपको बेचेगी, हमारी ख़बरों को बेच पाएगी तो हमें बेचेगी। यह इस पर डिपेंड करता है कि आप अपने को कैसे इवाल्व करते हो। उसको अन्य पार्टियों को भी बेचना है। उसको मुद्दे खड़े करना है। आप बेहतर जानते हो। साहित्य में भी यही हाल है। लोग अक्सर कहते हैं गोदी मीडिया, मोदी मीडिया। मगर ऐसा कुछ नहीं है। मीडिया एक बाजार है उसको अपने को बेचना है, जो बाज़ार में बिक रहा है उसे वह बेचेगी। अपने को कलरफुल बनाइए, आपको भी बेचेगी। राहुल गांधी ने भारत यात्रा को कलरफुल बनाया तो मीडिया ने लगभग 80 प्रतिशत कवरेज किया। अगर बीजेपी की खबर बिक रही है तो मीडिया बेचेगी, आप बिक सकते हो तो आपको बेचेगी।

सवाल: आपके विचार से भाषा का धर्म से कोई संबंध है ?

जवाब: भाषा का संबंध धर्म से ऐसे होता है कि धार्मिक उपदेश किसी भाषा में ही गढ़े जाते हैं। भाषा कम्युनिकेशन का माध्यम है, धार्मिक विचारों के संप्रेषण मैं भाषा मदद करती है। भाषा जिसके हाथ में होगी उसकी तरह से वह आगे बढ़ेगी।

सवाल: आज के हिन्दी, उर्दू साहित्य में सामाजिक परिस्थितियों के चित्रण को आप किस दृष्टि से देखते हैं और वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों/सौहार्द को सुधारने मे यह और कैसे मददगार हो सकते हैं?

जवाब: समाज में सौहार्द तो हमारी मूल आत्मा है। वो बीच बीच में खंडित-विखंडित होती रहती है, लेकिन वो लौटकर फिर आ जाती है। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। मूलतः समाज का व्यक्ति मिलन-जुलन, आदान-प्रदान का आदी है, उसको आप रोक नहीं सकते। यह रबर की तरह है, आप खीचते हैं तो यह खिंच जाता है परंतु छोड़ते ही, लौटकर वापस अपनी जगह पर पुनः आ जाता है। फाउंडेशन ऑफ सोसाइटी वही है। सोसाइटी वहीं पहुंचेगी, भले ही बीच में डेविएशन आए।

सवाल: नौजवानों में हिंदी साहित्य के पठन-पाठन एवं सृजन के प्रति निरंतर घटते रुझान के संबंध में आपको क्या महसूस होता है ?

जवाब: यह बहुत गलत एवं चिंताजनक है। हिंदी लेखन को महत्व देना चाहिए।  हालांकि हिंदी का पाठक वर्ग भी धीरे-धीरे बढ़ रहा है। अंग्रेजी का डामिनेंस, खत्म होना चाहिए। जब तक भारतीय भाषाओं का साहित्य चिंतन एवं विचार, समाज का चिंतन नहीं बनेगा तब तक भारतीय समाज आत्मनिर्भर नहीं हो पाएगा।

सवाल: नये साहित्यकारों के लिए आपका क्या संदेश है ?

जवाब: संदेश, उपदेश तो बाबा लोग देते हैं। मेरा अपने लिए संदेश है कि रुककर या खड़े होकर बदलते हुए समाज को नहीं समझा जा सकता है। आपको समय के साथ, इस बदलते समाज को गहरे ढंग से अध्ययन कर, समझना होगा और प्रभावित तथा प्रेरित होकर लिखना होगा। लेकिन यह मैं अपने लिए ही कह रहा हूं, दूसरों के लिए नहीं।


(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2024 अंक में प्रकाशित )


सोमवार, 27 जनवरी 2025

 गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2024 अंक मेें




4. संपादकीय (बेहतर समाज के निर्माण का प्रयास हो)

5-7. अब कोई दूसरा मुनव्वर नही होने वाला - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

8-9. ‘बाघ’ के बहाने नावलियात पर गुफ़्तगू- डॉ. अब्दुलर्रहमान फ़ैसल

10-15. दास्तान-ए-अदीब: फ़ारूक़ी साहब ने बेदियों को खुद दी इस्लाम की शिक्षा- डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

16-23. ग़ज़लें  (देवी नागरानी, गौतम राजऋषि,  मुनव्वर अली ताज, डॉ. राकेश तूफ़ान, विजयलक्ष्मी विभा, राजेंद्र वर्मा, शमा फिरोज़, नवीन माथुर पांचोली, ऋतु अग्रवाल, सत्यम भारती, अना इलाहाबादी, डॉ. वारिस अंसारी, ज़फ़र सिद्दीक़ी,  गीता चौबे ‘गूंज’, प्रदीप बहराइची, आ.पी.सोेनकर)

24-31. कविताएं  (अमर राग, यश मालवीय, डॉ. प्रमिला वर्मा, श्रीरंग, मिठाई लाल जायस,  अब्दुर्रहमान फैसल, अरविन्द असर, सुनीता श्रीवास्तव, मधुकर वनमाली, केदारनाथ सविता, मंजू लता नागेश, सीमा शिरोमणि, आशा झा)

 32-36, इंटरव्यू : बद्री नारायण

37-41. चौपाल: वर्तमान समय में मीडिया की भूमिका

42-45. तब्सेरा  (यादों का गुलदस्ता, श्रीमद्भागवतगीता, शम’अ-ए-फ़रोजां, मेरा हक़,) 

46-48. उर्दू अदब  (तनक़ीदी अवराक़, काविेश-ए-तलत, सहरा में शाम)

49-50. ग़ाज़ीपुर के वीर: गुलाम रब्बानी

51-56. अदबी ख़बरें

58-86. परिशिष्ट -1  इंदू सिन्हा ‘अशोक’

57. इंदू सिन्हा का परिचय

58. अतीत की प्रतीति कराती कविताएं - डॉ. इश्क़ सुल्तानपुरी

59. कविता के माध्यम से समाज की बात - शैलेंद्र जय

60-62. भावों को साकार करती इंदू सिन्हा की कविताएं - सीमा वर्णिका

63-86. इंदू सिन्हा ‘अशोक’ की कविताएं


87-119. परिशिष्ट-2: डॉ. रामावतार मेघवाल ‘सागर’

87. डॉ. रामावतार मेघवाल ‘सागर’ का परिचय

88-89. शब्द विन्यास और संयोजन में अद्भूत तालमेल - डॉ. मधुबाला सिन्हा

90-91.  विसंगतियों की परतें खोलती ग़ज़लें - रचना सक्सेना

92-93. सहज, सरल, अनूठे अंदाज़ के कवि - जयचंद्र प्रजापति

94-119. डॉ. रामावतार मेघवाल सागर की ग़ज़लें और गीत


120-152.परिशिष्ट- 3 : सरफ़राज़ हुसैन ‘फ़़राज़़ 

120. सरफ़राज़ हुसैन ‘फ़़राज़़ का परिचय

121-122. लगे रहते हो हरदम शायरी - अरविन्द असर

123-124. पीतल नगरी से शायरी का चमकता सोना- शिवाशंकर पांडेय

125-126. फ़राज़ की ग़ज़लों मेें बहुरंगी इश्क़- प्रदीप बहराइची

127-152. सरफ़राज़ हुसैन ‘फ़़राज़़ की ग़ज़लें



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गुरुवार, 23 जनवरी 2025

इलाहाबाद के महत्वपूर्ण व्यक्तियों का विवरण

                                                                 -अजीत शर्मा ‘आकाश’

 इलाहाबाद का एक शानदार अतीत रहा है। यहां के निवासी स्वयं को अत्यन्त गर्व से इलाहाबादी कहते हैं, क्योंकि प्राचीन काल से ही साहित्य एवं संस्कृति की यह नगरी गंगा-जमुनी तहज़ीब की साक्षी रही है। पुराने समय के इलाहाबादियों ने अपनी उल्लेखनीय उपलब्धियों के माध्यम से प्रदेश, देश एवं विश्व स्तर पर इस शहर की ख्याति में निरन्तर वृद्धि की है, जिनके विषय में विभिन्न माध्यमों से जानकारी उपलब्ध है। उनके समय के बाद भी इलाहाबाद की श्रीवृद्धि करने में अनेक लोगों का अमूल्य योगदान रहा है, किन्तु उनके विषय में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। शायर एवं पत्रकार इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की ‘21वीं सदी के इलाहाबादी’ नामक पुस्तक में वर्तमान इलाहाबाद के ऐसे ही कुछ महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय व्यक्तियों के विषय में जानकारी उपलब्ध करायी गयी है।


 21वीं शताब्दी के इलाहाबाद के महत्वपूर्ण व्यक्तियों को लेकर इस पुस्तक को तैयार करने के लिए एक टीम बनाकर प्रत्येक क्षेत्र के लोगों पर सर्वे कराया गया, जिसके पश्चात् उन 106 व्यक्तियों का चयन किया गया, जिन्होंने अपने विशिष्ट कार्यों से अपनी एक अलग पहचान बनायी है तथा इलाहाबाद शहर को ख्याति प्रदान की है। इनमें से कुछ व्यक्ति जन्म से इलाहाबाद के निवासी हैं और कुछ व्यक्ति अन्य स्थानों से आकर इलाहाबाद में रहने लगे हैं। जिन महत्वपूर्ण लोगों का निधन वर्ष 2000 या उससे पहले हो गया था, उनको इस पुस्तक में सम्मिलित नहीं किया गया है, क्योंकि उनके विषय में पहले से ही जानकारी उपलब्ध है। पुस्तक में सम्मिलित करने हेतु चयन किये जाने के उपरान्त उक्त सभी 106 लोगों के घर जाकर उनके जीवन परिचय एवं विशिष्ट कार्यों का विवरण एकत्र कर उनके विषय में जानकारी एकत्र की गयी। लेखक के अनुसार यह एक श्रम साध्य कार्य था, जिसे पूर्ण करने में लगभग सात-आठ वर्षों का समय लगा।

 ‘21वीं सदी के इलाहाबादी’ नामक इस पुस्तक के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्य करने वाले उल्लेखनीय व्यक्तियों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। साहित्य के क्षेत्र में अमरकांत, लक्ष्मीकांत वर्मा, शम्सुर्रहमान फ़़ारूक़़ी, नासिरा शर्मा, मार्कंडेय, कैलाश गौतम, हरीश चन्द्र पाण्डे, राजेंद्र कुमार, सय्यद अक़ील रिज़वी, मार्कण्डेय, दूधनाथ सिंह, लाल बहादुर वर्मा, जगन्नाथ पाठक, नीलकांत, अली अहमद फ़ातमी, डॉ. असलम इलाहाबादी, अनिता गोपेश, यश मालवीय और नायाब बलियावी आदि, राजनीति में-कामरेड ज़ियाउल हक, केशरीनाथ त्रिपाठी, सलीम इक़बाल शेरवानी, रेवती रमण सिंह और अनुग्रह नारायण सिंह, खेल क्षेत्र में- भारत भूषण वार्ष्णेय, अभिन्न श्याम गुप्ता, मोहम्मद कैफ, यश दयाल, पत्रकारिता- वी.एस.दत्ता, प्रेमशंकर दीक्षित, मुनेश्वर प्रसाद मिश्र, चिकित्सा क्षेत्र में- डॉ. राज बवेजा, डॉ. कृष्णा मुखर्जी, डॉ. वन्दना बंसल, डॉ. प्रकाश खेतान, न्याय के क्षेत्र में- न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त, गिरिधर मालवीय, गिरीश वर्मा, व्यापार- श्यामाचरण गुप्ता, शिक्षा में सय्यद अक़ील रिज़वी के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों के आसिफ़ उस्मानी, बादल चटर्जी, एवं अमिताभ बच्चन आदि का विवरण सम्मिलित किया गया है। पुस्तक के अन्त में गुफ़्तगू परिवार के संरक्षकों तथा कार्यकारिणी सदस्यों का परिचय है।

 इस पुस्तक में 21वीं सदी के इलाहाबाद के विकास की एक झलक परिलक्षित होती है तथा यह महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय व्यक्तियों का विवरणं एक स्थान पर उपलग्ध कराती है। कहा जा सकता है कि इलाहाबाद शहर को लेकर शोध करने वालों तथा इलाहाबाद की गंगा-जमुनी संस्कृति के पोषकों के लिए यह संग्रहणीय पुस्तक है। इसे पुस्तकालयों में रखा जा सकता है, जिससे जन सामान्य को भी इस विषय में जानकारी प्राप्त हो सके। पुस्तक का मुद्रण एवं गेट अप उत्तम कोटि का है तथा कवर पृष्ठ आकर्षक है। व्यक्तियों के विवरण के शीर्षक में नाम के साथ कोष्ठक में जन्म एवं निधन का वर्ष अंकित किया जाता, तो और बेहतर होता। गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित की गयी 240 पृष्ठों की इस सजिल्द पुस्तक का मूल्य 500 रुपये है।


 छन्दबद्ध काव्य-रचनाओं की प्रीति-धारा



 डॉ. वीरेन्द्र कुमार तिवारी की पुस्तक ‘प्रीति-धारा’ में उनके 93 गीतों का संग्रह है। वर्ण्य विषय की दृष्टि से संग्रह की रचनाओं में श्रृंगार एवं प्रणय, वर्तमान समाज का चित्रण, जीवन की अनुभूतियाँ तथा संवेदनाएं, सामाजिक सरोकार आदि को अभिव्यक्ति प्रदान की गयी है। रचनाएं हिन्दी साहित्य के रहस्यवाद एवं छायावाद से प्रेरित प्रतीत होती हैं तथा अधिकतर गीत-रचनाओं में दार्शनिकता झलकती है। पुस्तक में प्रमुख रूप से अध्यात्म एवं ईश्वर के प्रति पूर्ण आस्था के भावों से युक्त रचनाओं को स्थान प्रदान किया गया है। प्रेम का निरूपण, अन्तःकरण की शुद्धता, त्याग की भावना तथा पारमार्थिक सत्य की आवश्यकता को गीतों में रेखांकित करने का प्रयास किया गया है। रचनाओं की भाषा शुद्ध साहित्यिक हिन्दी है, जिसमें परिनिष्ठित एवं संस्कृत शब्दावली का प्रयोग भी है। तत्सम शब्दों के साथ तद्भव तथा देशज शब्द भी हैं और उर्दू भाषा के शब्दों के प्रयोग से भी परहेज़ नहीं किया गया है। गीत-रचनाओं में सरलता, सहजता एवं बोधगम्यता है, किन्तु कुछ स्थलों पर दार्शनिकता का पुट होने के कारण सामान्य पाठक के लिए भावों की सम्प्रेषणीयता बाधित-सी प्रतीत हो सकती है। शिल्प की दृष्टि से छन्द विधान एवं छन्दानुशासन के अनुसार रचनाएं की गई हैं। यद्यपि कुछ रचनाओं में शिल्पगत त्रुटियां भी दृष्टिगोचर होती हैं, यथा छन्द की किसी पंक्ति में ‘आप’ का इस्तेमाल और दूसरी पंक्ति में ‘तुम’ का प्रयोग जैसा दोष कहीं-कहीं आ गया है। तुकान्तता सम्बन्धी दोष भी कुछ रचनाओं में हैं, किन्तु सृजनात्मकता एवं रचनाधर्मिता की दृष्टि से गीत-रचनाएं सराहनीय हैं। पुस्तक में सम्मिलित कुछ गीतों की झलक प्रस्तुत हैः। साहित्यिक भाषा का प्रयोग- चंचल मन उद्वेलित करता/उठतीं उर अम्बुधि में लहरें। है अन्तःकरण क्षुब्ध निशि-दिन/ फिर चित्तवृतियाँ क्यों ठहरें। सुन वेणु-गीत मन हिरन मगन (‘तू गीत सुनाए या गीता’)। रहस्यवाद-यह सृष्टि उसी की लीला है/बाहर-भीतर वह समाविष्ट। अन्तर्यामी स्वरूप कैसा/बाहर विराट तो है अदृष्ट।वन-वन कर भ्रमण, थके हारे/अब अन्तर्मन में देखेंगे (‘मन की आँखों से देखेंगे’)। देश प्रेम- जननी जन्मभूमि को माना गया स्वर्ग से बढ़कर (‘देश पुरूष’)। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य उल्लेखनीय पंक्तियाँ- काम-क्रोध-लोभ के फन्दे में जकड़ा मैं भूल गया।दोषी जग ही नहीं, हूँ मैं भी, सत्य सनातन भूल गया। (‘सत्य सनातन’)। प्रीति-धारा के अभाव में प्रेम की शक्ति क्षीण होती जा रही है। अतः रचनाकार की कामना है कि प्रीति-धारा सतत प्रवाहित होती रहे, इसका प्रीतिरस कभी सूखने न पाये। गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित इस सजिल्द पुस्तक की कीमत 200 रुपये है।


 वर्तमान सामाजिक जीवन से जुड़ी लघुकथाएं



 

 डॉ. मधुबाला सिन्हा के लघुकथा संग्रह ‘अब और नहीं’में उनकी 51 लघुकथाएं संग्रहीत हैं, जिनका कथ्य एवं विषय हमारे आज के सामाजिक जीवन से जुड़ा हुआ है। कथा साहित्य में लघुकथा एक नई विधा के रूप में पाठकों के समक्ष आयी है, जिसका प्रचलन भारतेन्दु युग (1857-1908) से प्रारम्भ होना माना जाता है, जब कहानियों को उनका आकार छोटा कर लघुकथा के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। वर्तमान समय में लघुकथा के शिल्प एवं आकार में पर्याप्त परिवर्तन हो चुका है। लघुकथा लेखन समय का वास्तविक शब्दचित्र पाठक के समक्ष रखते हुए उसे सोचने पर विवश करता है। इस संग्रह की लघुकथाओं में जीवन के विभिन्न रंग दिखायी देते हैं। इनमें आम आदमी का जीवन संघर्ष, प्रेम, विश्वास, आस्था और समर्पण के भाव हैं तथा हमारे आज के सामाजिक जीवन को चित्रित करने का प्रयास किया गया है। लघुकथाओं के विभिन्न कथानकों के माध्यम से सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त अनेक विसंगतियाँ को उजागर करने की चेष्टा की गयी है। आर्थिक विषमता, भ्रष्टाचार, समाज में घटित होने वाले अपराध, दायित्वों के प्रति कर्तव्यहीनता एवं मानव की स्वार्थपरता के आज के दौर को उसके निदान हेतु सन्देश प्रदान किये गये हैं। विभिन्न कथानकों के माध्यम से किसी न किसी समस्या को दर्शाकर उसके समाधान का मार्ग ढूँढ़ते हुए एक अच्छे समाज के निर्माण हेतु रचनाकार द्वारा किया गया प्रयास इनमें परिलक्षित होता है। लघुकथाओं का कथ्य आम जन तथा रोज़मर्रा की घटनाओं से जुड़ा हुआ है। कथानक की संरचना के अनुसार भाषा-शैली का प्रयोग किया गया है। संवाद-योजना भी देश, काल एवं परिस्थिति के अनुरूप है। किन्तु, पुस्तक में संग्रहीत कुछ रचनाएँ अनावश्यक विस्तार के कारण लघुकथा न होकर छोटी कहानी जैसी प्रतीत होती हैं। आकारगत लघुता’ लघुकथा की एक विशेषता है। इस दृष्टि से कुछ लघुकथाओं में फालतूपन आ गया है। इसके अतिरिक्त अनेक स्थानों पर वर्तनीगत अशुद्धियाँ परिलक्षित होती हैं यथा- गमगिन, उदिप्त, ठंढ, सक्ष्म, इक्छा, गन्तब्य, ख़्याल, बर्षों, झंझावत, सहभागीता आदि। अनुस्वार सम्बन्धी त्रुटियों की तो भरमार है। इसके अतिरिक्त यह भी प्रतीत होता है कि रचनाकार ने वाक्य-विन्यास  तथा भाषा एवं व्याकरण के प्रति सजगता का परिचय प्रदान नहीं किया है। सर्व भाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित 110 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 200 रूपये है।


                   ग़ज़ल इस्मत बचाए फिर रही है



  डॉ. एम.डी. सिंह का ‘रोज़नामचा’ ग़ज़लनुमा रचनाओं का संग्रह हैं। रचनाकार ने इस संग्रह की भूमिका में लिखा है, कि ‘‘इरादतन ग़ज़लें नहीं कहता ये कहलवा लेती हैं गला पकड़ कर। सही मायने में तो ये अक्सर ग़ज़लें नहीं लगतीं।“ वस्तुतः, यह सच कहा गया है। संग्रह की रचनाएं ग़ज़लों के विकृत स्वरूप में हैं, जिनके शिल्प की कसौटी पर खरा उतरने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। ये ‘ग़ज़लनुमा’ रचनाएं अपने अधकचरेपन एवं अनगढ़पन के साथ उपस्थित हैं। संग्रह की अधिकतर रचनाओं में सपाटबयानी से ग्रसित है तथा काव्यात्मकता कहीं-कहीं पर ही झलकती है। यथाः-“एयर होस्टेज से बैठने की/विधिवत मिल रही जानकारी है।‘ .... “लड़ें नहीं लोग ता काजियों का क्या होगा/डरें नहीं लोग तो पाजियों का क्या होगा।“ .... “चला भाड़ में जाए देश/उन्हें बजाना बस गाल है।“ इसके अतिरिक्त ‘न’ के स्थान पर ‘ना’का प्रयोग किया जाना साहित्यिक दृष्टि से अशुद्ध है। यदि केवल कथ्य एवं वर्ण्य-विषय को दृष्टिगत रखा जाए, तो इस पक्ष को सराहनीय कहा जा सकता है। वर्तमान समाज का चित्रण, जीवन की अनुभूतियाँ एवं संवेदनाएँ, सामाजिक सरोकार, आदि पहलुओं को स्पर्श किया गया है। इस पुस्तक के विषय में कहा जा सकता है कि रचनाकार की लेखनधर्मिता सराहनीय है तथा आशा की जा सकती है कि लेखक की आगामी रचनाएँ अच्छी एवं अशुद्धि रहित होंगी। 112 पृष्ठों की इस सजिल्द पुस्तक का मूल्य 350 रूपये है, जिसे प्रलेक प्रकाशन, मुंबई ने प्रकाशित किया है।


( गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2023 अंक में प्रकाशित  )

सोमवार, 20 जनवरी 2025

हाईकोर्ट के क़ाबिले-कद्र अधिवक्ता फ़रमान नक़वी 

                                              -  डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

                                          

 मौजूदा समय में सय्यद फ़रमान अहमद नक़वी इलाहाबाद हाईकोर्ट के नामवर अधिवक्ताओं में से हैं। गरीब और असहाय लोगों के मुकदमों की पैरवी बिना फीस के करने के साथ ही परेशान हाल लोगों की मदद करने को लेकर भी ये काफी सक्रिय रहते हैं। इन्होंने कई ऐसे मुकदमों की पैरवी की है, जिसकी वजह से असहाय लोगों को काफी राहत मिली है। जय प्रकाश नारायण ने इमरजेंसी के समय जिस संस्था का गठन किया था, उसके प्रदेश अध्यक्ष से लेकर नेशनल एक्जीक्यूटिव में भी सय्यद नक़वी काम करते रहे हैं। इस समय बहुत चर्चित मामले ज्ञानवापी की भी पैरवी आप इलाहाबाद हाईकोर्ट में कर रहे हैं। कई अन्य सामाजिक संगठनों से भी जुड़े हुए हैं।



सय्यद फ़रमान अहमद नक़वी

    सय्यद फ़रमान अहमद नक़वी का जन्म 15 जुलाई 1954 को कोलकाता में हुआ है। वालिद मरहूम जनाब सय्यद मोहम्मद अहमद नक़वी और वालिदा मोहतरमा मरहूमा हयातुन्निसा से इनको बहुत अच्छे संस्कार मिले हैं, जिसकी वजह से इनके अंदर समाज सेवा की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है। किसी गरीब-असहाय की परेशानी की जानकारी मिलती है तो ये उसकी बढ़-चढ़कर सहयोग करते हैं। इनके वालिद सय्यद मोहम्मद नक़वी सरकारी नौकरी में थे, जिसकी वजह से सय्यद फ़रमान की अधिकतर शिक्षा उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले में पूरी हुई। वर्ष 1969 में फतेहपुर से ही हाईस्कूल और वर्ष 1971 में आपने इंटरमीडिएट किया है। वर्ष 1973 में फतेहपुर के महात्मा गांधी डिग्री कॉलेज से आपने स्नातक किया है। वर्ष 1979 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से एल.एल-बी. किए। इसके बाद फतेहपुर में जिला न्यायालय में वकालत का पंजीयन कराकर प्रैक्टिस शुरू कर दिए। वालिद और कुछ दूसरे लोगों की सलाह पर वर्ष 1982 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में पंजीयन कराकर यहीं पर वकालत शुरू कर दिए। प्रैक्टिस की शुरूआत इन्होंने खुद अपने ही दम  पर की, किसी को अपना गुरु नहीं बनाया, लेकिन वरिष्ठ वकीलों की सलाह समय-समय पर लेते रहे। 

  वर्ष 1991 में इन्हें उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से इलाहाबाद हाईकोर्ट में सरकारी वकील के रूप में नियुक्त किया गया। तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने इनकी क़ाबलियत को देखते हुए वर्ष 1995 तक इसी पद पर बनाए रखा। इसके साथ ही वर्ष 1991 से वर्ष 1999 तक भारत सरकार के अधिवक्ता के रूप में भी कार्यरत रहे। वर्ष 2019 में आप इलाहाबाद हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हो गए। फ़रमान नक़वी पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के प्रदेश अध्यक्ष रहे चुके हैं। इस संस्था की स्थापना आपातकाल के दौरान जय प्रकाश नारायण ने की थी। जनाब नक़वी वर्तमान समय में इस संस्था के नेशनल कार्यकारिणी के सदस्य हैं।

  सय्यद फ़रमान अहमद नक़वी ने कई महत्वपूर्ण मुकदमों की पैरवी की है, जो अपने आपमें बेहद ख़ास है। एक मामला पुलिस कस्टडी में एक दुकानदार की मौत का है। वर्ष 2004 में दरियाबाद के एक दुकानदार ने मेडिकल स्टोर के लिए बैंक से कर्ज़ लिया था। इस मामले में पुलिस उस दुकानदार को पकड़कर थाने ले गई। पुलिस कस्टडी में ही उस दुकानदार की मौत हो गई थी और दुकानदार के परिवार के पालन-पोषण का कोई साधन नहीं था। सय्यद नक़वी ने इस मामले का खुद ही संज्ञान लेकर हाईकोर्ट में मुकदमा दायर किया और दुकानदार के परिवार को मुआवजे के तौर पर 7.50 लाख रुपये दिलवाया। इसी तरह पुरामुफ्ती थाना के एक 24 वर्षीय लड़के को बमरौली रेलवे स्टेशन के पास से पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था, जिसकी जेल में ही मौत हो गई। सय्यद फ़रमान अहमद नक़वी ने इस लड़के का मुकदमा भी खुद लड़ा और परिवार वालों को हाईकोर्ट के जरिए 10 लाख रुपये का मुआवजा दिलाया। इसी तरह के कई अन्य मुकदमों की भी खुद ही पैरवी करके इन्होंने गरीब और असहाय लोगों को कोर्ट के जरिए न्याय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।

(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2023 अंक में प्रकाशित)


शनिवार, 18 जनवरी 2025

मिल्लत के मसीहा मौलवी आसिम बिहारी


                                                                  - डॉ. वारिस अंसारी  

     


                                         

 मौलवी अली हुसैन आसिम बिहारी साहब जंगे-आज़ादी का वह मोतेबर नाम है, जिसको आज़ादी का बुनियाद कहा जाए तो गलत नहीं होगा। क्योंकि इस पसे-मंज़र में महात्मा गांधी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, अब्दुल कय्यूम अंसारी व दीगर तमाम मुजाहिदीन-ए-आज़़ादी को पूरी दुनिया जानती है। लेकिन इनके साथ-साथ तमाम ऐसे जांबाज़ हुए हैं, जिन्होंने आज़ादी के लिए अपना तन, मन, धन सब कुछ कुर्बान कर दिया और यही लोग आज़ादी की बुनियाद हैं। इन्हीं में एक नाम मौलवी अली हुसैन आसिम बिहारी का भी नाम है। ज़रूरत इस बात की है कि इन मुजाहिदों के नाम भी तारीख (इतिहास) में शामिल होने चाहिए, जिससे आने वाली नस्लों को भी इन अज़ीम लोगों के किरदार के बारे में भी पता चल सके। 

   किताब ‘मौलवी अली हुसैन आसिम बिहारी’ में उनकी हयात व कारनामों पर रोशनी डाली गई है। एम डब्ल्यू. अंसारी लिखते हैं कि मौलवी साहब ने अपनी पूरी जिं़दगी कौम व मिल्लत और पसमांदा मुस्लिम समाज के लिए ही सर्फ की। उन्होंने मजदूरों, किसानों की आवाज़ उठाई। पसमांदा तबके की तालीम व तरबियत पर ज़ोर दिया। इस किताब में एम. ए हक़ मौलवी साहब के हुस्न सुलूक और किरदार के बारे में तहरीर करते हैं ‘किसी को माफ कर देना सबसे बड़ी कुर्बानी है जो हर किसी के बस की बात नहीं। बड़ी गोदाम में दो अफराद (दो व्यक्ति) की लड़ाई में सुलह कराने में मौलवी साहब को एक आदमी ने उनके सीने में कैंची से वार कर दिया। जहां से उसे जेल भेज दिया गया। ज़़ख्म गहरे होने की वजह से मौलवी साहब को कई हफ्ते अस्पताल में गुजारना पड़ा। मुजरिम मौलवी साहब का पड़ोसी था, मौलवी साहब उसकी माली हालात से भी वाकिफ थे, इसलिए वह उसकी बेवा मां की खामोशी से मदद करते रहे। जब वह मुजरिम जेल से एक साल बाद वापस आया तो मौलवी साहब के कदमों पर गिर पड़ा, माफी मांगी। कौम के इस हमदर्द ने उसे अपने सीने से लगा कर माफ कर दिया। 

  पूरी किताब में मौलवी साहब के किरदार के बारे में तेईस लोगों की तहरीरें हैं, जो कि कबीले-दीद व दाद हैं। हार्ड जिल्द के साथ 168 पेज की इस किताब को एम. डब्ल्यू. अंसारी ने मुरत्तिब (संपादित) किया है। सरे वरक की डिज़ाइनिंग सैयद असद अली वास्ती ने और किताब की कंपोजिंग अंसारी सबीहा अतहर ने किया है। न्यू प्रिंट सेंटर दरियागंज, नई दिल्ली से प्रकाशित इस किताब की कीमत सिर्फ 200 रुपए है।


 शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी की अदबी खि़दमात




 दुनिया-ए-अदब में मरहूम शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का नाम किसी तअरुफ (परिचय) का मोहताज नहीं है। उन्होंने इस दारे-फानी में 15 जनवरी 1935 से 25 दिसंबर 2020 तक यानी 85 बरस तक सफर किया। उन्होंने बालिग होने के बाद उर्दू अदब के लिए जो काम अंजाम दिया वह रहती दुनिया तक याद किया जाएगा। ‘नक़्श-ए-नव; (2020 दृ 2021) ने बड़े ही सलीके से उनकी सहाफत, शायरी और तनकीदनिगारी पर उनकी अदबी खिदमात को समोया है। दरअसल ‘नक़्श-ए-नव’ हमीदिया गर्ल्स डिग्री कालेज प्रयागराज ( इलाहाबाद यूनिवर्सिटी) का सालाना उर्दू जरीदह (पत्रिका) है, जिसकी संपादक मोहतरमा नासेह उस्मानी हैं, जबकि एज़ाज़ी मुदीर  प्रो. अब्दुल हक और उप संपादक मोहतरमा ज़रीना बेगम हैं। 

पूरे रिसालह में लगभग पच्चीस लोगों ने अपने इज़हार-ए-ख़्याल पेश किया है। जिसमें फ़ारूक़ी साहब की हयात और अदबी खिदमात पर रोशनी डाली गई है।  प्रो. सेराज अजमली, प्रो. असलम जमशेदपुरी, शाज़िया गुलाम अंसारी, डॉ. इब्राहिम अफसर, डॉ. अरशद जमील जैसे तमाम अदबी शख़्सियात की मुस्तनद राय मौजूद है। अपनी बात में रिसालह की संपादक नासेह उस्मानी कहती हैं-शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी आसमान-ए-उर्दू के ऐसे ताबनाक (रौशन) सूरज थे, जिसकी रौशनी रहती दुनिया तक कायम रहेगी। वह खुश अख़लाक और हमदर्दी का पैकर थे। वह इतनी बुलंदी पर होते हुए भी अपने अज़ीज़ो, रिश्तेदारों और अहबाब से बहुत ही खुश मज़ाजी से मिलते थे।’ रिसालह में डॉ. आसिम शानावाज़ शिबली ने एक बहुत ही खूबसूरत नज़्म ‘फ़ारूक़ी-नामा’ भी पेश की जो कि काबिले-तारीफ़ है। प्रो. अली अहमद फ़ातमी ने शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी की अकबर शानासी पर चर्चा करते हुए लिखा है कि ‘फ़ारूक़ी ने अकबर को दिमाग से कम बल्कि दिल से ज्यादा पढ़ा और समझा है। यूं तो वह एहतेशाम हुसैन और आल अहमद सुरुर से भी मुतासिर (प्रभावित) थे, लेकिन अकबर इलाहाबादी उनके दिलो-दिमाग में छाए रहे और यही दीवानगी उनकी नई तस्वीर पेश करती है।’ और आखिर में ज़रीना बेगम की नज़्म ‘खिराज-ए-अकीदत’ भी क़ाबिल-ए-दीद है। 

  यूं तो पूरा रिसालह पढ़ने काबिल है और नई नस्ल के तालिब ए इल्म के लिए तो बड़े ही काम का रिसालह है बहुत ही सादह और खूबसूरत कवर के साथ रिसालह 319 पेज पर मुश्तमिल है, जिसे उर्दू विभाग हमीदिया गर्ल्स डिग्री कॉलेज, प्रयागराज से प्रकाशित किया गया है, जब की कंपोजिंग शाजिया गुलाम अंसारी ने की है। रिसालह की कीमत सिर्फ 100 रुपए है।

( गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2023 अंक में प्रकाशित )

शुक्रवार, 17 जनवरी 2025

जंगे आज़ादी के सिपाही ड़ॉ. सय्यद महमूद 

                                                        - सरवत महमूद खान 

    ड़ॉ. सय्यद महमूद की गिनती गाजीपुर के महान विभूतियों में होती है, इनका जन्म वर्ष 1890 में ग्राम भीतरी में हुआ था। आपकी प्रारंभिक शिक्षा जौनपुर में पूरी हुई थी। इसके आगे की पढ़ाई क्वीन्स कालेज,वाराणसी और अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में सम्पन्न हुई। इसके बाद पढ़ाई के लिए इंग्लैंड चले गये, वहां से कानून की डिग्री प्राप्त करने के बाद जर्मनी गए। जर्मनी से ही इतिहास में पी.एच-डी. किए। आज़ादी आंदोलन के समय कांग्रेस द्वारा समय-समय पर जो नीति निर्धारण की जाती थी, उसमें इनकी अहम भूमिका होती थी। आपके पिता शेख मुहम्मद उमर बिहार के सिवान में कार्यरत थे। जौनपुर के खानकाहे रशीदीया से आप गहरी आस्था रखते थे। बचपन में ही नुरूद्दीनपुरा के प्रख्यात फकीर शेख मौलाना अब्दुल अलीम आसी गाजीपुरी के मुरीद बन गये थे। आपकी शादी बिहार के राष्ट्रवादी नेता मौलाना मजरूल हक की भतीजी से हुई थी।  


ड़ॉ. सय्यद महमूद

पढ़ाई पूरी करके भारत लौटकर इन्होंने पटना में वकालत शुरू किया। मगर, सन 1920 में गांधी जी के विचारों से प्रभावित होकर वकालत छोड़कर असहयोग एवं खिलाफत आन्दोलन में शामिल हो गए। अपनी प्रतिभा व प्रभावशाली भूमिका के चलते बिहार खिलाफत आन्दोलन के वजीरे आजम बनाये गये। इस पद पर रहते हुए पूरे भारत का भ्रमण किया। वर्ष 1922 बांकेपुर में अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ जोरदार भाषण दिया, जिसकी वजह से इन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। जेल से रिहा होने के बाद कांग्रेस के हर आयोजन में सक्रिय रूप से भाग लेने लगे। सन 1929 से 1934 तक कांग्रेस के महासचिव रहे। सन 1933 में मनोनीत सभापति के साथ कलकत्ता अधिवेशन में जाते समय गिरफ्तार कर लिये गये। सन् 1930 में सरकारी अनुमति से यरवादा जेल में सन्धिदूत द्वय श्री जयकर और ड़ा स्प्रेू गांधी जी से मिले और जो सन्धि शर्तें लिखी गई उसमें महात्मा गांधी और पंडित मोतीलाल नेहरू के साथ ड़ॉ. सय्यद महमूद के भी हस्ताक्षर थे। 30 और 31 अगस्त सन 1930 को मध्यस्थों ने नैनी जेल में मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू के साथ ड़ॉ. सय्यद महमूद की लम्बी एवं गहन वार्तालाप हुई, जिसके बाद ही समझौते का प्रारूप तैयार हुआ। 

  गांधी जी ने यरवादा जेल से 5 सितंबर 1930 को मध्यस्थों को पत्र लिखा कि पंडित मोतीलाल नेहरू, ड़ॉ. सय्यद महमूद और जवाहर लाल नेहरू ने जो सहमति भेजी है, उससे मैं और मेरे साथी सहमत हैं। हिन्दू-मुस्लिम सम्प्रदायिकता के साथ ही छुआछूत की बीमारी भी पूरे समाज में फैली हुई थी। इस समाजिक बुराई को दूर करने के लिए ड़ॉ महमूद ने सराहनीय प्रयास किया, इनके प्रयासों की प्रशंसा करते हुए गांधी जी ने 5 अक्टूबर सन 1933 को एक पत्र लिखा- ’प्रिय ड़ॉ. महमूद, मेरी कितनी इच्छा है कि अस्पृश्यता का यह समाधान हमे और अधिक एकता की दिशा में ले जाय। ईश्वर आपके प्रयत्न को सफल करे।’ ड़ॉ. सय्यद महमूद स्पष्ट वक्ता एवं पक्के वतन परस्त थे। सन 1948 में जमीयतुल उलेमाए हिन्द के इजलास में तत्कालीन उ. प्र के मुख्यमंत्री पं गोविंद बल्लभ पंत की मौजूदगी में एक ज्वलंत प्रश्न के उत्तर में ड़ॉ. सय्यद महमूद ने जोर देकर कहा कि ‘जो पाकिस्तान बनना देखना चाहते थे वह पाकिस्तान जा चुके। जो मुसलमान यहां हैं वह न केवल भारत के वफादार हैं बल्कि वह इस देश से उतना ही प्रेम करते हैं, जितना दूसरे लोग करते हैं।’

   सन 1936-37 में प्रान्तीय धारा सभा के चुनाव में मुस्लिम बहुल क्षेत्र से चुनाव जीतने के कारण ड़ॉ. महमूद श्रीकृष्ण सिहं की मंत्रीमंडल में शिक्षा मंत्री बनाये गये। इसी प्रकार 1945-46 के धारा सभा के चुनाव में जीत दर्ज कराकर मंत्रीमंडल में विकास मंत्री बनाये गये। आजादी के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू के मंत्रीमंडल में विदेश राज्यमंत्री बनाये गये थे। डॉ. महमूद साहित्यकार भी थे। आपने उर्दू और अंग्रेजी भाषा में दर्जनभर किताबे लिखी हैं। आप द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘कल का हिन्दुस्तान’ साहित्य जगत के लिए धरोहर है। ड़ॉ सैयद महमूद का इन्तकाल 28 सितंबर 1971 को दिल्ली में हुआ था। दिल्ली के मेहन्दीयान कब्रिस्तान मे आपको सुपुर्दे-ख़ाक किया गया है, जहां बड़े बड़े उलेमा, मुहद्दीसीन और मुजाहिदीन की भी कब्रें हैं।

(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2023 अंक में प्रकाशित)

सोमवार, 13 जनवरी 2025

समाजिक   सौहार्द   में   कविता   का   बहुत   बड़ा    रोल  है : आईएएस डॉ. अखिलेश मिश्र


डॉ. अखिलेश मिश्र

वरिष्ठ आईएएस डॉ. अखिलेश मिश्र वर्तमान के जाने-माने साहित्यकार हैं। मुशायरों में शिरकत करने के लिए इन्हें पूरे देश के अलावा दुबई, श्रीलंका, सिंगापुर और थाईलैंड समेत कई देशों में आमंत्रित किया जा चुका है। इनकी पुस्तक ‘यूं ही’ काफी लोकप्रिय है, ऑनलाइन बेस्ट सेलर में की जा चुकी है। उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के रहने वाले डॉ. अखिलेश मिश्र ने बी.एच.यू. से एम.एस-सी. करने के साथ ही पी.एच-डी. किया है। बिहार सरकार के कृषि विभाग में अल्पकालिक नौकरी से शुरुआत करने के बाद आप रजिस्ट्रार-लखनऊ विश्वविद्यालय लखनऊ; सीईओ खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड, उ.प्र.; विशेष सचिव, आईटी और  इलेक्ट्रॉनिक्स उ.प्र. सरकार रहने के साथ-साथ कई जिलों में जिलाधिकारी रहे चुके हैं। उच्च शिक्षा विभाग में विशेष सचिव पद पर कार्यरत हैं। वर्तमान में विशेष सचिव, उच्चतर शिक्षा विभाग, उ. प्र.  के महत्वपूर्ण पद पर लखनऊ में कार्यरत हैं। उपस्थित दर्शकों को मंत्रमुग्ध करने वाले,  कुशल प्रशासक के रूप में चुनाव प्रबंधन एवं दंगे रोकने में दक्ष, हरफन मौला आदरणीय डॉ. अखिलेश मिश्रा जी पर्यावरण प्रेमी  प्रशासनिक अधिकारी के साथ-साथ लोकप्रिय कवि एवं रामकथा वाचक भी हैं। डॉ. अखिलेश  मिश्रा जी का जन्म 27 जून 1965 को हुआ है। आपका गृह नगर जौनपुर, उत्तर प्रदेश है। आपने एम.एससी. एवं पीएच.डी. की उपाधि,  बी. एच. यू., वाराणसी से प्राप्त की।  जितनी कुशलतापूर्वक वो प्रशासनिक पदों पर कार्य करते हैं  उतनी ही कुशलता से वो सटीक एवं संवेदनशील काव्य का सृजन भी करते हैं।  प्रशासनिक पद पर रहने के कारण, देश और समाज  की परिस्थितियों पर खुलकर न बोल पाने की मजबूरियों के कारण, उनके संवेदनशील हृदय में उपजता उनका आक्रोश/घुटन/ वेदना, संवेदनशील कविताओं/ शायरी के रूप में निरंतर  प्रस्फुटित होता रहता है।अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने इनसे मुलाकात करके विस्तृत बातचीत की है। प्रस्तुत इस बातचीत के प्रमुख भाग। 


सवाल: आपने समय-समय पर विभिन्न विभागों में कार्य किया है। किस विभाग में कार्य करते हुए आपको सबसे अधिक रुचिकर लगा ?

जवाब: आप का प्रश्न बड़ा ही अच्छा है, और यदि ये पूछा जाय कि कौन सा रूप मुझे सबसे ज्यादा पसंद है तो इसका उत्तर, समय काल परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है। एक समय पर सारे रूप पसंद हो या सारी चीजें एक समय में की जा सकें, ऐसा हमेशा संभव नहीं होता। माहौल के अनुसार, हम लोगों की लिमिटेशन होती है। हम सब बहुत ज्यादा सरकार के पक्ष या विपक्ष में अथवा राजनीतिक परिस्थितियों या धार्मिक पहलू के अनुसार, सार्वजनिक रूप से अपने आपको पेश नहीं कर सकते। विभिन्न दृष्टिकोणों के अनुसार सब कुछ, हर जगह नहीं चल पाता है। अपनी लिमिटेशन/लिब्रिकेशन में, जिस चीज को जितना हम जी लेते हैं, उस समय वही अच्छा लगता है। इसका एक जवाब नहीं हो सकता है। समय काल और परिस्थिति के अनुसार कोई भी चीज कहीं ज्यादा अच्छी लगती है तो कहीं कम अच्छी।

सवाल: रिटायर्मेंट के बाद आप कौन सा रूप अपनाना चाहेंगे ?

जवाब:  इतना पहले से प्लानिंग करके मैं जीता नहीं हूं। हम लोग दिन-प्रतिदिन के आधार पर निर्णय करते हैं। बहुत लम्बी प्लानिंग कभी जिंदगी में, नहीं की है। न पुराने की कोई  चिंता रहती है न भविष्य की कोई फिक्र होती है।

सवाल: प्रशासनिक सेवा में रहते हुए, कविता या शायरी की तरफ आपका झुकाव कैसे हुआ,   शुरूआत कैसे हुई?

जवाब: प्रशासनिक सेवा के शुरूआती दौर में, नैतिक-सैद्धांतिक भावनाएं, हर प्रशासनिक अधिकारी के दिलो-दिमाग में भरी होती हैं। वह अपने आप को एक राजा की तरह देखता, सोचता है। नैतिक रूप से ईमानदार,  न्यायप्रिय व्यक्ति होता है, परंतु धीरे-धीरे परिस्थितियां, व्यक्ति पर हावी होने लगती हैं। तब अलग-अलग स्तर पर डायलूशन होने लगता है। कभी हम नैतिक रूप से अपने आप को कमज़ोर पाते हैं, कभी अन्य रूप में कमज़ोर पाते हैं, कभी व्यवस्था हमें कमज़ोर कर देती है। तो जब इन चीज़ों को, हम देखते हैं और  जहां पर, हम अपने आपको कमज़ोर पाते हैं तो वो कसमसाहट या छटपटाहट कविता के रूप में उभरकर आती है। खुशियां सामान्यतः कविता नहीं पैदा करती हैं, सामान्यतः दुख,  कविता पैदा करती है। चिंता या गम पैदा करती है जो आप नहीं कर पाए रहे हैं उसको कर लेने की इच्छा, वो आपके अंदर कविता पैदा करती है। व्यक्तिगत रूप से अगर कविता की बात करें तो समारोहों में चीफ गेस्ट बनते-बनते मैंने कविता सीखी। शुरूआती दौर में, मैं जब डिप्टी कलेक्टर था तो मेरी कलेक्टर एक महिला थी और सामान्यतः ऐसे कार्यक्रमों में वह नहीं जाया करती थी, तो सारे इलाके में इस दायित्व का निर्वहन मुझे ही करना पड़ता था। सामान्यतः वहां मैं अपने उद्बोधन में दूसरों की रचनाएं ही सुनाता था जैसे बच्चन जी की मधुशाला, वगैरह। जब-जब मैं मधुशाला सुनाता था तो अक्सर, युवा लोग मेरे फैन हो जाते थे। परंतु एक बार मंच पर डॉ हरि ओम पंवार जी ने मुझसे मंच पर ही कहा कि लगता है कि मधुशाला तुमने ही लिखी है, और आगे से मंच पर मेरे सामने आना तो अपनी लिखी कविता लेकर आना, नहीं तो मेरे सामने मंच पर मत आना। मेरठ का माहौल था मेरे सारे फैन थे, बड़े-बड़े कवि थे, मुझे बहुत खराब लगा कि कोई सार्वजनिक रूप से ऐसे हड़का दे। मैंने फिर सात-आठ लाईनों की एक कविता लिखी कि इस बार अगर हरि ओम पंवार जी मिल गए तो उनको सुनाऊंगा परंतु बहुत दिनों तक, हरि ओम पँवार जी से मुलाकात नहीं हुई। फिर बाद में एक समारोह में आमना-सामना हुआ तो मैंने उनको चार लाईनें सुनाई। कविता लिखने का यह प्रयास निरंतर जारी रहा और धीरे-धीरे मैं कविता लिखने लगा। फिर विदेश से भी मुझे कविता पाठ के लिए निमंत्रण मिलने लगा और एक कवि के रूप में, मैं स्थापित हो गया। अतः यह कह सकता हूं कि प्रशासनिक सेवा में आने के बाद ही मैंने कविता लिखना पढ़ना शुरू किया। उर्दू का लहजा मैने अपने आसपास के वातावरण से ही सीखा।


अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’, डॉ. अखिलेश मिश्र, नरेश कुमार महरानी और डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी।


सवाल: प्रशासनिक पद पर रहते हुए, विभिन्न सामाजिक परिदृश्यों पर प्रायः खुलकर नहीं बोल पाने के कारण कवि हृदय अक्सर कसमसाहट और बेचैनी का अनुभव करता होगा, इस परिस्थिति से आप कैसे निपटते हैं?

जवाब:  कोई भी बात कहने में, व्यक्तिगत रूप से मैं डरता नहीं था। कविता की अपनी एक विशेषता है कि कविता समझने वाले को ही चोट करती है। मेरी निर्भीकता तथा स्पष्टता पर, पहली बार जब पत्रकारों ने मुझसे कहा कि आप सुबह तक सस्पैंड हो जाओगे तब मैंने कहा कि अगर आप मेरे शब्दों को, घुमा-फिराकर लिखोगे तो सस्पैंड तो हो ही जाऊंगा, लेकिन सस्पैंड भी हो जाऊंगा तो क्यों हुआ, लोग जानेंगे तो कि ये कवि किस स्तर का है। मैं इस बात से कभी डरा नहीं और ये मेरा अनुभव है कि तमाम बड़े-बड़े दंगे जहां हो जाते हैं, वहां मेरे एक दो शेर ने वो काम कर दिया कि कोई दंगा नहीं हुआ। और मुझे याद है कि एक जगह मुस्लिम पापुलेशन बहुत अधिक थी। वहां पर लोगों ने कहा कि मियां अपने ख़्याल का आदमी है, शायरी करता है इसलिए अपने क्षेत्र में सब ठीक-ठाक रहना चाहिए और फिर कह देने मात्र से कोई बवाल नहीं करता था। इसी तरह हमारे हिंदू भाई भी होते थे, उनको मैं श्लोक वगैरह सुना दिया करता था तो भीड़ मेरे कंट्रोल में आ जाया करती थी। अगर यह नहीं होता तो गंभीर परिस्थितियों में, जितनी कठोरता, मुझे करनी पड़ी, उससे कहीं ज्यादा करनी पड़ती। मैं जिन क्षेत्रों में रहा हूं जैसे मेरठ, सहारनपुर, संभल आदि, ऐसे क्षेत्रों में पोस्टिंग होने की लिस्ट में मेरा नाम इसलिए ऊपर रहता था, कि जो बवाल होगा उसको मैं कुशलतापूर्वक निपटा लूंगा।

सवाल:  आप विषम परिस्थितियों, जैसे दंगा कंट्रोल करते समय या चुनाव संचालन आदि के दौरान, आपका व्यक्तित्व जितना दृढ़संकल्प और कठोर नजर आता है। कवि के रूप में आपका हृदय उतना ही कोमल नज़र आता है। परिस्थितिजन्य या समय की मांग के अनुसार अपने अंदर यह सामंजस्य या बदलाव आप कैसे लाते हैं।

जवाब: मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि कलेक्टर चुनाव संचालन में वरिष्ठ अधिकारी होता है। वह सही समय पर, सही तरीके से, सही निर्णय कर दे तो कोई बवाल नहीं होता है। ये मेरा व्यक्तिगत अनुभव है। सही समय पर सही प्लानिंग के साथ आपकी निष्पक्षता बहुत मायने रखती है। चुनाव में हमारे पास पावर बहुत रहती है और आपका उद्देश्य मात्र एक है कि चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न हो जाय तो फिर अगर थोड़ी अशांति भी फैले तो कोई दिक्कत नहीं।  आपका सर्वाेपरि उद्देश्य है, चुनाव संपन्न होना, तो चुनाव तो हो के रहेगा बाकी सारे विषय गौड़ हो जाते हैं। चुनाव होना है तो होना है। यूपी के हर कोने में चुनाव कराया है। एक-एक चीज़ नियमबद्ध है एक-एक लाइन लिखी हुई है। बहुत ज्यादा बुद्धी प्रयोग करने की ज़रूरत नहीं है। नियमों और दिशा-निर्देशों पर क्लेयरिटी होनी चाहिए, फिर डरना किस बात का है।

सवाल: आपने देश विदेश में आयोजित अनेक कवि सम्मेलन या मुशायरों में मंच से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया है, ऐसे किसी आयोजन के किसी खास संस्मरण के बारे में बताएं।

जवाब: मैं इमरान प्रतापगढ़ी के साथ हुए एक मुशायरे का जिक्र करना चाहूंगा। दुबई में एक प्रोग्राम हो रहा था उसमें हमारी शायरी और इमरान की शायरी में डिफ्रेंस था। मैं शायरी कर के गया और वो खड़ा हुआ। मेरी शायरी के बाद इमरान ने बोलना शुरू किया। बार बार अपनी शायरी में मेरा जिक्र किया कि इन्होंने यह कहा, इन्होंने ऐसा कहा और मैं यह कहना चाहता था। इमरान के फैन्स ने, जिन्होंने जब बार-बार मेरा नाम सुना तो उनमें से बहुत सारे लोगों ने यूट्यूब पर ढूंढ ढूंढ कर मेरा वीडियो बार बार देखा और सोशल मीडिया के द्वारा मेरे तथा मेरी शायरी के बारे में अच्छी तरह से जाना। तमाम लोग मुझसे मिलने आए। उनसे मैंने पूछा कि इतने लोग मुझे यहां कैसे जानते हैं तो उन्होंने बताया कि इमरान प्रतापगढ़ी ने आपका इतना अधिक जिक्र किया कि जिज्ञासावश लोगों ने सोशल मीडिया पर आपके वीडियो एवं रचनाएं ढूंढ-ढूंढ कर देखी, जिससे आप उनके जेहन मे बस गये। सऊदी जैसे देश में शायरी करना, बहुत मुश्किल काम है। अगर आपका एक लफ़़्ज़ गलत हो गया तो कोई भी कार्रवाई हो सकती है। यह मैं काफी पहले की बात बता रहा हूं। वहां काफी संभल के बोलना पड़ता है कि ऐसी कोई बात नहीं निकल जाय कि वहां की जो इंटलजेंसियां होती है वो आप पर कोई आरोप लगा दें।

सवाल:  मंचीय मुशायरों पर हो रही चुटकले बाजी दोअर्थी शब्दों के प्रयोग पर आप का क्या दृष्टिकोण है

जवाब:  हां, आप ठीक कह रहे हैं कि स्तर गिरता जा रहा है, ऐसा मैं मानता हूं,  लेकिन आज का युग ऐसा हो गया है कि किसी को शुद्ध घी खिला देने से आदमी बीमार पड़ जाता है। थोड़ा सा नमक मिर्च तो चलता है परंतु कभी-कभी उसमें जो फूहड़पन आ जाता है वो गलत है। उसमें मंचीय कवि या शायर भले ही वो चुटकुलेवाला क्रियेटर है उसका अपना एक सम्मान होना चाहिए। उसको अपने सम्मान को एक सीमा से नीचे नहीं गिराना चाहिए।  आर्गनाइजर को भी देखना चाहिए। अगर आप किसी भी कवि सम्मेलन के अर्थशास्त्र को देखें तो कुछ लोग ऐसे मिल जाते हैं, जो कहते हैं कि आप अमुक कवि को बुलाओ तो हम फंड की व्यवस्था कर देंगे। अगर दो अर्थी शब्द भी ओरिजनल है, क्रिएटिव है आदमी का, उसे सुना सकता है, बाकी अभद्रता की भी एक सीमा होनी चाहिए। सीमा के बाहर अभद्रता नहीं। किसी की खूबसूरती की तारीफ ज़रूरत से ज्यादा, एक जो लकीर होती है उससे आगे बढ़कर, अगर आपने थोड़ा सा गलत शब्द इस्तेमाल कर किया तो अश्लील हो जाएगी।

सवाल: वर्तमान दौर में जबकि छंदमुक्त कविताओं ने हिंदी साहित्य में अपनी मजबूत पकड़ बना ली है तब कविता की संरचना में छंदो की उपयोगिता पर आपका क्या विचार है ?

जवाब: छंद मुक्त कविता को मैं बहुत ज्यादा साहित्यिक नहीं मानता हूं। हालांकि छंदमुक्त में भी बहुत अच्छी कविताएं लिखी गई हैं, एक से एक अच्छी कविता लिखी गई हैं जैसे निराला की कविता- वह आता--

दो टूक कलेजे को करता, पछताता

पथ पर आता।

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,

चल रहा लकुटिया टेक’

निराला जी की यह कविता उच्चकोटि की साहित्यिक कविता है। अगर छंदमुक्त कविता बहुत उच्च कोटि की है तो चलेगी अन्यथा नहीं। मंच के सामने बैठे हुए आम श्रोताओं में से कुछ गीत समझते हैं, कुछ शायरी, गजल समझते हैं। छंदमुक्त कविता एकेडमिक दृष्टिकोण से तो ठीक है परंतु मंचीय दृष्टिकोण से अगर देखा जाय तो अगर छंदमुक्त कविता में व्यक्तिगत परफार्मेंस बहुत ज्यादा रहेगी तो ही चलेगी। छंदीय कविता तो सब के अंदर होता है। बिना गेयता के कविता बन ही नहीं सकती। कवि मूलतः एक गीतकार ही होता है। गा सके या न गा सके यह अलग बात है।

सवाल: समाज में मानवीयता और सौहार्द बनाए रखने में कविता/ग़ज़ल का क्या किरदार हो सकता है ?

जवाब:  बहुत बड़ा किरदार है और मैं एक लाइटर मोड में  यह भी कहना चाहूंगा कि हम सब लोग यह कहते हैं कि गंगा-जमुनी सभ्यता होना चाहिए तो हम प्रयासरत रहते हैं कि सभ्यता के विरोधी अपना काम न कर जाएं। हृदय को स्पर्श करके, मन को स्पर्श करके, सच्चाई को बयान करके, यह सौहार्द बना रहे और बहुत ज्यादा मामलों में यह सौहार्द बना भी रहता है। इसका एक पहलू यह भी है कि जब हम शांति सभा की मीटिंग करते हैं, अलग अलग स्थितियों में, तो आप देखिए कि दो लाइन में कही गई बात, कितना असर डालती है। अब तो विधानसभा, लोक सभा और हर लोक पटल पर शायरी का अपना एक महत्व हो गया है। कविता डिलीवर तो करती है, कनेक्ट भी करती है। समाजिक सौहार्द में कविता का बहुत बड़ा रोल है।

सवाल:  नौजवानों में हिंदी साहित्य के पठन-पाठन एवं सृजन के प्रति निरंतर घटते रुझान के संबंध में आपको क्या महसूस होता है ?

जवाब:  बड़ी विडंबना है कि हमने हिंदी साहित्य को अर्थशास्त्र से नहीं जोड़ा। हम इसको अर्निंग (धनोपार्जन) का स्रोत नहीं बना सके। अभी हमने एक यूनिवर्सिटी से रिक्वेस्ट किया था कि आप इवेंट मैनेजमेंट में कविता, शायरी, गजल को प्रेजेंटेशन में शामिल करते हुए, मंच संचालन आदि पर एक प्रोजेक्ट बनाएं और अगर देखा जाए तो इसमें बहुत अर्निंग स्कोप भी है। अगर हम किसी तरह से हिंदी साहित्य को अर्थशास्त्र (धनोपार्जन) से जोड़ दें, तो इसकी उपयोगिता स्वतः बढ़ जायेगी। हम खेल में एक अच्छे खिलाड़ी को रिजर्वेशन देते हैं परंतु एक साहित्यकार को नहीं। क्रिएटर (रचनाकार) को नहीं देते। अभी इस पर हम धीरे-धीरे जागरूक हो रहे हैं। जितने भी हमारे वेद, पुराण, पुरानी पुस्तकें हैं जिन पर आज विदेशों में रिसर्च चल रही है, उसको पढ़ाने के लिए ही अलग से व्यवस्था की जा रही है। चरक को पढ़ लीजिए तो बड़े बड़े डाक्टर फेल हो जाएं। साहित्य मे जो बात कह दी गई हैं वहां तक हमारा विज्ञान, आज की भाषाएं पहुंच नहीं सकती। फिर कमी कहां रह गई कि अभी भी हम इसको अर्थ से नहीं जोड़ पाए। जिस दिन साहित्य, अर्थ से जुड़ना शुरू होगा, लोग साहित्य पढ़ना शुरू करेंगे और इसके लिए कुछ करना पड़ेगा इसके लिए मौलिक सोच एवं कार्य चाहिए।


(गुफ़्तगू के अक्तूबर-2023 अंक में प्रकाशित)


शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

 गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2023 अंक में




4. संपादकीय  ( खुद का अचारण पहले ठीक करें )

5-6. देश के अधिकतर मीडिया संस्थानों ने बेचे हैं अपना इमान - अनिल भास्कर

7-9. मंच पर काबिज हैं कविता के हत्यारे - यश मालवीय

10. तपते रेगिस्तान पर पहली बारिश की फुहार - डॉ. मधुबाला सिन्हा

11-20. ग़ज़लें  (मुनव्वर राना, आबिद बरेलवी, डॉ. लक्ष्मण शर्मा ‘वाहिद’, अरविन्द असर, खुरशीद खैराड़ी, शादाब शब्बीरी, शैलेंद्र जय, सरफ़राज अशहर, डॉ. राकेश तूफ़ान, मासूम रज़ा राशदी, शिवसागर ‘सहर’, धर्वेन्द्र सिंह ‘बेदार’, नियाज़ कपिलवस्तुवी, नवीन माथुर पांचोली, डॉ. सगीर अहमद सिद्दी़क़ी, इंदु मिश्रा ‘किरण’, डॉ. शबाना रफ़ीक़, मंजुलशरण मनु, धीरेंद्र सिंह नागा, मधुकर वनमाली)

21-24. कविताएं  ( अंशु मालवीय, डॉ. वीरेंद्र कुमार तिवारी, मधुबाला सिन्हा, अरुणिमा बहादुर खरे, ऋतिका रश्मि, केदारनाथ सविता, सीमा शिरोमणि )

25-29. इंटरव्यू: सामाजिक सौहार्द में कविता का बहुत बड़ा रोल - डॉ. अखिलेश मिश्र

30-36. चौपाल: वर्तमान समय में मीडिया की भूमिका

37-42. तब्सेरा 21वीं सदी के इलाहाबादी, प्रीति धारा, अब और नहीं, रोजनामचा, राबर्ट गिल पारो

43-44. उर्दू अदब  मौलवी अली हुसैन आसिम बिहारी, नक़्श-ए-नव

45-46. गुलशन-ए-इलाहाबाद: फ़रमान अहमद नक़वी

47-48. ग़ाज़ीपुर के वीर: डॉ. सय्यद महमूद

49-53. अदबी ख़बरें

54-83. परिशिष्ट: कामिनी भारद्वाज

54. कामिनी भारद्वाज का परिचय

55. अंतर्मिहित उद्देश्यों को समाहित करती कविताएं - डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’

56-58. जीवन के विविध रंगों की चितेरी कामिनी -  रचना सक्सेना

59-60. विविध आयामों को दर्शाती कविताएं - शिवाजी यादव

61-83. कामिनी भारद्वाज की कविताएं

परिशिष्ट - 2: एस. निशा सिम्मी    84-113

84. एस. निशा सिम्मी का परिचय

85-86. कविताई में खुश्बू बिखेरता फूलों का गुलस्ता-  शिवाशंकर पांडेय

87. कोमल मनोभावों को प्रभावित करता काव्य - शगुफ्ता रहमान

88. खूबसूरत ख़्यालों से परिपूर्ण शायरी - साजिद अली सतरंगी

89-113. एस. निशा सिम्मी की कविताएं

114-144. परिशिष्ट-3: सम्पदा मिश्रा

114. सम्पदा मिश्रा का परिचय

115-116. खूबसूरती से उकेरी गई कविताएं - डॉ. मधुबाला सिन्हा

117-118.  सिलसिलेवार ढंग से अभिव्यक्त होती कविताएं- शैलेंद्र जय

119-121. कविताओं में मनन और चिंतन - नीना मोहन श्रीवास्तव

122-144. एस. निशा सिम्मी की कविताएं