सोमवार, 14 अप्रैल 2025

 18 अप्रैल 1948 से छपना शुरू हुआ  अमर उजाला

डोरीलाल अग्रवाल और मुरारी लाल माहेश्वरी हैं इसके संस्थापक

बरेली शहर के एक छोटे से दफ़्तर से शुरू किया गया इसका कार्य


                                                                               - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी


 

हिन्दी अख़बारों में अमर उजाला अपने अलग तेवर और अंदाज़ के लिए जाना जाता है। प्राय: माना जाता है कि इस अख़बार की ख़बरें तथ्यात्मक होने के साथ-साथ निष्पक्ष होती हैं। यही वजह है कि इसने पाठकों के बीच अपनी अलग पहचान बनाई हैै। इस अख़बार का प्रकाशन 18 अप्रैल 1948 को उत्तर प्रदेश के बरेली शहर से शुरू हुआ। अमर उजाला का जन्म राजनैतिक क्रांति और राष्ट्रीय आंदोलन की पृष्ठभूमि से हुआ। जब प्रकाशन शुरू हुआ तो पहले दिन अमर उजाला की 1200 प्रतियां बिक गई थीं, अख़बार मात्र चार पेज का ही प्रकाशित हुआ था। डोरी लाल अग्रवाल और मुरारी लाल माहेश्वरी ने इसके प्रकाशन की शुरूआत की थी। अख़बार दूसरे के यहां प्रेस में छपना शुरू हुआ, तब अपनी प्रिटिंग मशीन नहीं थी। कुछ ही दिनों में अख़बार की तीन हजार प्रतियां छपने लगीं। इसका प्रसार संपूर्ण ब्रज क्षेत्र के अलावा राजस्थान के भरतपुर और मुरैना तक हो गया। तब देश को आज़ाद हुए एक वर्ष भी पूरा नहीं हुए था। उस समय अंग्रेज़ी और उर्दू अख़बारों का ही बोलबाला था। स्वतंत्रता हासिल होने के साथ ही लाखों शरणार्थियों के आगमन और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या से जनित क्रोध के वातावरण में देश के राजनैतिक कार्यकर्ताओं और नवोदित अख़बारों की परीक्षा शुरू के वर्षों में ही ले ली गई थी। उस दौर में संस्थापक द्वय ने निर्णय लिया था कि हम अपने पाठकों को ख़बर की सच्चाई और तथ्यात्मकता से अपनी ओर आकर्षित करेंगे। बरेली के एक दफ़्तर में इसकी शुरूआत हुई थी। तब न ऑफसेट मशीन थी, न टेलीप्रिन्टर थी और न ही कंप्यूटर। प्रिंटिंग प्रेस में टाइप से कंपोज करके हाथ से छापा जाता था। एक-एक शब्द जोड़ना पड़ता था। इन सबके बीच 1949 में अमर उजाला ने अपना राष्ट्रीय स्वरूप बना लिया। इसके पत्रकार पूरे देश में फैले हुए थे। ये आज़ादी की लड़ाई से तपे हुए पत्रकार थे। आज अमर उजाला के अधिकतर दफ़्तरों में अत्याधुनिक मशीनें लग गई हैं, जिनसे प्रति घंटे 35,000 प्रतियां प्रकाशित हो रही है। 



  वर्ष 1948 में अमर उजाला टाइप से कंपोज होकर छोटी सी मशीन से छपता था, जिसमें मशीनमैन कागज़ निकालता था और पेपरमैन कागज़ लगाता था। कभी-कभी पेपरमैन की अनुपस्थिति में डोरी लाल जी खुद ही पेपर निकालते थे। मुरारी लाल जी देर रात प्रेस में अख़बार छप जाने के बाद घर जाते थे और अगले दिन दोपहर तक फिर ऑफिस आ जाते थे। अमर उजाला की अपनी छपाई की पहली मशीन 1950 में आगरा कार्यालय में लगी थी। शुरूआती दौर में अमर उजाला में सिर्फ़ स्थानीय स्तर के ही विज्ञापन छपते थे, लेकिन चंद वर्षों के भीतर अख़बार को इतनी अधिक शोहरत मिली कि हिंदुस्तान लीवर, टी बोर्ड और हरक्यूलिस मोटर जैसी कंपनियों के विज्ञापन छपने लगे। विज्ञापन छपने के आधार पर ही अख़बार की साख़ और पहुंच का अंदाज़ा लगाया जाता है।ं



 06 सितंबर 1949 को प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरु ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में भाषण दिया-‘हिन्दू राष्ट्र और हिन्दू संस्कृति का नारा निरर्थक है।’ तब अमर उजाला में छपा-‘छात्रों की एक आम सभा में पं. नेहरु ने दो घंटे भाषण दिया। मूसलाघार बारिश में भी छात्र पं. नेहरु का भाषण सुनते रहे और छात्र जमीन पर बैठे रहे।’ इस घटना से एक दिन पहले ही वाराणसी पहुंचे आरएसएस प्रमुख गोलवरकर के खिलाफ़ छात्र नारे लगा रहे थे, काला झंडा दिखा रहे थे। छात्रों पर जमकर लाठी चार्ज हुआ। अमर उजाला में ख़बर छपी-‘काले झंडे देखते ही गुरुजी नेहरु सरकार के सहयोग की अपील कर गए।’ 1950 में अमर उजाला में बिजली से चलने वाली मोनोटाइप मशीन आई, जो एक घंटे में ढाई सौ प्रतियां छापती थी।



 वर्ष 1971 में पाकिस्तान को हराने के बाद इंदिरा गांधी ‘दुर्गा’ बन गई थीं। लेकिन इसके कुछ दिनों बाद देश में इमरजेंसी लागू करके एकदम से खलनायिका बन गईं। देश में गिरफ्तारियां शुरू हो र्गइं और प्रेस सेंसरशिप लागू कर दिया गया। अख़बारों के दफ्तरों में अधिकारी बैठा दिए गए थे। बिना अनुमति के राजनैतिक ख़बरें नहीं छापी जा सकती थीं। तब अमर उजाला ने इमरजेंसी का विरोध करते हुए संपादकीय पेज खाली छोड़ दिया था। अक्तूबर 1994 में जब उत्तराखंड आंदोलन शुरू हुआ। उसी समय दिल्ली कूच कर रहे उत्तराखंड के आंदोलनकारियों पर पुलिस ने फायरिंग कर दिया, जिसमें 15 आंदोलनकारी शहीद हो गए थे। 



प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी। सरकार चाहती थी कि इस ख़बर को इस प्रकार प्रकाशित किया जाए कि घटना दब जाए। लेकिन अमर उजाला नहीं झुका, पूरी ख़बर बिना किसी दबाव के प्रकाशित हुई। इससे नाराज होकर मुलायम सिंह यादव ने 12 अक्तूबर 1994 को हल्लाबोल आंदोलन शुरू करा  दिया। समाजवादी पार्टी के लोग अख़बार की प्रतियां जलाने लगे। सरकारी विज्ञापन बंद कर दिए गए और कार्यालयों पर छापे पड़ने लगे। कर्फ्यू के बहाने अमर उजाल के वितरण पर भी रोक लगा दी गई। उस कठिन दौर में भी अमर उजाला दबा नहीं। सुदूर पहाड़ों में भी वाहनों में छिपाकर अख़बार के बंडल पहुंचाए जाने लगे थे। देखते-देखते विश्वसनीयता अमर उजाला की ट्रेड मार्क बन गई। इस तरह विभिन्न मरहलों से गुजरते हुए देश की पत्रकारिता जगत में अमर उजाला ने अपनी अलग पहचान बनी ली है।



  18 अप्रैल 1948 को आगरा से इस अख़बार की शुरूआत हुई थी। 17 जनवरी 1969 से बरेली, 12 दिसंबर 1986 से मेरठ, 25 मार्च 1989 से मुरादाबाद, 01 मार्च 1992 से कानपुर, 25 फरवरी 1997 से देहरादून, 16 जून 1997 से इलाहाबाद, 30 जून 1997 से झांसी, 20 जुलाई 1999 से चंडीगढ़, 16 जनवरी 2000 से जालंधर, 05 मई 2001 से वाराणसी, 11 अप्रैल 2003 से दिल्ली, 28 जून 2004 से नैनीताल, 03 अक्तूबर 2005 से जम्मू, 08 दिसंबर 2005 से धर्मशाला, 23 जनवरी 2007 से अलीगढ़, 6 अप्रैल 2007 से गोरखपुर, 24 जून 2008 से लखनऊ, 06 मार्च 2014 से रोहतक, 14 जुलाई 2018 से हिसार, 12 जुलाई 2019 से करनाल और 26 अगस्त 2022 से शिमला से अमर उजाला का प्रकाशन शुरू हुआ है। आज 179 जिलों, छह राज्यों और दो केंद्र शासित राज्यों से प्रकाशित हो रहे इस अख़बार के पाठकों की संख्या लगभग पौने पांच करोड़ तक पहुंच चुकी है। ख़बरों के अलावा विभिन्न साप्ताहिक मैग़जीनों की सामग्री के कारण इस सुसज्जित अख़बार की गिनती देश के प्रमुख अग्रणी अख़बारों में की जाती है।

 

 (गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2024 अंके में प्रकाशित )


बुधवार, 9 अप्रैल 2025

 

कुमार विश्वास को पांच लाख परफार्मेन्स के मिलते हैं, कविता के नहीं : उदय प्रताप सिंह

  ब्रज गरिमा सम्मान, डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ सम्मान, पेरामारीवू विश्वविद्यालय, सूरीनाम द्वारा आचार्य की मानद उपाधि के साथ यश भारती सम्मान, डॉ.बृजेन्द्र अवस्थी सम्मान, गुरु चन्द्रिका प्रसाद सम्मान, शायरे-यक़ज़हती सम्मान, भोपाल, साहित्य शिरोमणि, उत्तर प्रदेश, विद्रोही स्मृति सम्मान आदि सम्मानों से विभूषित और ‘देखता कौन है’ नामक कालजयी काव्य-संग्रह के लिए प्रसिद्ध उदय प्रताप सिंह की पहचान साहित्य के सुरुचिपूर्ण अध्येता, कुशल शिक्षक, प्रखर विचारक, जनप्रिय सांसद तथा संवेदनशील बेबाक कवि के रूप में है। इनकर जन्म सन् 1932 में मैनपुरी में हुआ। मुलायम सिंह के गुरु एवं कॅलीग रहे उदय प्रताप सिंह जी ने लोकसभा सदस्य के रूप में (1989), सदस्य राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग, (1997-2000), सदस्य राज्यसभा (2002-2008),  उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के अध्यक्ष (2012-2017) आदि पदों को सुशोभित किया। इसके अतिरिक्त वो, मानव संसाधन विकास मन्त्रालय की स्थायी समिति, संयुक्त समिति, वेतन-भत्ता सलाहकार समिति रेलवे आदि विभिन्न समीतियों के सदस्य भी रहे। अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने इनसे, इनकी रचनाधर्मिता तथा इनके सामाजिक राजनीतिक जीवन और विचारधारा पर विस्तृत बातचीत की है। प्रस्तुत है इस बातचीत के प्रमुख अंश-


लखनऊ में उदय प्रताप सिंह के आवास पर उनका इंटरव्यू मोबाइल में रिकार्ड करते अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’, साथ में सिद्धार्थ पांडेय और इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी।


सवाल: आपके लेखन की शुरुआत कैसे हुई ?

जवाब: मेरे घर का वातावरण बड़ा काव्यमय था। शिक्षित, संयुक्त परिवार था। मेरे बाबा, चौधरी गिरवर सिंह के चार पुत्र हुए। हमारे पिता जी सबसे छोटे थे और शिकोहाबाद में रहते थे। घर में सब काव्य प्रेमी थे। शाम को साथ-साथ खाना खाने के समय होने वाली बातों में  ज्यादातर कविता की ही बात होती थी। जब मैंने हाईस्कूल पास किया तब बड़े ताऊ ने मुझे बंगाल से छपी एक किताब कविता कौमदी लाकर दी। हिंदूस्तान के उस समय के लगभग सारे कवियों की कविताएं उसमें थी। इस माहौल में कविता के बीज वहीं से पड़े होंगे। फिर जब हम बड़े हुए तो हम कविता लिखना शुरू किए। ऐसा हुआ कि जब मैं इण्टरमीडिएट में पढ़ रहा था, प्रोफेसर सागर साहब जो हमारे रिश्तेदार भी थे, उन्होंने एक दिन कहा कि तुमसे हमने कहा था कविता का ट्रांसलेशन करके लाने को, तुम नहीं लाये। तब मैंने कीट्स की एक पोयम का हिंदी अनुवाद करके उनको दिखाया। उन्होंने कहा कि इसे क्या तुम लिखे हो? मैंने कहा, हां। उन्होंने कहा, इसे पूरा करो। उन्होंने उसमें, फिर कुछ सुधार भी किया। उन्होंने कहा कि तुम बहुत अच्छा लिखते हो। जब हम बीए में पहुंचे तो बकायदा कवि सम्मेलनों में जाने लगा था। सन् 56 में जब हमारा कन्वोकेशन हुआ, उसमें लाल बहादुर शास्त्री आए थे। हमारे कॉलेज के मैनेजर रघुवीर सिंह, एम पी थे। उन्होंने एक कवि सम्मेलन करवाया, उसमें एक पूरी कविता हमने भी सुना दी थी। इस कविता की बड़ी तारीफ हुई। सन् 55-56 में जगत प्रसाद चतुर्वेदी, सूचना अधिकारी थे, वो मैनपुरी के नुमाइश में हमको ले गये वहां मैंने एक कविता पढ़ी। वहां से हम कविसम्मेलनों में चलने लगे। 

सवाल: आपकी रचनाओं में तात्कालिक सामाजिक परिस्थितियों के बारे में, आपके द्वारा किए चित्रण पर आपका क्या विचार है। वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों/सौहार्द को सुधारने मे यह कैसे मददगार हो सकता है?

जवाब: राम पर जो कुछ अयोध्या में चल रहा था। उस पर मैंने लिखा  था कि राम को हम छोटा कर रहे हैं। राम रोम रोम में रमे हैं। पूरे संसार में व्याप्त, सर्वज्ञ, सर्वत्र, सर्वशक्तिमान हैं। जब राम का जन्म हुआ तो देवताओं ने धरती पर पुष्प वर्षा की। इस प्रतीक के क्या मतलब हैं कि सारी धरा धाम के राम हैं तभी तो देवताओं ने पुष्प वर्षा की। जो जरा भी ईश्वर के बारे में जाना वो समझ गया कि भगवान सबका है। भगवान दया, क्षमा, करूणा, ममता, प्रेम-परोपकार, भाईचारा इन सबका मिला जुला नाम है। धर्म घृणा नही सिखाता अगर सिखाता है तो अधर्म है कुधर्म है। जो दूसरे के धर्मों से घृणा करता है वो धर्म कुधर्म है। हिंदंुस्तान की हिंदी फिल्मों के पांच बड़े भजन निकालिए, लिखे साहिर ने, गाये रफी ने, संगीत नौशाद का है। मुसलमानों के गाये हुए भजन हैं। मैंने लिखा कि हमें मिली हुई, हिंदंुस्तान की महान संस्कृति की  विरासत, किसी एक की देन नहीं है। यहां आर्य, मुसलमान, सूफी संत आए, सब कुछ न कुछ दे गए। कुछ हमारे वेदों से भी आया कुछ दूसरे धर्मों से आया। गुरू नानक ने भी कुछ कहा। एक उपवन में कई तरह के रंग, फल, फूल और पेड़-पौधे होते हैं। एक विष बेल, अमर बेल किसी पेड़ पर निकल जाय तो सब सूखकर बरबाद हो जाते हैं। एक आदमी गड़बड़ करेगा तो सब गड़बड़ हो जाएगा। इसलिए हम सब का कर्तव्य भी है। अंत में जो मैंने निचोड़ लिखा है कि दुनिया में प्रेम की बहुत जरूरत है। प्रेम जो आकर्षण का प्रेम होता है वही प्रेम नहीं होता प्रेम से हम आपसे बात करें आप हमसे बात करें हम औरों से बात करें।


सवाल: कविता का स्वरूप, स्वहिताय या परहिताय या कुछ और होना चाहिए ?

जवाब: कविता केवल अपने लिए नहीं है। दुनिया के दुखों को सुनना और कविता में लिखना भी बहुत ज़रूरी होता है। कविता, हमने अपने बारे में, अपने प्रेम के बारे में बहुत कम लिखी। साहित्य समाज का दर्पण है लेकिन इसके साथ मैं यह भी मानता हूं कि एमएलए., एमएलसी, तो चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं लेकिन कवि समाज का जन्मजात प्रतिनिधि है। कबीर ने जनता के लिए लिखा। जनहिताय ही कविता में ज्यादातर लिखा गया। इसलिए कविता परहिताय होती है, स्वहिताय नहीं होती। यह मैं मानता हूं।


सवाल: वर्तमान दौर में जबकि छंद मुक्त कविताओं ने हिंदी साहित्य में अपनी मजबूत पकड़ बना ली है। तब कविता में छंदो की उपयोगिता पर आपका क्या विचार है ?

जवाब: अज्ञेय जी अंग्रेजी के विद्वान थे। इंगलैंड में एक आंदोलन चला, एक्सपेरिमेंटलपोएट्री। उसी के आधार पर उन्होंने यहां प्रयोगवादी कविता या नयी कविता, छंदमुक्त कविता का आंदोलन चलाया। उन्होंने कहा कि जब हम छंद के चक्कर में पड़ जाते हैं तो कविता में जो बात, जो भाव हम कहना चाहते हैं वो बात हम नहीं कह पाते। कविता का एक परिभाषा यह भी है कि सुनने के बाद जो आपका पीछा करे। सोचने पर आपको चिंतन पे, मजबूर करे, वो कविता है, वो विचार है। लेकिन ये जो प्रयोगवादी कविता, नयी कविता है बाद में ठोस कविता हुई फिर अकविता भी हुई फिर कविता के जितने भी बंधन हैं सब तोड़ दिये। उनकी कविता हुई वो विचारवान कविता थी। दो ग्रुप हो गये कवियों के, एक हो गये मंचीय कवि और एक हो गये पुस्तकीय कवि। नयी कविता की तार सप्तक की कविताएं है हालांकि मुझे बहुत पसंद हैं। गिरिजा शंकर माथुर, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हैं, जिन्होंने कविताएं लिखी है । ऐसे बहुत लोग हैं जिनको मैं बहुत पसंद करता हूं। मैं कविता में भेद नहीं करता। छंदमुक्त भी अच्छी कविता है उसने हिंदी की अभिव्यक्ति की शक्ति बढ़ाई और अच्छे विचार पैदा किए। बुद्धिमान लोग तो जानते हैं कि दोनो कविताएं अच्छी हैं लेकिन कुछ पेशेवर लोग मानते हैं कि वो लोग तो भाट हैं,  चारण है, मंचो पर कविता पढ़ते हैं और कुछ दूसरे लोग मानते हैं कि वो लोग अहंकारी हैं हमको कवि ही नहीं मानते। यह विवाद तो चलता रहता है। मैं इस विवाद में मैं नहीं पड़ा।


सवाल: कविता के मुकाबले ग़़ज़ल की लोकप्रियता ज़्यादा है, ऐसा क्यों ? 

जवाब: एक जमाने में श्रोताओं को बड़ी फुरसत थी। कवि बड़ी कविता सुनाते थे और लोग सुनते थे। अब सुनने और सुनाने वाले, दोनों लोगों को ज्यादा फुर्सत नहीं है।कविताओं पर लोगों का कंसंट्रेशन भी ज्यादा नहीं है। दोहों का प्रचलन हुआ दो लाईन की छोटी कविता में अपनी बात पूरी हुई। ग़ज़ल के अंदर क्या फायदा है, गजल में हर शेर अपने आप में पूरा होता है। गीत और ग़ज़ल में मुख्य अंतर क्या है? गीत में विषय की निरंतरता रहती है। जिस विषय पर लिखेंगे उसी विषय पर लिखेंगे। ग़ज़ल में हर शेर एक दूसरे से मुक्त होता है। उनमें आपस में संबंध हो या नहीं, कोई ज़रूरी नहीं। दूसरा ग़ज़ल में प्रतीक के माध्यम से बहुत कुछ कहा जाता है। ग़़ज़ल के अंदर एक बड़ा आकर्षण ये भी हुआ कि एक-एक बात को अलग-अलग प्रतीकों के माध्यम से भी कहा गया। एक ग़ज़ल में पांच या ज्यादा शेर होते हैं। पांच शेर कहे और बात पूरी हो गई। दूसरा आकर्षण यह है कि ग़ज़ल गाकर पढ़ी जाती है। ग़ज़ल के अंदर स्कोप बहुत है। एक ही गजल मे श्रृंगार के साथ-साथ राजनीति की भी बात कही जाती है। सरकार के प्रति क्रांति की आवाहन भी किया जाता है। बात सीधे दिल पर चोट करती है। 


सवाल: नये ग़ज़लकार के लिए कौन-कौन बातों का ज्ञान ज़रूरी है ?

जवाब:  मेरा अनुभव यह है कि जब तक आपको हजार दो हजार शेर दूसरों के याद न हो तब तक आप अच्छे शायर नहीं हो सकते। इसके लिए दूसरे शायर को पढ़ना-सुनना बहुत ज़रूरी है। ग़ज़ल के लिए बह्र का ज्ञान होना बहुत ज़रूरी है। लोग यह तक नहीं जानते  कि मतला-मक़ता किसे कहते हैं?  शेर किसे कहते हैं? रदीफ़-क़ाफ़िया क्या है ? ठीक-ठीक जानते भी नहीं हैं बस लिखना शुरू कर दिये हैं। बहुत से लोग  20 मात्रा से लिखना शुरू करते हैं परंतु एक शेर 21 मात्रा का है दूसरा कम या ज़्यादा। उन्हें मालूम नहीं पड़ता लेकिन उस्ताद लोग पकड़ लेते हैं। हम उच्चारण भी ग़लत करते हैं। ग़़ज़ल को गजल कहते हैं।  उच्चारण सही होना चाहिए। मैंने भाषाओं पर बड़ा काम किया है। उच्चारण का बड़ा अंतर है। उर्दू ग़ज़ल में मान्यता है कि जिस भाषा का शब्द इस्तेमाल करें, उसका सही उच्चारण और सही अर्थ मालूम होना चाहिए।


सवाल: देश-विदेश में आयोजित अनेक कवि सम्मेलन या मुशायरों  में, आपने मंच से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया है। ऐसे किसी कविसम्मेलन या मुशायरे से संबंधित किसी खास संस्मरण के बारे में आप गुफ़्तगू के पाठकों को बताएँ।

जवाब:खिलेश मिश्र आईएएस हैं, कवि भी हैं। उन्होंने ग़ज़ल पर एक कार्यशाला चलायी। उसमें कई बड़े शायर आए। उन सबने बताया कि ग़़ज़़ल कैसे लिखी जाती है। मैं उसमें अध्यक्षता कर रहा था। सबसे बाद में मैंने कहा कि दूसरों को पढ़िए, उनको समझिए, याद रखिए। वहां बैठा हुए एक लड़के ने पूछ लिया कि आप बड़ा कवि किसको कहते हैं। मैंने कहा, यह तो अपनी-अपनी पसंद है। कोई दिनकर जी को बड़ा कवि मानता है, कोई किसी और को। फिर उस लड़के ने प्रश्न किया कि कुमार विश्वास जी 5 लाख रूपया लेते हैं तो क्या वो हिंदुस्तान में सबसे बड़े कवि हैं ? तब उस पर मैंने कहा कि कुमार विश्वास बहुत विद्वान हैं। उसकी याददाश्त बहुत अच्छी है। बहुत अच्छा विचारक है। लेकिन उनको जो पांच लाख रुपये जो मिलते है, वो उनकी कविता के नहीं मिलते। वो उसकी परफार्मेंस के मिलते हैं। दो चीजें हो गई; एक कविता, दूसरी परफार्मेंस। अब जैसे राखी सावंत को दस लाख रूपये मिलते है तो वो परफार्मेंस के मिलते हैं। उसमे कविता तो नहीं है। मैंने फिर कहा कि कुमार विश्वास को तो पांच लाख ही मिलते है राखी सावंत को दस लाख रुपये और कपिल शर्मा को और भी ज्यादा मिलते हैं। ये परफार्मेंस के हैं। राखी सावंत और कपिल शर्मा तो कवि नहीं है। एक अख़बार ने इस बातचीत की पूरी खबर को छाप दिया। वो कुमार विश्वास ने पढ़ा। कुमार विश्वास के पूछने पर मैंने कहा कि कार्यशाला में तुम्हारे जानने वाले बहुत लोग थे। मैंने उनके नाम लिए। मैंने कहा कि उनसे पूछिए कि मैंने आपकी कितनी तारीफ की, आप मेरे बहुत निकट एवं प्रिय हैं। बहुत पढ़े-लिखे विद्वान हैं। आपको वक्त पर बहुत अच्छी कविता याद आ जाती है। लेकिन पांच लाख रूपये जो मिलते हैं, वो परफार्मेंस के मिलते हैं। मैंने इसमें क्या झूठ कह दिया है। ये तुमसे भी कह रहा हूं, तुम अगर ठुमकी मारकर, गाकर न सुनाओ तो पांच लाख क्या पांच रुपया नहीं मिलेगा। तब उन्होंने कहा कि हां ये बात सही है।


सवाल: प्रारंभिक दिनों में आपका झुकाव मार्क्सवाद की तरफ रहा, परंतु फिर समाजवादी विचारधारा  से जुड़ गये। ऐसा क्यों ?

जवाब: यह बात सही है कि मैं मार्क्सवादी था। मैंने बीए में मार्क्सवाद का अध्ययन किया  था। उन दिनों आगरा में वामपथियों का बड़ा जोर था। जब लोहिया जी फर्रूखाबाद से चुनाव लड़े तो उस समय, उनकी चुनाव क्षेत्र में हमारा गांव आता था। मार्क्सवादी पार्टी ने हमसे कहा कि हमारा कोई आदमी नहीं लड़ रहा है, लोहिया जी चुनाव लड़ रहे हैं और समाजवादी पार्टी हमारे विचार के नजदीक है तो क्यों न हम समाजवादी को सपोर्ट करें। हम एक दिन लोहिया जी के पास गये। उनसे कहा कि वोट तो हम आपको दे ही रहे हैं लेकिन आप हमारे गांव चलें। वो वहां थोड़ी देर के लिए गये। फिर उनसे और मुलाकात हुई। एक बार हमने लोहिया जी से यही प्रश्न किया जो आपने हमसे प्रश्न किया। उस जवाब में ही आपको, आपके प्रश्न का सही उत्तर मिल जाएगा। मैंने कहा, आपने अपनी पीएचडी में मार्क्स का अध्ययन किया है और जो आपका एक लेख छपा था उसमें भी आपने मार्क्स की तरीफ की है फिर आपने अलग समाजवादी पार्टी क्यों बनाई। लोहिया जी ने कहा कि मार्क्स के समाज और हमारे समाज में एक बड़ा अंतर है। वहाँ वर्ग संघर्ष था। मार्क्स ने वर्ग संघर्ष की बात की थी। हमारे यहां वर्ण संघर्ष है। वर्ग और वर्ण संघर्ष में अंतर है। वर्ग बदल सकता है, तरल है, जैसे गरीब, अमीर हो सकता है, अमीर, गरीब हो सकता है, परंतु यहां ब्राम्हण कभी  नहीं बदल सकता। वह ब्राम्हण ही रहेगा। ठाकुर, ब्राम्हण नहीं हो सकता। छोटी जाति का तो हो ही नहीं सकता। लोहिया जी ने साफ कहा कि वहां वर्ग संघर्ष है। हमारे यहां वर्ण संघर्ष है। इसलिए वहां का सिद्धांत यहां नहीं चलेगा। मार्क्स की परिभाषा के अनुसार किसान कैपिटलिस्ट है। खेत, बैल उसका कैपिटल है परंतु हमारे यहां किसानों की स्थिति, उनके सर्वहारा से भी बुरी है। उनका सर्वहारा कभी फांसी नहीं लगाता। हमारा किसान फांसी लगाकर मर जाता है। हमारे देश की ऐसी परिस्थितियों में मार्क्सवाद नहीं चल सकता। यह हमारी समझ में आ गया इसलिए हम समाजवादी हो गए। 

सवाल: वर्ष 2024 तक आते-आते वामपंथ इतना कमजोर क्यों हो गया?

जवाब: वामपंथ कमजोर नहीं हुआ यह कुप्रचार हुआ। ओलिगार्की, डेमोक्रैसी का बिगड़ा हुआ रूप है, उसमें चंद हाथों में सत्ता आ जाती है। अरस्तु ,प्लेटो से लेकर अंबेडकर सहित सभी विद्वानों ने कहा कि पूंजी, धर्म और राजनीति, इन तीनों का घालमेल नहीं होना चाहिए। आज हिंदूस्तान में इन तीनों का घालमेल है। धर्म मनुष्य की कमजोरी है। धर्म एक अफीम है, जिसे चटा दो, उसकी बुद्धि मारी जाती है। धर्म तो यह कहता है कि जो कह दिया उसे मान लो। इस समय जो खास मुद्दे हैं, पढ़ाई कैसी हो, मंहगाई कम कैसे हो, रोजगार कैसे मिले? सब पर धर्म का पर्दा पड़ गया है। अब धर्म पूंजी राजनीति तीनों एक दूसरे की मदद करते हैं। एक सरकारी आंकड़ा यह भी है कि 73 परसेंट दौलत, एक परसेंट लोगों के पास है और बाकी दौलत 99 परसेंट लोगों के पास है। आप के प्रीएम्बल में यह लिखा है कि हम सबको आर्थिक न्याय देंगे। क्या यहां आर्थिक न्याय है? यह तो आप संविधान के खिलाफ चलरहे हो। इन बातों को लोग नहीं समझ पाते हैं। कहा गया कि यह तो वामपंथियों का प्रचार है और धर्म को आगे ले आए इसलिए वामपंथ कमजोर हो रहा है। लेकिन हमें यह कहने में कोई आपत्ति नहीं है कि वामपंथ को लोग समझते नहीं और धर्म को समझने की ज़रूरत नहीं। 


प्रश्न: क्या यह कहा जा सकता है कि वामपंथ अपने आपको समझाने में असफल हैं?

उत्तर: वामपंथी क्यों समझाए आपमें विवेक है कि नहीं। आप अपने बच्चे को विवेक देंगे और दूसरे को कहेंगे धर्म दो। आप अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाएंगे और आप हिंदी आगे बढ़ाओ का नारा भी लगाएंगे। आजकल दोहरी राजनीति चल रही है। यह धर्म के नाम पर चल रही है। यह राजनीति पहले बहुत कम थी। वामपंथ कमजोर नहीं हो रहा है। वामपंथ को समझने के लिए अकल चाहिए। आदमी अकल से बड़ा घबड़ाता है। वामपंथ में कोई कमी नहीं है। बामपंथ, बुद्धिमानों के लिए है। मूर्खों के लिए यह नहीं है। यहाँ मूर्खों की संख्या ज्यादा है और बुद्धिमानों की कमी है।

        (गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2024 अंक में प्रकाशित )



 

रविवार, 6 अप्रैल 2025

 गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2024 अंक में




3. संपादकीय: जनता को बेवकूफ़ न समझें साहित्यकार

4-6. मीडिया हाउस:18 अप्रैल 1948 से छपना शुरू हुआ अमर उजाला- डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

7-9 हिन्दी ग़ज़ल का नया लिबास- डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफ़री

10-12. दास्तान-ए-अदीब: मुशायरों के शहंशाह थे मुनव्वर राना-डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

13-22. ग़ज़लें:  शरीफ़ शहबाज़, अनुराग ग़ैर, तलब जौनपुरी, ओम प्रकाश यती, डॉ. राकेश तूफ़ान, रेनू वर्मा,  अरविंद असर, नवीन माथुर पांचोली, डॉ. लक्ष्मी नारायण बुनकर, रचना सक्सेना, शशिभूषण गुंजन, मजु लता नागेश

23-32. कविताएं:मर राग पुष्पिता अवस्थी, अविजित सिलावट, डॉ. वीरेंद्र कुमार तिवारी, डॉ. प्रमिला वर्मा, संतोष श्रीवास्तव, शिवानंदन सिंह सहयोगी, डॉ. पूनम अग्रवाल, मंजुला शरण मनु,  हरजीत कौर, डॉ. पूर्णिमा पांडेय, डॉ. मीरा रामनिवास, सीपी सिंह, केदारनाथ सविता, मधुकर वनमानी, सीमा शिरोमणी

33-38, इंटरव्यू:  उदय प्रताप सिंह

39-43. चौपाल: मंच की प्रस्तुति साहित्य की श्रेणी में आती है ?

44-48. तब्सेरा: फ़ानी बाकी, साहेब सायराना, आंख का पानी, बंधन, डॉ. मधुबाला सिन्हा के चुनिन्दा अशआर

49-50. उर्दू अदब: खूश्बू, इब्ने सफ़ी

51-52. गा़ज़ीपुर के वीर:  पत्रकारिता के शलाका पुरुष विजय कुमार

53-55. अदबी ख़बरें 

56-87. परिशिष्ट-1: डॉ. इम्तियाज़ समर

57-58. जीवन जीने का संदेश देती ग़ज़लें: सुधीर सक्सेना

59-60. मुहब्बत का शायर डॉ.समर- शैलेंद्र जय

61-63. ग़ज़ल कहने का एकदम अलहदा अंदाज़ - नीना मोहन श्रीवास्तव

64. ग़ज़लों में सामाजिक सरोकार की अभिव्यक्ति- शिवाजी यादव

65. डॉ. इम्तियाज़ समर: समय का चितेरा - डॉ. मधुबाला सिन्हा

66-87. डॉ. इम्तियाज़ समर की ग़ज़लें


88-118. परिशिष्ट-2: मोहम्मद राफे जामी

89-91. सुू़िफ़याना रंग, त्याग और बलिदान का जोश - इश्क़ सुल्तानपुरी

92-94. अदब के आकाश में उभरता सितारा- अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’

95-96. जामी की ग़ज़लों में समाज का दर्पण

97-118. मोहम्मद राफे जामी की ग़ज़लें


119-148. परिशिष्ट-3: सुनीता श्रीवास्तव

120-121. सजग रचनाकार हैं सुनीता श्रीवास्तव- शिवाशंकर पांडेय

122-123. कविताओं में बहुविध व्यक्तित्व की झलक- डॉ. संतोष कुमार मिश्र

124. हर क्षेत्र को स्पर्श करती कविताएं - अरुणिमा बहादुर वैदेही

125-148. सुनीता श्रीवास्तव की कविताएं


गुरुवार, 3 अप्रैल 2025

रचना की कविताओं अलग धार: डॉ. वीरेंद्र तिवारी

गुफ़्तगू के रचना सक्सेना परिशिष्टांक का विमोचन



प्रयागराज। रचना सक्सेना की लेखनी निरंतर प्रगति की ओर है। आज ये जितनी अच्छी ग़ज़लें लिख रही है,ं उतनी ही अच्छे गीत और अन्य कविताएं लिख रही है। इनमें यह निखार एक दिन में नहीं आया, धीरे-धीरे इनके अंदर यह निखार आया है। इनकी कविताओं में अलग ही धार है। यह बात वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. वीरेंद्र कंुमार तिवारी ने एक मार्च 2025 को अलोपी बाग में साहित्यिक संस्था गुफ़्तगू की ओर से गुफ़्तगू के रचना सक्सेना परिशिष्टांक के विमोचन अवसर पर कही।

मुख्य अतिथि मुकुल मतवाला ने कहा कि गुफ़्तगू पत्रिका पूरे देश में प्रयागराज की पहचान बन गई है। इस पत्रिका के परिशिष्टांक में प्रकाशित होना बहुत महत्वपूर्ण है। रचना सक्सेना बहुत ही अच्छी कवयित्री हैं।

गूफ़्तगू के अध्यक्ष डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि रचना सक्सेना हमारे शहर की बहुत ही अच्छी कवयित्री हैं। इन्होंने गज़ल का छंद सीखकर इसे लिखना शुरू किया है, जिसकी वजह से इनकी ग़ज़लों में प्रायः कोेेई ख़ामी नहीं है।

गुफ़्तगू के सचिव नरेश कुमार महरानी ने कहा कि रचना सक्सेना की कविताएं बहुत ही शानदार हैं। प्रदीप कुमार ंिच़त्रांशी ने भी रचना सक्सेना की कविताओं केा सराहा। संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया।

दूसरे दौर में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। संजय सक्सेना, अजीत शर्मा ‘आकाश’, शिवाजी यादव अनिल मानव, धीरेंद्र सिंह नागा, अफ़सर जमाल, केपी गिरी और इंदु प्रकाश मिश्र ने काव्य पाठ किया।


रविवार, 30 मार्च 2025

 इलाहाबाद की संस्कृति को सहेजने का साहसिक कार्य 

                                                                                -  अजीत शर्मा ‘आकाश’

                                  


   वर्तमान प्रयागराज के साहित्यिक एवं सांस्कृतिक इतिहास से पाठकों को परिचित कराने हेतु शायर एवं पत्रकार इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की पुस्तक ‘21 वीं सदी के इलाहाबादी’ पाठकों के समक्ष गत वर्ष आ चुकी है। इस पुस्तक में साहित्य, खेल, पत्रकारिता, चिकित्सा, राजनीति, न्याय, रंगमंच, सिने कलाकार तथा व्यापार इत्यादि विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित प्रयागराज के उन 106 महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय व्यक्तियों का विवरण प्रस्तुत किया गया है, जिन्होंने अपने कार्यों एवं उपलब्धियों के माध्यम से अपनी एवं इस शहर की एक अलग पहचान बनाई है। अब ‘21 वीं सदी के इलाहाबादी, भाग-2’ प्रकाशित हुआ है, जिसमें अन्य 126 विभूतियों को सम्मिलित किया गया है। इसके लिए भी वही प्रक्रिया अपनायी गयी, जिस प्रक्रिया से पुस्तक के पहले भाग में व्यक्तियों को सम्मिलित किया गया था। इस भाग में भी विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्य करने वाले उल्लेखनीय व्यक्तियों का विवरण सम्मिलित है। प्रत्येक व्यक्ति का विवरण 2-2 पृष्ठों में दिया गया है, जिसके अन्तर्गत उनका सामान्य परिचय, जीवन-परिचय, शिक्षा-दीक्षा, किये गये उल्लेखनीय कार्य तथा सम्मान, पुरस्कार जैसी विशिष्ट उपलब्धियों का समावेश किया गया है। पुस्तक के इस भाग में सम्मिलित कुछ नाम इस प्रकार से हैं- साहित्य के क्षेत्र में- शिवमूर्ति सिंह, एम.ए.क़दीर, नय्यर आक़िल। पत्रकारिता के क्षेत्र में- डॉ. भगवान प्रसाद उपाध्याय, लईक़ रिज़वी, छत्रपति शिवाजी। चिकित्सा के क्षेत्र में- डॉ. आर.के.एस. चौहान, डॉ. ए.के. बंसल, डॉ. मोहम्मद फ़ारूक़़। व्यापार के क्षेत्र में- विदुप अग्रहरि। राजनीति के क्षेत्र में- विश्वनाथ प्रताप सिंह, जनेश्वर मिश्र, रविकिरण जैन, डॉ. रीता बहुगुणा जोशी। फ़ोटोग्राफ़ी- कमल किशोर ‘कमल’। न्याय के क्षेत्र में- न्यायमूर्ति अशोक कुमार, न्यायमूर्ति डॉ. गौतम चौधरी। चित्रकला,, संगीत एवं रंगमंच- डॉ. मधुरानी शुक्ला, प्रो. रेनू जौहरी, डॉ. सरोज ढींगरा, मनीष कपूर और खेल जगत में मोहम्मद रूस्तम ख़ान, परवेज़ मूनिस, मनीष जायसवाल, राजन निषाद, राजश्री मिश्रा, श्रद्धा चौरसिया। पुस्तक के अन्त में गुफ़्तगू परिवार के संरक्षकों तथा कार्यकारिणी सदस्यों का परिचय प्रदान किया गया है।


  इस पुस्तक में सम्मिलित इलाहाबाद के कालखण्ड विशेष के असाधारण कोटि के व्यक्तियों की उल्लेखनीय उपलब्धियों के माध्यम से इलाहाबाद शहर की ख्याति में श्रीवृद्धि हुई है। पुस्तक के प्रकाशन के फलस्वरूप यह प्रतीत होता है कि हमारे साहित्य, संस्कृति कला एवं विज्ञान की धरोहर को सहेजा गया है। इस पुस्तक के माध्यम से 21वीं सदी के इलाहाबाद के साहित्य, संस्कृति एवं सामाजिकता के विकास की अत्यन्त स्पष्ट झलक परिलक्षित होती है। अपनी अलग पहचान बनाने वाले इस प्रकार के व्यक्तित्व निश्चित रूप से पाठकों तथा अन्य लोगों के लिए प्रेरणा-स्रोत हो सकते हैं। इस प्रकार की पुस्तक का श्रम साध्य लेखन अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट श्रेणी का कार्य कहा जाएगा। शोध कार्य के दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि इलाहाबाद शहर के साहित्य, संस्कृति एवं कला पर शोध करने वालों के लिए यह पुस्तक मार्ग प्रदर्शक का कार्य कर सकने में सक्षम है। इसके अतिरिक्त इलाहाबाद शहर की गंगा-जमुनी संस्कृति के पोषक तत्वों के सम्मिलित होने के कारण यह संग्रहणीय पुस्तक है। इसे विभिन्न पुस्तकालयों में रखा जा सकता है, जिससे जन सामान्य भी इस विषय में जानकारी प्राप्त कर सकें।पुस्तक का मुद्रण एवं गेट अप उत्तम कोटि का है तथा कवर पृष्ठ आकर्षक है। यह कहा जा सकता है कि लेखक का यह प्रयास अत्यन्त सराहनीय है तथा इलाहाबाद की संस्कृति को बनाये रखने एवं उसकी श्रीवृद्धि करने में इस पुस्तक का अमूल्य योगदान रहेगा। गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित की गयी 264 पृष्ठों की इस सजिल्द पुस्तक का मूल्य 600/-रूपये है।


 आकर्षक एवं रंगीन चित्रों से सुसज्जित बाल-रचनाएं


 बाल कविता संग्रह ‘चंचल चुनमुन’ के माध्यम से कवि अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने बच्चों को उनके परिवेश, सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं, संस्कारों, जीवन मूल्यों, आचार-विचार एवं व्यवहार की अच्छी शिक्षा प्रदान करने का प्रयास किया है। इस संग्रह में देशभक्ति की भावना तथा प्रकृति प्रेम एवं विविध मानवीय मूल्यों से युक्त 74 कविताएं संकलित हैं, जो बाल-पाठकों को देशभक्ति एवं प्रकृति एवं पर्यावरण प्रेम की शिक्षा प्रदान करती हैं। सभी कविताएं रंग-बिरंगे तथा उत्तम श्रेणी के पृष्ठों एवं चित्रों से सुसज्जित हैं। आकर्षक आवरण पृष्ठ एवं प्रत्येक रचना के अनुसार सुसंगत सुन्दर चित्र पुस्तक को बाल-मन के और निकट लाते हैं।

 प्रस्तुत बाल कविता संग्रह में सम्मिलित कविताओं के अन्तर्गत व्यायाम, जंक फूड, शैतान बंदर, गली क्रिकेट, वृक्षारोपण, संयताहार शीर्षक कविताएँ शिक्षाप्रद है तथा वृक्ष लगाओ, स्वच्छता, मीठी बोली, अखबार, जंगल में लोकतंत्र शीर्षक कविताएँ बच्चों के मन को प्रेरणा प्रदान करने का कार्य करती हैं। ससुराल चले, चुनमुन बंदर, गरम जलेबी, जलेबी और मिस्टर मैंडोला  रचनाएँ विशु़द्ध हास्य-विनोद के रंग में सराबोर हैं, तो चिड़िया रानी, तितली, गिल्लू गिलहरी, परी, पतंग, मक्कार बिल्ली रोचक बन पड़ी हैं। तिरंगा झंडा, स्वतंत्रता दिवस शीर्षक कविताएँ बच्चों के मन में देशप्रेम की भावनाएँ जाग्रत करती हैं। इनके अतिरिक्त अन्य रचनाएँ भी सराहनीय हैं। प्रस्तुत हैं इस संग्रह की कुछ बाल कविताओं के अंशः-’चाह हो छूना अगर गगन/लक्ष्य पर बच्चो सदा नयन/अनुशासित रखो धैर्य लगन/नेक हो नीयत/रहो मगन।’, ‘तिरंगा- आज़ादी की तान तिरंगा/वीरों का अभिमान तिरंगा/लहर लहर लहराय गगन में/भारत का सम्मान तिरंगा।’, ‘वृक्ष लगाओ- जंगल बिना न सांस चलेगी/ना मनुष्य की जात बचेगी/इक दूजे पर निर्भर जीवन/वृक्ष लगाओ जान बचेगी।’, ‘कोयल सा मीठा बोलोगे/सबके प्यारे बन जाओगे/दोगे गर सम्मान सभी को/खुद भी आदर पा जाओगे।’, ‘बच्चो अगर बचाना जान/पर्यावरण का रखो ध्यान/पेड़ न काटो अब नादान/वृक्षारोपण हो अभियान।’

 कहा गया है कि बाल साहित्य बच्चों की एक भरी-पूरी, जीती-जागती दुनिया की समर्थ प्रस्तुति और बालमन की सूक्ष्म संवेदना की अभिव्यक्ति है। यही कारण है कि बाल साहित्य में वैज्ञानिक दृष्टिकोण व विषय की गम्भीरता के साथ-साथ रोचकता व मनोरंजकता का भी ध्यान रखना होता है, जो इस पुस्तक की विशेषता है। पुस्तक में रचनाकार ने कथ्य का विशेष रूप से ध्यान रखा है, किन्तु शिल्प पक्ष में कुछ कमियां भी झलकती हैं। सर्वप्रथम तो अधिकतर कविताओं में छन्दबद्धता का ध्यान नहीं रखा गया है, जिससे लय बाधित होने के कारण पठनीयता एवं गेयता प्रभावित होती है। पुस्तक का मुद्रण एवं गेट अप उत्तम श्रेणी का है तथा कवर पृष्ठ सहित सभी पृष्ठ रंगीन चित्रों से सुसज्जित एवं आकर्षक हैं। गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित की गयी रचनाकार अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’की 80 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 200 रूपये है।


नये सृजन के साथ नये कवि का आगमन 

  


लेखक राजेन्द्र यादव की पुस्तक ‘रसा’ उनकी काव्य-रचनाओं का एक संग्रह है, जिसमें उनकी कुछ कवितायें संग्रहीत हैं। कथ्य की दृष्टि से देखा जाए तो इस काव्य-संग्रह में रचनाकार ने अपने मनोभावों तथा अनुभूतियों को व्यक्त करने का प्रयास किया है। रचनाओं के वर्ण्य-विषय मुख्यतः वर्तमान समाज का चित्रण, जीवन का यथार्थ, सामाजिक सरोकार, स्त्री की हृदयगत भावनाएं, आम आदमी की व्यथा एवं वर्तमान राजनीतिक विसंगतियों का चित्रण आदि हैं। साथ ही वर्तमान बिगड़ते परिवेश के प्रति रचनाकार की चिंता भी दिखायी देती है। रचनाओं के अंतर्गत आज के जीवन में व्याप्त संत्रास, घुटन, वेदनाओं एवं अनुभूतियों को काव्य रूप में दर्शाने की चेष्टा की गयी है। इसके अतिरिक्त ग्रामीण जीवन एवं प्रकृति वर्णन भी दृष्टिगोचर होता है। यत्र-तत्र जीवन के अन्य विविध रंग भी चित्रित किये गये प्रतीत होते हैं।

  शिल्प की दृष्टि से रचनाएँ अधकचरी एवं अपरिपक्व प्रतीत होती हैं। वस्तुतः काव्य-सृजन की प्रत्येक विधा का एक अनिवार्य अनुशासन एवं शिल्प विधान होता है, जिसका पालन रचनाकार को करना होता है, लेकिन इस  पुस्तक में ठीक ढंग से पालन नहीं किया गया है।      पुस्तक में संग्रहीत अन्य रचनाओं के कुछ अंश इस प्रकार हैः-“काश कोई अपना भी जहां होता/जहां इस परिंदे का बसेरा होता।“, “समस्या का समाधान युद्ध हो नहीं सकता/निज गौरव अभिमान युद्ध हो नहीं सकता।“,“क्या मंदिर, क्या मस्जिद, क्या गुरूद्वारा/जहां देखो तो हर जगह इंसान है हारा।“,“ख़ौफ़ नहीं जिसको, वह देश हत्यारा है/अश्क बहे लोगों के, ये कैसी विचारधारा है।“ आशा की जा सकती है कि लेखक की आगामी कृतियाँ काव्यशास्त्र एवं भाषा व्याकरण के दोषों से मुक्त होंगी तथा और अच्छे एवं साहित्यिक रूप में पाठकों के समक्ष आयेंगी। 80 पेज की इस किताब को गुफ़्तगू पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 100 रुपये है।

    प्रतिभा, लगन और ज़ुनून की कहानी



 ‘झंझावात में चिड़िया’ प्रतिभाशाली फ़िल्म अभिनेत्री और टॉप मॉडल तथा बैडमिंटन कोर्ट के ‘जेंटल टाइगर’ कहे जाने वाले पिता प्रकाश पादुकोण की पुत्री दीपिका पादुकोण पर आधारित एक जीवनी परक उपन्यास है। यह उपन्यास सुप्रसिद्ध लेखक प्रबोध कुमार गोविल द्वारा लिखा गया है, जिसके 23 भागों के माध्यम से उनकी सम्पूर्ण कहानी कही गयी है। पुस्तक में बैंडमिंटन खेल में सफलता के उच्चतम शिखर पर रह चुके दीपिका के पिता प्रकाश पादुकोण के जीवन एवं उनकी खेल-यात्रा के विषय में भी बताया गया है कि उनके बैडमिंटन रैकेट से बैडमिंटन कोर्ट में एक झंझावात-सा उत्पन्न हो जाता था, जिसमें “शटल कॉक“ चिड़िया“ कँपकँपा जाती थी। अपने पिता की इस कला से प्रेरित होकर दीपिका टॉप मॉडल एवं सफल अभिनेत्री बनी। उन्होंने पिता के नाम का सहारा लिये बिना अपने ही दम पर सफलताएँ अर्जित कीं। अपनी डेब्यू फ़िल्म ’ओम शांति ओम’ की अपार सफलता के बाद दीपिका को ’लेडी आफ द स्क्रीन’ कहा जाने लगा। दीपिका के फिल्मों में आगमन के समय फिल्म जगत में बहुत सी विश्व सुन्दरियों का बोलबाला था। इसके बावजूद दीपिका पर दौलत, शोहरत और पुरस्कारों की बारिश हुई। उन्हें ’गोलियों की रासलीला रामलीला’ के लिए फिल्मफेयर का बेस्ट एक्ट्रेस अवार्ड मिला। इसके अतिरिक्त वह बेस्ट एक्ट्रेस का आइफा अवार्ड, रणवीर कपूर के साथ वर्ष की सर्वश्रेष्ठ जोड़ी का पुरस्कार, बेहतरीन एंटरटेनर के पुरस्कार, स्टार स्क्रीन पुरस्कार, जी सिने पुरस्कार, आइफा सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार; स्टारडस्ट पुरस्कार, आईडिया जी फैशन पुरस्कार, किंगफिशर वार्षिक फैशन पुरस्कार जैसे अनेक सम्मान एवं पुरस्कारों की विजेता भी रहीं।

   अपनी क़द-काठी, अप्रतिम सौन्दर्य एवं आकर्षण के कारण उन्हें कई प्रतिष्ठित मॉडलिंग के प्रस्ताव प्राप्त हुए। उन्होंने लिरिल, डाबर, क्लोज-अप टूथपेस्ट और लिम्का जैसी प्रसिद्ध भारतीय ब्रांडों के लिए मॉडलिंग की। 5वें किंगफिशर वार्षिक फैशन पुरस्कार समारोह में उन्हें वर्ष की शीर्ष मॉडल के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 2006 के किंगफिशर स्विमसूट कैलेण्डर के लिए एक मॉडल के रूप में उन्हें चुना गया और बाद में उन्होंने आईडिया जी फैशन पुरस्कार में दो ट्राफियाँ, फीमेल मॉडल ऑफ़ दी इयर (कॉमर्शियल असाइनमेंट) और फ्रेश फेस ऑफ़ दी इयर के पुरस्कार प्राप्त किए। दीपिका पादुकोण को किंगफिशर एयरलाइंस एवं लीवाइस और टिसॉट एसए की ब्राण्ड एम्बेसडर के रूप में चुना गया, और इस प्रकार वह देश की टॉप मॉडल बनीं। पारम्परिक भारतीय लुक वाली दीपिका पादुकोण ने मीडिया, जनता एवं फ़िल्म तथा मॉडलिंग इण्डस्ट्री- सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया था। उन्हें वर्ष 2010 में सबसे सेक्सी महिला कहा गया था।

उपन्यास की भाषा सीधी-सरल बोलचाल की आम भाषा है। लेखन-शैली रोचक एवं प्रवाहयुक्त है, जो कथानक के साथ पाठकों को पूरी तरह से जोड़े रहती हैं। पुस्तक को पढ़ते समय पाठकों के समक्ष दीपिका के जीवन से जुड़ी हर एक घटना सामने आती-जाती रहती है और पाठक उसमें डूब-सा जाता है। जिज्ञासा एवं कौतूहलवश वह एक के बाद दूसरा पन्ना पढ़ता जाता है। पुस्तक का मुद्रण एवं अन्य तकनीकी पक्ष उच्चकोटि का है। कवर पृष्ठ आकर्षक है। वनिका पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित 110 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 230 रूपये है।


अच्छी ग़ज़लों का सृजन है ‘उम्मीद’

    

                         

 हन्दी साहित्य की एक महत्वपूर्ण काव्य-विधा के रूप में ग़ज़ल निरन्तर लोकप्रिय होती जा रही है। यही कारण है कि वे रचनाकार, जिन्हें ग़ज़ल व्याकरण के कखग तक की जानकारी भी नहीं है और वे रचनाकार, जो ग़ज़ल व्याकरण को समझकर एवं तद्विषयक सम्यक् जानकारी प्राप्त कर ग़ज़ल विधा में लिख रहे हैं; दोनों ही प्रकार के रचनाकारों की लेखनी इस विधा की ओर अग्रसर है। ‘उम्मीद’ रीता सिवानी का प्रथम ग़ज़ल-संग्रह है, जिसका शिल्प एवं कथ्य श्रेष्ठ तथा सराहनीय है। ग़ज़ल के छन्दानुशासन एवं अन्य बन्दिशों के प्रति सजगता के कारण अच्छी ग़ज़लों का सृजन रचनाकार की रचनाधर्मिता एवं सृजनात्मकता को दर्शाता है। रचनाकार ने ग़ज़ल-लेखन के लिए आवश्यक तत्वों, यथा- अरूज़ (व्याकरण) क़ाफ़िया, रदीफ़, मतला, मक़्ता, एवं बह्रों तथा उनकी तक़्तीअ (मात्रा-गणना) के विषय में आवश्यक जानकारी प्राप्त कर इनका सृजन किया है। 

 कथ्य की दृष्टि से रचनाओं में वर्तमान समाज का चित्रण एवं जीवन के विविध पक्षों को भी उजागर करने का प्रयास किया गया है। ग़ज़लों में आज के युग की विडम्बना, सामाजिक विसंगतियों एवं आम आदमी के यथार्थ चित्रण को उकेरा गया है। इनके अतिरिक्त देश की कुव्यवस्था एवं अवसरवादी तथा गंदी राजनीति पर भी लेखनी चली है। प्रेम एवं श्रृंगार विषयक ग़ज़लें भी हैं। इनकी शायरी में दर्द, पीड़ा, आक्रोश की झलक भी परिलक्षित होती है। इसके साथ ही भक्ति, देशप्रेम, वात्सल्य, दूरदर्शिता, आशावादिता, आकांक्षाएं आदि की भावनाएँ विद्यमान हैं। पुस्तक में संग्रहीत ग़ज़लों के कुछ अंश दृष्टव्य हैं-‘देवता कौन है कौन इंसान है/कर्मों से ही यहाँ सबकी पहचान है।’, ‘भ्रष्टाचारी हर दफ़्तर में/ फिर भी देश महान बहुत है।’, ‘शहरी बिल्डिंग से हमेशा गांव का/अपना कच्चा घर मुझे अच्छा लगा।’, ‘फगुआ चौती सोहर बिरहा/पहले सा अब क्या होता है।’ लेखन के प्रति रचनाकार की यथासम्भव सतर्कता एवं सजगता के बावजूद संग्रह में ग़ज़ल-व्याकरण की दृष्टि से कहीं-कहीं दोष परिलक्षित होते हैं। यथा- ऐबे तनाफ़ुर- कम मत, फ़लक का, बस सुनो इत्यादि। तक़ाबुले रदीफ़- बंद हो (पृ0-77)। क़ाफ़िया दोष- चमन/भगवान (पृ0-19) आदि। ऐबे शुतुरगु़र्बा- ‘तुम्हें’ और ‘तेरे’ का एक ही शेश्र में प्रयोग (पृ0-111)। इन सबके बावजूद ‘उम्मीद’ पुस्तक यह दर्शाती है कि हिन्दी में अच्छी ग़ज़लें कही जा रही हैं। 


(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2024 अंक में प्रकाशित)



 

शनिवार, 29 मार्च 2025

 मानव की शायरी में समाज का सच्चा मूल्यांकन: बसंत 

पुस्तक ‘अनिल मानव के चुनिन्दा अशआर’ का विमोचन और मुशायरा



प्रयागराज। अनिल मानव हमारे समाज के  युवा शायर हैं। इन्होंने ग़ज़ल की शायरी शुरू करने से पहले उस्ताद के ज़रिए इसकी छंद की बारीकी को सीखा है और उसी रूप में अपनी शायरी को ढ़ाला है, इसलिए इनकी शायरी परिपक्व और दोषरहित है। इनकी शायरी की ख़ास बात यह है कि उन्होंने समाज का सही आबजर्वेशन करके उसे शायरी में उतार दिया है। इसलिए इनकी शायरी बोलती है। इन्होंने समाज के दर्द को खूब अच्छी तरह से महसूस किया है और उसे अपनी शायरी में तार्किक ढंग से ढाल दिया है। यह बात उत्तर मध्य रेलवे के मुख्य यात्री परिहवन प्रबंधक बसंत कुमार शर्मा ने कही। 20 अक्तूबर की शाम साहित्यिक संस्था गुफ़्तगू की तरफ से विमोचन समारोह और मुशायरे का आयोजन सिविल लाइंस स्थित प्रधान डाक घर में किया गया। 

 गुफ़्तगू के अध्यक्ष डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि अनिल मानव अपनी शायरी में समाज के दर्द और अव्यवस्था को उकेरते हैं। एक तरह से उनकी शायरी अदम गोडंवी की शायरी के काफी करीब लगती है। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में मीडिया स्टडीज़ सेंटर के कोआर्डिनेटर डॉ. धनंजय चोपड़ा ने अनिल मानव के एक शेर का अंश ‘उम्रभर भरते रहो चांबियां विश्वास की’ को प्रस्तुत करते हुए कहा कि यह शायरी आज के समाज की हक़ीक़त है। शिक्षक हमेशा उपदेश देता है और अगर वह शिक्षक शायर भी हो जोए उसका उपदेश और अधिक तमन्यता से समाज के सामने आ जाता है। यही बात अनिल की शायरी में दिखाई देती है। डॉ. चोपड़ा ने यह भी आज के दौर में जब किताबें बहुत महंगी हो गई हैं, ऐसे में गुफ़्तबू पब्लिकेशन की यह किताब केवल 25 रुपये की है, यह देखकर मुझे बहुत ही प्रसन्नता हुई।

भारतीय डाक सेवा के एडीशनल डायरेक्टर-2 मासूम रज़ा राशदी ने कहा कि किसी भी शायर की पहली किताब का आना उसी तरह से है जैसे परिवार में एक नया सदस्य जुड़ गया। इनकी शायरी समाज और परिवार के कई मुद्दों को रेखांकित करती है। डॉ. वीरेंद्र कुमार तिवारी ने कहा कि अनिल की शायरी आज के समय में सबसे अलग है, इस किताब का अलग ढंग से मूल्यांकन किया जाएगा। नरेश महरानी ने भी अनिल मानव की शायरी की प्रशंसा की।

दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया। संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया। नीना मोहन श्रीवास्तव, शिबली सना, हकीम रेशादुल इस्लाम, धीरेंद्र सिंह नागा, अफ़सर जमाल, आसिफ़ उस्मानी, प्रभाशंकर शर्मा, शशिभूषण मिश्र, अजीत शर्मा आकाश, निखत बेगम, शिवनरेश भारती, विक्टर सुल्तानपुरी, देवी प्रसाद पांडेय, गीता सिंह, असद ग़ाज़ीपुरी और सुजीत जायसवाल आदि ने कलाम पेश किया।



शनिवार, 15 मार्च 2025

नई कविता के प्रवर्तक हैं डॉ. जगदीश गुप्त

घर में ही लगता था बड़े साहित्यकारों का जमघट

बेटे विभु ने बचपन से ही देखी है साहित्य मंडली

                                                                                 - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी 


डॉ. जगदीश गुप्त

 नई कविता के प्रवर्तकों में शामिल डॉ. जगदीश गुप्त हिन्दी साहित्य के प्रमुख लोगों में शामिल हैं, जिनकी वजह से समाज की प्रमुख धारा में साहित्य बना रहा है। नये लोगों को भी डॉ. गुप्त की वजह काफी प्रोत्साहन मिलता रहा है। उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले में जन्मे डॉ. गुप्त का कर्मस्थल इलाहाबाद ही रहा है। इंटरमीडिएट की पढ़ाई करने के लिए हरदोई से यहां आए और फिर यहीं के होकर रह गए। पहले महादेवी वर्मा से जुड़े और फिर ये सिलसिला बढ़ता चल गया। बचपन में ही पिताजी का देहांत हो गया था। इसलिए पढ़ाई का खर्च भी खुद ही निकालना था। इस खर्च को पूरा करने के ये कई प्रतिष्ठित साहित्यकारों की किताबों का कवर पेज भी डिजाइन किया करते थे, शुरूआत महादेवी वर्मा की किताब से हुई थी। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अध्यापन कार्य से जुड़ने के बाद गृहस्थ जीवन में जुड़ गए। शादी हुई और फिर परिवार बढ़ा। तीन बेटियों के बाद तीन बेटों का जन्म हुआ। तीन बेटियों के बाद सबसे बेटे विभु गुप्त का जन्म हुआ। विभु ने अपने पिता और उनके मित्रों को देखा है, उनका आना-जाना और साथ में घुलना-मिलना बचपन से ही रहा था।

 प्रतिष्ठित कवि होने के कारण अक्सर ही डॉ. जगदीश गुप्त के घर सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा, फ़िराक़ गोरखपुरी, दुष्यंत कुमार, सुमित्रानंदन पंत, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती, विष्णुकांत शास्त्री, श्रीनारायण चतुर्वेदी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रामकुमार वर्मा, विजय देव नारायण शाही आदि साहित्यकारों को आना-जाना लगा रहता था। अक्सर ही डॉ. गुप्त के घर काव्य गोष्ठियों हुआ करती थीं, तब उस समय के प्रतिष्ठित और युवा कवियों का जमावड़ा होता था। साहित्यिक प्रतिष्ठा और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अध्यापन कार्य के साथ-साथ डॉ. जगदीश गुप्त अपने सभी छह बच्चों का पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा का भी विशेष ध्यान रखते थे। अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से कभी विमुख नहीं हुए।


महादेवी वर्मा से अैठे हुए डॉ. जगदीश गुप्त

 विभु गुप्त ने स्नातक करने के बाद फोटोग्राफी में डिप्लोमा किया और इसके बाद अख़बारों में फोटोग्राफर हो गए। पहले ‘अमृत प्रभात’ अख़बार और उसके बाद ‘राष्टीय सहारा’ में बतौर फोटोग्राफर नौकरी करते हुए रिटायर हुए हैं। रिटायरमेंट के बाद से ही विभु अपने पिता के लेखन और पेंटिंग को संजोने में जुटे हुए हैं। इन्होंने वेबसाइट बनाकर अपने पिता के लगभग सभी लेखन और पेंटिंग को इस वेबसाइट पर अपलोड कर दिया है। वर्ष 2018 में इन्होंने ूूूण्रंहकपेीहनचजण्बवउ नाम से वेबसाइट बनाई है। इसमें डॉ. गुप्त की सारी चीज़े अपलोड करने में जुटे हुए हैं। डॉ. अटल बिहारी वाजपेयी की पुस्तक ‘मेरी 51 कविताएं’ की भूमिका भी डॉ. गुप्त ने ही लिखी है।

 विभु बताते हैं कि पिताजी खुद तो हमलोगों को नहीं पढ़ाते थे, लेकिन हम भाई-बहनों की पढ़ाई पर पूरा ध्यान रखते थे। किसकी पढ़ाई कैसी चल रही है, कैसे पढ़ाई करनी चाहिए आदि-आदि का ध्यान रखते थे। साथ ही उस ज़माने में भी ट्यूशन लगा दिया था। डॉ. जगदीश गुप्त के निर्देशन में हरिशंकर मिश्र शोध कार्य करते थे। हरिशंकर ही डॉ. गुप्त के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते थे। बाद में हरिशंकर मिश्र लखनउ यूनिवर्सिटी में हिन्दी के विभागाध्यक्ष भी हुए थे। विभु बताते हैं कि हम भाई बहनों की पढ़ाई पर अपना कोई विचार नहीं थोपते थे, जिसकी रुचि जिस क्षेत्र में हो उसे उसी क्षेत्र में आगे बढ़ाने के हिमायती थे। यही वजह है कि विभु अपनी रुचि अनुसार फोटोग्राफर बने।


बााएं से- भारत भूषण वार्ष्णेय, इम्तियाज़ अहमद ग़़ाज़ी और विभु गुप्त

विभु बताते हैं कि जब मैं कोई अच्छी तस्वीर खींचकर लाता था तो वे उसकी प्रशंसा भी करते थे। डॉ. गुप्त कवि होने के साथ बहुत ही अच्छा पेंटिंग और स्केच बनाते थे। उनके पास हमेशा काले स्याही वाली कलम होती थी। रास्ता चलते जब कोई अच्छी चीज़ देखते थे तो छोटे-छोटे कार्ड पर उसका रेखाचित्र बना लेते थे, जिस तरह आजकल लोग मोबाइल से फोटो खींच लेते हैं। 

विभु बताते हैं कि डॉ. जगदीश का पोेता जिसे वे ‘वासु’ नाम से बुलाते थे, उसी को केदिं्रत करते हुए एक किताब ‘वासुनामा’ लिखा है। वासु के बहाने उन्होंने बच्चों को केंद्रित यह किताब लिखी गई है, जिसका शीघ्र ही विभु गुप्ता प्रकाशन कराने जा रहे हैं। आदिकाल की मूर्तियों को एकत्र करने का भी डॉ. गुप्त को बहुत शौक़ रहा है। एक विशाल संग्रह उन्होंने अपने घर में किया था, जिसे विभु गुप्ता ने बहुत ही संजोकर रखा है।


पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से भारत-भारती सम्मान प्राप्त करते डॉ. जगदीश गुप्त।   

डॉ. गुप्त को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की तरफ से भारत-भारती पुरस्कार मिला था, यह पुरस्कार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने हाथ से दिया था। मध्य प्रदेश हिन्दी संस्थान की तरफ से मैथिली शरण गुप्त पुरस्कार के अलावा तमाम सम्मान से इन्हें नवाजा गया था। इनके निधन होने पर पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह भी घर आये थे। डॉ. गुप्त एक सफल चित्रकार भी थे, इसलिए उन्होंने चित्रमय काव्य की परम्परा को पुनर्जीवित किया। हिंदी काव्यधारा में महादेवी जी ने चित्र और काव्य का जो अंतः सम्बंध स्थापित किया उसका अगला विकास गुप्त जी की कविताओं मे दिखाई देता है। इनकी 28 पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। 


(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2024 अंक में प्रकाशित)


शुक्रवार, 14 मार्च 2025

 बुद्धिसेन शर्मा हमारे समय के ख़ास शायर: पाठक

‘बुद्धिसेन शर्मा जन्मोत्सव’ पर पांच लोगों को मिला अवार्ड



प्रयागराज। बुद्धिसेन शर्मा हमारे समय के बहुत ख़ास और उल्लेखनीय शायर रहे हैं। उन्होंने अपनी शायरी से न सिर्फ़ प्रयागराज बल्कि देश और विदेश में पहचान बनाए। मुशायरों में काव्य पाठ के लिए उन्हें इंग्लैंड में भी बुलाया गया था। उनकी ग़ज़लें समय से सवांद करती थीं, जिसकी वजह से हर कोई सुनना-पढ़ना पसंद करता था। उनकी ग़ज़लें अपने समय के विभिन्न अख़बारों और पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थीं। यह बात उत्तर प्रदेश सामान्य सचिवालय के संयुक्त सचिव अरिवन्द पाठक ने बतौर मुख्य अतिथि 26 दिसंबर को सिविल लाइंस स्थित पुस्तक मेले में गुफ़्तगू द्वारा आयोजित ‘बुद्धिसेन शर्मा जन्मोत्सव-2024’ के दौरान कही।

गुफ़्तगू के अध्यक्ष डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि बुद्धिसेन शर्मा की शायरी और व्यक्तित्व एक सच्चे शायर की तरह की थी। जहां के आज शायर-कवि मुशायरों और कवि सम्मेलनों में शामिल होने के लिए हद दजेऱ् की चम्मचगिरी करते हैं, वहीं बुद्धिसेन शर्मा अपनी पूरी ठसक के साथ ही मुशायरों में जाते थे, कभी किसी की चम्मचगिरी नहीं करते थे।

डॉ. एस.एम. अब्बास ने कहा कि बुद्धिसेेन बहुत ही लायक शायर थे। उनकी सेवा डॉॅ. केके मिश्र उर्फ़ इश्क़ सुल्तानपुरी ने एक शिष्य के रूप में की थी, वह बहुत उल्लेखनीय है। कल्पना पाठक ने भी बुद्धिसेन शर्मा की शायरी का उल्लेख करते हुए उन्हें बेहतरीन शायर बताया।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र ने कहा कि बुद्धिसेन शर्मा हमारे समय के उल्लेखित किए जाने वाले शायर थे। उनका व्यक्तित्व हर किसी के लिए उल्लेखनीय है। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया।

दूसरे सत्र में मुशायरा और कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। डॉ. इश्क.सुल्तानपुरी, नरेश कुमार महरानी, मासूम रज़ा राशदी, हकीम रेशादुल इस्लाम, नीना मोहन श्रीवास्तव, मंजु लता नागेश, अर्चना जायसवाल ‘सरताज’, शैलेंद्र जय, शिवाजी यादव, धीरेंद्र सिंह नागा, शिबली सना, डॉ. अरुणा पाठक, मंजू मौर्या, क्षमा द्विवेदी, डॉ. रंजीत सिंह, सुजीत विश्वकर्मा, दीक्षा सिंह, श्रेया सिंह, जान्हवी यादव, मनीष सिंह, मिली श्रीवास्तव, विवके संत्यांशु, नयन यादव, इंदू जौनपुरी, पुष्कर प्रधान, असद ग़ाज़ीपुरी, योगाचार्य धर्मचंद और डॉ. अजय प्रकाश ने काव्य पाठ किया।


इन्हें मिला बु़िद्धसेन शर्मा अवार्ड

आसिफ़ उस्मानी (प्रयागराज), डॉ. कृष्णावतार त्रिपाठी ‘राही’(भदोही), सरिता सिंह (गोरखपुर), अजीत शर्मा ‘आकाश’ (प्रयागराज) और अफ़सर जमाल (प्रयागराज) 


बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

दिल का दर्द उकेरती किताब ‘दर्द-ए-सहरा’

                                                                        - डॉ. वारिस अंसारी

                       


 सहरा शब्द ही ऐसा शब्द है, जिसे सुनकर लोगों के ज़हन में कोई खुशी जैसा एहसास नहीं होता क्योंकि इस शब्द के माने ही जंगल, रेगिस्तान, बियाबान आदि के हैं। अगर इस शब्द के साथ दर्द को जोड़ दिया जाए तो ज़हनो-दिल में यूं भी दर्द का एहसास व जज़्बात बेदार हो जाते हैं। मोहतरमा तलअत जहां सरोहा ने अपनी अफसानों की किताब का नाम ही ’दर्द-ए-सहरा’ रखा है। ये नाम ही उनकी अदबी सलाहियत को समझने के लिए काफी है। उनके अफसानों में इंसानी एहसासत और जज़्बात का जिस तरह इज़हार किया गया है वह काबिले-तारीफ है। वह बेजा शब्दों के इस्तेमाल से गुरेज़ करती हैं। उनके यहां शब्दों का चयन इस तरह किया गया है कि कारी (पाठक) रवानी से पढ़ता चला जाए और बोझ भी न महसूस करे। उनके एक अफसाना की चंद लाइनें देखते चलें- ‘मेरे सब्र का पैमाना लबरेज़ हो चुका था, मैंने उस नवजवान की मरम्मत करने का फैसला कर लिया और दांत पीसता हुआ आगे बढ़ा और उस नवजवान के आगे जा कर उसका कलर पकड़ा। एक ज़ोरदार घूंसा मरना ही चाहा था कि मेरी बीबी ने बिजली की तरह आ कर मेरा हाथ पकड़ लिया और जोर से चीखी अरे..... अरे.....ये क्या कर रहे हैं आप , क्या बिगाड़ा है इन्होंने आपका।’ 

    वह इंसानी दर्द को इस तरह कागज़ पर उकेरती हैं कि लोग सोचते भी हैं और दर्द का महसूस भी करते हैं। उनके अफसानों में उनका लहजा, ज़बान (भाषा) और किरदार सब कुछ बिल्कुल अलग अंदाज़ में है। यही सब चीजें दीगर लोगों से उनको मुनफरिद बनाती हैं। कहा जाता है की समाज अदब का आइना है और अदब समाज का आइना। इस कहावत को तलअत ने पूरी तरह से साबित कर दिया। उनके अफसानों में समाजी मसाइल, ऊंच-नीच, लोगों का दर्द, अखलाक सब कुछ देखने को मिलता है। जिसे एक बार ज़रूर पढ़ना चाहिए। हार्ड कवर के साथ 152 पेज की इस किताब को सिटी प्रिंटर्स मालेगांव से कंपोज कराकर जावेद खान सराहा एंड ब्रदर्स ने प्रकाशित किया है। कंप्यूटर डिजाइन मो. जुनैद अशफाक अहमद और कवर की डिजाइन मो. अज़ीज़ अशफाक अहमद ने की है। इस किताब की कीमत मात्र 200 रुपए है। 


तनक़ीदी फलक का रौशन सितारा डॉ. कहकशां



तनक़ीद अरबी ज़बान का शब्द है, जिसके मानी खरे और खोटे की पहचान करना होता है। तनक़ीद एक ऐसी सिन्फ है जिसमें किसी शख़्स या चीज़ या सिन्फ पर मजबूत दलील के साथ उसके असरदार पहलुओं को उजागर किया जाता है। किसी भी शय का सिर्फ़ खामियां बयान करना ही तनकीद नहीं है, बल्कि उसकी खामियां और खूबियां दोनों बयान होनी चाहिए तब मुकम्मल तनकीद मानी जाती है। और इस तरह की सारी खूबियां डा.कहकशां इरफान में मौजूद हैं, जो एक तनक़ीद निगार में होनी चाहिए। डॉ.कहकशां ने बीसवीं सदी के चंद अहम लोगों फिक्शन (नॉवेल) पर जो राय दी है वह क़ाबिले-तारीफ है। उन्होंने अपनी किताब ‘उर्दू फिक्शन ताबीर-ओ-तफहीम’ में इक्कीसवीं सदी के जदीद तरीन अफसाना निगारों पर भी खुल कर बात की है। वर्तमान लोगों पर खुल कर बात करना ही उनको एक बड़ा तनकीद निगार बनाता है। अदब समाज का आइना होता है और अदीब समाज का एक जिम्मेदार शख़्सियत की हैसियत रखता है लेकिन उससे भी बड़ी शख़्सियत वह है जो अदबी कारीगरों के कारनामों पर अपने कलम का लोहा मनवाये और ऐसा कमल खुदा ने डॉ. कहकशां इरफान के कलम को बख्शा है। सन 1980 में जिला मऊ नाथ भंजन एक कस्बा फिरोज़पुर में पैदा हुई डा. कहकशां ने डी. फिल की डिग्री हासिल की। जिनका पहला तनक़ीदी मकाला नई दिल्ली और दूसरा पाकिस्तान से प्रकाशित हुआ। खूबसूरत हार्ड जिल्द के साथ उनकी किताब ‘उर्दू फिक्शन ताबीर ओ तफहीम’ में 188 पेज हैं। कवर पेज को टीम अर्शिया पब्लिकेशन दिल्ली और किताब को शैख एहसानुल हक ने कंपोज किया, जिसे अर्शिया पब्लिकेशन दिल्ली से सन 2020 में प्रकाशित किया गया। किताब की कीमत मात्र 200 रुपए है। मज़ामीन का शौक रखने वालों को एक बार ये किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए।

 (गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2024 अंक में प्रकाशित)


सोमवार, 24 फ़रवरी 2025

1942 में झांसी से शुरू हुआ था दैनिक जागरण

पूर्णचंद्र गुप्त थे इस हिन्दी अख़बार के पहले संस्थापक संपादक

वर्तमान समय में देश के 11 राज्यों से प्रकाशित हो रहा है अख़बार

                                                           - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी 


 दैनिक जागरण के संस्थापक पूर्णचंद्र गुप्त

    देश को आज़ाद कराने से लेकर इसके लोकतांत्रिक मूल्यों को कायम रखने तक में अख़बारों का प्रमुख योगदान रहा है। वर्ष 1947 से पहले तक अख़बारों का प्रकाशन बेहद कठिन और चुनौतीपूर्ण कार्य था। इसके बावजूद देश में बहुत से हिन्दी और उर्दू के अख़बार प्रकाशित होते रहे थे। तब बार-बार इन अख़बारों के मालिकों को प्रताड़ना का सामना करना पड़ता था। इनके मालिकों को गिरफ्तार करके उन्हें जेल भी भेज दिया जाता था। अंग्रेज़ी हुकूमत में कई संपादकों को सूली पर भी चढ़ा दिया गया था। इसके बावजूद देश को आज़ाद कराने और लोगों तक सही जानकारी उपलब्ध कराने के उद्देश्य से अख़बारों का प्रकाशन किसी न किसी तरह  होता रहा। 

  देश में आज़ादी के आंदोलन की आग जल रही थी। उसी माहौल में हिन्दी के प्रमुख अख़बार ‘दैनिक जागरण’ के प्रकाशन की शुरूआत वर्ष 1942 में झांसी से हुई। तब झांसी संयुक्त प्रांत का एक जिला था। बाद में संयुक्त प्रांत का नाम बदलकर उत्तर प्रदेश हो गया। एक छोटे से कमरे में संस्थापक संपादक पूर्णचंद्र गुप्त ने देश को आज़ाद कराने और लोगों को सही सूचना प्रदान कराने के उद्देश्य से अख़बार की शुरूआत की थी। सीमित संसाधन और लुका-छिपी के माहौल में अख़बार निकालना बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य था, लेकिन पूर्णचंद्र गुप्त ने इस चुनौती को स्वीकार किया। इसके साथ ही ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान अख़बार का प्रकाशन निलंबित भी किया गया था।




 झांसी से अख़बार के प्रकाशन की शुरूआत होने के बाद 21 सितंबर 1947 से इसका प्रकाशन कानपुर से शुरू हुआ। उस समय पूर्णचंद्र गुप्त विज्ञापन के लिए खुद ही देश के प्रमुख शहरों का दौरा करते थे, इसके साथ ही  पत्रकारों को अपने अख़बार से जोड़ते थे। पूर्णचंद्र गुप्त ने अपने छोटे भाई गुरुदेव गुप्त के साथ मिलकर दैनिक जागरण का प्रकाशन 1953 में रीवां और 1956 में भोपाल से शुरू किया। वर्ष 1950 से ही अख़बार को प्रमुख रूप से विज्ञापन मिलना शुरू हो गया था। ‘द इंडियन प्रेस ईयर बुक’ के 1956 संस्करण में दावा किया गया था कि इस अख़बार का प्रसार 21,000 तक पहुंच गया है। यह प्रसार संख्या उस समय के लिए बहुत बड़ी बात थी। वर्ष 1960 में पूर्णचंद्र गुप्त ‘क्लब इंडियन एंड ईस्टर्न न्यूज़पेपर सोसाइटी’ के सदस्य हो गए। इसके बाद इन्होंने अपने पुत्रों नरेंद्र मोहन, योगेंद्र मोहन, महेंद्र मोहन और धीरेंद्र मोहन को अख़बार से जोड़कर इन्हें विभिन्न प्रकार से प्रबंधन की जिम्मेदारी दी। अन्य पुत्र देवेंद्र मोहन और शैलेंद्र मोहन को दूसरे व्यवसाय की जिम्मेदारी दी। 

  वर्ष 1975 में इस अख़बार का गोरखपुर संस्करण भी शुरू हो गया और इसके बाद वाराणसी संस्करण भी शुरू हुआ। 25 जून 1975 को जब इमरजेंसी लागू हुई तो पूर्णचंद्र गुप्त सहित नरेंद्र मोहन व महेंद्र मोहन को जेल भेज दिया गया। तब अख़बार का संपादकीय पेज खाली छपा था। उस पेज पर सिर्फ़ इतना छपा था-‘नया लोकतंत्र’, ‘सेंसर लागू’, ‘शांत रहें’। वर्ष 1979 में अख़बार का लखनऊ और इलाहाबाद संस्करण शुरू हुआ। दैनिक जागरण का दिल्ली संस्करण 1990 से प्रारंभ किया गया। वर्ष 1993 में अलीगढ़, 1997 में देहरादून और 1999 में जालंधर से भी अख़बार का प्रकाशन शुरू हुआ। 1995 में इसका प्रसार 0.5 मिलियन से अधिक हो गया। अखबार पूरे उत्तर प्रदेश और नई दिल्ली में 12 स्थानों से प्रकाशित होने लगा। 1999 के राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण में दैनिक जागरण को पाठक संख्या के मामले में शीर्ष पांच समाचार पत्रों में शामिल होने वाला पहला हिंदी भाषा का समाचार-पत्र माना गया। उस समय दक्षिण भारत के अख़बार हिंदी अख़बारों के मुकाबले पाठक संख्या के आंकड़ों पर हावी थे। वर्ष 2003 में रांची, जमशेदपुर, धनबाद, भागलपुर और पानीपत शहरों से अख़बार छपने लगा। 2004 में लुधियाना और नैनीताल, 2005 में मुजफ्फरपुर, धर्मशाला और जम्मू संस्करण भी शुरू हो गए।

 वर्ष 1974-75 में पूर्णचंद्र को ‘ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन’ का चेयरमैन बनाया गया था। इसके बाद प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया का भी चेयरमैन बनाया गया। 16 सितंबर 1986 को पूर्णचंद्र गुप्त का निधन हो गया। इसके बाद इनके पुत्रों ने अख़बार की जिम्मेदारी पूरी तौर पर संभाल ली। नरेंद्र मोहन को राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया और वे वर्ष 1996 से 2002 तक राज्य सभा सदस्य के रूप में कार्य करते रहे। वर्ष 2006 में महेंद्र मोहन को राज्य सभा का सदस्य मनोनीत किया गया और वे वर्ष 2012 तक राज्य सभा के सदस्य रहे। नरेंद्र मोहन का वर्ष 2002 में निधन हो गया। इसके उपरांत महेंद्र मोहन गुप्त ने अख़बार की जिम्मेदारी संभाली। और वह आगे भी दायित्व को बखूबी निभा रहे हैं। योगेंद्र मोहन का वर्ष 2021 में निधन हो गया। 

 उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, पंजाब और हिमाचल प्रदेश समेत 11 राज्यों से वर्तमान समय में दैनिक जागरण अख़बार का प्रकाशन हो रहा है। इसके अलावा इसी समूह का पंजाबी भाषा में दैनिक जागरण, उर्दू में ‘इंक़ि़लाब’ और हिन्दी में ‘नई दुनिया’ नामक अख़बार भी प्रकाशित हो रहे हैं।(


( गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2024 अंक में प्रकाशित)


शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2025

अब राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकार देश में कहीं नहीं दिखते: क़मर आग़ा

मूलत: इलाहाबाद के रहने वाले क़़मर आग़़ा दिल्ली में निवास कर रहते हैंं। आप अंतरराष्ट्रीय मामलों के जाने-माने जानकार, रक्षा विशेषज्ञ और स्तंभकार हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, दि हिन्दू, हिन्दुस्तान टाइम्स, नेशनल हेराल्ड के साथ-साथ वाशिंगटन पोस्ट समेत कई देशों के अख़बारों के लिए नियमित लेखन किया है। बीबीसी, वायस ऑफ अमेरिका, जर्मन टीवी डीडब्लू सहित देश-विदेश के कई टीवी चैनेल से जुड़े रहे हैं। पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान ख़ान समेत कई देशों की सरकारों के प्रमुखों के आपने बहुत बेबाक इंटरव्यू किए हैं। जेएनयू के साथ-साथ अमेरिका सहित कई देशों की कई यूनिवर्सिटी में आप विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं। क़मर आग़ा के इलाहाबाद प्रवास के दौरान अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने विस्तृत बातचीत की है। प्रस्तुत है इस बातचीत के प्रमुख अंश -

 क़मर आग़ा से बातचीत करते अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’।


सवाल: इलाहाबाद के प्रयागराज होने के साथ-साथ, समय में आ रहे तेज बदलाव का सांझी संस्कृति के इस शहर के लोगों की सोच और आबो-हवा पर पड़ रहा प्रभाव किस दिशा में जा रहा है? 

जवाब: पूरे भारत में अगर बदलाव आ रहा है, तो यह बदलाव इलाहाबाद में भी नजर आएगा। बदलाव तो हर समय, हर समाज में आता रहता है। अगर बदलाव नहीं आएगा तो समाज रुग्ण समाज हो जाएगा। बदलाव अच्छा है या डिके की तरफ जा रहा है, यह देखने की ज़रूरत है। इलाहाबाद एक यूनिक शहर है। इलाहाबाद क्षेत्र में सेकुलर, प्रोग्रेसिव जनता है और यहां कल्चरल डायवर्सिटी बहुत है। यहां की भाषा, हिन्दी और उर्दू और स्थानीय भाषाओं का सुंदर मिक्चर है। मैं हिन्दी के खिलाफ नहीं हूं, लेकिन भाषाई विकास के दृष्टिकोण से, स्थानीय भाषाओं और हिन्दी  का साथ ज़रूरी है। स्थानीय भाषाओं जैसे अवधी आदि का संरक्षण बहुत जरूरी है। अवधी भाषा बहुत सुन्दर है। जिसके ऊपर अब कुछ काम नहीं हो रहा है। इलाहाबाद कल्चरल हब था। एक जमाने में दो किस्म के पापुलर कल्चर,  म्यूजिक  और फेस्टिवल, जिसमें पतंगबाजी, कबूतरबाजी, कुश्ती-कबड्डी आदि भी शामिल थे, बहुत जोर-शोर से नजर आया करते थे। पूरे अवध में यही कल्चर था। संगीत समिति में संगीत के प्रोग्राम भी बहुत अच्छे होते रहते थे। म्यूजिक में क्लासिकल म्यूजिक, सेमी क्लासिकल म्यूजिक, आदि का यह गढ़ था। आजकल संगीत समिति के साथ-साथ नार्थ कल्चरल सेंटर जोन यहीं है। उनकी शानदार एक्टीविटी, हस्तशिल्प मेला के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजन में नजर आती रहती है। मेला तो भारत में बहुत इम्पार्टेंट आस्पेक्ट है। यहां होने वाला माघ मेला और कुंभ मेला, से बड़ा मेला तो शायद पूरे दुनिया में कहीं  नहीं होता है। अगर भारत को समझना है तो ये मेला देखना बहुत जरूरी है। मैंने तो कई बार देखा है। जनसंख्या में वृद्धि और बेहतर जीवन की चाह में, गांव-देहात से शहरों में, शहर से बड़े कास्मोपोलेटिन शहरों में, माइग्रेशन के कारण, बहुत असर हो रहा है। शिक्षा-रोजगार के चक्कर में, गांव और दूसरे शहरों से बड़ी संख्या में, बाहर से बहुत लोग आ कर, इलाहाबाद में बस गए हैं।  इस वजह से इलाहाबाद का पुराना अर्बन कल्चर, अब खो गया सा लगता है। माइग्रेशन के कारण, भाषा खान-पान सहित सब चीजों पर असर हो रहा है। ग्लोबलाइजेशन का भी असर है। 

सवाल: इलाहाबाद के राजनीतिक माहौल में आए बदलाव को कैसे देखते हैं ?

जवाब: क ज़माने में इलाहाबाद नेशनल मूवमेंट का हेडक्वार्टर जैसा हुआ करता था। गांधी-नेहरू एवं कांग्रेस के सारे बड़े लीडर की गतिविधियों का इलाहाबाद केंद्र था। बड़े-बड़े लीडरों के आने-जाने से, शहर पर भी काफी इम्पैक्ट था। आप शहर का ट्रांजीशन देखिए,  फ्यूडल माहौल से निकल कर इलाहाबाद, नेशनल मूवमेंट की वजह से माडर्न शहर हो गया था। क्योंकि उस जमाने में नेहरू बात कर रहे थे साइंटिफिक टेम्पर, कल्चरल माडर्नाएजशन की, इंडस्ट्रियलाइजेशन की। इसी शहर से यह मूवमेंट निकला था। यहां पर दो बड़े अखबार थे, लीडर और नार्दर्न इंडिया पत्रिका, जिनका नेशनल मूवमेंट में बहुत बड़ा रोल है। बहुत बड़ा वर्ग था जो इंग्लिश अखबार पढ़ता था, इंग्लिश बोलता था। लेकिन अब वो बात नहीं रही।

सवाल: इलाहाबाद में हो रहे इस बदलाव का पत्रकारिता और साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ रहा है?

जवाब: जर्नलिज्म तो है लेकिन वो स्तर नहीं दिख रहा है कम्पटीशन भी नहीं है। यहां भी नहीं है, नेशनल लेविल पर भी नहीं है। साहित्य के क्षेत्र में उस जमाने में डॉ राम कुमार वर्मा, महादेवी वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी  निराला, फ़िराक़ गोरखपुरी आदि इस शहर की शान हुआ करते थे। पर आज के दौर में इनके स्तर का साहित्यकार न तो इलाहाबाद में, और न ही राष्ट्रीय स्तर पर कहीं दिखाते हैं। आज आप उर्दू में फ़िराक़ जैसा पोएट या फ़ारूक़ी साहब जैसा राइटर या हिंदी में महादेवी वर्मा और निराला जैसा साहित्यकार क्या दिखा सकते हैं?

सवाल: देश को कई प्रधानमंत्री तथा प्रदेश को मुख्यमंत्री देने वाले इलाहाबाद के राजनेताओं की राष्ट्रीय स्तर पर अब वह पहचान नहीं रही। इसका क्या कारण है ?

जवाब: राजनीति अब प्रोफेशन बन गई है। पहले राजनीति में वो लोग आते थे जो अपने जीवन में सेक्रीफाइस किया करते थे। सेवाभाव ही उनके काम का आधार होता था। मुल्क को अच्छा बनाना, उनका उद्देश्य होता था। राष्ट्र की तरफ कमिटमेंट होता था। अब एक बड़ा सेक्शन या ग्रुप जो इस क्षेत्र में आ रहा है, उसका नियत कुछ और होता है। वो बार-बार पकड़ा भी जा रहा है, रेड पड़ रही है। लीडरशिप, अगर कम्प्रोमाइज कर लेगी तो बड़ी मुश्किल होगी। पोलिटकल पार्टीज की कोई स्थिर आइडियोलॉजी न होना भी एक समस्या है। अगर कोई आइडियोलॉजी है तो बस एक कि किसी तरह से सत्ता में आ जाएं। कास्ट सिस्टम ने भी ऐसा बांट दिया है कि एक बहुत बड़ा सेटबैक हो गया है। बीजेपी की कसेंट्रिस्ट पालिटिक्स थी, जहां से इमर्ज हुई थी, वो अब कहीं न कहीं कम्प्रोमाइज हो गई है।

सवाल:  पिछले कुछ वर्षों से भारतीय पत्रकारिता पर सवाल खड़े हो रहे हैं। देश की पत्रकारिता के साथ-साथ दुनिया के अन्य देशों की पत्रकारिता को आप किस रूप में आप देख रहे हैं? क्या अब पूरी दुनिया की पत्रकारिता सत्तापक्ष की ओर उन्मुख और हिमायती हो रही है?

जवाब: पत्रकारिता का रूप बदल गया है। अब कोई भी अख़बार बगै़र सरकारी सपोर्ट के नहीं चल सकता। रेवन्यू की बहुत ज़रूरत होती है। 24 घंटे न्यूज चैनल की, टीवी पर शुरुआत के साथ ही, इनके सामने अर्थाभाव की समस्या आने लगी। इनको सुचारू रूप से चलाने के लिए, बहुत पैसा लगता है। इसकी वजह से, बहुत ज्यादा विज्ञापन की आवश्यकता होती है। सरकार से लड़कर आप इन्हें ज्यादा समय तक नहीं चला सकते। दूसरी तरफ सरकारों को भी बहुत ज्यादा आलोचना पसंद नहीं है। अगर आलोचना नहीं होगी तो सरकार को सही ख़बर भी नहीं मिलेगी। इससे सबसे ज्यादा नुकसान सत्ता दल या सरकारों को ही होता है। इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के दौरान जब मीडिया पर बैन लगाया तो उनको सही खबर ही नहीं मिली कि देश में क्या हो रहा है। अख़बार से ही इंटेलीजेंस को भी खबर मिलती है, जिसे वो फरदर डेवलप करते हैं। ये एक ऐसा स्तंभ है कि अगर इससे ज्यादा खिलवाड़ किया जाएगा तो इसका असर रूलिंग पार्टाे या देश की पालिटिक्स पर ही ज्यादा होगा। यह ज़रूरी है कि इसको किसी तरह से आजाद रखा जाए। ये सारे न्यूज पेपर या मीडिया हाउस, सब बड़े बड़े बिजनेस घरानों के हैं इसका उपयोग वो प्रोगवरनमेंट के रूप में करते हैं। बड़े-बड़े प्रोजेक्ट लाने के लिए पी आर की तरह भी इस्तेमाल करते हैं। पहले के ज़माने में होने वाली आबजेक्टिव रिपोर्टिंग अब यहां ही नहीं, ग्लोबली भी नहीं रही। वो भी अब बदल गई है। चाहे बीबीसी हो या अमेरिकन न्यूज पेपर हों या ब्रिटिश न्यूज पेपर हों, ये सब अपने हितों के अनुसार ही रिपोर्टिंग करते हैं, उन्हीं को प्रोमोट करते हैं। आप वाशिंगटन पोस्ट की थर्ड वर्ड के बारे में रिपोर्टिंग देखिए, बहुत खराब है लेकिन इसके बावजूद, वो अपनी बेसिक पालिसी संबंधित कुछ मुद्दों पर कोई समझौता नहीं करते हैं। व्हाइट सुप्रीमेसी संबंधित बातों पर कंडेम तो ज़रूर कर देते हैं, लेकिन उनको बचाने की प्रवृत्ति भी उनमें रहती है। समस्याएं ग्लोबल मीडिया में भी है। दूसरी तरफ सोशल मीडिया आजकल बहुत स्ट्रांग हो गया है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो ख़बरें बड़े-बड़े अख़बार नहीं ला पाते, वो यू-ट्यूबर उपलब्ध करा रहे हैं। बहुत से मुद्दों पर उनकी रिपोर्टिंग बहुत रिमार्केबिल होती है। मुझे नहीं लगता कि मीडिया को अब कोई दबा सकता है। अगर मेन स्ट्रीम मीडिया पर आपने किसी खबर को रोक लिया तो देर सबेर, एक दो दिन लेट भले ही हो जाए, पर वह खबर, अल्टरनेट मीडिया के रूप में मौजूद सोशल नेटवर्क पर ज़रूर आ जाएगी। लोगों के पास हर वक़्त कैमरा है, रिपोर्टिंग 24×7 भी हो रही है। बहुत से मुद्दों जैसे इवायरमेंट, हेल्थ, एजुकेशन आदि पर इतना इंफारमेटिव रिपोर्टिंग है कि आप सोच भी नहीं सकते। 


सवाल: वर्तमान पत्रकारिता, में सामाजिक परिस्थितियों के चित्रण को आप किस दृष्टि से देखते हैं। वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों/सौहार्द को सुधारने मे यह कैसे मददगार हो सकती है।

जवाब: मीडिया के बहुत से फार्म्स हैं। मेन स्ट्रीम मीडिया ने अपने आपको काफी हद तक, कम्प्रोमाइज किया है। मेन स्ट्रीम मीडिया में बहुत से मुद्दे नहीं उठ रहे हैं। प्रिंट मीडिया के अलावा टीवी, सोशल मीडिया, आदि, मीडिया के बहुत से फार्म है। आजकल विभिन्न विषयों पर बहुत उच्च क्वालिटी की बहुत इन्फार्मेटिव डाक्यूमेंटेरी बन रही है, लेकिन अफसोस है कि बहुत कम लोग इन डाक्यूमेंटेरी को देख रहे हैं। इन चीज़ों को आप दबा नहीं सकते। भारत के अंदर जिसने भी इनकी आज़ादी से ज्यादा खिलवाड़ किया, उसके लिए मुश्किल हो जाएगी। यहां डेमोक्रेसी बहुत नीचे तक लगभग रूट लेवल तक है। कुछ दिनों कुछ समय के लिए कोई मामला इधर उधर हो सकता है परंतु कुछ समय पश्चात समाज स्वयं ही इसे सही कर लेता है। उसका कारण है कि यहां पर अधिकतर लोग मध्यम वर्ग है जो न तो वामपंथी है और न ही दक्षिणपंथी है बल्कि मध्यमार्गी है। यह बुद्ध के समय से ही चला आ रहा है। और यह स्थिति, केवल एक कम्यूनिटी में ही नहीं बल्कि यहां की सभी कम्यूनिटी में है।


बाएं से: क़मर आग़ा, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ और डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी। 


सवाल:  विगत कई वर्षों से दुनिया के किसी न किसी हिस्से में युद्ध की स्थिति बनी हुई है। दुनियाभर में हथियार निर्माण में लगे बड़े-बड़े संस्थानों द्वारा बनाए जा रहे हथियारों की खपत के लिए, क्या युद्ध का लगातार होते रहना एक अनिवार्यता बन गई है ? 

जवाब: नहीं, ऐसी बात नहीं है। जो आपने कहा उसका यह केवल एक हिस्सा ही है। युद्ध से हथियार निर्माता कंपनियों को फायदा अवश्य होता है लेकिन केवल यही एक वजह नहीं है। मुख्य बात है कि अमेरिका का पावर डिक्लाइन हो रहा है और जब किसी बड़ी पावर का डिक्लाइन होता है तो वो इतनी आसानी से नहीं मिट सकता। उसके पास अथाह ताक़त होती है। उसकी कोशिश होती है कि वह अपने ताकत से अपनी पालिसी को मनवाए, अपने हितो की रक्षा करे। अमेरिका की विदेश नीति बहुत मिलेट्राइज्ड हो गई है। अत: अगर वो डिप्लोमेसी से अपना मकसद हल नहीं कर सकते तो उनकी कोशिश होती है कि येन-केन-प्रकारेण इसको हल करो। तेल उत्पादक देशों की सरकारें, अगर तेल देने को तैयार नहीं है, अगर वो बातें नहीं मानते तो इन देशों पर सैंक्शन लगा दो, कमजोर करो। जनता अगर सत्ता नहीं बदल रही तो अटैक करके सत्ता बदल दो। अफगानिस्तान, इराक में इन्होंने सत्ता बदली लेकिन इनके मकसद नहीं कामयाब हुए। प्रो-अमेरिका सरकार नहीं बना पाए। ईरान में भी इनकी कोशिश कामयाब नहीं हुई। वियतनाम, कम्बोडिया में सालों युद्ध चला। लाखों लोग मारे गए। कई शहर बरबाद हो गए, रीजिम नहीं चेंज हुआ।  अब मल्टी पोलर विश्व इमर्ज हो रहा है और ये नहीं चाहते कि विश्व मल्टी पोलर हो। ये चाहते हैं कि इनका सुपर पावर स्टेटस बरकरार रहे। इनको लगता है कि रूस और चीन बड़े पावर के रूप में इमर्ज हो रहे हैं तो उनको इनसर्किल करो, कमजोर करो। सबसे बड़ी बात ये है कि यूरोप और अमेरिका की टेक्नोलॉजी पर जो पकड़ थी वो अब धीरे-धीरे कम हो रही है। रूस अपनी तकनीकी के बल पर आटोमोबाइल रक्षा आदि क्षेत्रों में मजबूत और सस्ते उत्पाद बना रहा, जिनके स्पेयर पार्ट भी बहुत सस्ते हैं। अत: रूस को रोकने के लिए यूक्रेन को, उसके विरुद्ध खड़ा कर दो, रूस यूक्रेन में युद्ध करा दो।

सवाल: यूक्रेन, इजराइल, ताइवान आदि युद्धग्रस्त देशों के लिए अमेरिका में 95 बिलियन डालर की मदद का एक फंड पास हुआ हैै जिसका लगभग 90 प्रतिशत हथियार संबंधित मदद और लगभग 10 प्रतिशत मानवीय सहायता के रूप में है। यह मदद क्या युद्धों को और भड़काकर मानवता को उसके निम्नतम स्तर पर ले जाने का कुत्सित प्रयास नहीं है ?

जवाब: इन बड़ी ताक़तों को मानवता की कोई फिक्र नहीं है। गाज़ा मे क्या हो रहा है? ये कहते हैं कि हम कानून और नियमों पर आधारित, वेस्टर्न सिविलाइजेशन के पार्ट हैं। ह्यूमेन राइट्स, वीमेन लिबरलाइजेशन की ये बात करते हैं और देखिए कि गाज़ा में मरने वालों में 50 प्रतिशत औरत और बच्चे हैं। ह्यूमेन राइट्स की ये बात जरूर करते हैं पर दूसरे देशों में ये केवलअपने हित की रक्षा करते हैं। गाजा में मानवीय सहायता के रूप में दी गई मदद भी इजराइल के द्वारा ही गाज़ा तक पहुंचेगी। अत: ज़रूरतमंदो तक कितनी मदद पहुंचेगी कहा नहीं जा सकता। अमेरिकन हितों को प्रोटेक्ट करने की वजह से, इजराइल, अमेरिका के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन अब इजराइल, अमेरिका के लिए भी लाइबेलिटी बन गया है। इसलिए कि अमेरिका ने अपने हितों को प्रोटेक्ट करने के लिए तमाम अरब देशों में सेना डिप्लॉय कर दी है। अब इस समय इजराइल को बचाने के लिए अमेरिकन सेना चारों तरफ बिखरी हुई है। पर्शियन गल्फ में बहुत बड़ी अमेरिकन सेना तैनात है कि कहीं ईरान स्टेट आफ होरमुज़ को बंद न कर दे। तेल की सप्लाई डिस्टर्ब न कर दे। लाल सागर में हूती विद्रोहियों को रोकने के लिए अमेरिकन नेवी तैनात की है। ईस्टर्न मेरीटियन में हिज्बुल्ला और ईराकी मिलीशिया के आक्रमण को रोकने के लिए सेना लगाई गई है। इजराइल को प्रोटेक्ट करने के लिए प्रतिदिन बिलियन डालर का खर्च हो रहा है। इसका प्रभाव अमेरिकन अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। मिलेट्री इंडस्ट्रियल कांप्लेक्स अमेरिका में सबसे पावरफुल लाबी हैं। ये चुनाव में बड़ी-बड़ी फंडिंग भी करते हैं। इन सब कारणों से अमेरिकन हथियारों की बिक्री होते रहना चाहिए।

सवाल: क्या इन परिस्थितियों में बदलाव की कोई गुंजाइश नजर आती है?

जवाब: बदलाव को बड़ी ताकतें स्वीकार नहीं करती जब तक वो पिट न जाएं। इसके बावजूद  बदलाव वहां भी आ रहा है जो दो तरफ से है एक तो अमेरिकन यंग पब्लिक को लग रहा है कि गाज़ा और दूसरी जगहों पर गलत हो रहा है। इससे अमेरिका बदनाम हो रहा है। ऐसा नहीं होना चाहिए। अमेरिका में भी राइटविंग बहुत मजबूत है। ट्रंप ग्रुप बहुत रेसिस्ट है, उनके दिल में थर्ड वर्ड के लिए कोई जगह ही नहीं है। वो चाहते हैं, कि सभी अश्वेत लोगों को अमेरिका से बाहर निकाल दिया जाएं।

सवाल:  दुनिया भर में तेल के भूमिगत स्रोतों में तेल की मात्रा में आती हुई लगातार कमी के कारण अरब देशों, विशेषकर सउदी अरब में आर्थिक सुधार संबंधित क्या बदलाव आ रहे हैं

जवाब: सऊदी अरब की आर्थिक नीति में बहुत बड़ा बदलवा आ रहा है। वो एक नई पालिसी, विजन 2030 ला रहे हैं। जिसमें अपनी आर्थिक निर्भरता को तेल से हटाकर, रेवन्यू जनरेट करने के अन्य क्षेत्रों में ले जा रहे हैं। रूस, चीन आदि देशों की मदद से टूरिस्ट हब, इंडस्ट्रियल टाऊन आदि विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं। डिफेंस आइटम बनाने का भी प्लान है। एक नया बदलाव अरब देशों में आ रहा है। ये इसलिए कर रहे हैं कि अमेरिका और अन्य देशों से पढ़कर आए लोकल युवा लोगों को रोजगार भी मिले। 

सवाल:  भारत के हितों को देखते हुए  पड़ोसी देशों जैसे पाकिस्तान,  श्रीलंका, मालदीव, बंगलादेश, भूटान एवं नेपाल पर चीन के प्रभाव का आप कैसे मूल्यांकन करते हैं?

जवाब: चाइना का प्रभाव इस क्षेत्र में तेजी से बढ़ रहा है। चीन के पास बहुत ज्यादा सरप्लस मनी है। चीन की नीति है कि भारत को चारों तरफ से घेर लो। इन देशों में इन्वेस्टमेंट के जरिए वहां के सत्ता वर्ग को प्रभावित करो। फिर इतने बड़े बड़े कर्जे दे दो जिसको ये सस्टेन ही, न कर पाएं। फिर जिन देशों को ये लोन देते हैं उन देशों से कहते हैं कि आप भारत का साथ छोड़कर हमारे साथ आ जाओ। इनकी विदेश नीति को भी प्रभावित करते हैं। मगर ये सारे क्षेत्र हजारों साल से भारत के साथ जुड़े हुए हैं और चीन की इसमें नई इन्ट्री है। इसलिए हम देखते हैं कि अगर प्रोचाइना सरकार किसी देश में आ भी जाती है तो अगले इलेक्शन में दुबारा भारत समर्थक सरकार हो जाती है। ये टसल इन देशों में भी बनी है। कुछ समय के लिए, चीन समर्थक नीति भले ही, अपना लें, लेकिन ये देश, भारत विरोधी नीति नहीं अपनाते। पाकिस्तान जरूर इस मामले में अपवाद है।

सवाल:  आप देश-विदेश के विभिन्न मंचो पर आपके व्याख्यान होते रहते हैं। अपने व्याख्यान के दौरान हुई किसी विशिष्ट/महत्वपूर्ण घटना के बारें में हमारे पाठकों को अवगत कराइए।

जवाब: मेरा अनुभव है कि पश्चिमी देशों के लोगों में अभी भी भारत के बारे में बहुत कम जानकारी है। भारत मे रहने वाले डिप्लोमैट्स के अलावा, बहुत बड़े बड़े डिप्लोमैट्स भी भारत के बारे में बहुत नहीं जानते हैं। वो अभी भी समझते हैं कि भारत में गुरबत बहुत है। स्नेक चार्मर आदि का देश है। परंतु अब स्थिति धीरे धीरे बदल रही है। बड़ी संख्या में भारतीय मूल के लोग आईटी सेक्टर और अन्य क्षेत्रों में अच्छा काम कर रहे हैं। जिनकी वजह से भारत की इमेज भी बदल रही है। भारत की छवि में बहुत बड़ा पॉजिटिव बदलाव आया है।

सवाल: बंद होती पत्रिकाओं एवं अखबारों तथा समस्याओं से घिरी पत्रकारिता को पेशे के रूप में अपनाने वाले, नये पत्रकारों के लिए आपका क्या संदेश है ?

जवाब:  इस समय, प्रिंट मीडिया का सर्वाइवल, बहुत मुश्किल हो गया है। पाठक घटते जा रहे हैं। लोग पत्र, पत्रिकाएं खरीद नहीं रहे हैं। इंटरनेट पर ही अख़बार पढ़ रहे हैं। छोटी-मोटी पत्रिकाएं तो बहुत ही मुश्किल में है। बड़े समाचारपत्रों का भी हाल खस्ता है। वर्नाक्यूलर न्यूजपेपर और स्थानीय भाषाओं में छपने वाले अखबारों की बहुत बुरी हालत है। सबसे बड़ी बात है कि लोग खरीद कर नहीं पढ़ रहे हैं। जागरूकता नहीं है। यह बदलाव यहीं नहीं, वैश्विक स्तर पर है। गार्डियन जैसा अख़बार में अगर एक ख़बर खोलिए तो नीचे लिखा हुआ नजर आएगा कि हमें आपसे आर्थिक सहयोग की ज़रूरत है। यह समस्या अब वैश्विक स्तर पर है। जर्नलिस्ट लोगों के लिए भी, बड़े मुश्किल का समय है। ये युवक सोचते हैं कि समाज में बदलाव लाएंगे। 12 घंटे-14 घंटे, कड़ी धूप-बरसात में, काम कर रहे हैं। सैलरी-सुविधाएं बहुत कम है। मीडिया हाउस सोचते हैं कि नौकरी देकर एहसान कर दिया है। हालांकि, इनमें सीखने की प्रवत्ति भी धीरे-धीरे कम हो रही है। आजकल के जर्नलिस्टों को उनके कार्य में उपयोगी नई नई तकनीकों को सीखने का प्रयास अवश्य करना चाहिए। उम्मीद है कि समय के साथ, इस स्थिति में भी बदलाव आएगा।


(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2024 अंक में प्रकाशित)