शनिवार, 12 जुलाई 2025

 वर्ष 1900 से निकलनी शुरू हुई ‘सरस्वती’ पत्रिका

‘बाल-सखा’ और साप्ताहिक ‘देशदूत’ भी इंडियन प्रेस से ही निकले

महावीर द्विवेदी और सोहन द्विवेदी जैसे लोगों ने किया संपादन

 

                                                                    - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

   भारतीय मीडिया हाउस के इतिहास में इंडियन प्रेस ने जो मुकाम हासिल किया है, उसके नज़दीक तक भी पहुंचना किसी अन्य संस्थान के लिए बहुत कठिन है। इस हाउस ने प्रकाशन के क्षेत्र में जो मानक और इतिहास स्थापित किया है, उसकी मिसाल सदियों तक दी जाती रहेगी। इस संस्थान से बच्चों की मासिक पत्रिका ‘बालसखा’ और साप्ताहिक समाचार-पत्र ‘देशदूत’ साहित्य की पत्रिका ‘सरस्वती’ समेत कई अन्य पत्रिकाएं प्रकाशित र्हुईं। लेकिन ‘सरस्वती’ पत्रिका ने देश की साहित्यिक पत्रिकारिता के इतिहास में मील का पत्थर स्थापित किया है। उन दिनों  इस पत्रिका में कोई एक छोटी सी रचना का प्रकाशन मात्र हो जाने से रचनाकार देशभर में चर्चित और स्थापित हो जाता था। तबं इंडियन प्रेस के अलावां ‘मित्र प्रकाशन’ और ‘पत्रिका हाउस’ ने इलाहाबाद को ख़ास मकाम हासिल करा दिया था। तब यह शहर प्रकाशन के क्षेत्र में देश का अव्वल स्थान था।

इंडियन प्रेस की गेट पर लगे नेम प्लेट को देखते डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी।

 इंडियन प्रेस की स्थापना वर्ष 1884 में बाबू चिंतामणि घोष ने इलाहाबाद में की थी। शुरूआत में सिर्फ़ मुद्रण का काम किया। उन दिनों स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों के प्रकाशन और उसके लिए प्रयोग किया जाने वाला कागज़ बहुत ही घटिया स्तर का होता था,। बाबू चिंतामणि की पहली प्राथमिकता यह थी कि स्कूलों की पुस्तकों का प्रकाशन स्तरीय हो, पुस्तकों के लिए प्रयोग होने वाला कागज बेहतरीन हो जाए। इसी सोच के तहत इन्होंने काम शुरू किया। कुछ ही दिनों में इन्हें अपने कार्य में सफलता मिली। सरकार ने भी इस प्रकाशन संस्थान के कार्य को सराहा। इसी के साथ इंडियन प्रेस देश का सर्वश्रेष्ठ प्रकाशन बन गया।


हिन्दी साहित्य सम्मेलन की लाइब्रेरी में ‘सरस्वती’ और ‘बाल सखा’ की फाइलों का अध्ययन करते दुर्गानंद शर्मा, डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी और धीरेंद्र सिंह नागा।

 इसके बाद बाबू चिंतामणि घोष ने साहित्य को समर्पित पत्रिका ‘सरस्वती’ निकालने की योजना बनाई। उन्होंने इसके लिए वाराणसी की नागरी प्रचारिणी सभा के समक्ष इस पत्रिका को निकालने का प्रस्ताव रखा। सभा ने प्रकाशन की बात स्वीकारते हुए इसमें सहयोग की बात कही, लेकिन इसकी जिम्मेदारी इंडियन प्रेस पर ही छोड़ दी। योजना बननी शुरू हुई तो सबसे पहले संपादक तय करने की बात सामने आयी। इसके संपादक मंडल में बाबू कार्त्तिक प्रसाद खत्री, रामकृष्ण दास, किशोरी लाल गोस्वामी, जगन्नाथ दास रत्नाकर और बाबू श्याम सुंदर दास शामिल किए गए। मासिक और सचित्र पत्रिका निकालने की योजना बनी। जनवरी 1900 में सरस्वती पत्रिका का पहला अंक प्रकाशित हुआ। पहले अंक का संपादकीय था- ‘परम कारुणिक सर्वशक्तिमान जगदीश्वर की अशेष अनुकंपा से ही ऐसा अनुपम असवर प्राप्त हुआ है कि आज हमलोग हिन्दी भाषा के रसिकजनों की सेवा में नये उत्साह से उत्साहित हो एक नीवन उपहार लेकर उपस्थित हुए हैं, जिसका नाम ‘सरस्वती’ है। भरत मुनि के इस महावाक्यानुसार कि ‘सरस्वती’ श्रुति महती न हीयताम अर्थात् सरस्वती ऐसी महती श्रुति है कि जिसका कभी नाश नहीं होता, यह निश्चय प्रतीत होता है कि यदि हिन्दी के सच्चे सहायक और उससे सच्ची सहानुभूति रखने वाले सह्दय हितैषियों ने इसे समुचित आदर और अनुरागपूर्वक ग्रहण कर यथोचित आश्रय दिया तो अवश्यमेव यह दीर्घ जीवनी होकर निज-कर्तव्य पालन सेे हिन्दी की समुज्ज्वल कीर्ति को अचल और दिगंतव्यापिनी तथा स्थायी करने में समर्थ होगी।’ पहले ही अंक में संपादक मंडल ने यह भी लिखा कि यदि ‘सरस्वती’ से आर्थिक लाभ होता है तो- ‘इससे केवल यही सोचा गया है कि सुलेखकों की लेखनी स्फुरित हो जिससे हिन्दी की अंगपुष्टि और उन्नति हो, इसके अतिरिक्त हम लोगों का यह भी दृढ़ विचार है कि यदि इस पत्रिका संबंधीय सब प्रकार का व्यय देकर कुछ भी लाभ हुआ तो इसके लेखकों की हमलोग उचित सेवा करने में किसी प्रकार की त्रुटि न करेंगे। आशा है कि हिन्दी पठित समाज इस पत्रिका पर कृपादृष्टि बनाये रहेंगे और हमलोगों को निज कर्त्तव्य-पालन में यथाशक्ति पूर्ण सहायता देंगे।’

इंडियन प्रेस में अरिन्दम घोष से बातचीत करते डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी। 

 वर्ष 1900 के जनवरी से दिसंबर तक प्रकाशित हुई सरस्वती पत्रिका में कुल 56 रचनाएं प्रकाशित हुईं। इनमें किशोरी लाल गोस्वामी की आधुनिक हिन्दी की पहली कहानी ‘इंदुमति’ छपी। यह कहानी शेक्सपीयर के नाटक ‘टेम्पेस्ट’ का भावानुवाद है। इसके साथ ही वैज्ञानिक कहानियों के छपने की शुरूआत हंुइ। इस एक वर्ष में ब्रजभाषा और खड़ीबोली की कविताएं भी खूब छपीं। मगर, इसी एक वर्ष में संपादक मंडल के लोगों में आपसी विवाद भी हो गया। जिसकी वजह से जनवरी 1901 से बाबू श्यामसुंदर दास इसके अकेले संपादक हो गए। दो वर्षों तक संपादन करने के बाद बाबू श्यामसुंदर दास ने आर्थिक तंगी और समयाभाव की वजह से इसका संपादन कार्य छोड़ दिया। वर्ष 1903 में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसका संपादन कार्य शुरू किया। महावीर प्रसाद द्विवेदी इससे पहले रेल विभाग में डिस्ट्रिक्ट ट्रैफिक सुपरिटेंडेंट के ऑफिस में कार्यरत थे। बाबू चिंतामणि घोष सरस्वती के साथ ही उर्दू में भी एक पत्रिका निकालना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने प्रेमचंद को बुलाकर उनसे बात की। प्रेमचंद ने कहा कि नौकरी छोड़कर पत्रिका का संपादन करने की जो ग़लती महावीर प्रसाद द्विवेदी नेे की है, वह ग़लती मैैंं नहीं करूंगा। हां, पत्रिका का नाम मै ‘फिरदौस’ रख देता हूं और किसी अन्य क़ाबिल इंसान को इसके संपादन की जिम्मेदारी दे देता हूें। प्रेमचंद की इस बात पर बाबू चिंतामणि घोष सहमत नहीं हुए।

 दूसरी तरफ, द्विवदी जी के सपांदक बनते ही बहुत से लेखकों ने सरस्वती से अपना संबंध तोड़ लिया। नागरी प्रचारिणी सभा ने भी अपना अनुमोदन वापस ले लिया, क्योंकि द्विवेदी जी ने एक खोजी रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने प्रचारिणी सभा की कड़ी आलोचना की थी। उन्होंने सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की कविता ‘जूही की कली’ को छापने से इंकार करते हुए उसे वापस कर दिया था। 1907 तक द्विवेदी जी ने खड़ी बोली को ब्रजभाषा से पूरी तरह मुक्त कर दिया। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसके साथ ही ‘कालिदास की निरंकुशता’और भाषा व्याकरण में ‘अनस्थिरता’ को लेकर हिन्दी जगत में एक तूफान खड़ा कर दिया। कवियों में मैथिलीशरण गुप्त, रामचरित उपाध्याय, रामचंद्र शुक्ल, राय देवी प्रसाद पूर्ण, नाथूराम शंकर शर्मा, लोचन प्रसाद पांडेय और ठाकुर गोपाल शरण सिंह के साथ ही कहानी लेखकों रामचंद्र शुक्ल, वृन्दावनलाल वर्मा,  प्रेमचन्द, चन्द्रधर शर्मा गुुलेरी, विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक, ज्वालादत्त शर्मा आदि को सरस्वती पत्रिका में छापकर हिन्दी साहित्य में एक तरह से स्थापित कर दिया।

बाल सखा’ के पहले अंक का कवर पेज।

जुलाई, 1920 में द्विवेदी जी ने पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी को अपना सहायक बना लियां। उनको छह महीने तक संपादन का प्रशिक्षण दिया। इसके बाद बख्शी जी को सरस्वती का प्रधान संपादक बना दिया। वर्ष 1925 में बख्शी जी सरस्वती के संपादन का कार्य छोड़कर अपने गृह नगर खैरागढ़ चले गये, तब देवीदत्त शुक्ल को इसकी जिम्मेदारी सौंप दी गई। अप्रैल 1927 में बख्शी जी ने फिर वापस आकर संपादन कार्य शुरू कर दिया। लेकिन, कुछ दिनों के बाद खैरागढ़ के स्कूल में उनको नौकरी मिल गई, और वे चले गए। फिर देवीदत्त शुक्ल को प्रधान संपादक बना दिया गया। देवीदत्त शुक्ल के साथ ही 1934 से ठाकुर श्रीनाथ सिंह को  सरस्वती का संपादक बनाया गया। 1939 से  उमेश चंद्र देव मिश्र को संयुक्त संपादक बनाया गया। 1946 में देवीदत्त शुक्ल के आंख की रोशनी चली गई। संपादन की जिम्मेदारी उमेश चंद्र देव मिश्र को सौंप दी गई, लेकिन 9 जून 1951 को इनका देहांत हो गया। नवंबर 1951 में फिर से बख्शी जी सरस्वती के संपादक बना दिए गए। जून 1955 तक इन्होंनेे संपादन का कार्य किया, इसके बाद फिर से अपने गृहनगर चले गए। जुलाई 1955 से दिसंबर 1975 तक सरस्वती पत्रिका का संपादन पं. श्रीनारायण चतुर्वेेदी ने किया। सरस्वती पत्रिका जनवरी-मार्च 1976 में संयुक्तांक के रूप में निशीथ कुमार राय केे संपादन में पुनःजीवित हुई और दिसंबर 1980 तक किसी तरह निकलती रही। मई, 1982 तक किसी तरह प्रकाशित होती रही, इसके बाद बंद हो गई।

 इंडियन प्रेस से ही वर्ष 1917 से बच्चों की पत्रिका ‘बाल-सखा’ निकलनी शुरू हुइै। इंडियन प्रेस में ही कार्यरत बदरीनाथ भट्ट को इसका संपादक बनाया गया।। कुछ ही समय बाद बदरीनाथ लखनऊ यूनिवर्सिटी में अध्यापक हो गए। इसके बाद बाल-सखा के संपादन की जिम्मेदारी देवीदत्त शुक्ल को दी गई। वर्ष 1927 से अगस्त 1942 तक बाल-सखा का संपादन श्रीनाथ सिंह ने किया। इसके बाद 1956 तक इस पत्रिका के संपादक लल्ली प्रसाद पांडेय रहे। वर्ष 1957 में इस पत्रिका के संपादक सोहन लाल द्विवेदी हो गए। वर्ष 1968 में पुनः लल्ली प्रसाद पांडेय इसके संपादक हो गए। मगर, लगातार घाटे में चलने के कारण इसी वर्ष के अंत में बाल-सखा पत्रिका बंद हो गई।

सरस्वती पत्रिका के वर्ष 1900 के फरवरी अंक के अंदर का पहला पेज।

 वर्ष 1938 में इसी संस्थान से ‘देशदूत’ नामक साप्ताहिक पत्र निकलना शुरू हुआ। तत्कालीन संचालक हरिकेेशव घोष ने इसकी शुरूआत कराई। राजनीति, वाणिज्य, उद्योग, कृषि, शिक्षा, आदि विषयों पर इसमें सामग्री प्रकाशित होती रही। 12 वर्षों तक इसका प्रकाशन हुआ। 

(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2025 अंक में प्रकाशित)





रविवार, 6 जुलाई 2025

आज का तंत्र कह रहा है कि आप अपने काम से काम रखिए: राजेंद्र गुप्त

राजेंद्र गुप्ता से बातचीत करते अशोक श्रीवास्तव कुमुद

फिल्म, टीवी और नाटकों में संजीदा और सजीव अभिनय के लिए मशहूर, पानीपत पंजाब के एक व्यवसायी परिवार में जन्मे राजेन्द्र गुप्त ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पानीपत और स्नातक की उपाधि कुरूक्षेत्र विष्वविद्यालय से प्राप्त करने के पश्चात एन. एस. डी. दिल्ली से निर्देशन में स्नातकोत्तर किया। फिल्म, टीवी और नाटकों में अभिनय एवं निर्देशन के अतिरिक्त हिन्दी कविता-कहानियां के पाठ के सैकड़ों वीडियो ‘राजेंद्र गुप्त वाच’ नामक यूट्यूब चैनेल पर मौजूद हैं। सबसे ज्यादा टीवी सीरियल में अभिनय करने हेतु लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में आपका नाम दर्ज है। आस्कर पुरस्कार के लिए नामांकित, लगान फिल्म में गांव के मुखिया की चर्चित भूमिका निभाने के साथ-साथ, तनु वेड्स मनु में (राजेंद्र त्रिवेदी के रूप में), पान सिंह तोमर  (खेल प्रशिक्षक के रूप में), पीएम नरेंद्र मोदी (दामोदरदास मोदी के रूप में), सूर्यवंशी (नईम खान के रूप में) टीवी सीरियल इंतज़ार (स्टेशन मास्टर के रूप में), चंद्रकांता (पंडित जगरनाथ/शनि के रूप में), शक्तिमान (डॉ. विश्वास के रूप में) और साया (जगत नारायण के रूप में) सहित बहुत सारे नाटकों जैसे अंधायुग, जीना इसी का नाम है। पटकथा, जिन्ना आदि में अविस्मरणीय अभिनय के साथ-साथ कई नाटकों का निर्देशन भी किया है। राजेंद्र गुप्ता के मुंबई, कान्दीवली स्थित आवास पर अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने उसने मुलाकात करके विस्तृत बातचीत की है। प्रस्तुत है इस बातचीत के प्रमुख अंश-

सवाल:एक व्यवसायी पारिवारिक माहौल में, रहते हुए भी आप अभिनय और थिएटर की तरफ कैसे मुड़ गए ?

जवाब: जहां जाना होता है, डेस्टिनी अपने आप ही आपको ले जाती है। थोड़ी हमारी कोशिश भी थी। नाटक के सिवा हमें किसी और चीज में मजा नहीं आता था। जब स्कूल-कालेज में हम नाटक  करते थे तो उसमें मुझे मजा आता था, पढ़ाई में मन बिल्कुल नही लगता था। नाटकों के प्रति जबरदस्त आकर्षण ही मुझे खींचकर, अभिनय की दुनिया में ले आया।

सवाल: आपने एन एस डी में निर्देशन का कोर्स किया है, मगर आपने अभिनेता के रूप में काम किया है ? 

जवाब: एन एस डी ने तो एक्चुअली मुझे डायरेक्टर ही बनाना चाहा था। हर एक स्टूडेंट्स की काबलियत और एप्टीच्यूड देखकर, वो लोग तय करते थे, कि कहां कौन ज्यादा सूट करता है। कौन, किस ब्रांच में जाएगा। मैं हिंदी बेल्ट से आया था तो मेरी भाषा उच्चारण वगैरह स्वाभाविक रूप में ठीक-ठाक था। नाटक और थिएटर के अंदर वो पहली चीज होती है। वही देखकर शायद उन लोगों ने मुझे एक्टिंग में भेज दिया था कि अच्छा, ये तो अच्छी आवाज के साथ-साथ बढ़िया जुबान वाला है। शुरुआती दो साल की पढ़ाई मैंने एक्टिंग में ही की थी लेकिन मैंने तीसरे साल में आप्टआऊट किया था कि नहीं मुझे एक्टिंग में आगे कंटीन्यू नहीं करना है। मुझे डायरेक्शन में जाना है। दरअसल मुझे लगने लगा था कि मैं एक्टिंग सीख नहीं पा रहा हूं। जो मैं अंदर से चाहता हूं, वो एक्टिंग कर नहीं पा रहा हूं। आज तो शब्द दे सकता हूं उस समय मेरे पास शब्द भी नहीं थे कि मैं कह सकूं कि मैं एक्टर बनना चाहता हूं। उस समय मेरे पास अभिव्यक्ति नहीं थी। अपने अंदर के इमोशन, जो मैं महसूस कर रहा था, उसे कर नहीं पा रहा था। उसे शब्दों में तठस्थ होकर पूरी तन्मयता से आत्मसात करके मैं डायरेक्टर के सामने स्टेज पर फोरप्ले नहीं कर पाता था। अतरू एक्टिंग छोड़कर, मैं डायरेक्शन में चला गया। एन एस डी में शायद यह अकेला केस था जहां मैंने दो साल की जगह, चार साल लगाया। पहले दो साल एक्टिंग में फिर दो साल डायरेक्शन में लगाया और फाइनली मेरा डिप्लोमा डायरेक्शन में ही हुआ। 

सवाल:  आपका साहित्य के प्रति झुकाव और कविता-कहानी के पाठ का विचार कैसे बन गया ? 

जवाब: यह सब सहज रूप से अपने आप ही होता गया। मुझे लगता है कि आपका मन, अपने आप उस तरफ होता है, जिस तरफ आपका रुझान होता है। एनएसडी, दिल्ली में पढ़ने के दौरान, नाटकों से जुड़ाव का भी, इस पर पाजिटिव कंट्रीब्यूशन हुआ। एनएसडी में होने वाले, अंग्रेजी या दूसरी अन्य भाषाओं के ज्यादातर नाटक भी, हिन्दी या हिन्दुस्तानी में ही होते हैं और वो सब के सब लिट्रेचर बेस्ड होते हैं। ये उसकी एक खासियत है। हमारी ट्रेनिंग वहां हुई  तो उस बहाने से अच्छे-अच्छे नाटकों को पढ़ने का मौका मिला। जिसमें कहानी के साथ-साथ प्लाट, विभिन्न करेक्टर,  उतार-चढ़ाव और क्लाइमेक्स भी प्रभावशाली होता था। हल्के फुल्के ढंग से नहीं बल्कि उस प्रासेस के अंदर सीरियस सब्जेक्ट के साथ हमारी शुरुआत हुई और फिर जब मैं डायरेक्टर के तौर पर काम करने लगा तो धीरे धीरे सब्जेक्ट को और ज्यादा समझने की चाह की वजह से उसमें डूब जाता था। ज्यादातर चीजें जब भी मुझे पढ़ने को मिली, पसंद वही आईं, जिसमें एक्चुएली कुछ तथ्य था। सारे एलिमेंट्स हो चाहे व्यंग्य हो परसाई का या कुछ भी हो मगर कुछ ऐसा हो जो आंखे खोलता हो और जो समाज को रिफलेक्ट करता हो। उसी दौरान सन् 1973 में ही धूमिल जी की लिखी ष्संसद से संसद तकष् किताबश् पढ़ने को मिली। ‘पटकथा’ उसकी आखिरी कविता है। ये जो सीरियस थिएटर  या सीरियस लिट्रेचर बेस्ड थिएटर होता है वो करते करते, ज्यादातर मुझे सीरियस चीजें ही ज्यादा पसंद आने लगी। सीरियस चीजों में ही एक उदाहरण है कि शायद 1973 या 74 में ‘अंधायुग‘ नामक एक नाटक डायरेक्ट करने के लिए मुझे कला परिषद ने बुलवाया था। अंधायुग बहुत जबरदस्त ड्रामा है। उसके अंदर जबरदस्त कविता के साथ-साथ इमोशंस भी है। उसके अंदर बहुत स्ट्रांग तरीके से, क्या नहीं है ? इस तरह की जब आपकी सीरियस शुरुआत हुई हो और उस तरफ से जब आप आएंगे तो आप अच्छे साहित्य से ही जुड़ेंगे। 

 फिर धीरे धीरे खाली समय में आज से छब्बीस सत्ताइस साल पहले मेरे घर पर चौपाल नाम की साहित्यिक गोष्ठी शुरू हुई। हर महीने, किसी दिन पचास-सौ लोग, मेरे घर इकट्ठे होकर, कहानियां-कविताएं पढ़ते थे, छोटे-छोटे नाटक भी करते थे। अक्सर मेरे दोस्त मुझसे कहते थे आप कविता पढ़िए, कोई कहानी पढ़िए। कभी कभी मैं भी पढ़ देता था। उस तरह से और ज्यादा लोगों को लगने लगा कि ये कविताएं क्या खूब पढ़ता है। इस तरह से धीरे-धीरे क्रिएट हो गया कि मैं बड़ा साहित्य अनुरागी एक्टर हूँ। 

सवाल: कहा जाता है कि कलाकार जन्मजात होता है उसको निखारा तो जा सकता है लेकिन किसी इंस्टीट्यूट में बनाया नहीं जा सकता। आप इस बारे में क्या महसूस करते हैं ?

जवाब: दरअसल डायरेक्शन करते-करते ही, मुझे एक्टिंग के फंडे क्लीयर हुए थे। इस एक्टिंग सिखाने के दौरान ही मैं भी एक्टिंग सीख पाया। अब मैं कन्विंस हूं कि जिस तरह से एक्टिंग सीखने का कोई फ्लैट कोर्स बना दिया जाता है उस तरह से एक्टिंग नहीं सिखाई जा सकती है। एक्टिंग बहुत व्यक्तिगत मामला है। वो क्लास नहीं है, जैसे म्यूजिक है, जैसे डांस है। ये गुरु-शिष्य परंपरा का एक इंडीविजुअल पूरा खेल है, तपस्या है। पता नहीं एक्टिंग को इस तरह से कितना देखा गया है कितना नहीं। मैंने महसूस किया कि यह भी बहुत सेंसिटिव, बारीक और बहुत तपस्या वाला फील्ड है। हम हर किसी को एक्टिंग सिखा नही सकते। उसके अंदर से एक्टर को निकालना होता है। इसका कोई एक निश्चित तरीका भी नहीं है। मैं किसी को अपना तरीका सिखा सका हूँ लेकिन वो बनावटी होगा। हमें गाइडलाइन देनी होती है कि सामने वाला अपने अंदर के एक्टर को बाहर निकाले। 

जया बच्चन के साथ राजेंद्र गुप्ता

सवाल: फिल्म टीवी या थिएटर जगत में आप किस अभिनेता या निर्देशक से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं।

जवाब: वर्तमान में अभिनेता नसीरूद्दीन शाह का मैं बहुत मुरीद हूं। थियेटर में उनको बहुत बड़ा और अच्छा एक्टर मानता हूं। उनके जैसी एक्टिंग की डायमेंशन्स बहुत कम लोगों में है। जितना एक्टिंग में वो बारीक काम करते हैं, मुझे याद नहीं पड़ता, किसी और का उतना बारीक काम मैने देखा हो। अभिनय जगत में एक से एक कमाल के एक्टर बहुत प्रभावशाली हैं। मगर जो बारीकी नसीरूद्दीन शाह के काम में है, हर रोल को एकदम अलग तरह से, पूरे परफेक्शन के साथ निभाते हैं। फिल्मों में और भी बहुत से कमाल के एक्टर हैं। सबसे पहले आप दिलीप साहब को देखिए, क्या काम करते थे। हमारे जैसी जनरेशन जो इस लाइन में आई है, उनके यही रोल मॉडल थे। पुराने जमाने में दिलीप साहब, मोतीलाल साहब, बलराज साहनी साहब, बहुत गजब के एक्टर थे।

सवाल: पुरानी फिल्मों में अधिकतर दर्शक फिल्म के दुखभरे दृश्यों से प्रभावित हो, सुबकने लगते थे।  क्या वजह है कि अब दुख भरे दृश्यों में, किसी के दुख को देखकर, दर्शकों के आंखों से आँसू नही निकलते ?

जवाब: आजकल अगर किसी के आंख से एक सेकेंड के लिए, आंसू निकलेगा भी तो साथ का आदमी कहेगा, चल यार ये तो रोज कई बार होता है। किस-किस के लिए रोएगा। आज का आदमी सिर्फ़ अपने-आप में केंद्रित होकर जीता है। आज का तंत्र कह रहा है कि आप अपने काम से काम रखिए। व्यर्थ में किसी पर ध्यान मत दीजिए। अगर आप किसी की मुसीबत में रुक कर उस की मदद करने लगोगे तो आप खुद दूसरी मुसीबत में फंस जाओगे। पूरा तंत्र, इंसान को रोकने या दूसरों की मदद न करने के लिए ही प्रेरित करता नज़र आता है। आप किस-किस को दोष दीजिएगा।


सवाल:  आज के दर्शको में इंसानियत से जुड़ी भावुकता, नहीं दिखाई देने का क्या कारण है ?

जवाब: समाज और देश के हालात जैसे हैं, आज का आदमी उसी का ही तो प्रोडक्ट हैं। वो अपने चारों तरफ चालाकी, स्वार्थ, गलाकाट प्रतियोगिता देख रहे हैं। खुद के जिंदा रहने के अनुभव में, पचास तरह के अनुभवों से वो गुजरता है। हो सकता है उसका दोस्त ही उसकी छाती पर पांव रखकर आगे बढ़ गया हो, तो वो हवा में कैसे मासूम रह जाएगा। जाने अनजाने पता नहीं कितने अच्छे-बुरे अनुभव, आपके व्यक्तित्व को कांससली-अनकांशसली प्रभावित करते रहते हैं। आपका व्यक्तित्व आखिरी दम तक बनता बिगड़ता रहता है। ऐसे माहौल में भावुकता का खत्म होना स्वाभाविक है। 

सवाल: अभी आपकी टीम ने सुदामा पांडेय धूमिल की प्रसिद्ध कविता ‘पटकथा’ का मंचन किया। इस मंचन को आप एक प्रयोग कहेंगे या कुछ और ?

जवाब: हम इसे प्रयोग कह सकते हैं। एक कोशिश है जो हमने किया। दर्शकों के रिस्पांस भी काफी एनकरेजिंग हैं। हम इसके शोज और भी कर रहे हैं। 

सवाल :  किसी कविता का बिना नाट्य रूपांतर किए, मंचन करना क्या संभव है? ‘पटकथा’ के मंचन को आप किस तरह से देखते हैं ?

जवाब: मैंने ‘पटकथा’ कविता का नाप्य रूपांतर किया ही नहीं है। अगर आप धूमिल को पढ़ेंगे तो आप पाएंगे कि धूमिल तो खुद इतने ड्रामेटिक हैं कि उनकी रचनाओं में ड्रामा खोजने की जरूरत ही नहीं है। ‘पटकथा’ के एक-एक शब्द-भाव इतने कमाल के, इतने ड्रामेटिक और आज भी प्रासंगिक हैं कि मैंने कहा इस कविता का मुझे अवश्य मंचन करना है। भाव और शब्द जो उनके हैं, उसे मैं अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रहा हूं। भाव भी उन शब्दो से ही आ रहा है। मैं तो अपनी भरसक कोशिश और भरसक ईमानदारी से, उसे ज्यों का त्यों, अपने दर्शकों से बांटने की कोशिश कर रहा हूं। मैं तो एज एन एक्टर, उस कविता को सीधे दर्शकों तक पहुंचा रहा हूं। मेरे ख्याल से, धूमिल को गये हुए, आज लगभग 45 साल हो रहे हैं। सन् 81 में उनकी डेथ हो जाने के बावजूद धूमिल आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। सिवा एक दो संदर्भों, को छोड़कर यह लगता ही नहीं कि आप कब की बात कर रहे हो। वर्तमान पालिटकल और सोशल परिस्थितियों में पूरे देश के हालात, बिल्कुल वैसे के वैसे ही हैं। मैंने ये कविता शायद सन् 73 या 74 के आस-पास पहली बार पढ़ी थी तब से मैं इससे बहुत प्रभावित था लेकिन स्टेज पर अकेले सोलो एक्टिंग करने की, इससे पहले कभी भी मुझे  हिम्मत नहीं हुई। 

राजेंद्र गुप्ता मुंबई स्थित अवास पर अशोक श्रीवास्तक ‘कुमुद’, कुमुद श्रीवास्तव और राजेंद्र गुप्ता।

सवाल: सर आप कहते हैं कि आप साहित्य के विकास या साहित्य से नहीं जुड़े हैं। लेकिन साहित्य का विकास व प्रचार ऐसी रचनाओं के प्रेजेंटेशन से बहुत तेजी से होता है। जो लोग धूमिल की इस कविता का मंचन देखते हैं वो अन्य कविताओं से भी जुड़ते हैं।

जवाब: पिछले तीन चार साल से मैंने अपना एक यूट्यूब चैनेल ‘राजेंद्र गुप्ता वाच’ नाम से बनाया है। उसमें ज्यादातर यही है। मैं कविताओं और कहानियों का पाठ करता हूं और एक तरह से एज एन एक्टर, वो मेरा भी रियाज है। इस बहाने मैं उन चीजों को सामने लाता हूँ  जो मुझे पसंद है और सिनेमा और नाटकों में नहीं आ पा रहा है, जो करेंट समाज, उसका जो दुख-दर्द झरोखा, जो नहीं दिखाया जाता, न उन पर कोई हिम्मत करता है, न किसी को लेना देना है। बेसिकली यह इंटरटेनमेंट वर्ड है। यहाँ लोग पैसा कमाने के लिए आते हैं। इस तरह का काम सिनेमा में बहुत थोड़ा होता है। कुछ लोग अपना पैसा खर्च करके, छोटी छोटी फिल्में बनाते हैं। किसी जमाने में लोग, सरकारी संस्थाओं के पैसे को मोबलाइज करके भी  फिल्में बनाते थे। ज्यादातर लोग यह महंगा काम नहीं कर पाते  हैं। मैं इन चीजों को नाटक के माध्यम से करता हूं। 

सवाल: आजकल की जो फिल्में आ रही हैं, उसमें टेक्नालाजी का बहुत प्रयोग हो रहा है, फिल्में बहुत भव्य और विशाल स्तर पर बन रहीं हैं। इस नज़र से, थिएटर में टेक्नालाजी के प्रयोग पर आपका क्या विचार है?

जवाब: थिएटर को टेक्नालाजी की बहुत जरूरत नहीं है। यूं तो आप हर चीज का इस्तेमाल कर सकते हैं और उससे एडिशन ही होगा, उससे फायदा ही होगा लेकिन थिएटर को इसकी क्या जरूरत है। इसमें इतना ब्लैक एंड व्हाईट नहीं, कोई फार्मूला नहीं है। सवाल यह है कि स्टेज या थिएटर बेसिकली लाइव है। वहां एक्टर सबसे बड़ी मशीन है। सिनेमा में जितना एक्टर महत्वपूर्ण हैं उतनी ही टेकनीक महत्वपूर्ण है। ये अलग बात है कि हिंदूस्तान का सिनेमा एक्टर ओरियंटेड है और यहां का थिएटर डायरेक्टर ओरिएंटेड हो गया है। जबकि एक्चुएली अपनी बेसिक जरूरतों के अंतर्गत नाटक जो है वो अभिनेता का है और सिनेमा टेक्नीक का है। सिनेमा कहां से आया रंगमंच से आया। रंगमंच में जो हम कर रहे हैं, सिनेमा ने उसको रिकार्ड कर लिया। थिएटर में बिना टेक्नीक के भी काम चल सकता है, मगर जो लोग पैसे का जुगाड़ कर लेते हैं एक-एक दो-दोकरोड़ तक का प्रोडक्शन भी थिएटर में करते हैं। 

आशुतोष राणा के साथ राजेंद्र गुप्ता

सवाल: आपने लगान, तनु वेड्स मनु, सदाबहार जैसी बहुत सी फिल्में और शक्तिमान, चिड़ियाघर और चंद्रकांता जैसे टीवी सीरियल के अलावा बहुत से नाटकों जैसे चाणक्यशास्त्र, कन्यादान आदि में भी काम किया है। आप किस रोल से अपने आपको सबसे ज्यादा संतुष्ट मानते हैं ? 

जवाब: सब के सब रोल में कुछ कमियों के साथ-साथ कुछ मजेदार किस्से भी होते हैं। आप एक अमूर्त चीज को मूर्त कर रहे हैं। एक कहानी और किरदार को आप जिंदा कर, एक्चुअल घटित होते दिखा रहे हो। आडियंस को लगना चाहिए कि मैं रियल देख रहा हूं तभी वो उससे प्रभावित होते हैं। इसलिए वो दृश्य अपने-आप में इतना कंविंसिंग होना चाहिए कि आडियंस को वो रियल लगे। दर्शक को कंविंस करने के लिए, उसको रियल बनाने की कोई लिमिट ही नहीं है। आप कोशिश पर कोशिश करते रहिए। उसके सुख-दुख, गुस्से को, रोने-हँसने को, उसकी हर चीज को उसके साथ आत्मसात करिए। रचनात्मक काम तो अंतहीन होता है। वो कोई आखिरी खुशी नहीं होती। कोई मंजिल अंतिम नहीं होती। 

सवाल :   वर्तमान तथा निकट भविष्य में आपकी आने वाली फिल्में टीवी सीरियल या नाटक कौन कौन हैं ?  

जवाब: वर्तमान समय में, हमारा एक नाटक ‘जीना इसी का नाम है’ दो साल से चल रहा है। दूसरा नाटक ‘पटकथा’ अभी-अभी शुरू हुआ है। अभी हम एक और नाटक का रिहर्स कर रहे हैं जो जिन्ना के ऊपर है। यह जिन्ना की पर्सनल लाईफ पर आधारित बहुत ड्रमैटिक नाटक है। इसमें तीन करेक्टर हैं; जिन्ना, जिन्ना की बहन और जिन्ना की बेटी। इसमें, इन तीनों के बीच में ही पूरी कंफ्लिक्ट, पूरी डेढ़ घंटे की डिबेट है। हिंदूस्तान की तात्कालिक पालिटिक्स, इस्लाम और हिंदूस्तान को लेकर, इनके अपने-अपने विचार, से इसे सँजोया गया है। इस पारिवारिक डिस्कसन से पता चलता है कि जिन्ना ऐसा क्यों है और क्यों उसने पाकिस्तान बनाया। नाटक के अनुसार, शायद इसके पीछे पर्सनल रीजन ज्यादा है। इसके अलावा मेरी एक ओटीटी वेबसीरिज नेट फ्लेक्स पर ‘ब्लैक वारंट’ 10 जनवरी को रिलीज हुई थी। फिल्म अभिनेता राज कुमार राव  के साथ भी, मेरी एक फिल्म ‘मालिक’ बहुत जल्द आने वाली है।                              

(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2025 अंक में प्रकाशित)






मंगलवार, 1 जुलाई 2025

गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2025 अंक में



3. संपादकीय - समाज से कटता जा रहा है साहित्यकार

4-7. मीडिया हाउस: वर्ष 1900 से निकलनी शुरू हुई सरस्वती पत्रिका-डॉ.इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

8-9.रूबाई को नहीं मिली ख़ास अहमियत- डॉ. अमीर हमज़ा

10-12. दास्तान-ए-अदीब: प्रेमचंद के कहने पर हिन्दी में लिखने लगे उपेंद्रनाथ अश्क-डॉ.इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

13-20. इंटरव्यू: आज का तंत्र कह रहा है कि आप अपने काम से काम रखिए - राजेंद्र गुप्ता

21-27.ग़ज़लें  मुनव्वर राना, उदय प्रताप सिंह, पवन कुमार, मनीष शुक्ल, डॉ. राहिब मैत्रेय, तलब जौनपुरी, बसंत कुमार शर्मा, खुरशीद खैराड़ी, रईस सिद्दीक़ी बहराइची, अनिल मानव, सोमनाथ शुक्ल, सूफ़िया ज़ैदी, शशिभूषण मिश्र ‘गुंजन’,  प्रकाश नीरव

28-39. कविताएं यश मालवीय, डॉ. प्रमिला वर्मा, पुष्पिता अवस्थी, डॉ.एम.डी. सिंह, डॉ. मधुबाला सिन्हा, डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, डॉ. शबाना रफ़ीक़, उवर्शी उपाध्याय ‘प्रेरणा’, जयप्रकाश श्रीवास्तव, केदारनाथ सविता, डॉ. अनुराधा प्रियदर्शिनी, डॉ. पूर्णिमा पांडेय, जहांआरा ‘अर्शि’, केशव प्रकाश सक्सेना

40-41. लधुकथा: ईर्ष्या -पूनम कश्यप

42-45. चौपाल: अब साहित्यकार सत्ता के नज़दीक आने के लिए बेचैन है ?

46-47. तब्सेरा: अस्तित्व की पहचान, ग़ज़लकार अशोक अंजुम

48-49. उर्दू अदब: मरकज़े-नूर

50. ग़ाज़ीपुर के वीर: मोहम्मद इस्माइल ख़ान

51-56. अदबी ख़बरें

57-87. परिशिष्ट-1: डॉ. लक्ष्मी नारायण बुनकर

57. डॉ. लक्ष्मी नारायण बुनकर का परिचय

58-60.अपनी ओर आकर्षित करतीं कविताएं -डॉ. आदित्य कुमार गुप्ता

61-62.दिल छू लेने वाली कविताएं- अरविंद असर

63-64.कविताओं में शब्दों के सुंदर सामंजस्य- सोमनाथ शुक्ल

65-87. डॉ. लक्ष्मी नारायण बुनकर की कविताएं


88-117. परिशिष्ट-2 रचना सक्सेना

88. रचना सक्सेना का परिचय

89. मानवतावादी गीतकार रचना सक्सेना - डॉ. शहनाज़ ज़ाफ़र बासमेह

90-91.संवेदनाओं की कवयित्री रचना सक्सेना -डॉ. रामावतार सागर

92-94.एक सजग कवयित्री रचना सक्सेना - जगदीश कुमार धुर्वे

95-117. रचना सक्सेना की रचनाएं


118-148. परिशिष्ट-3 डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’

118-119 डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ का परिचय

120-122. कथ्य और शिल्प की कसौटी पर खरे दोहे - रघुविंद्र यादव

123-126. दोहा विधा के प्रखर हस्ताक्षर डॉ. वीर- डॉ. भावना तिवारी

127-148. डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ के दोहे


शनिवार, 21 जून 2025

           बच्चों के किरदारसाज़ नदीम अंसारी

                                                                                 - डॉ. वारिस अंसारी 


 

 डॉक्टर बनना आसान है लेकिन बच्चों का डॉक्टर बनना बहुत कठिन काम है। क्योंकि बच्चे कुछ बता नहीं सकते, उनकी हालात का जायज़ा लेकर ही उन्हें समझा जा सकता है। इसी तरह कहानीकार वह भी बच्चों का कहानीकार एक बड़ी सिफत का मालिक होता है। लेखक को बच्चों के तर्जे अमल को करीब से खंगालना होता है। उनके एहसासात समझने पड़ते हैं। उनके दुख सुख को जानना होता है। तब कहीं जाकर बच्चों के लिए कुछ लिखा जा सकता है  नदीम अंसारी ने बच्चों को बहुत करीब से देखा-समझा और उनका अध्ययन किया है, तब कहीं उनकी मेहनत ‘सुनहरा कलम’ की शक्ल में मंजरे आम पर आ पाई। बच्चों के लिए बहुत पहले से अदबी कहानियां लिखी जाती रही हैं लेकिन उनमें वह सब नहीं है जो आज के बच्चों की ज़़रूरत है। नदीम अंसारी ने आज के बच्चों के मेज़ाज को परखा और समझा तब उन्होंने बच्चों के लिए अपना कलम उठाया ताकि इन कहानियों को पढ़ कर बच्चे दर्स हासिल कर सकें। ‘सुनहरा कलम’ में 24 कहानियां हैं, जिनमें ‘साबरह’ एक ऐसी कहानी है जो दो अलग-अलग मज़हब के मानने वालों पर मुन्हसिर है, और ये कहानी हिदोस्तानी तहज़ीब और कौमी यकजहती की नुमाइंदगी करती है। इसी मजमूआ (संग्रह) में ‘नेकी की राह’ से बच्चों में हमदर्दी का जज़्बा पैदा किया जा सकता है । 

 नदीम की ज़बान में बला की सादगी है, सलासत है। इनकी कहानियां पढ़ने में एक अलग का लुत्फ आता है। नदीम अंसारी दुनिया में भले ही न हों वह अदब में आज भी जिंदा हैं। उनके छोटे भाई मो. इरशाद की लगन और इरफान अहमद अंसारी की मेहनत ने उनकी कहानियों को मंजरे आम पर ला कर एक बड़ा काम किया है। यकीनन इस अदबी काम से मरहूम नदीम की रूह को तस्कीन ज़रूर मिली होगी। दुआ है अल्लाह उनको गरीके रहमत करे ।

 इस मामूली से कालम में उनकी कहानियों पर तब्सेरा करना आसान नहीं है। उनकी कहानियों में सब एक से बढ़ कर एक कहानी हैं। ‘फुलवारी’, ‘इंसाफ’, ‘झूठा ख़्वाब’, ‘अटूट रिश्ते’, ‘नई जिं़दगी’ जैसी तमाम कहानियां पढ़ने के लायक हैं जिनका सीधा असर दिलो दिमाग पर पड़ता है। हार्ड जिल्द के साथ 160 पेज की इस किताब को मीनाई ग्राफिक्स , तारैन जलाल नगर, शाहजहांपुर कंपोज करा कर रोशन प्रिंटर्स दिल्ली से सन 2022 में प्रकाशित किया गया। किताब की कीमत मात्र 250 रुपए है ।

एक अज़ीम शख़्सियत दिल शाहजहांपुरी



  ये बात बिलकुल सच है कि हर ज़िंदा और बेदार कौम अपने पुरखों को याद करती हैं। और जिसने अपने पुरखों को भुला दिया तो समझें उसने अपनी नस्लों को मिटा दिया। सो अपने बुजुर्गों की याद दहानी बहुत ज़रूरी है। इस कड़ी में इरफान अहमद अंसारी का नाम लेना बहुत ज़़रूरी है क्योंकि उन्हीं की मोरत्तिब किताब ‘इरफान-ए-दिल’ का ज़िक्र होना है । इरफान को अगर अदबी दुनिया का मुजाहिद कहा जाए तो गलत नहीं होगा। क्योंकि इन्होंने अदब में नुमाया खिदमात अंजाम दीं हैं जो कि उनके जिंदादिली और अपने पुरखों से दिलचस्पी का सुबूत हैं । 

  दिल शाहजहांपुरी पर मुरत्तिब उनकी किताब इरफान ए दिल कोई मामूली किताब नहीं और मामूली होगी भी कैसे। क्योंकि दिल शाहजहांपुरी कोई छोटा मोटा या मामूली नाम नहीं है। ये वह शख्सियत है जिसे हजरते अमीर मीनाई की शागिर्दी हासिल है। दिल शाहजहांपुरी शायरी की दुनिया का बहुत बड़ा नाम है। उन पर और उनकी शायरी पर अब तक हजारों मजमून लिखे जा चुके हैं। सबसे बड़ी बात ये  कि अल्लामा इकबाल भी दिल शाहजहांपुरी की शायरी से बहुत मुतास्सिर थे। इरफान अहमद अंसारी ने भी इन्हीं बड़ों के नक्शे कदम पर चलने का काम अंजाम दिया और अपने कलम को अफसाना निगारी व मज़मून निगारी की जानिब मुंतखिब करके अदबी खिदमात को अंजाम दे रहे हैं । 

 पच्चासों लोगों से मज़मून इकट्ठा करना और फिर उन पर काम करके किताब की शक्ल देना कोई बच्चों का खेल नहीं। ये बड़े दिल और बड़े हौसला वालों का काम है। जहां ज़र और वक्त सब कुछ कुर्बान करना पड़ता है। दिन का चैन और रातों की नींद कुर्बान करनी पड़ती है। तब कहीं जाकर इस तरह की किताबें मंजरे आम पर आ पाती हैं। यकीनन ये किताब तलबा के लिए बहुत ही नायब किताब है। ख़ास तौर पर स्कॉलर्स के लिए बेहद काम की किताब है। जो अदबी दुनिया के लिए मील का पत्थर साबित होगी। किताब को रोशन प्रिंटर्स देहली से कंपोज करा कर सन 2018 में एजुकेशनल पब्लिकेशन हाउस 3191, वकील स्ट्रीट , लाल कुआं, देहली 6, से प्रकाशित किया गया । 336 पेज के इस किताब की कीमत 400 रुपए है।


(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2024 अंक में प्रकाशित)


मंगलवार, 17 जून 2025

उमाकांत जी के घर में दलित महिला बनाती थी खाना

उन्होंने बचपन से ही बच्चों को दी कविता लिखने-पढ़ने की ट्रेनिंग

कर्मचारी यूनियन में सक्रियता के कारण एजी ऑफिस से हुए थे निलंबित

                                                                   - डॉ. इम्तियाज अहमद ग़ाज़ी

नैनीताल के एक कवि सम्मेलन में काव्य पाठ करते उमाकांत मालवीय

उमाकांत मालवीय अपने कार्य, चरित्र और स्वभाव से भी सच्चे साहित्यकार थे। उनके अंदर एक महान कवि, पिता, दार्शनिक, मंच संचालक और समाज सेवी समाहित था। उन्होंने अपने तीन बेटों को इंसानियत के लिए जीने का सबक दिया था। किसी भी बेटे पर किसी प्रकार का दवाब नहीं था। सभी ने अपने मन और रुचि के अनुसार पढ़ाई की, कविता लिखा और समाज को समझने के लिए कार्य किया। उनके अंदर समाजिक स्तर पर कोई भेद-भाव नहीं था। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि उनके घर में खाना बनाने महिला भी दलित वर्ग से थी। इसकी जानकारी होने पर दोस्तों और रिश्तेदारों ने ऐतराज़ जताया, कई लोगों ने उनके यहां चाय-नाश्ता करना बंद कर दिया था, लेकिन उमाकांत जी ने उस खाना बनाने वाली को निकाला नहीं। इस मामले में उनकी पत्नी भी पूरी तरह उनके साथ खड़ी थीं।

बीच में बैठी हुई हैं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी। सबसे बाएं खड़े हैं उमाकांत मालवीय


 उमाकांत मालवीय अपने समय के जाने-माने कवि थे। देशभर के कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ के साथ-साथ मंच का संचालन भी करते थे। उनका मानना था कि कविता लिखने का प्रांरभ छंद से होना चाहिए और कविता का बेसिक ज्ञान होना चाहिए कि कविता क्या है ? जो लोेग बिना छंद को समझे ही कविता का लेखन कर रहे हैं, वे पूर्ण रूप से कभी कवि नहीं हो सकते, उन्हें सही ढंग से कविता लिखना नहीं आ सकता। कविता का प्रारंभ छंद से ही होना चाहिए, बाद में भले ही बिना छंद वाली कविता लिखें। कविता में एक मैसेज होना चाहिए, साथ ही उसमें आपका कमिटमेंट भी ज़रूरी है। उमाकांत जी के मझले पुत्र यश मालवीय बताते हैं कि हम तीनों भाइयों को वे अपनी कविताएं सुनाते थे और हमारी लिखी हुई कविता पर चर्चा करते थे। मुझे बड़े पिता जी, बसु को मझले पिताजी और अंशु को छोटे पिताजी कहकर बुलाते थे। उनका हमारे साथ पिता-पुत्र वाला संबंध नहीं था, बिल्कुल दोस्तों वाला संबंध था। वे अपने बच्चों को इसका प्रशिक्षण देते थे। छंद सिखाने के लिए शब्द बोलकर अपने बेटांे से पूछते थे कि बताओ इसमें कितनी मात्राएं हैं। कहते थे- जो सही बताएगा उसे चवन्नी मिलेगी। 

 उमाकांत मालवीय महालेखाकार ऑफिस में कार्य करते थे। कर्मचारी यूनियन में सक्रिय रहने के कारण वर्ष 1968 से 1971 तक निलंबित रहे थे। तब ख़ास तौर पर बच्चों की फीस जमा करने में उन्हें काफी दिक्कत का सामना करना पड़ा था। यश मालवीय इस घटना को याद करते हुए बताते हैं-‘हम तीनों भाई एक तरह से कविता के पाले हुए हैं। फीस न जमा होने के कारण कई बार स्कूल से नाम भी कटा। जब कवि सम्मेलन से पारिश्रमिक मिलता था तब फीस जमा हो पाती। कई बार पिताजी 500 से 600 रुपये में पूरा कविता संग्रह लिखकर दूसरों को दे देते थे, ताकि हम लोगों की पढ़ाई चलती रहे।  

मदादेवी वर्मा और रामजी पांडेय के साथ बैठे हुए उमाकांत मालवीय।

एक बार की बात है। अंशु मालवीय के स्कूल में नामांकन के समय आवेदन-पत्र में यह भी भरना था कि आप अपने बच्चे को पढ़ा-लिखाकर क्या बनाना चाहते हैं ? किसी ने डाक्टर, किसी ने इंजीनियर और किसी ने आईएएस आदि लिखा था। उमाकांत जी ने लिखा- ‘नेक इंसान’। उनका यह आवेदन-पत्र स्कूल की प्रार्थना-सभा में लहराकर दिखाया गया कि एक आवेदन ऐसा भी आया ह,ै जिसमें पिता अपने बेटे को नेक इंसान बनाना चाहता है।

आपस में बातचीत करते बाएं से- अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’, डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी और यश मालवीय।

यश मालवीय जब हाईस्कूल में थे, तब परीक्षा का परिणाम आया तो बहुत ही सामान्य नंबर से पास हुए थे। तब डॉ. जगदीश गुप्त ने उमाकांत जी से कहा कि यश की पढ़ाई-लिखाई पर भी ज़रा ध्यान दीजिए, कविता से कुछ होगा नहीं। उमाकांत जी बोले- ‘कुछ नहीं होगा तो मेरा बेटा कविता की दिहाड़ी करेगा, गीतों की दिहाड़ी करेगा, बच्चा मेरा भूखों नहीं मरेगा।‘ आज यश मालवीय के साथ पढ़े-लिखे लोगों को कोई नहीं जानता, जबकि यश मालवीय की साहित्य के क्षे़त्र में एक ख़ास पहचान हैै। 


उमाकांत मालवीय की किताबों के कवर पेज।    

यश मालवीय की पहली कविता वर्ष 1971 में ‘दैनिक जागरण’ और ‘धर्मयुग’ में छप गई थी। इसी वर्ष पहली बार आकाशवाणी इलाहाबाद से इन्हें काव्य पाठ का अवसर मिला। तब से यह सिलसिला आज तक जारी है। मझले पुत्र बसु मालवीय का मुंबई में एक एक्सीटेंड के दौरान निधन हो गया था। छोटे भाई अंशु मालवीय कविताओं का सृजन करते हैं। उमाकांत मालवीय का 1982 में निधन हो गया था।


(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2024 अंक में प्रकाशित)   


शनिवार, 14 जून 2025

साम्प्रदायिकता एकता को समर्पित लेख

                                      - अजीत शर्मा ‘आकाश’


 

‘भारत और इस्लाम’ नामक पुस्तक पश्चिम बंगाल के लोकप्रिय लेखक रेज़ाउल करीम के लेखों का संकलन है, जो कलकत्ता के विभिन्न पत्रों में प्रकाशित हुए हैं। यह लेख पराधीन भारत के समय मुसलमानों की दयनीय दशा को देखते हुए लिखे गये हैं। डॉ. प्रमोद कुमार अग्रवाल ने इन मूल निबन्धों का अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद कर उन्हें पुस्तक के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसे हिन्दू-मुसलमान एकता के लिए समर्पित किया गया है। पुस्तक के विषय में कहा गया है कि यह देश की साम्प्रदायिक परिस्थिति में साम्प्रदायिकता को कम करने में सहायता करेगी। इन निबन्धों को भारत और इस्लाम के शत्रुओं से मुक़ाबला करने के उद्देश्य से लिखा गया है। लेखक इनमें प्रतिक्रियावादी एवं साम्राज्यवादी नीतियों वाले नेताओं की कटु आलोचना करते हुए चेतावनी देता है कि देश के मुसलमान इस प्रकार के तत्वों द्वारा किये जा रहे भ्रामक प्रचार से पथभ्रष्ट न हों। पुस्तक के माध्यम से यह प्रमुख सन्देश दिया गया है कि व्यक्ति को सर्वप्रथम परिवार से प्रेम करके देशप्रेम और विश्वप्रेम अर्थात् मानवता प्रेम की ओर बढ़ना चाहिए।

 पुस्तक में साम्प्रदायिक एकता जैसे ज्वलन्त विषय को लेकर लिखे गये कुल 22 लेख संकलित हैं। ‘भारतीय प्रथम एवं सदैव भारतीय’ शीर्षक वाले इस प्रथम लेख में स्वयं को भारतीयता की भावना से ओतप्रोत होने का सन्देश दिया गया है। ‘मै राष्ट्रीय ध्वज को प्रणाम करता हूं’ में झण्डे का सम्मान करने की बात कही गयी है। ‘इस्लाम में सहिष्णुता’ में बताया गया है कि पवित्र क़ुरआन में बहुत सी बहुमूल्य आयतें मुसलमानों को दूसरे धर्म के समर्थकों के प्रति सहनशील होने के लिए सलाह देती हैं। ‘राजकुमार दारा शिकोह का जीवन दर्शन’ शीर्षक लेख में मुसलमानों में एकता और सहिष्णुता की सीख मानने पर बल दिया गया है। “सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां” जैसी रचना लिखने वाले सर मुहम्मद इक़बाल को लिखे गये एक खुले पत्र के माध्यम से पुस्तक के लेखक द्वारा उनकी राजनीति की चालबाज़ियों और झूठ के संकुचित क्षेत्र में आने की भरपूर आलोचना की गयी है। ‘मुसलमानों का क्या हित है?’ लेख में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि मुसलमान भारत के अभिन्न अंग हैं एवं भारत की समस्त महानता एवं वैभव से अपृथक रूप से जुड़े हुए हैं। इसी प्रकार से ‘इस्लाम में पैग़म्बर और ग़ै़र मुसलमान’, ‘निम्न वर्ग एवं मुसलमानों का कर्तव्य’, ‘महामान्य आग़ा ख़ाँ का सन्देश’, ‘धर्म एवं अन्तर साम्प्रदायिक एकता, राष्ट्रीय आदर्श’ आदि लेखों में आवश्यक बातें कही गयी हैं। पुस्तक में संग्रहीत अन्तिम निबन्ध ‘क्या इस्लाम ख़तरे में है?’के अंतर्गत लेखक ने कहा है कि यह एक कायरतापूर्ण मानसिकता है। इसमें यह भी कहा गया है कि स्वार्थी एवं चालाक नेताओं ने अपने समर्थकों के मस्तिष्कों में इस पकार का झूठा भय घुसाकर, मुसलमानों को धोखा दिया है।

पुस्तक के उद्धरणों के कुछ अंश प्रस्तुत हैं -‘प्रारम्भ से लेकर अन्त तक पवित्र क़ुरआन पढ़ो एवं तुम्हें यहां वहां बहुत सी बहुमूल्य आयतें बीच-बीच में मिलेंगी जो कि मुसलमानों के दूसरे धर्म के समर्थकों के प्रति सहनशील होने के लिए सलाह देती हैं। धर्म में कोई ज़बर्दस्ती नहीं है।’ (पृ. सं.-23) 

‘धर्म को व्यक्ति की आत्मा से ही तात्पर्य होना चाहिए उसे उसके शरीर के साथ नहीं हस्ताक्षेप करना चाहिए जोकि पृथ्वी पर ईश्वर का तम्बू है। मुनष्य का शरीर वह जिस भी सम्प्रदाय से सम्बन्धित हो, प्रत्येक धर्म एवं प्रत्येक दूसरे मानव का संरक्षित हित होना चाहिए एवं हमें सभी मनुष्यों के साथ समानता, न्याय एवं बिना किसी भेदभाव के साथ बर्ताव करना चाहिए।’ (पृ. सं.-58) पुस्तक का मुद्रण एवं प्रकाशन सामान्य कोटि का कहा जा सकता है। लेखों के अन्तर्गत कहीं- कहीं ‘अनेकों’, ‘पाश्विक’ जैसी व्याकरणिक अशुद्धियां दृष्टिगोचर होती हैं। कुल मिलाकर बु़द्धजीवियों एवं आम पाठकों के लिए इसे एक पठनीय, सराहनीय एवं आवश्यक दस्तावेज़ कहा जा सकता है। प्रभाकर प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित 118 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 150 रुपये है।


विभिन्न रंगों के अशआर का संकलन


                                        

 गुफ़्तगू पब्लिकेशन की पुस्तक-श्रृंखला के अन्तर्गत ‘अनिल मानव के चुनिंदा अशआर’ शीर्षक से लघु पुस्तक का प्रकाशन किया गया है। जिसके अन्तर्गत अनिल ‘मानव’ की ग़ज़लों के प्रतिनिधि शे’र संग्रहीत किये गये हैं। इन चुने गये शे’रों के माध्यम से शायर की काव्यात्मक क्षमता एवं उसकी सृजनात्मक शक्ति का पर्याप्त परिचय पाठकों को प्राप्त होता है। संग्रहीत किये गये शे’रों को पढ़कर ज्ञात होता है कि ग़ज़लों के व्याकरण एवं उनके शिल्प पक्ष पर रचनाकार की पकड़ है। पुस्तक में संग्रहीत शे’रों का भावपक्ष एवं कथ्य भी सराहनीय है। इनके माध्यम से रचनाकार के मन में चल रहा रचनाशीलता का द्वन्द्व परिलक्षित होता है। जीवन में व्याप्त आपाधापी, भागदौड़ तथा घर-परिवार एवं देश-दुनिया की बातें इत्यादि विषयों को शब्द चित्रों के माध्यम से प्रकाश में लाया गया है। आसान शब्दावली से युक्त इन संग्रहीत शे’रों की भाषा सरल, सहज एवं बोधगम्य तथा जनसामान्य की भाषा है। इनमें प्रयुक्त हिन्दी, उर्दू तथा अंग्रेज़ी के प्रचलित एवं अति प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया गया है, जिसके कारण ये आम बोलचाल की भाषा के निकट के प्रतीत होते हैं। पुस्तक के अन्तर्गत संग्रहीत हर एक शे’र का अपने आप में एक अलग महत्व है, जिसके माध्यम से रचनाकार की प्रतिनिधि शायरी की झलक देखने को मिलती है। प्रस्तुत हैं इस पुस्तक के कुछ अंशः-‘जुर्म सहने वाला भी इतिहास में/कोई भी हो दोषी माना जाएगा।‘, ‘राज़ सब खोलती है मगर बाद में/ज़िन्दगी पहले से कुछ बताती नहीं।’,:ग़म की एक कहानी देकर जाता है/कुछ तो इश्क़ निशानी देकर जाता है।‘, ‘फ़ख़्र है हमें अपने देश के किसानों पर/वो अगर नहीं होते रोटियाँ नहीं होतीं।’, ‘घर बड़ा है आपका/दिल ज़रा बड़ा करो।’ 

  लेखन में भाषा-व्याकरण सम्बन्धी कुछ छोटे-मोटे दोष भी दृष्टिगोचर होते हैं, यथा- सूरज के कभी आगे (वाक्य विन्यास), प्रेम की गणित, ज़िन्दगी काट लिया (लिंग दोष), ‘आपका’ के साथ ‘करो’ का प्रयोग आदि। “लुगाई’ जैसे शब्दों का प्रयोग करने से ग्रामत्व दोष भी आ गया है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जीवन एवं समाज के अनेक रंग लिए हुए चुनिन्दा अशआर की यह पुस्तक पठनीय एवं सराहनीय है। 24 पृष्ठों की पुस्तक की कीमत 25 रुपये है।


राशदी के शेर कहने का अंदाज़ है अनूठा



  गुफ़्तगू पब्लिकेशन की सौ अशआर की पुस्तक-श्रृंखला के अन्तर्गत मासूम रज़ा राशदी के सौ शेर की पुस्तक का प्रकाशन किया गया है। वस्तुत, किसी भी ग़ज़लकार की ग़ज़लों में कुछ शे’र सामान्य, कुछ अच्छे और कुछ उत्कृष्ट कोटि के होते हैं। सभी ग़ज़लों में से उत्कृष्ट कोटि के चयनित शे’र उस शायर विशेष की अलग पहचान निर्मित करते हैं। मासूम रज़ा राशदी दूसरे ग़ज़लकारों के मध्य अपनी अलग पहचान रखते हैं। इनके शे’र कहने का अन्दाज़ अनूठा है। चुने गये सौ शे’रों के माध्यम से शायर की काव्यात्मक क्षमता एवं उसकी सृजनात्मक शक्ति का परिचय पाठकों को प्राप्त होता है।

  संग्रहीत शे’रों के कथ्य एवं उनमें निहित भावपक्ष पर दृष्टिपात करने पर पाठक को ज्ञात होता है कि सामाजिक विसंगतियों पर शायर की सूक्ष्म दृष्टि है। समाज के बिगड़े हुए हालात को सुधारने के लिए शायर समाज को सकारात्मक दिशा एवं अंधेरों से संघर्ष करने की प्रेरणा दे देता है। कुछ शे’रों को पढ़कर पाठक को आनन्द की अनुभूति होती है। पुस्तक के अन्तर्गत संग्रहीत हर एक शे’र का अपने आप में एक अलग स्थान है, जिनकी एक झलक देखने के लिए प्रस्तुत हैं कुछ अंशः-‘ख़ार हैं फूलों में अब इस ख़ौफ़ से/ कैसे कोई बाग़बानी छोड़ दे। .... पहले रोटी का इंतज़ाम करूं/ बाद में शाइरी भी कर लूंगा। .... अगर सवाल तिरी प्यास का है ऐ साक़ी/ मैं ख़ुद को आखि़री हद तक निचोड़ सकता हूं। .... तैरना सीख ही लेगा वो यक़ीनन इक दिन/ हो के बेख़ौफ़ जो पानी में उतर जाएगा। .... आप तो आइने में संवरते रहे/ आईना आपको देखता रह गया। .... तुमने इतना डरा दिया मुझको/ अब ज़रा सा भी डर नहीं लगता। संग्रहीत शे’रों में कुछ हल्के-फुल्के दोष भी हैं, यथा- ‘न’ के स्थान पर ‘ना’ का प्रयोग किया जाना वर्जित है। “हर मुसाफ़िर के नसीबों” जैसे अंश भाषा-व्याकरण की दृष्टि से वचन सम्ब्न्धी त्रुटि को इंगित करते हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पुस्तक के सौ शेर हमारी ज़िन्दगी एवं समाज के सौ रंग लिए हुए हैं। इस प्रकार के चुनिन्दा शेरों को पुस्तकाकार में प्रकाशित किया जाना साहित्यिक दृष्टि से एक अच्छा एवं सराहनीय कार्य है। ‘मासूम रज़ा राशदी के सौ शेर’ नामक इस पुस्तक की कीमत: 20 रुपये है।


गम्भीर प्रकृति की कविताओं का संग्रह



‘सम्वेदना’ (स्व.) सन्तोष कुमार श्रीवास्तव की 65 छन्दहीन नयी कविताओं का संग्रह है, जिसका रचना-चयन एवं सम्पादन श्रीमती ऊषा किरण श्रीवास्तव द्वारा किया गया है। पुस्तक में संग्रहीत रचनाएं गम्भीर सामाजिक विषयों तथा वर्तमान समाज में व्याप्त संत्रास, घुटन, वेदनाओं तथा अनुभूतियों पर आधारित हैं, जिनमें मानवीय मूल्यों तथा परम्पराओं के प्रति संवेदनशीलता को प्रमुख विंषय बनाया गया है। मुख्य रूप से मानव मन की प्रेम संकल्पनाओं और दार्शनिक मान्यताओं के साथ-साथ, समाज में व्याप्त विषमताओं तथा विभीषिकाओं एवं विडम्बनाओं से से उपजे ऊहापोह एवं मनुष्य की जिजीविषा का चित्रण किया गया है। आज के दौर में परम्पराओं के निरन्तर अवमूल्यन तथा मस्तिष्क मे उमड़ते वैचारिक झंझावात को इन कविताओं में दर्शाया गया है। पुस्तक में संग्रहीत कविताओं की भाषा सरल एवं सहज है, जिसके अन्तर्गत हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू के प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया गया है। प्रस्तुत हैं पुस्तक में संग्रहीत रचनाओं के कुछ अंशः-‘भावना- बिखर जाती/जैसे ही होता/सत्य से सामना।’, ‘खोज- खोजते नए आयाम/हो गए दिशा विहीन/खो गया वो आसमान/खो गयी अपनी जमीन।’, ‘कामना- प्यार की हो कल्पना/प्यार की हो साधना/प्यार ही बस प्यार हो/ज़िन्दगी की कामना।’,  ‘इन्सान से भगवान- करते जाओ कर्म/तभी बन पाओगे/आदमी/आदमी से इन्सान/इन्सान से भगवान।’ इनके अतिरिक्त अन्य कुछ अन्य रचनाओं के शीर्षक हैं- जीवन का सार, सूर्य, सामंजस्य, सच की तलाश, सम्वेदना, ज़िन्दगी आदि। कहा जा सकता है कि यह रचना संग्रह गम्भीर प्रकृति के पाठकों के लिए है। ‘सम्वेदना’ (काव्य संग्रह) पुस्तक को गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित किया गया है, जिसकी की 150 रुपये है।


दो पाती के फूल में हैं प्रासंगिक दोहे


 

ग़ज़ल लेखन की भांति रचनाकारों के मध्य आजकल दोहा लेखन अत्यधिक लोकप्रिय हो रहा है। वस्तुत, दोहा-सृजन इतना आसान कार्य नहीं है, जितना बाहर से दिखता है। गम्भीर रचनाकार दोहा लेखन कर इसका भविष्य उज्ज्वल करने हेतु प्रयासरत हैं। इसी क्रम में नरेश कुमार महरानी द्वारा लिखित ‘दो पाती पर फूल’ शीर्षक से दोहों की एक पुंस्तक का प्रकाशन हनुआ है। पुस्तक का कथ्य विविधता लिए हुए है और इसका भाव पक्ष सराहनीय है। रचनाकार ने सामाजिक परिवेश के अनेक पक्षों पर दृष्टिपात करने का प्रयास किया है। वर्तमान समय को देखते हुए संग्रह के दोहे प्रासंगिकता लिये हुए हैं, जिनमें नवीन उपमाओं एवं मिसालों का प्रयोग किया गया है। राजनैतिक और सामाजिक विसंगतियाँ, देश, समाज, परिवार, हमारे संस्कार एवं छूटती परम्पराएं, भौतिकता की चाह, सत्ता लोलुपता, देश के गम्भीर हालात और आज की इंटरनेट संस्कृति पर प्रहार आदि रचनाओं के प्रमुख वर्ण्य विषय हैं। रचनाकार ने समाज को जिस रूप में देखा, समझा और परखा है, उसको वर्णित करने का प्रयास किया है। संग्रह की रचनाओं के कुछ अंश इस प्रकार हैं-धन कुबेर सब बढ़ गए, मध्यम बोझा जाय/निर्धन मस्त सदा दिखे, सूखी रोटी खाय।.... ताला चाभी देखिए, साथी दिखती प्रीति/इक दूजे के बिन यहां, नहिं खुलने की रीति।.... विपक्ष चुनौती ना रही, अब चिल्लाये कौन/तानाशाह जन्म लिया, सब सुख रहता मौन।.... फोन प्रयोग न कीजिए, करते कोई काज/जीवन जोखि़म में रहे, बिगड़त है सब राज।’ 

 दोहे स्थानीय भाषा मिश्रित खड़ी बोली में लिखे गये हैं, तथा इनमें दैनिक बोलचाल के शब्दों का प्रयोग किया गया है। संग्रह की अधिकतर रचनाओं में सपाटबयानी है तथा काव्यात्मकता कहीं-कहीं पर ही झलकती है। अच्छा होता, यदि प्रकाशन से पूर्व संग्रह की पाण्डुलिपि किसी वरिष्ठ रचनाकार को दिखाकर उनसे इस विषय में सलाह ली जाती। कथ्य एवं वर्ण्य-विषय को दृष्टिगत रखा जाए, तो संग्रह को सराहनीय कहा जा सकता है। रचनाकार की लेखनधर्मिता तथा सृजनशीलता सराहनीय है। नरेश कुमार महरानी की इस सजिल्द पुस्तक की कीमत मूल्यः 250 रुपये है, जिसे गुफ़्तगू पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है।


राधा एवं कृष्ण भक्तिपरक रचनाएं


‘अच्युतम केशवम’ नामक लघु पुस्तक कामिनी कृष्णा भारद्वाज द्वारा लिखित है। इसमें कुल 29 भक्ति रचनाएं सम्मिलित हैं, जिन्हें भजन कहा जा सकता है। अधिकतर रचनाएं राधा एवं कृष्ण भक्ति तथा वृंदावन से सम्बन्धित हैं। इनके अतिरिक्त भगवान शिव एवं गणेश की स्तुतिपरक रचनाएँ भी हैं। पुस्तक के शीर्षक अच्युतम केशवम में ‘म’ के नीचे हलन्त (्) नहीं लगाया गया है, जिसे वर्तनी की दृष्टि से अशुद्ध कहा जाएगा, क्योंकि अपने मूल रूप में संस्कृत भाषा के शब्दों अच्युत एवं केशव को द्वितीया विभक्ति, एकवचन के रूप में प्रयोग किया गया है, जिनका संस्कृत स्वरूप अच्युतम् केशवम् है। हलन्त (्) चिह्न किसी वर्ण के आधे होने का संकेत देता है। प्रेम तथा भक्ति के वशीभूत कृष्णमय हो जाने की चाहत को इस पुस्तक की मुख्य विषयवस्तु बताया गया है। लेखिका के अनुसार प्रभु तक पहुंचने के लिए केवल भक्ति मार्ग ही है। इसी कारण हर कविता में कृष्ण एवं राधा रानी को पाने की पुकार करते हुए अपने मन के भक्ति भावों को शब्दों का स्वरूप प्रदान किया गया है। इन रचनाओं को मन्दिरों, मठों एवं पूजाघरों में गाये जाने वाले भजनों में सम्मिलित किया जा सकता है। पुस्तक में संग्रहीत कुछ रचनाओं के अंश प्रस्तुत हैं -जीवन को नया मोड़ दो-‘हृदय के सागर में भक्ति रंग घोल दो/भक्ति के सहारे जीवन को नया मोड़ दो।’ मोहन राधे संग आ जाओ- ‘मां एक बार फिर राधा बन कर आओ/इस दुनिया को तुम प्रेम का पाठ पढ़ाओ/कान्हा के साथ तुम्हें फिर से आना होगा/संसार से इस नफरत को मिटाना होगा।’

 तकनीकी दृष्टि से यह लघु पुस्तक सुन्दर कलेवर तथा अनुपम साज-सज्जा से युक्त है। मुद्रण हेतु अच्छे एवं महंगे आर्ट पेपर का प्रयोग किया गया है। हर एक पृष्ठ पर राधा एवं कृष्ण के विभिन्न आकर्षक चित्र हैं। 30 पृष्ठों की इस भव्य एवं आकर्षक गेट अप वाली इस लघु पुस्तक का मूल्यः 250 रुपये है।

कर्ण के जीवनवृत्त का ख़ास चित्रण


 

पुस्तक ‘अविजित कर्ण’ के कृतिकार रामलखन शुक्ल हैं। यह महाकाव्य है, जिसे 18 सर्गों में विभक्त किया गया है। प्राचीन ग्रन्थ महाभारत से कथानक ग्रहण कर उसके एक प्रमुख पात्र कर्ण के जीवनवृत्त को चित्रित कर इस कृति का प्रणयन किया गया है। काव्यशास्त्र के अन्तर्गत महाकाव्य के कुछ लक्षण बताये हैं, जिनके अनुसार इसमें अष्टाधिक सर्ग होते हैं जिनमें से प्रत्येक की रचना एक ही छन्द में की जाती है। इसके अतिरिक्त महाकाव्य के प्रारम्भ में आशीर्वाद, देवस्तुति या वर्ण्यवस्तुनिर्देश होता है।‘अविजित कर्ण’ कृति में रचनाकार ने महारथी कर्ण को उदात्त गुणों से सम्पन्न, वीर शिरोमणि, त्यागी, अजेय, सर्वगुण सम्पन्न तथा महान वचन पालक एक महान योद्धा के रूप में वर्णित किया है। उनका पराक्रम, शौर्य, दानशीलता, मैत्री भाव अद्वितीय है। 

कथानक की दृष्टि से देखा जाए तो पुस्तक में कुन्ती को दुर्वासा से गर्भ धारण की वर-प्राप्ति से लेकर पाण्डवों के स्वर्गलोक प्रस्थान तक की महाभारत की कथा वर्णित की गयी है। ‘अविजित कर्ण’ पुस्तक को दोहा-चौपाई शैली में लिखा गया है। इसकी भाषा सरल एवं प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली मिश्रित अवधी है। संस्कृत निष्ठ एवं अवधी के शब्दों के साथ ही कहीं-कहीं राज, कमतर, जलन, ईमान जैसे सामान्य बोलचाल के शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। काव्य में अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है। शैली रोचक एवं प्रवाहमय प्रतीत होती है। पुस्तक के कुछ उल्लेखनीय अंश प्रस्तुत हैं-‘‘कर्ण पराक्रम जे सुनहिं हिय महं हर्षित होहिं/बल पौरूष लखि वीर का सबै सराहहिं ओहिं।’ कर्ण का चरित्र- ‘तजेहुं प्रान त्यागेहु नहिं संगा/कबहुं वचन कीन्हेउ नहिं भंगा/दीन्हेउ दान आइ जो मांगा/सत्य धर्म ईमान न त्यागा।’ युद्ध वर्णन- ‘बान घटोत्कच छोड़त अइसे/नभ से बरसत गोले जइसे।’   वीभत्स रस- ‘सोणित की धारा बही दिखे लास ही लास/चील गिद्ध कुरूक्षेत्र महं नोंच रहे हैं मांस।’ करूण रस- ‘रूदन विलाप चर्तुर्दक होई/दुखी उदास मलिन सब कोई।’ 

काव्य-रचना में यत्र-तत्र अशुद्धियां भी परिलक्षित होती हैं। उदाहरणार्थ नीर-बैन (पृ.-200), विनासा-घाता (पृ.- 201) जैसी तुकान्तता की अशुद्धियां। ‘तुम’ और ‘तेरे’ (पृ.-170) तथा ‘तुम्हारा’ और ‘तोहि’ (पृ.-177) का एक साथ प्रयोग जैसे सम्बोधन सम्बन्धी व्याकरण दोष भी कहीं-कहीं हैं। इसके अतिरिक्त प्यस, विषाइ, धृत, जैसी प्रूफ़ सम्बन्धी अशुद्धियां भी कहीं-कहीं हैं। अन्त में कहा जा सकता है कि समीक्ष्य पुस्तक में मुख्य रूप से कर्ण के उदात्त गुणों को चित्रित करते हुए उनका महिमा मण्डन किया गया है, जो पौराणिक तथा प्राचीन सन्दर्भों की अभिरुचि वाले पाठकों के लिए रोचक एवं पठनीय होगा। अविजित कर्ण’ पुस्तक को सरस्वती साहित्य संस्थान, अल्लापुर, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है, 208 पेज की इस किताब का मूल्य 475 रुपये है।


रोचक, मनोरंजक अवधी मुक्तकों का संग्रह


 
डॉ. शम्भुनाथ त्रिपाठी ‘अंशुल’की पुस्तक ‘काऽ करबऽ‘ अवधी भाषा में रचित मुक्तकों का संग्रह है। जिन्हें आराधन, उद्वेग, संवेग, मनश्चिन्ता, समाज, राजकाज, परिवर्तन, भारत देश, आस्था, बारहमासा, तथा अध्यात्म- इन एकादश तरंगों में विभक्त किया गया है। काव्यशास्त्रानुसार चार पंक्तियों के मुक्तक के अन्तर्गत एक अनुभूति, एक भाव या कल्पना का चित्रण होता है तथा इनका वर्ण्य विषय अपने में पूर्ण होता है। प्रस्तुत मुक्तक संग्रह की रचनाएँ अन्तर्मन के द्वंद्व को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करती हैं तथा एक आम आदमी की आशा, निराशा, चुनौतियों संवेदनाओं, जैसी अनेक अभिव्यक्तियाँ को प्रदर्शित करती हैं। अधिकतर मुक्तकों में रचनाकार परम्परावादी तथा रूढ़िवादी विचारधारा का समर्थन करता हुआ-सा प्रतीत होता है। अहिरे कऽ मीत बनावइ, नाऊ ठाकुर बड़ा छतीसा, पंडित बीच बजार बइठि जूता बेंचइं/फूँकइं शंख चमार बतावऽ काऽ करबऽ, ध्वस्त भई सब वर्ण व्यवस्था काऽ करबऽ, करइ न बाभन सन्ध्या वन्दन काऽ करबऽ/माथे नाहीं टीका चन्दन काऽ करबऽ आदि पंक्तियों में रचनाकार द्वारा जातिवाद एवं रूढ़िवाद का समर्थन दृष्टिगत होता है। इसके अतिरिक्त किन्हीं कारणों से पुस्तक का रचनाकार वर्तमान सत्ताधारियों का गुणगान करते हुए सत्तापक्ष के सम्मुख नतमस्तक सा होता हुआ प्रतीत होता है, यथा- “पी.एम. मोदी जुगुति लगाएनि काऽ करबऽ/सारी जनता कऽ समझाएनि काऽ करबऽ। जोगी बाबा हाथ लगाएनि काऽ करबऽ/सुदृढ़ व्यवस्था सबइ कराएनि काऽ करबऽ।“ “ बसपा, सपा काँग्रेसी खपतुलहवास भें/मोदी अमित साह जउ होकइं काऽ करबऽ। जैसी पंक्तियाँ साम्प्रदायिक भावनाओं का पोषण करती-सी प्रतीत होती हैं। शिल्प की दृष्टि से रचनाकार ने छन्दविधान का पूर्णरूपेण पालन किया है, जिससे छन्दों में लय, प्रवाह एवं गतिशीलता निरन्तर विद्यमान रहती है। 

    बोए बबुर तऽ आम न खाये, मूड़ मुड़उतइ बरसइ ओला, बालू से केउ भीत बनावइ, दूर कऽ ढोल सुहावन, जान जाइ न जाये दमड़ी, मूस भवा लोढ़ा मुटाइ के, आँखि कऽ आँन्हर नाम नयनसुख, चोर-चोर मउसेरे भाई,, सूप बोल बोलइ तऽ तन्निउ अनुचित नाहीं/अब तऽ बोलइ छेदही चलनी काऽ करबऽ आदि मुहावरों एवं लोकोक्तियों का प्रयोग भी अधिकतर स्थानों पर किया गया है। इसके अतिरिक्त गदेला, लतखोर, धुँआधार, चौचक, चूतिया, लबार दहिजराए खपतुलहवास आदि ठेठ आंचलिक शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। पंक्तियों में कहीं-कहीं ‘ग्राम्यत्व’ एवं ‘अश्लीलत्व’ दोष भी आ गया है, जिससे बचा जा सकता था (पृ.-102, मुक्तक-14)।

कुल मिलाकर पुस्तक रोचक एवं व्यंग्यात्मक शैली में है, जिसे अवधी भाषा-भाषी पाठक अधिक रुचिपूर्वक पढ़ना चाहेंगे। प्रभाश्री विश्वभारती प्रकाशन, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित साहित्यकार डॉ. शम्भुनाथ त्रिपाठी ‘अंशुल’ के अवधी मुक्तक काव्य “काऽ करबऽ“  का मूल्यः 250 रुपये है।


 भोजपुरी साहित्य को समृद्ध करने का प्रयास


 

 हिन्दी लघुकथा लेखन की भांति भोजपुरी रचनाकार भी इस विधा को समृद्ध करने के लिए निरन्तर प्रयासरत हैं। भोजपुरी हिन्दी की एक उपभाषा एवं बोली है, जो मुख्य रूप से पश्चिम बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी झारखण्ड के क्षेत्र में बोली जाती है। डॉ. मधुबाला सिन्हा की पुस्तक ‘अनहद’उनकी सत्तर भोजपुरी लघुकथाओं का संग्रह है, जिनके माध्यम से घर-परिवार, गांव, समाज की छोटी-छोटी घटनाओं आदि का यथार्थ चित्रण करने का प्रयास किया गया है। पुस्तक में संग्रहीत ‘गूँज’ एवं ‘नयतनतारा’ आदि लघुकथाओं के माघ्यम से समाज में पति के सामने पत्नी की स्थिति तथा उस पर लगाये गये लांछनों एवं प्रताड़ना को चित्रित करते हुए स्त्री विमर्श को रेखांकित किया गया है। ‘तेरहवीं’ शीर्षक लघुकथा में बेटे की दृष्टि पिता की मृत्यु पर न होकर उनके द्वारा बनाये गये मकान पर रहती है। ‘लखपतिया’ समाज में व्याप्त नौकरी में ऊपरी आमदनी जैसे भ्रष्टाचार को चित्रित करती है। ‘तियना’ लघुकथा में कोरोना काल की त्रासदी की ओर संकेत किया गया है। इनके अतिरिक्त ‘रिस्ता’, ‘राजनीति’, ‘जमाना’, ‘आजु के नारी’, ‘बाँझ’, ‘नोकरी’, ‘कराटे’, ‘लभ इन’, ‘बेरोजगारी’ आदि कुछ प्रमुख लघुकथाओं के शीर्षक हैं, जिनसे इन कथाओं की विषयवस्तु ध्वनित होती है। अनेक लघुकथाएँ स्त्री विमर्श, परिवार में वृद्धजनों की स्थिति, सामाजिक संरचना की विकृतियों एवं विसंगतियों को रेखांकित करती हैं। कुछ लघुकथाएँ अनावश्यक विस्तार के कारण छोटी कहानी जैसी प्रतीत होती हैं। वस्तुतः आकारगत लघुता’ लघुकथा की एक प्रमुख विशेषता है। इस दृष्टि से कुछ रचनाओं में फालतूपन-सा आ गया प्रतीत होता है। बावजूद इसके अधिकतर लघुकथाओं का प्रस्तुतीकरण रोचक एवं भावपूर्ण बन पड़ा है। सर्वभाषा प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित 88 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 225 रुपये है।


(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2024 अंक में प्रकाशित)


शनिवार, 24 मई 2025

हिन्दी नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर उमाशंकर तिवारी

                                                                          - अमरनाथ तिवारी अमर 

  हिन्दी नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. उमाशंकर तिवारी का जन्म 31 जुलाई 1940 को ग़ाज़ीपुर जनपद के बहादुरगंज में हुआ था। इनकी शुरूआती शिक्षा घर पर ही हुई थी। इनकी प्रतिभा से चकित होकर तत्कालीन उप-विद्यालय निरीक्षक कृष्ण बिहारी अस्थाना ने प्रांथमिक नाम पांचवीं कक्षा में लिखाने का आदेश दे दिया था। विद्यार्थी जीवन से ही ये प्रतिभावान एवं मेधावी थे। इन्होंने छठवीं से आठवीं तक की शिक्षा जूनियर हाईस्कूल बहादुरगंज, फिर नवीं और दसवीं की शिक्षा गांधी स्मारक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय बहादुरगंज से पूरी की। इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए ग़ाज़ीपुर शहर स्थित सिटी उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में प्रवेश लेकर वर्ष 1955 में यहीं से इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की। हिन्दी, अंग्रेज़ी एवं संस्कृत विषय के साथ वर्ष 1957 में सतीशचंद्र कॉलेज, बलिया से स्नातक किया।

डॉ. उमाशंकर तिवारी

18 वर्ष की आयु में ही सिटी इंटर कॉलेज में अध्यापन करने लगे। एक वर्ष पश्चात् काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में एम.ए. की कक्षा में प्रवेश ले लिया। उस समय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी थे। हिन्दी विभाग अत्यंत समृद्ध था। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, डॉ. जगन्नाथ शर्मा, पं. करुणापति त्रिपाठी, डॉ. श्रीकृष्ण लाल और प्रो. विद्याशंकर मल्ल हिन्दी विभाग से जुड़े थे। ऐसे आचार्यों में डॉ. उमाशंकर तिवारी को संस्कारित एवं प्रशिक्षित किया। ये आचार्य द्विवेदी के प्रिय शिष्यों में थे। आचार्य द्विवेदी के सन्निध एवं मार्गदर्शन में ही इनकी काव्य प्रतिभा परवान चढ़ीं।

  काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के पश्चात इन्होंने ज़मानियां, ग़ाज़ीपुर, रानीपुर-आज़मगढ़ में अध्यापन किया। तत्पश्चात डी.सी.एस.के. महाविद्यालय मउ में हिन्दी विभाग से जुड़े। इसी महाविद्यालय से वर्ष 2001 में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए। वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय जौनपुर की विद्या परिषद एवं शोध समिति के संयोजक भी रहे। ‘छायादवोत्तर गीत-काव्य के शिल्पगत विकास’ विषय पर शोध प्रबंध प्रस्तुत कर वर्ष 197ं4 में काशी विद्यापीठ के डॉ. शंभुनाथ सिंह के निर्देशन में पी.एच-डी. किया। वर्ष 1969 से 2001 तक उच्च शिक्षा के अध्ययन-अध्यापन से जुड़े रहकर डॉ. तिवारी ख़्याति व यश अर्जित किया।

 डॉ. उमाशंकर तिवारी की गणना नवगीत के चर्चित हस्ताक्षर और व्याख्याता के रूप में अत्यंत सम्मान के साथ की जाती है। नवगीत के उन्नायक डॉ. शंभुनाथ सिंह ने अपने अंतिम समय में इनकी इमानदार सृजनशीलता पर विश्वास करते हुए ‘नवगीत’ के विकास के अधूरे पड़े कार्य को पूरा करने की जिम्मेदारी इन्हें ही सौंप दी थी।

 वर्ष 1968 में इनका पहला नवगीत संग्रह ‘जलते शहर में’ प्रकाशित हुआ। वर्ष 1968 में ‘तोहफं कांच घर के’ प्रकाशित हुआ। इस नवगीत संग्रह के लिए प्रधानमंत्री द्वारा उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के निराला पुरस्कार से इन्हें सम्मानित किया गया। इसी कृति के लिए इन्हें डॉ. जगदीश गुप्त द्वारा डॉ. शंभुनाथ सिंह नवगीत पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1996 में ‘धूप कड़ी है’ प्रकाशित हुआ। 

 इनका शोध प्रबंध ‘आधुनिक गीत काव्य’ वर्ष 1997 में प्रकाशित हुआ। इन्होंने कई पुस्तकों का संपादन किया। जिनमें प्रमुख है- नवगीत के प्रतिमान और आयाम, गद्य-विधिक़़ा, कथा यात्ऱा, कथा सेतु, समकालीन काव्य, नवलेखन की पत्रिका-पूर्ण। 

  कई पुरस्कारों और सम्मानों से सम्मानित डॉ. उमाशंकर तिवारी ने हिन्दी नवगीत को महत्तर उंचाई प्रदान की। शिक्षा एवं साहित्य के क्षेत्र में योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। डॉ. तिवारी का निधन 28 अक्तूबर 2009 को हो गया, लेकिन आपने नवगीतो के माध्यम से वे आज भी जीवित हैं।


( गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2024 अंक में प्रकाशित )


गुरुवार, 22 मई 2025

 गुफ़्तगू का कार्य अप्रत्याशित है: राजेंद्र गुप्ता

‘गुफ़्तगू साहित्य समारोह-2025’ में प्रतिभावान लोगों को  मिला अवार्ड


राजेंद्र गुप्ता

प्रयागराज। आमतौर पर साहित्यिक संस्थाएं बनती हैं, कुछ ही दिनों में टूट जाती हैं। क्योंकि अधिकतर मामलों में लोगो कें इगो हर्ट होने लगता है। मगर, प्रयागराज में गुफ़्तगू लगातार 23 वर्षों से संचालित हो रही है, यह बहुत बड़ी बात है, यह अप्रत्याशित है। पूरे देश से प्रतिभावानों का चयन करके प्रत्येक वर्ष सम्मानति किया जाना अपने-आप में बहुत बड़ा काम है। प्रयागराज में आकर इस तरह आयोजन देखना मुझे ही अच्छा लगा। संस्था के अध्यक्ष डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने अपनी कार्यकुशलता से यह काम करके मिसाल कायम किया है। यह बात 19 मई 2025 को मुट्ठीगंज स्थित आर्य कन्या इंटर कॉलेज में आयोजित ‘गुफ़्तगू साहित्य समारोह-2025’ के दौरार मशहूर फिल्म अभिनेता और रंगकर्मी राजेंद्र गुप्ता ने कही।

सीमा अपराजिता अवार्ड ग्रहण करती अलका सोनी

कार्यक्रम की भूमिका प्रस्तुत करते हुए डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि हमने एक टीम बनाने बनाकर साहित्य को समर्पित काम किया है। हमेशा से कोशिश रही है कि अच्छे कार्य करने वालों का सम्मान किया जाए, ताकि अच्छे कामों का प्रोत्साहन मिले।

कुलदीप नैयर अवार्ड ग्रहण करते रतिभान त्रिपाठी


कुलदीप नैयर अवार्ड ग्रहण करते रोहिताश्व कुमार वर्मा


सुभद्रा कुमारी चौहान अवार्ड करती डॉ.शहनाज़ ज़ाफ़र बासमेह

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए न्यायमूर्ति  क्षितिज शैलेंद्र ने कहा कि इस कठिन दौर में इमानदारी के साथ गुफ़्तगू ने बहुत ही परिश्रम से अपने-आपको खड़ा किया हैै। यह कार्य अपने आपमें अतुलनीय है।

न्यायमूर्ति क्षितिज शैलेंद्र


न्यायमूर्ति अशोक कुमार


डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

न्यायमूर्ति अशोक कुमार ने कहा कि साहित्यिक आयोजन की रूपरेखा तैयार करके उसे करके दिखा देना बड़ी बात है, यह काम टीम गुफ़्तगू ने करके दिखा दिया है। सिविल डिफेंस के चीफ वार्डेन अनिल कुमार ‘अन्नू भइया’ ने कहा कि प्रयागराज इलाहाबाद बहुत ही अच्छा कार्य कर रही है। इससे अन्य लोगों को भी सबक लेना चाहिए। वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र, शिक्षाविद् पंकज जायसवाल और पूर्व एडीशनल एडवोकेट जनरल क़मरुल हसन सिद्दीक़ी, नरेश कुमार महरानी, ने भी विचार व्यक्त किया। इस अवसर ‘गुफ़्तगू’ पत्रिका का भी विमोचन किया गया। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया।

अनिल कुमार उर्फ़ अन्नू भइया


पंकज जायसवाल


मुनेश्वर मिश्र

 दूसरे दौर में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। हकीम रेशादुल इस्लाम, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’, प्रभाशंकर शर्मा, मासूम रज़ा राशदी, डॉ. वीरेंद्र कुमार तिवारी, नीना मोहन श्रीवास्तव, अनिल मानव, राजेश राज जौनपुरी, अर्चना जायसवाल ‘सरताज’, शिवाजी यादव, अफसर जमाल, शैलेंद्र जय, मधुबाला गौतम, राम नारायण श्रीवास्तव, सिद्धार्थ पांडेय, भारत भूषण वार्ष्णेय, दयाशंकर प्रसाद, उत्कर्ष मालवीय, कमल किशोर कमल आदि ने काव्य पाठ किया।

 

गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2025 अंक का हुआ विमोचन

इन्हें मिला अवार्ड

शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी - अकबर इलाहाबादी अवार्ड


कुलदीप नैयर अवार्ड -

रोहिताश्व कुमार वर्मा (दैनिक जागरण-मुजफ्फरनगर),

रतिभान त्रिपाठी (राजनैतिक संपादक-देशबंधु)

दिनेश सिंह (टीवी-9)

अचिन्त्य रंजन मिश्र (आज)


सुभद्रा कुमारी चौहान अवार्ड -

डॉ. शहनाज़ जाफ़र बासमेह (औरंगाबाद, महाराष्ट्र)

डॉ. कामिनी व्यास रावल (उदयपुर)

निरुपमा खरे (भोपाल)

वंदना रानी दयाल (ग़ाज़ियाबाद)


कैलाश गौतम अवार्ड -

अविनाश भारती (मुजफ्फरपुर)

विनोद कुमार विक्की (खगड़िया)

डॉ. आकांक्षा पाल (प्रयागराज)

डॉ. संतोष कुमार मिश्र (प्रयागराज)


उमेश नारायण शर्मा अवार्ड-

एडवोकेट रोहित पांडेय

एडवोकेट सत्येंद्र सिंह

एडवोकेट सय्यद आफ़ताब मेंहदी

एडवोकेट अमरेंद्र कुमार मिश्र 


डॉ.सुधाकर पांडेय अवार्ड-

अलीशेर राईनी ‘भोलू’ (मरणोपरांत, दिलदानगर)

विनय राय ‘बबुरंग’ (ग़ाज़ीपुर)

संतोष कुमार शर्मा (ज़ामानिया)

मोहम्मद आरिफ़ अंसारी (प्रयागराज),


सीमा अपराजिता अवार्ड-

डॉ. प्रीता पंवार (फरीदाबाद)

डॉ. ऋषिका वर्मा (पौड़ी गढ़वाल)

अलका सोनी (बर्नपुर, पश्चिम बंगाल)

ज्योति सागर सना (दिल्ली)


मिल्खा सिंह अवार्ड-

ज़हीर हसन (फुटबाल)

प्रो. राकेश कुमार नायक (बॉक्सिंग)

भास्कर चंद्र भट्ट (बॉक्सिंग)

रणविजय सिंह (शॉटफुट थ्रोवर)


गुफ़्तगू अवार्ड-

अनुराग मिश्र (लखनऊ)

बसंत कुमार शर्मा (जबलपुर)

सरफराज हुसैर फराज (मुरादाबाद)

डॉ. रामावतार सागर (कोटा)

सुशील खरे ‘वैभव’ (पन्ना)

मंजुलता नागेश (प्रयागराज)