बुधवार, 24 फ़रवरी 2021

काव्य व्याकरण, सपनों का सम्मान, सहरा के फूल और मुनिसुतायन

- अजीत शर्मा आकाश



आजकल विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में ग़ज़ल और कविता के नाम पर अनेक त्रुटिपूर्ण रचनाएं प्रकाशित हो रही हैं। इन रचनाओं में क्या और किस प्रकार के दोष हैं, इसकी जानकारी न तो रचनाकार को होती है, न ही सम्पादक को। जिसके अभाव में अच्छे साहित्य के पाठक एवं सीखने के इच्छुक नवांकुर अच्छी एवं मानक रचनाओं से वंचित रह जाते हैं। सोशल मीडिया के अंतर्गत फेसबुक एवं व्हाट्स एप ग्रुपों में तो कचरा ही कचरा भरा रहता है। यह स्थिति काव्य-लेखन की समुचित जानकारी के अभाव के कारण उत्पन्न हुई है। कुछ प्रकाशनों एवं लेखकों ने इस दिशा में सराहनीय कदम उठाये हैं। गुफ्तगू पब्लिकेशन की पुस्तक ‘काव्य व्याकरणं’ ऐसा ही एक अच्छा कार्य है। यह पुस्तक वर्ष 2017 में छपकर आयी थी, जिसका प्रथम संस्करण समाप्त हो चुका है। अतः पाठकों एवं सीखने के इच्छुक रचनाकारों की आवश्यकता को देखते हुए पुस्तक का द्वितीय संस्करण प्रकाशित किया गया है, जो एक सराहनीय प्रयास है। पुस्तक के प्रारम्भ में गजल से सम्बन्धित विस्तृत, विवेचनात्मक एवं ज्ञानवर्धक दो लम्बे आलेख हैं। इनके अंतर्गत शम्सुर्रहमान फारूकी के ‘क्लासिकी ग़ज़ल की शेरीआत’ नामक आलेख में शास्त्रीय ग़ज़ल के काव्यशात्र पर गंभीर चर्चा करते हुए विभिन्न अशआर के उद्धरण के साथ ग़ज़ल के शास्त्रीय स्वरूप के विषय में जानकारी दी गई है। इसी प्रकार अली अहमद फ़ातमी के ‘नए इकदार और नई उर्दू ग़ज़ल’ में आधुनिक ग़ज़लगोई एवं ग़ज़ल के आधुनिक कथ्यात्मक स्वरूप के विषय में सविस्तार चर्चा की गई है। दोनों आलेख ग़ज़ल साहित्य की विस्तृत व्याख्या करते हैं एवं ग़ज़ल के कई ऐसे पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं, जिनके विषय में कम पाठकों को ही पता होगा। डा. नईम ‘साहिल’  के ‘ग़ज़ल लेखन का व्यावहारिक ज्ञान’ नामक लेख में ग़ज़लकारों के लिए अच्छी जानकारी उपलब्ध कराई गई है। ग़ज़ल की विशेषताओं एवं उसमें आने वाले दोषों के विषय में जानकारी प्राप्त कर श्रेष्ठ ग़ज़लों की रचना की जा सकती है। अवधेश कुमार के ‘हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा’ में ग़ज़ल की शुरूआत के विषय में एवं हिन्दी में ग़ज़ल-लेखन के जनक दुष्यन्त कुमार के योगदान पर प्रमुख रूप से चर्चा की गई है। आर.पी.शर्मा ‘महर्षि’ के ‘बह्र-विज्ञान के बारे में’ पुस्तकाकार आलेख बह्रों की जानकारी से भरा पड़ा है एवं सीखने के इच्छुक ग़ज़लकारों के लिए स्वर्णिम जानकारी की तरह है। बह्र की समुचित जानकारी के बिना शायरी, विशेष रूप से ग़ज़ल-लेखन का कोई अर्थ नहीं है। इस दुष्टि से ग़ज़ल लेखकों के लिए अत्यन्त उपयोगी सामग्री इस आलेख में समाहित की गयी है।
 ग़ज़ल के अतिरिक्त उर्दू शायरी की अन्य विधाओं के छन्द एवं उसके इतिहास पर भी पुस्तक में प्रकाश डाला गया है। इनमें रूबाई, मुनाजात, हम्द, नात, मर्सिया, आदि विधाएं शामिल हैं। इनमें अख़्तर अज़ीज़ का आलेख ‘हम्द, मुनाजात और नात’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। डाॅ. फरीद परबती ने रूबाई विधा का विशेष परिचय प्रदान किया है। नायाब बलियावी ने मर्सिया के विषय में बताया है। हिन्दी में काव्य-रचना करने वालों के लिए भी उपयोगी सामग्री पुस्तक में उपलब्ध है। हिन्दी कविता की प्रमुख विधाओं में से डा. बुद्धिनाथ मिश्र ने गीत विधा के इतिहास एवं उसकी वर्तमान दशा-दुर्दशा पर चर्चा की है। हिन्दी के शास़्त्रीय छन्द दोहा की रचना करने के लिए रघुविन्द्र यादव ने अपने आलेख सही दोहे लिखने के लिए क्या करें सविस्तार बताया है। हिन्दी में हाइकू नयी विधा का काव्य है, जो जापानी काव्यशास्त्र से आया हुआ है। हिन्दी के सन्दर्भ में इसकी रचना एवं प्रस्तुति को कमलेश भट्ट कमल के आलेख के माध्यम से अच्छे एवं रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इनके अतिरिक्त माहिया और जनक छन्दों की जानकारी प्रदान करते हुए आलेख भी पुस्तक के अन्तर्गत हैं। फिल्मी गीतकार एवं शायर इब्राहीम ‘अश्क’ ने फिल्मी गीतों के विभिन्न प्रकार एवं फिल्मों में उनकी अपरिहार्यता पर ‘फिल्मी गीत की परिभाषा’ आलेख के माध्यम से इस विषय में पर्याप्त प्रकाश डाला है। अच्छे एवं उपयोगी प्रकाशन के लिए संपादक इम्तियाज अहमद गाजी धन्यवाद के पात्र हैं। इम्तियाज अहमद गाजी द्वारा सम्पादित 164 पृष्ठों की इस सजिल्द पुस्तक को गुफ्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है, जिसका मूल्य 400 रुपये है।
 


ग़ज़ल साहित्य की एक लोकप्रिय विधा है। रामचंद्र ‘राजा‘ की 59 ग़ज़लों का संकलन ‘सपनों का सम्मान’ प्रकाशित हुआ है। इस पुस्तक में वर्तमान समाज एवं जीवन के विभिन्न पहलुओं को उजागर करने का प्रयास किया गया है। सामाजिक, पारिवारिक, राजनीतिक आदि जीवन के सभी पहलुओं को स्पर्श किया गया है, जिसके अंतर्गत जीवन की अनुभूति, मानव संवेदना, आज के युग की विडम्बनाएं आदि प्रमुख विषयों को इंगित किया गया हैं। संग्रह में ग़ज़लों के कुछ उल्लेखनीय अशआर इस प्रकार हैं- ‘देश को जो खोखला करते रहे/एकता के गीत गाने आ गये।’ एवं ‘है हवा के इशारे पे उसका सफर/वो जिधर चाहे खुशबू उधर जायेगी।’ ये शेर देश के वर्तमान अधिनायकों का चरित्र उजागर करते हैं। आज की राजनीति पर व्यंग्य- ‘अब दिल से दिल को जोड़ना आसां नहीं रहा/नफ़रत का ज़ह्र शह्र में फैला दिया गया।’ समाज एवं देश के कल्याण की चाह इन पंक्तियों में परिलक्षित होती है- ‘हम चाहते हैं कोई भी ठोकर न खाये अब/फूलों से सबकी राह सजाया करेंगे हम।’ एवं ‘सूरज बनूंगा मैं भी कभी आसमान का/रोशन करूंगा कोना-कोना मैं जहान का।’ आज के दौर की स्वार्थपरता का चित्रण- ‘गायब हुआ कुछ ऐसे वो मतलब निकाल के/मुद्दत गुजर गई वो दुबारा कहां मिला।’ एवं ‘जो शजर अपने पत्तों से महरूम है/छोड़कर उनको पक्षी भी जाने लगे।’ रचनाकार ने बाजारवाद पर इस शेर के माध्यम से सटीक व्यंग्य किया है- ‘व्यापार कितना गिर के है करता ये आदमी/औरत की फोटो छापता है इश्तहार में।’ गांवों से शहरों की ओर पलायन- ‘वो लहलहाता प्यार का मंजर नहीं मिला/गांवों के जैसा शहर में आदर नहीं मिला।’ सर्वहारा के जीवन का चित्रण देखें- ‘मुफलिसी के दौर में दिन रात हम/क्या बताएं किस तरह पलते रहे।’
ग़ज़लकार ने अच्छी ग़ज़लें कहने की भरसक कोशिश की है, लेकिन ग़ज़ल की विधा पर बहुत अच्छी पकड़ न होने के कारण कहीं-कहीं अधकचरापन झलकता है। हालांकि ग़ज़लकार स्वयं मानता है कि- ‘लिखना कलाम सीख ले तो फिर उसे तू पढ़/ख़ामी हो जिसमें ऐसी कभी शायरी न कर।’ लेकिन इसके बावजूद ग़ज़ल संग्रह में ख़ामियां  दृष्टिगत होती हैं। व्याकरण की दृष्टि से ऐबे तनाफुर, तकाबुले रदीफ़, मिस्रों का कहीं-कहीं बे-बह्र होना जैसे दोष भी कुछ गजलों में हैं। 72 पेज की इस पुस्तक की कीमत 100 रुपये है, जिसे गुफ़्तगू पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है।
 


हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल की लोकप्रियता निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। इसी का परिणाम है कि प्रायः सभी रचनाकार, जो इस विधा से जरा-सा भी वाक़िफ़ हैं, इसे अपना रहे हैं और अपनी लेखनी का जोर आजमा रहे हैं। ऐसी ही जोर आजमाइश के परिणामस्वरूप मोहन बेगोवाल का ‘सहरा के फूल’ नामक गजल संग्रह प्रकाशित होकर आया है। इस संग्रह में रचनाकार ने अपनी 100 गजलें प्रस्तुत की हैं। कथ्य की दृष्टि से इसमें अनेक सामाजिक विद्रूपताओं एवं जीवन की विसंगतियों को स्पर्श किया गया है। कुछ ग़ज़लों के अश्आर सराहनीय हैं, जिनका उल्लेख निम्नवत् है-‘जुल्म का पुतला अगर जल जायेगा/साथ नफ़रत का किला भी ढायेगा।’ ‘जिस ने चाहा वो ही कीमत लगा गया/क्या दौर हम बाजार का सामान बन गए।’, ‘तू अभी जाग क्यूँ नहीं जाता/देख पानी जा रहा है सर से।’, ‘सोच जब आसमान तक पहुंची/तब ये कोशिश उड़ान तक पहुंची।’ लेकिन, इस रचनात्मकता के साथ ग़ज़ल-लेखन के प्रति लापरवाही इस संग्रह में सबसे अधिक खटकने वाली बात है। यह सर्वविदित है कि प्रत्येक विधा की भाँति गजल के भी अपने कुछ नियम, शर्तें एवं बंधन हैं, जिनका पालन अनिवार्यतः करना होता है। ग़ज़ल की ऊपरी बनावट को देखकर ही लिखने से वह एक अधकचरेपन का शिकार होते हुए ग़ज़ल न होकर ग़ज़लनुमा रचना के रूप में हमारे सम्मुख आती हैं। ‘सहरा के फूल’ इसी प्रकार का ग़ज़ल संग्रह है। शिल्प विधान अपरिपक्व होने के कारण रचनाओं में रब्त और रवानी का अभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है एवं भावों की अस्पष्टता कथ्य को दुरूह बना देती है। उदाहरणार्थ, आंसू उछल तो सकती हैं, खुद मुझे उस बचा हो गया, तुम जलाने मेरी खता लाया, मेरे से दिल्ल्गी न हो जाए, जब मैं नजदीक से पढ़ा, जिस लुटा के घर रहा हूं, तदबीर हम बनाई है, बात हर पे मेरी, तू रूलाया, तेरे से, करी जो बात, घर मिरे के, जिस मिलाया था, जैसे अशुद्ध एवं अनर्गल वाक्यांशों का प्रयोग खड़ी बोली की ग़ज़ल में नितान्त अग्राह्य है। यही नहीं, अन्य शायरों की कुछ पंक्तियां इस ग़ज़ल संग्रह में ज्यों की त्यों प्रयोग की गयी हैं, जो नितान्त आपत्तिजनक होने के साथ ही ग़ज़लकार की रचनाधर्मिता पर प्रश्नचिह्न लगा जाती हैं। उदाहरणार्थ, पानी पानी हुआ जाता है समन्दर देखो-एहतराम इस्लाम (पृष्ठ-12), हर नए गम से खुशी होने लगी- साहिर होशियारपुरी (पृष्ठ-16), अभी कुछ और करिश्मे गजल के देखते हैं-अहमद फराज (पृष्ठ-29), इसको हंसा के मारा, उसको रुला के मारा-अकबर इलाहाबादी (पृष्ठ-41)। बहरहाल, ग़ज़लकार को इस प्रकार की भूलों से बचना चाहिए था। लेकिन, ग़ज़ल लेखन के लेखक के इस प्रयास को पूर्णतः नकारा नहीं जा सकता। ‘सहरा के फूल’ की ग़ज़लों के माध्यम से अपनी बात पाठक तक पंहुंचाने की भरपूर चेष्टा की गयी है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। रचनाकार को इस प्रयास के लिए साधुवाद एवं आशा की जाएगी, कि अगला संग्रह एक अच्छे रूप में पाठकों के सम्मुख आएगा। कुल 108 पृष्ठों की इस सजिल्द पुस्तक को गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है, जिसका मूल्य रुपये 200 मात्र है।
 



 कवयित्री डाॅ. शैलकुमारी तिवारी द्वारा रचित ‘मुनिसुतायन‘ तीन भागों में विभक्त 704 पद्यों की प्रबंध कविता है। प्रबंध काव्य में कोई प्रमुख कथा काव्य के आदि से अंत तक क्रमबद्ध रूप में चलती है। समीक्ष्य कृति में कवयित्री ने शकुन्तला के जीवन की सम्पूर्ण कथा कही है। महाकवि कालिदास के संस्कृत नाटक ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्‘ से कथानक ग्रहण करके ‘मुनिसुतायन‘ कृति का प्रणयन किया गया है, जो खड़ी बोली हिन्दी में पद्य रूपांतरण के स्वरूप में है। इस रचना में 30 मात्राओं वाले ‘पद-पादाकुलक‘ छन्द का प्रयोग किया गया है। इसके साथ ही इससे मिलते-जुलते ‘वीर‘ या ‘आल्हा‘ छन्द का भी प्रयोग किया गया है। कथा के प्रथम भाग में ऋषि विश्वामित्र एवं अप्सरा मेनका के गर्भ से उत्पन्न अद्भुत सौन्दर्य-पुंज कन्या के जन्म का वृत्तान्त वर्णित है, जिसे उसकी जन्मदात्री ने प्रसव के तत्काल बाद ही त्याग दिया। कण्व ऋषि के आश्रम में उनकी धर्मभगिनी गौतमी द्वारा उस कन्या पालन-पोषण किया गया। कुछ समय व्यतीत होने के पश्चात् राजा दुष्यन्त द्वारा शकुन्तला के प्रति आकृष्ट होकर गान्धर्व विवाह किये जाने एवं शकुन्तला-दुष्यन्त का प्रणय-प्रसंग है। द्वितीय भाग में दुष्यन्त की स्मृतियों में खोयी हुई शकुंतला को दुर्वासा ऋषि द्वारा शाप दिया जाना, महर्षि कण्व द्वारा शकुन्तला की विदाई करके नृप दुष्यन्त के पास भेजना तथा दुष्यंत द्वारा उसे अस्वीकार किये जाने के पश्चात् उसकी जननी मेनका द्वारा उसे मारीचाश्रम में ले जाना वर्णित है। तृतीय भाग में नृप दुष्यन्त की स्मृति का जागृत होना, मारीचाश्रम में पहुंचने पर शकुन्तला एवं उसके गर्भ से उत्पन्न अपने पुत्र की प्राप्ति के साथ ही कथा सम्पन्न होती है। कवयित्री के अनुसार वर्तमान समाज में व्याप्त विषमता को दूर करने एवं समरसता का अभिवर्द्धन, निरन्तर घटित हो रही आत्महत्याएँ, कन्याओं की भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, अशिक्षा आदि कुरीतियों के प्रति सहज संवेदना जगाने के साथ ही स्वावलम्बन की शिक्षा भी कथा के बीच-बीच में प्रदान की गयी है। अपनी सन्तान के प्रति कर्तव्यहीन मेनका की भी कवयित्री ने निन्दा की है। काव्य की भाषा परिमार्जित, परिष्कृत एवं संस्कृतनिष्ठ हिन्दी है तथा कहीं-कहीं सामान्य बोलचाल के शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। कायल, मुश्किल, दिल जैसे अन्य भाषाओं के शब्द भी कहीं-कहीं हैं। शैली अत्यन्त रोचक एवं प्रवाहमय है, यद्यपि प्रवाह किन्हीं-किन्हीं छन्दों में बाधित-सा भी प्रतीत होता है। पुस्तक के कुछ उल्लेखनीय अंश प्रस्तुत हैं। शकुन्तला का परिचय ‘मुनिसुतायन‘ में कुछ इस प्रकार प्रदान किया गया है-’यह वात्सल्य-भाव की भूखी पिता विश्वसख तप आसक्त/देवराज प्रेषित मेनका ही माता इसकी भगिनी हंत।।030!!’ शकुन्तला की प्रेम-व्यंजना दृष्टव्य है-‘कण्व सुता का कोमल अन्तस नृप-नयनों से था घायल/ बसे हुए थे नृप नेत्रों में चित्त उन्हीं का था कायल।।122।।’ राजा का कर्तव्य-‘प्रजा सदा राजा की संतति होती नृप की दृष्टि अभेद/ भारतीय संस्कृति में प्राणी सम होते हैं नहीं विभेद।।067।।’ वर्तमान समाज में व्याप्त विषमता के प्रति कवयित्री का दृष्टिकोण कुछ इस प्रकार परिलक्षित होता है-‘जीवन का अधिकार सभी का और स्वास्थ्यप्रद भोजन का/ सबको मिले समान ही शिक्षा कोई पात्र न शोषण का।।014।।’ काव्य-रचना के पद्यों में तुकांतता सम्बन्धी अशुद्धियां किन्हीं स्थानों पर परिलक्षित होती हैं, यथा-आसक्त-हंत, जल-कण, अक्षय-धन्य, अब से-वश में। कहीं-कहीं ‘‘होए नहीं उदास” जैसी भाषा भी प्रयोग की गयी है। पुस्तक के विषय में कहा जा सकता है, कि प्राचीन कथा में आधुनिक सन्दर्भों का समावेश करते हुए अच्छी प्रबन्ध कविता का सृजन किया गया है। मुख्य रूप से शकुन्तला-दुष्यन्त की प्रणय-कथा का यह पद्य रूपान्तरण इस अभिरूचि के पाठकों को रोचक एवं पठनीय प्रतीत होगा। कवयित्री डाॅ. शैलकुमारी तिवारी इस पुस्तक के प्रणयन हेतु बधाई की पात्र हैं। देववाणी परिषद, दिल्ली द्वारा प्रकाशित 96 पृष्ठीय इस पुस्तक का मूल्य  200 रुपये मात्र है।

(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2020 अंक में प्रकाशित)


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