- अजय राय
वरिष्ठ पत्रकार-अमर उजाला
मोबाइल नंबर 9675898311
हिमालय और विंध्याचल के बीच का वह स्थान जहां सरस्वती का बालू में लोप हो जाता है, उसे इन दिनों इलाहाबाद के नाम से जाना जाता है, उक्त वर्णन करने वाली मनुस्मृति ने जिसे प्रयाग कहा है। जहां आकर मशहूर शायर ग़ालिब की तबियत खराब हो गई थी। ग़ालिब ने लिखा अपने एक ख़त में अपनी भावना जाहिर की-अगर जन्नत का रास्ता इलाहाबाद से होकर जाएगा तो मैं जहन्नुम जाना पसंद करूंगा। एक शेर में लका हजर अत फितन ए इलाहाबाद यानी इलाहाबाद के फितनों से खुदा पनाह दे। फितना यानी लगाई-बुझाई करने वाले, षड्यंत्रकारी, साजिशकर्ता आदि-आदि। अब कोई पूछेगा कि सरस्वती के लोप होने और लगाई-बुझाई में रिश्ता क्या है। पर सोचिए जहां सरस्वती का लोप हो जाएगा वहां लगाई-बुझाई नहीं होगी तो और क्या होगा। आप कह सकते हैं कि यहां पूरब का आक्सफोर्ड और शिक्षा का केंद्र है। पर इसी शहर में रजाई गद्दे लेकर डेलीगेसी में एक अदद तंग कोठरी खोजते हुए तमाम छात्र सीख जाते हैं कि क्लर्की का काम केवल डबल रोटी का जुगाड़ है (बकौल अकबर इलाहाबादी- कर क्लर्की खा डबल रोटी, खुशी से फूल जा।) और जब क्लर्की मिलती है तो ग़ालिब की तरह सीना चैड़ा कर कहीं भाग लेते हैं, मानो बिना शर्त रिहाई हो गई हो।
कमरे की खोज में किराए की साइकल लेकर भटकते हुए कई बार जीवन दर्शन से मुलाकात हो जाती है। वैसे भी प्रयाग की अनौपचारिक शिक्षा में सब कुछ यहां दान कर देने की नसीहत है तो औपचारिक तौर पर विश्वविद्यालय में दशर्नशास्त्र सबसे ज्यादा चाव से पढ़ा जाने वाला विषय। दर्शन का जलवा है कि तमाम फिजिक्स (भौतिक) के कई अध्येता और प्रोफेसर भी पूरी जिंदगी मेटाफीजिक्स (पारभौतिक) की राजनीति करते रहे। दर्शन पढ़कर बहुतों को ज्ञान होता है कि वे जो कुछ अक्षर में सीख रहे हैं, दरअसल वह शंकराचार्य के मुताबिक अविद्या है और मिथ्या जगत से मुक्ति विद्या से मिलती है। विद्या ब्रह्म ज्ञान है। प्रयाग के इतिहास की चर्चा जब होती है तो थानेश्वर के राजा श्रीहर्ष या हर्षवर्धन का नाम सबसे पहले लिया जाता है। श्रीहर्ष के साथ सन 644 में चीनी यात्री ह्वेनसांग प्रयाग (जिसे उसने पोलोयेकिया नाम दिया है) आया था। उसकी यह बात अक्सर कोट की जाती है कि राजा और धनिक यहां आतेच हैं को अपना धन दान-पुण्य में दे जाते हैं। महाराजा हषवर्धन ने पांच वर्ष का संचित धन एक दिन में बांट दिया। उसने यह भी लिखा है कि 50 वर्ग मील में फैले इस क्षेत्र की उष्ण जलवायु स्वास्थ्य के अनुकूल है। यहां के लोग सुशील हैं और उन्हें पठन-पाठन व विद्या से विशेष प्रेम है लेकिन असत्य सिद्धांतों पर उनका विश्वास अधिक है, जिसकी चर्चा जरा कम होती है। पहले की चर्चा ज्यादा करने का फायदा है यह है कि जो कुछ है दान देकर जाओ जबकि दूसरे हिस्से की चर्चा बेमानी लगती है।
प्रयाग का अर्थ है बहुत बड़ा यज्ञ। कहते हैं यह यज्ञ पृथ्वी को बचाने के लिए ब्रह्मा ने किया था। उसमें विष्णु यजमान और शिव देवता थे। तीनों देवों ने अपने शक्तिपुंज से पृथ्वी के पाप के बोझ को हल्का करने के लिए एक वृक्ष उत्पन्न किया। बरगद का यह वृक्ष अक्षयवट के नाम से जाना जाता है। आइए ह्वेनसांग की नजर में इस अक्षयवट को देखते हैं। वह लिखता है कि नगर में एक देव मंदिर है जो चमत्कारों को लिए विख्यात है, वहां एक पैसा चढ़ाने पर हजार स्वर्ण मुद्राओं के बराबर फल मिलता है। मंदिर के आंगन के आंगन में एक पेड़ है, जिसके नीचे अस्थियों के ढेर लगे हैं। ये उन लोगों की अस्थियां हैं, जो स्वर्ग की लालसा में इस वृक्ष से कूद कर जान दे देते थे। धरती का बोझ कम करने का यह तरीका देख कर ग़ालिबन कौन होगा जिसकी बुद्धि न चकरा जाए और जो जन्नतनशीं होने के इस तरीके पर अमल करने के बजाय ग़ालिब की तरह दोजख जाना न पसंद करे।
प्रयाग कुदरत की एक अनूठी जगह का नाम है। दो अलग-अलग रंगों की धाराओं के बीच का भूभाग है। इस दोआब में राम ने नदियों का कलरव सुनकर लक्ष्मण से कहा था कि लगता है हम संगम तट पर आ गए हैं। ऋषि भारद्वाज ने अपने आश्रम से विदा करते समय राम से कहा था कि गंगा के किनारे जाइए कुछ दूरी पर एक विशाल वट वृक्ष मिलेगा, जिसके चारों ओर बहुत से छोटे-छोटे पौधे उगे होंगे। उसके नीचे सिद्दगण बैठे तप कर रहे होंगे। उसके आगे सघन फलदार वन हैं, जिससे होकर आप चित्रकूट का रास्ता है। गौर करिए उस ज़माने में भी वट वृक्ष के नीचे छोटे-छोटे पौधे थे, जहां तपस्वी तप करते थे। आज -क्वाट रैमी टाट एरबोरस (जितनी शाखा उतने वृक्ष-इलाहाबाद विश्वविद्यालय का ध्येय वाक्य)- वाले बरगद के गिर्द भी बौने पौधे ही हैं, जो तपस्वी लोगों के तप का जरिया बने हुए हैं। तप भी उतना ही जिससे नौकरी सध जाए। ज्यादातर लोग ऐसा ही करते हैं। इसके बीच से ही कुछ सोच भी निकलती है। कुछ लोग हैं जो अकबर इलाहाबादी वर्णित डबलरोटी वृत्ति से पार चले जाते हैं पर ऐसे लोग बनने अब कम हो गए हैं।
थोड़ा और इतिहास खंगाल लेते हैं। शायद कुछ और मिल जाए। महाभारत में प्रयाग, प्रतिष्ठानपुरी, बासकी (नाग बासुकी) और दशाश्वमेध (दारागंज) का जिक्र है। मत्स्य, अग्नि और कूर्म पुराण इसे धरती की जांघ बताते हैं। पुराणों में ही हंस तीर्थ, समुद्रकूप आदि का जिक्र आता है। दरअसल प्राचीन काल में प्रयाग कोई नगर नहीं था बल्कि तपोभूमि था। ह्वेनसांग ने अक्षयवट को शहर के भीतर बताया है। इससे जाहिर है कि प्रयाग का विस्तार ज्यादा नहीं था। बाद में अकबर ने किला बनाया तो प्रयाग उसके गिर्द ही सिमट गया और वह इलाबास और फिर इलाहाबाद हो गया। अतरसुइया को लोग पुराना मुहल्ला मानते हैं। मान्यता है अत्रि ऋषि की पत्नी सती अनसुया के नाम पर बसा है। खुल्दाबाद जहांगीर ने बसाया। औरंगजेब के कार्यकाल में सवाई राजा जयसिंह ने बसाया था। पुराना दशाश्वमेध दारा शिकोह के नाम पर दारागंज हो गया। खुसरोबाग आबाद हो गया था। मुगलकाल के अंत तक काफी इलाहाबाद आबाद हो गया था, जब चचा ग़ालिब यहां आए। उस समय ज्ञान केंद्र 12 दायरे और 18 सराय आबाद हो गई थीं, जिनकी वजह से इस शहर का एक नाम फ़कीराबाद भी हो गया था। अब फ़कीरों के शहर में भी चचा की तबियत नासाज हो गई और चैन मिला काशी में आकर। चचा के रहते रहते ही 1857 का गदर हो गया, जिसमें इलाहाबादी लड़े भी और उनकी जासूसी करने वाले जागीरों से नवाजे भी गए। मेवातियों का गांव सम्दाबाद तबाह हो गया। यहां बाशिंदे मीरापुर भाग गए। छीतपुर लूट लिया गया। वहां गवनर्मेंट हाउस और जार्ज पंचम के चचा ड्यूक आफ एडिनबरा अल्फ्रेड के नाम पर 133 एकड़ का पार्क बना दिया गया, जिसे अब कंपनी बाग कहते हैं जहां कभी विक्टोरिया की मूर्ति लगी थी। तमाम गांवों को तबाह करके कमिश्नर थर्नहील ने सिविल लाइंस बसाया। उसका नाम वायसराय के नाम पर कैनिंग टाउन रखा गया था। अब थर्नहील के नाम पर एक रोड़ है और कैनिंगटन एक मुहल्ला। पहले कलेक्टर आर एहमुटी के नाम पर मुट्ठीगंज, किले के कमांडेंट कीड के नाम पर कीडगंज बसा। सर विलियम म्योर ने हाईकोर्ट, गवनर्मेंट प्रेस, पत्थर गिरजा, रोमन कैथलिक चर्च और म्योर सेंट्रल कालेज (साइंस फैकेल्टी) बनवाया। कलेक्टर विलियम जान्सटन के मन में सड़क बनवाने का खयाल आया तो उन्होंने घनी बस्ती उजाड़ कर सड़क बनवा डाली। जान्सटन गंज का इलाका आज इसी का नाम है। चैक में गड़ही के किनारे सब्जी और बिसातखाने की दूकानें लगती थीं, जिसे पटवाकर कमसिरएट के गुमाश्ता रामेश्वर राय चैधरी ने सब्जी बाजार और बिसतखाना बनवा डाला। सर जेम्स डी लाटूश ने लूकर गंज बसाया जिसका नाम गवर्नमेंट प्रेस के सुपरिटेंडेंट एफ लूकर के नाम पर रखा गया। पायोनियर के संपादक जार्ज एलन के नाम पर एलनगंज और म्युनिसपल बोर्ड के चेयरमैन ममफोर्ड के नाम पर ममफोर्डगंज बसा। घनी बस्ती से लोगों के उजाड़कर हीवेट रोड बनाई गई और जीरो रोड निकाली गई। कर्नलगंज में सैनिक छावनी बनी। इस शहर में एक झील है, जिसका नाम एक इंजीनियर के नाम पर रख दिया गया था, मैकफसरन लेक। आजकल यहां नेहरू पार्क हुआ करता है। यानी सड़क, झील, गांव सब मटियामेट हो गए। नाम बदल दिए गए। इस शहर का छाप और तिलक सब छीन लिया गया। एक आधुनिक शिक्षा का केंद्र भी उन्नीसवीं सदी के आखिर में बना, जो अफसरों और बाबूओं को गढ़ने की फैक्ट्री था और है। उस गदर (1857 का स्वतंत्रता संग्राम) की तबाही देखने के बाद जिस ग़ालिब ने लिखा था कि -अपने ही दर पर होनी थी ख़्वारी की हाय हाय। उसे इलाहाबाद में कैसा सलूक मिला कि वह इस रास्ते से स्वर्ग तक नहीं जाना चाहता जबकि काशी में जाकर महीने भर एक अदना सी सराय में बैठकर उसे सुकून मिलता है।
प्रयाग जो साहित्य का केंद्र है। सुमित्रानंदन पंत, हरिऔध, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, हरिवंश राय बच्चन, फ़िराक़ गोरखपुरी, महादेवी वर्मा, धर्मवीर भारती और जाने-जाने भी कैसी-कैसी विभूतियां यहां हुईं। उन्होंने हिंदी साहित्य को नया रूप दिया। मानवता के मुक्ति के गीत गाए। इलाहाबाद की आबोहवा जिससे ह्वेनसांग भी प्रभावित हुआ था, उसमें बहुत कुछ है जो सेहत ठीक कर सकत है समाज की। उसे धार देने के लिए जरूरी है कि नए अंदाज में सोचा जाए। ग़ालिब की पीड़ा को समझा जाए और कोई आने वाला यहां ग़ालिब की तरह किसी फितना विचार का मारा न हो, इसका खयाल रखा जाए।
गुफ़्तगू के इलाहाबाद विशेषांक (जुलाई-सितंब 2017 अंक) में प्रकाशित
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कमरे की खोज में किराए की साइकल लेकर भटकते हुए कई बार जीवन दर्शन से मुलाकात हो जाती है। वैसे भी प्रयाग की अनौपचारिक शिक्षा में सब कुछ यहां दान कर देने की नसीहत है तो औपचारिक तौर पर विश्वविद्यालय में दशर्नशास्त्र सबसे ज्यादा चाव से पढ़ा जाने वाला विषय। दर्शन का जलवा है कि तमाम फिजिक्स (भौतिक) के कई अध्येता और प्रोफेसर भी पूरी जिंदगी मेटाफीजिक्स (पारभौतिक) की राजनीति करते रहे। दर्शन पढ़कर बहुतों को ज्ञान होता है कि वे जो कुछ अक्षर में सीख रहे हैं, दरअसल वह शंकराचार्य के मुताबिक अविद्या है और मिथ्या जगत से मुक्ति विद्या से मिलती है। विद्या ब्रह्म ज्ञान है। प्रयाग के इतिहास की चर्चा जब होती है तो थानेश्वर के राजा श्रीहर्ष या हर्षवर्धन का नाम सबसे पहले लिया जाता है। श्रीहर्ष के साथ सन 644 में चीनी यात्री ह्वेनसांग प्रयाग (जिसे उसने पोलोयेकिया नाम दिया है) आया था। उसकी यह बात अक्सर कोट की जाती है कि राजा और धनिक यहां आतेच हैं को अपना धन दान-पुण्य में दे जाते हैं। महाराजा हषवर्धन ने पांच वर्ष का संचित धन एक दिन में बांट दिया। उसने यह भी लिखा है कि 50 वर्ग मील में फैले इस क्षेत्र की उष्ण जलवायु स्वास्थ्य के अनुकूल है। यहां के लोग सुशील हैं और उन्हें पठन-पाठन व विद्या से विशेष प्रेम है लेकिन असत्य सिद्धांतों पर उनका विश्वास अधिक है, जिसकी चर्चा जरा कम होती है। पहले की चर्चा ज्यादा करने का फायदा है यह है कि जो कुछ है दान देकर जाओ जबकि दूसरे हिस्से की चर्चा बेमानी लगती है।
प्रयाग का अर्थ है बहुत बड़ा यज्ञ। कहते हैं यह यज्ञ पृथ्वी को बचाने के लिए ब्रह्मा ने किया था। उसमें विष्णु यजमान और शिव देवता थे। तीनों देवों ने अपने शक्तिपुंज से पृथ्वी के पाप के बोझ को हल्का करने के लिए एक वृक्ष उत्पन्न किया। बरगद का यह वृक्ष अक्षयवट के नाम से जाना जाता है। आइए ह्वेनसांग की नजर में इस अक्षयवट को देखते हैं। वह लिखता है कि नगर में एक देव मंदिर है जो चमत्कारों को लिए विख्यात है, वहां एक पैसा चढ़ाने पर हजार स्वर्ण मुद्राओं के बराबर फल मिलता है। मंदिर के आंगन के आंगन में एक पेड़ है, जिसके नीचे अस्थियों के ढेर लगे हैं। ये उन लोगों की अस्थियां हैं, जो स्वर्ग की लालसा में इस वृक्ष से कूद कर जान दे देते थे। धरती का बोझ कम करने का यह तरीका देख कर ग़ालिबन कौन होगा जिसकी बुद्धि न चकरा जाए और जो जन्नतनशीं होने के इस तरीके पर अमल करने के बजाय ग़ालिब की तरह दोजख जाना न पसंद करे।
प्रयाग कुदरत की एक अनूठी जगह का नाम है। दो अलग-अलग रंगों की धाराओं के बीच का भूभाग है। इस दोआब में राम ने नदियों का कलरव सुनकर लक्ष्मण से कहा था कि लगता है हम संगम तट पर आ गए हैं। ऋषि भारद्वाज ने अपने आश्रम से विदा करते समय राम से कहा था कि गंगा के किनारे जाइए कुछ दूरी पर एक विशाल वट वृक्ष मिलेगा, जिसके चारों ओर बहुत से छोटे-छोटे पौधे उगे होंगे। उसके नीचे सिद्दगण बैठे तप कर रहे होंगे। उसके आगे सघन फलदार वन हैं, जिससे होकर आप चित्रकूट का रास्ता है। गौर करिए उस ज़माने में भी वट वृक्ष के नीचे छोटे-छोटे पौधे थे, जहां तपस्वी तप करते थे। आज -क्वाट रैमी टाट एरबोरस (जितनी शाखा उतने वृक्ष-इलाहाबाद विश्वविद्यालय का ध्येय वाक्य)- वाले बरगद के गिर्द भी बौने पौधे ही हैं, जो तपस्वी लोगों के तप का जरिया बने हुए हैं। तप भी उतना ही जिससे नौकरी सध जाए। ज्यादातर लोग ऐसा ही करते हैं। इसके बीच से ही कुछ सोच भी निकलती है। कुछ लोग हैं जो अकबर इलाहाबादी वर्णित डबलरोटी वृत्ति से पार चले जाते हैं पर ऐसे लोग बनने अब कम हो गए हैं।
थोड़ा और इतिहास खंगाल लेते हैं। शायद कुछ और मिल जाए। महाभारत में प्रयाग, प्रतिष्ठानपुरी, बासकी (नाग बासुकी) और दशाश्वमेध (दारागंज) का जिक्र है। मत्स्य, अग्नि और कूर्म पुराण इसे धरती की जांघ बताते हैं। पुराणों में ही हंस तीर्थ, समुद्रकूप आदि का जिक्र आता है। दरअसल प्राचीन काल में प्रयाग कोई नगर नहीं था बल्कि तपोभूमि था। ह्वेनसांग ने अक्षयवट को शहर के भीतर बताया है। इससे जाहिर है कि प्रयाग का विस्तार ज्यादा नहीं था। बाद में अकबर ने किला बनाया तो प्रयाग उसके गिर्द ही सिमट गया और वह इलाबास और फिर इलाहाबाद हो गया। अतरसुइया को लोग पुराना मुहल्ला मानते हैं। मान्यता है अत्रि ऋषि की पत्नी सती अनसुया के नाम पर बसा है। खुल्दाबाद जहांगीर ने बसाया। औरंगजेब के कार्यकाल में सवाई राजा जयसिंह ने बसाया था। पुराना दशाश्वमेध दारा शिकोह के नाम पर दारागंज हो गया। खुसरोबाग आबाद हो गया था। मुगलकाल के अंत तक काफी इलाहाबाद आबाद हो गया था, जब चचा ग़ालिब यहां आए। उस समय ज्ञान केंद्र 12 दायरे और 18 सराय आबाद हो गई थीं, जिनकी वजह से इस शहर का एक नाम फ़कीराबाद भी हो गया था। अब फ़कीरों के शहर में भी चचा की तबियत नासाज हो गई और चैन मिला काशी में आकर। चचा के रहते रहते ही 1857 का गदर हो गया, जिसमें इलाहाबादी लड़े भी और उनकी जासूसी करने वाले जागीरों से नवाजे भी गए। मेवातियों का गांव सम्दाबाद तबाह हो गया। यहां बाशिंदे मीरापुर भाग गए। छीतपुर लूट लिया गया। वहां गवनर्मेंट हाउस और जार्ज पंचम के चचा ड्यूक आफ एडिनबरा अल्फ्रेड के नाम पर 133 एकड़ का पार्क बना दिया गया, जिसे अब कंपनी बाग कहते हैं जहां कभी विक्टोरिया की मूर्ति लगी थी। तमाम गांवों को तबाह करके कमिश्नर थर्नहील ने सिविल लाइंस बसाया। उसका नाम वायसराय के नाम पर कैनिंग टाउन रखा गया था। अब थर्नहील के नाम पर एक रोड़ है और कैनिंगटन एक मुहल्ला। पहले कलेक्टर आर एहमुटी के नाम पर मुट्ठीगंज, किले के कमांडेंट कीड के नाम पर कीडगंज बसा। सर विलियम म्योर ने हाईकोर्ट, गवनर्मेंट प्रेस, पत्थर गिरजा, रोमन कैथलिक चर्च और म्योर सेंट्रल कालेज (साइंस फैकेल्टी) बनवाया। कलेक्टर विलियम जान्सटन के मन में सड़क बनवाने का खयाल आया तो उन्होंने घनी बस्ती उजाड़ कर सड़क बनवा डाली। जान्सटन गंज का इलाका आज इसी का नाम है। चैक में गड़ही के किनारे सब्जी और बिसातखाने की दूकानें लगती थीं, जिसे पटवाकर कमसिरएट के गुमाश्ता रामेश्वर राय चैधरी ने सब्जी बाजार और बिसतखाना बनवा डाला। सर जेम्स डी लाटूश ने लूकर गंज बसाया जिसका नाम गवर्नमेंट प्रेस के सुपरिटेंडेंट एफ लूकर के नाम पर रखा गया। पायोनियर के संपादक जार्ज एलन के नाम पर एलनगंज और म्युनिसपल बोर्ड के चेयरमैन ममफोर्ड के नाम पर ममफोर्डगंज बसा। घनी बस्ती से लोगों के उजाड़कर हीवेट रोड बनाई गई और जीरो रोड निकाली गई। कर्नलगंज में सैनिक छावनी बनी। इस शहर में एक झील है, जिसका नाम एक इंजीनियर के नाम पर रख दिया गया था, मैकफसरन लेक। आजकल यहां नेहरू पार्क हुआ करता है। यानी सड़क, झील, गांव सब मटियामेट हो गए। नाम बदल दिए गए। इस शहर का छाप और तिलक सब छीन लिया गया। एक आधुनिक शिक्षा का केंद्र भी उन्नीसवीं सदी के आखिर में बना, जो अफसरों और बाबूओं को गढ़ने की फैक्ट्री था और है। उस गदर (1857 का स्वतंत्रता संग्राम) की तबाही देखने के बाद जिस ग़ालिब ने लिखा था कि -अपने ही दर पर होनी थी ख़्वारी की हाय हाय। उसे इलाहाबाद में कैसा सलूक मिला कि वह इस रास्ते से स्वर्ग तक नहीं जाना चाहता जबकि काशी में जाकर महीने भर एक अदना सी सराय में बैठकर उसे सुकून मिलता है।
प्रयाग जो साहित्य का केंद्र है। सुमित्रानंदन पंत, हरिऔध, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, हरिवंश राय बच्चन, फ़िराक़ गोरखपुरी, महादेवी वर्मा, धर्मवीर भारती और जाने-जाने भी कैसी-कैसी विभूतियां यहां हुईं। उन्होंने हिंदी साहित्य को नया रूप दिया। मानवता के मुक्ति के गीत गाए। इलाहाबाद की आबोहवा जिससे ह्वेनसांग भी प्रभावित हुआ था, उसमें बहुत कुछ है जो सेहत ठीक कर सकत है समाज की। उसे धार देने के लिए जरूरी है कि नए अंदाज में सोचा जाए। ग़ालिब की पीड़ा को समझा जाए और कोई आने वाला यहां ग़ालिब की तरह किसी फितना विचार का मारा न हो, इसका खयाल रखा जाए।
गुफ़्तगू के इलाहाबाद विशेषांक (जुलाई-सितंब 2017 अंक) में प्रकाशित
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