रविवार, 21 जून 2020

फ़िराक़ गोरखपुरी के साथ एक सुबह

 
फ़िराक़ गोरखपुरी
                       
                                                                 - प्रो. अली अहमद फ़ातमी
                                     

प्रो. अली अहमद फ़ातमी
13 सितंबर 1973 की सुबह जब सज्जाद ज़हीर का देहांत हुआ तो पूरी साहित्य की दुनिया में हलचल मच गई। इसलिए सज्जाद जहीर सिर्फ़ एक इंसान एक साहित्यकार न थे, बल्कि एक तहरीक थे, एक तारीख थे। अख़बार हयात ने खासतौर पर अपने लीडर का ग़म मनाने का एलान किया और एक उत्कृष्ट विशेषांक प्रकाशित करने का इरादा किया और लेखक को यह जिम्मेदारी सौंपी की फिराक साहब से सज्जाद जहीर के बारे में ख्यालात इकट्ठा करके जल्द से जल्द रवाना करूं। फिराक साहब सज्जाद जहीर के करीबी साथियों में से थे। मैं एमए प्रथम वर्ष का विद्यार्थी था, एहतेशाम हुसैन का इंतकाल हो चुका था और मौत पर फिराक साहब पर अच्छा-खासा असर था। मुझे इस बात का अंदाजा था कि सुबह के वक्त जब उनके हाथों में अखबार हो और सामने चाय की प्याली तो वह निस्बतन खुश रहते हैं। अखबार के हवाले से बात निकाली जा सकती है और उसे साहित्य की तरफ मोड़ा जा सकता है, इसलिए इसी नियत के साथ जब मैं एक सुबह तकरीबन नौ बजे उनके घर पहुंचा तो जंगले वाले दालान में बैठे हुए थे। रोज की तरह उनके हाथ में अखबार था, सामने चाय की प्याली। इसके अलावा एक बेहद खुबसूरत इजाफा भी था। सामने कुर्सी पर एक बहुत हसीन, गोरी चिट्टी आकर्षक लड़की, डायरी और कलम लिए बैठी हुई थी और फिराक साहब की बातों को लिखने में व्यस्त थी। ऐसे अनुचित मौके पर इतनी सुबह ऐसी हसीन लड़की को देखकर मैं डगमगा सा गया। हालांकि फिराक साहब के यहां जाते हुए कदम फूंक-फंूक रखने पड़ते थे, लेकिन आज मामला कुछ अजीब सा था। बहुत खामोशी से दालान में कदम रखा तो फिराक साहब अंग्रेजी साहित्य के किसी विषय पर जोरदार लेक्चर दे रहे थे। मैं लेक्चर समझ न सका, एक तो वह अंग्रेजी में था, दूसरे ये कि कोई जिन्दादिल इंसान ऐसी खूबसूरत चीज को देखकर लेक्चर समझना तो क्या सुनना भी गंवारा नहीं करेगा। चाहे वह कितना ही सौंदर्यात्मक क्यों न हो.... मैं कब चुपचाप एक मोढ़े पर टिक गया पता ही नहीं चला। फिराक साहब लेक्चर में व्यस्त, लड़की लेक्चर को समेटने में व्यस्त और मैं दृश्य में। वह वाकई बहुत खुबसूरत थी। ऐसा हुस्न जो कभी-कभी देखने को मिलता है। सबकुछ सब्र को डिबो देने वाला, बस जरा मेकअप कुछ ज्यादा था। वह लिखने में व्यस्त थी। उसकी नुकीली उंगुलियों में कलम बड़ी तेजी से कागज पर दौड़ रही थी, फिर मैंने फिराक साहब को गौर से देखा। उनकी नजरें छत की तरफ थीं और वह लड़की के बिल्कुल दूसरी तरफ छत तरफ घूरते हुए लेक्चर दे रहे थे, क्योंकि उनकी गुफ्तगू की अपनी अदाएं हुआ करती हैं, इसलिए पहले तो मैंने उसको भी अदा ही समझा। लेकिन कुछ देर बाद मैंने महसूस किया कि वह ऐसा जानबूझकर कर रहे हैं और उसको जाहिर भी कर रहे हैं। तो शायरे जमाल की हुस्न से यह बेपरवाह वाली अदा मेरे समझ में न आयी। मैं इतना जरूर समझ गया कि कोई बात ऐसी जरूर है जो फिराक की नाजुक तबीयत पर भारी गुजर रही है। शायद यह ग़लत वक्त पर आ गई या कोई ग़लत किस्म का सवाल कर लिया। मैं अभी इस पर गौर ही कर रहा था कि अचानक लेक्चर खत्म हो गया और उसी रफ्तार से लड़की की उंगलियां भी रुक गईं। ‘अच्छा मैं चलती हूं। नमस्ते’
वह उठी और चल दी और फौरन दृश्य बदल गया और फिर जोश के अनुसार... ‘पटरी चमक रही थी गाड़ी गुजर चुकी थी’। फिराक साहब ने अजीब...सी नजरों से मेरी तरफ देखा... और फिर एक यादगार मोहब्बत के साथ बोले ‘कहिए मौलाना...इतनी सुबह खैरियत तो है।’ ‘कुछ जरूरी बातें करनी हैं..’। मैंने दबे शब्दों में कहा। मेरी जहन पर अभी भी कुछ और सवाल था। ‘अभी रुक जाइए....पहले मैं नाश्ता करूंगा, एक प्याली गरम चाय की पिउंगा, उसके बाद...पन्ना...पन्ना।’
और पन्ना आदत के अनुसार तेज रफ्तार कदमों के साथ इंतजाम में व्यस्त हो गया। इसी बीच फिराक साहब ने सिगरेट सुलगाई। मैंने मौका गनीमत जानकर पूछा... ‘यह लड़की कौन थी..’ ‘कौन लड़की ।’ ‘अरे यह जो अभी यह बैठी हुई थी।’ ‘यह किसी डिग्री कालेज की लेक्चरार है। मुझसे कुछ पूछने आयी थी।’ ‘अच्छा, लेकिन आप उसकी तरफ देखकर बात क्यों नहीं कर रहे थे... इतनी खूबसूरत, खुश शक्ल लड़की आपसे बातचीत कर रही थी और आप छत की तरफ देख रहे थे... आखिर यह क्या बात हुई।’ मैंने हद से ज्यादा हिम्मत की।
फिराक ने एक लंबा कश हवा में फेंका और टेढ़ा मुंह करते हुए बोले- खुशशक्ल, खूबसूरत मियां साहबजादे अभी आप बच्चे हैं, खुबसूरत शख्सियत के लिए सिर्फ़ खुशशक्ल होना काफी नहीं होता। उसे थोड़ा सा समझदार भी होना चाहिए और फिर साहित्य वगैरह को समझने के लिए थोड़ी बहुत बदचलनी भी जरूरी है, जो इसके बस की बात नहीं थी... फिर आप उसके चेहरे को गोबर देख रहे थे...। ‘गोबर !’ मैं चैंका। जी हां .... उसकी मेकअप। ‘अब मेकअप तो लड़कियां करती ही हैं...’ मैंने कहा। ‘मेकअप लड़कियां नहीं, औरतें करती हैं.. जनाबे आला मेकअप का अपना फलसफा होता है।’
‘मेकअप का फलसफा...वह किस तरह..’ मैंने सवाल किया ‘जी आप इसे अभी नहीं समझ सकेंगे... भाई  सीधी सी बात यह है कि हुस्न अगर वाकई हुस्न है तो फिर उसे किसी सहारे की जरूरत नहीं पड़ती, जो हुस्न सहारा मांगे तो फिर वह फितरी हुस्न नहीं मिलावट हो गया। सच तो यह है कि मेकअप की जरूरत उस वक्त पड़ती है जब हुस्न ढल रहा हो, तब उसको सहारा देने की गरज से मेकअप की मदद ली जाती है।’ इसी बीच उनका नौकर पन्ना चाय लेकर आ गया। बातचीत रुकी और वह चाय पीने लगे। फिर हिम्मत करके मैंने बात बदल  कर बात शुरू की। मैंने कहा हुजूर मैं सज्जाद जहीर के बारे में आपसे कुछ बातें करना चाहता हूं, अगर आपको तकलीफ न हो तो। ‘क्या भाई खैरितय तो है’। ‘दरअसल बात यह है कि हयात, सज्जाद जहीर का विशेषांक निकाल रहा है। इस सिलसिले में आपके कुछ ख्यालात व तास्सुरात जानना चाहता हैं, इसकी जिम्मेदारी मुझ पर है।’  पूछो भाई... बन्ने के बारे में भी पूछ लो। फिर वह बगैर पूछे खुद ही बोल पड़े। ‘अरे भाई... अब यादें रफ्तगा की भी ताकत नहीं रही। 80 साल हो रहा हूं मेरा भाई तो 61 साल में चल बसा... दूसरा बीमार चल  रहा है... बन्ने  भी मेरे भाई जैसा ही था।’ उन्होंने यह वाक्या बड़े दुख साथ अदा किए और फिर बोलने लगे.... ‘सज्जाद जहीर, सर वजीर हसन के लड़के थे। उनकी पिता कुछ तबकाती कमजोरियों के बावजूद एक अजीम आदमी थे। इलाहाबाद के मशहूरों में उनका शुमार होता था। हम लोगों के  यहां से आना-जाना था। बस उन्हीं के जरिए से सज्जाद जहीर से मुलाकात हुई। शुरू-शुरू में सज्जाद जहीर से कम उनके दूसरे भाइजयों से ज्यादा अच्छे ताल्लुकात रहे, लेकिन रफ्ता-रफ्ता मैं अपने आपको को यह महसूस करने लगा कि मेरा जेहनी झुकाव सज्जाद जहीर की तरफ होता जा रहा है। बाद में तो सज्जाद जहीर से ऐसे ताल्लुकात हो गए कि कलेजा का टुकड़ा समझता रहा। बड़ा अफसोस हुआ मुझे उनके इंतकाल का..।’ इस तरह फिराक साहब ने सज्जाद जहीर के बारे में बहुत कुछ बताया, अंत में मैंने कहा- हुजूर एक छोटा सा सवाल और अर्ज है। ‘हां पूछो भाई।’
‘जिस वक्त आपने सज्जाद जहीर की मौत की खबर सुनी तो क्या प्रतिक्रिया रही’। ‘जब मैंने सज्जाद जहीर की मौत की खबर सुनी तो मैं बहुत गमगीन हो गया। बड़ी देर तक सोचता रहा। एक निहायत काबिले कद्र हिन्दुस्तानी और एक बहुत अच्छा दोस्त और एक बोर्न एंड हाइली गिफ्टेड लीडर हमारे बीच नहीं रहा।’ बातें तो शायद और हो सकती थीं, लेकिन अब मैं उनको और ज्यादा तकलीफ देकर अपनी इज्जत और आबरू खतरे में नहीं डालना चाह रहा था। इजाजत लेकर रुखसत हुआ।
( गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2017 अंक में प्रकाशित )
                                     

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें