खान बहादुर मंसूर अली |
- मुहम्मद शहाबुद्दीन खान
खान बहादुर मंसूर अली का जन्म गाजीपुर जिले के गोड़सरा गांव के ‘हाता’ नामक स्थान पर 18 सितंबर 1873 ई. को एक जमींदारी परिवार में सूबेदार मौलवी नबी बख्श खांन के घर हुआ था। इनकी माता मरीयम बीबी एक घरेलू खातून थी। शिक्षा ग्रहण करने के बाद सन 1890 ई. मंे लखनऊ ब्रिटिश नॉर्थरन रेलवे जोन में गुड क्लर्क रूप में उनकी नियुक्ति हुई। इनकी शादी उसिया गांव में मुस्समत बसीरन खातून से हुई, जिनसे तीन लड़की और एक लड़का हुआ। बीबी की देहांत के बाद इनकी दूसरी शादी अखिनी के मशहूर जमींदार सिकंदर खां की बहन बशीरन बीबी से हुई, जिनसे छः लड़के और एक लड़की थी। इंडो-पाक बटवारे में मंसूर अली की दूसरी पत्नी अपने तीन छोटे बच्चे और परिवार के कुछ सदस्यों के साथ पाकिस्तान को चली र्गइं। जहां पर उनके छोटे बच्चे इम्तियाज अली ने अपने पिता की याद मे पाकिस्तान की नार्थ अजीमाबाद में एक और मंसूर मंज़िल कोठी बनवाई। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी लंदन के पी.एच.डी.स्कॉलर और पत्रकार दानिश खान के मुताबिक पब्लिक सर्विस से जुड़े तमाम रेलवे ब्रिटिश आला अधिकारीयो के अच्छे कार्य करने पर खान बहादुर मंसूर अली को खान बहादुर की उपाधी दी गई थी। सन् 1913 ई. में ए.टी.एस. से 1921 में डी.टी.एस. यानी डिवीजन ट्रैफिक सुप्रिटेंडेंट के पद पर पद्दोनित हुए। उम्र से पहले नौकरी मिल जाने की वजह से ज्यदा समय शहरों मंे रहे, उनका गांव आना-जाना बहुत कम होता था।
खान बहादुर मंसूर अली किसी काम से अम्बाला कैन्ट गए थे, उसी समय दवैथा गांव के सुलेमान उसने मिले और कमसार में एक हाईस्कूल कायम करने की अपनी ख़्वाहिश जाहिर की। मंसूर अली ने उसने पूछा- छोटे मियां यह बातं तुम्हारे दिमाग में क्यों आई.? मौलवी सुलेमान साहब ने बताया कि जब मैं राजपूत रेजीमेंट में भर्ती हुआ मेरी पहली तनख़्वाह मिली, मैं जब डाकखाने को पैसा घर भेजने को गया। मुझे मनीऑर्डर फॉर्म भरने नहीं आ रहा था, मैंने पोस्टमास्टर से निवेदन किया उसने मुझे खूब डांटा, कहा कि इतने खूबसूरत नौजवान हो तुम्हारे बाप ने तुम्हे नहीं पढ़ाया क्या.? मैं उस पोस्टमास्टर की बात पर रो पड़ा। पोस्ट मास्टर मुसलमान और नेक दिल इंसान था जो मुझे पढ़ाने का वादा किया और मुझे खामोशी से आगे की पढ़ाई पूरा कराया। सन 1908 ई० में सुलेमान साहब से लखनऊ स्थित मंसूर मंजिल में एक खास गुफ्तगू के साथ खान बहादुर मंसूर अली ने पठान बिरादरी के लिए कदम आगे बढ़ाया। वह कमसारोबार एवंम गंगापार के राजपूत-पठानों की तमाम करीबी गांव का दौरा किए। चैधरियों और मुखियाओं को इकट्ठा किया। घर घर के झगड़े खत्म कराए, शादी विवाह में जहेज बारात पर हो रहे तमाम फिजूल गैर रश्मी रवाजों को बंद कराने का प्रयास किया। इस दौरान कभी बात बन-बन के बिगड़ जाती, सदियों पुराना गैर सामाजिक ढांचा रश्मोंरिवाज टूटता नज़र आया तो पुराने लोग मुख़ालपत पर उतर आये। इन सबके बावजूद आखिरकार, 10 अप्रैल 1910 ई. को इस्लाह की मीटिंग पूरी बिरादरी की मौजूदगी में गोड़सरा स्थित ‘हाता’ नामक स्थान पर हुई, और ‘अंजुमन इस्लाह-ए-मुआसरा’ का बुनियाद पड़ी।
19 अप्रैल सन 1934 ई. को इस्लाह-ए-मुआसरा की पांचवीं मीटिंग बारा में मुनकिद की गई। मंसूर अली को मीटिंग में पहुंचने में लेट हुई, फिर भी गाजीपुर सिटी स्टेशन उतर, गंगा में नाव द्वारा बारा पहुंचे और वहां लेट पहुंचने की अफसोस जाहिर किए। इसी मीटिंग में बिरादरी के लोगों ने कमेटी गठन करने के लिए आठ नाम दिए, फिर उन नामों में से एक नाम अंजुमन इस्लाह मुस्लिम राजपूत कमसार-ओ-बार एवं गंगापार रखा, जिसे बाद सन 1940 में अंजुमन इस्लाह कमेटी के सदर डिप्टी सईद द्वारा कमेटी ने रजिस्टर्ड कर मुस्लिम राजपूत कॉलेज यानी एसकेबीएमकॉलेज की बुनियाद डाली गई।
मंसूर अली खां का सपना था कि बिरादरी के लिए एक स्कूल खुले और सन 1933-34 के बीच दिलदारनगर में मुस्लिम प्राइमरी के नाम से स्कूल खोला भी लेकिन उसिया गांव से किसी आपसी इख़्तेलाक के कारण बंद हो गई। सन 1935-36 में मंसूर अली के बड़े भाई महियार खां के बड़े लड़के ईशा खां ने मंसूर अली के सपने को साकार करने के लिए दिलदारनगर में कमसारोबार क्षेत्र की शिक्षा के लिए मिर्चा मे छह बीघा जमीन कैप्टन अब्दुल गनी से खरीदी और वहां पर गांधी मेंमोरियाल इंटर कॉलेज की नींव रखी। इंडो-पाक बटवारे में ईशा खां के अलावा मंसूर अली के परिवार से तकरीबन 65 प्रतिशत लोग पाकिस्तान चले गए। इसलिए गांधी मेमोरियल कॉलेज टूटने के कगार पर पहुंच गया, इसलिए बिरादरी की सहमति से एसकेबीएम इंटर कॉलेज में सम्मलित कर लिया गया था।
उनके सबसे बड़े लड़के मंजूर अली खान की परपोती इर्रिगेशन चीफ इंजीनियर समीना खातून बताती हैं कि दादा मियां मंसूर अली खान की निशानियों में हमारे पास उनकी ड्राइंग रूम मे टंगी फोटो, सीनरी, दाढ़ी बनाने वाली किट, विजिटिंग कार्ड, इस्लाही दस्तावेज और फोटो तथा उनकी हाथों की लिखी एक अहम डायरी और पासबुक आदि मौजूद है। इसके अलावा उनका सम्मानित मैडल भी था जो अब अपर्याप्त है। खान बहादुर मंसूर अली के दूसरे बेटे मसूद अली के परपोते आईटी स्पेशलिस्ट दानिश खां बताते है, जल्द ही खान बहादुर मंसूरी अली फाउंडेशन, लखनऊ का गठन कर लखनऊ में सामाजिक दृष्टिकोण से समाज सेवा का काम किया जाएगा। 29 नवम्बर 1928 को मंसूर अली रेलवे से सेवानिवृत्त हुए और 1934 आखिर तक लखनऊ नगर निगम के चेयरमैन रहे। आखिरकार 61 वर्ष की उम्र में 19 अक्टूबर 1934 ई. को यह अजीम शख़्सियत इस फानी दुनिया को अलविदा कह गया। उनकी कब्रे मुबारक लखनऊ स्थित उनके अबाहीं कब्रिस्तान में गाजीपुर के महान हॉकी खिलाड़ी शहीद बदरूद्दीन खान के बड़े भाई पहलवान कमरुद्दीन खान के कब्र की दाहीने यानी पश्चिम जानिब मौजूद है।
(गुफ्तगू के जनवरी-मार्चः 2019 अंक मेें प्रकाशित)
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