neelkant |
22 मार्च 1942 को जौनपुर के बराई गांव में जन्मे नीलकांत जी आज भी लेखन के प्रति बेहद सक्रिय हैं। लेखन के साथ ही विभिन्न साहित्यिक आयोजनो में अपनी सहभागिता से कार्यक्रम को नया आयाम देने का काम करते हैं। इनके पिता स्व. तालुकेदार सिंह किसान थे, आय का्र प्रमुख साधन कृषि ही था, मां स्व. मोहर देवी साधारण गृहणी थीं। आप चार भाई और एक बहन थीं। बड़े भाई स्व. मार्कंडेय जी जाने-माने साहित्यकार थे। इनके अलावा दो अन्य भाइयों के नाम रवींद्र प्रताप सिंह और महेंद्र प्रताप सिंह हैं, बहन का नाम बीना है। नीलकांत जी की प्रांरभिक शिक्षा के गांव के पाठशाला में हुई। कक्षा पांच पास करने के बाद रतनुपुर स्थित चंदवक, जौनपुर के इंटर काॅलेज से हाईस्कूल की परीक्षा पास की। इसके बाद इलाहाबाद आ गए। इलाहाबाद में जीआईसी से इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक और परास्नातक किया। परास्नातक इन्होंने दर्शनशास्त्र विषय से किया। बचपन से ही पढ़ने और लिखने का शौक़ रहा है। स्वतंत्र लेखन करते हुए इन्होंने कथा और उपन्यास लेखन में एक अलग ही पहचान बनाई है। आपके के दो बेटे हैं, मुंबई में अपना कामकाज करते हैं। प्रदेश में सपा शासन के दौरान स्टेट विश्वविद्यालय की स्थापना इलाहाबाद में किया गया, इस दौरान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस विश्वविद्यालय के लिए झूंसी में 76 हेक्टेयर भूमि उपलब्ध कराई है, उसी विश्वविद्यालय में आपने कुछ दिनों तक अध्यापन का काम किया है।
अब तक आपकी एक दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें एक बीघा ज़मीन (उपन्यास), बंधुआ राम दास (उपन्यास), बाढ़ पुराण (उपन्यास), महापात्र (कहानी संग्रह), अजगर बूढ़ा और बढ़ई (कहानी संग्रह), हे राम (कहानी संग्रह) और मत खनना (कहानी संग्रह) आदि प्रमुख हैं। सन् 1982 में आपने ‘हिन्दी कलम’ नाम से पत्रिका का संपादन शुरू किया, यह पत्रिका चार अंक तक छपी। कोलकाता से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका ‘लहक’ ने मार्च: 2016 में आप पर एक विशेषांक प्रकाशित किया था, यह अंक काफी चर्चा में रहा। साहित्य भंडार समेत कई संस्थाओं ने आपको सम्मानित किया है। वर्तमान लेखन के बारे में आपका कहना है-‘आजकल नई कविता के नाम पर छोटी-बड़ी लाइनें लिखी जा रही है, एक भी कविता जनहित में नहीं लिखी जा रही है। टनों कागज़ नष्ट हो रहा है। मैं तो कह रहा हूं ये सब फर्नेस में ले जाकर झोंक देना चाहिए। कोई एक उपन्यास या कहानी मौलिक नहीं आ रही है बल्कि इलेक्ट्रानिक मीडिया में देखे हुए दृश्य, परिवेश और पोषक को उधार लेकर कहानी उपन्यास लिखे जा रहे हैं। जो आपको मीडिया द्वारा दिया जा रहा है, उसी में से चुनना है इससे मौलिकता के साथ कलाएं भी खत्म हो रही हैं।’
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