बुधवार, 15 जनवरी 2014

गांव की तरक्की को देश की तरक्की मानते थे कैफी आज़मी


                                       -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
कैफी आज़मी ऐसे शायरों में शुमार हैं, जिन्होंने ज़िन्दगी के अंतिम पल तक इंसानियत का धर्म निभाया। उन्होंने न सिर्फ़ शायरी की बल्कि अपने शायर और अदीब होने का फ़र्ज़ भी बखूबी निभाया। कैफी आज़मी को आजमगढ़ स्थित अपने गांव मेजवां से बहुत लगाव था। ज़िन्दगी के आखिरी 20 साल उन्होंने गांव में ही बिताए। गांव को दूरसंचार से जोड़ा,पक्की सड़क बनवाई, पोस्ट आफिस में आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध कराई। उनकी कृति ‘कैफियात’ के नाम पर आजमगढ़ से दिल्ली के लिए कैफियात ट्रेन  भी चल रही है। एक विशेष बातचीत में कैफी आज़मी की बेटी और मशहूर फिल्म अभिनेत्री शबाना आज़मी ने मुंबई से फोन पर बताया कि वालिद का मानना था कि देश की तरक्की तभी हो सकती है, जब गांव की तरक्की हो। यही वजह है कि फालिज की गिरफ्त में आने के बाद वे मुंबई छोड़कर आजमगढ़ आ गए थे। शबाना कहती हैं कि यह जानकर बहुत अच्छा लगता है कि आजमगढ़ के लोग आज भी उनकी बड़ी इज़्ज़त करते हैं। जयंती और पुण्यतिथि पर उन्हें खिराज-ए-अकीदत पेश करते हैं।
इससे पहले एक बार कैफी आज़मी की पत्नी शौकत कैफी ने एक घटना का जिक्र करते हुए बताया था कि एक दिन घर में सवा चार बजे अस्पताल पहुंची, कैफी बिस्तर पर पड़े थे। उनके कमरे के दरवाजे पर ‘डू नाट डिस्टर्ब’ की तख्ती लगी थी। मैं खुद भी चार बजे से पहले उनके कमरे में दाखिल नहीं हो सकती थी। अस्पताल में मैंने देखा कि एक छात्र कैफी के सिरहाने बैठा अपना दुखड़ा सुना रहा है। सिरदर्द के बावजूद वह बड़े ध्यान से उसकी बातें सुन रहे हैं। मैं देखते ही झल्ला गई। मैंने कहा, ‘हद हो गई डाक्टर ने आपको बात करने से भी मना किया है और आप उनसे बात कर रहे हैं।’ फिर मैंने उस लड़के से कहा, मियां तुम बाहर जाओ। लड़का उठकर जाने लगा तो कैफी ने अपनी लड़खड़ाती आवाज में कहा, ‘शौकत यह स्टूडेंट है इसे कुछ मत कहना। हो सके तो इसकी जो भी ज़रूरत हो उसे पूरा कर देना।’ अच्छा-अच्छा कहकर मैं भी बाहर निकल गई। पूछने पर पता चला कि वह अहमदाबाद का रहने वाला है, सौतेली मां के अत्याचार से घबराकर भाग आया है, वह कैफी से काम मांगने आया था। एक अन्य घटना का जिक्र करते हुए शौकत कैफी ने बताया कि एक बार लॉन में बैठे लिख रहे थे। फूल-पौधों से उन्हें बड़ा प्रेम था। इसके लिए वे बहुत परिश्रम करते थे। फूलों के बाग में उसी वक्त एक मुर्गी अपने दस-बारह छोटे-छोटे बच्चों के साथ आ गई, वह अपने पंजों से गमलों के बीज कुरेद-कुरेदकर खाने लगी। बस कैफी को एकदम गुस्सा आ गया। उन्हें भगाने के लिए उन्होंने एक छोटा सा पत्थर उनकी ओर फेंक दिया। वह पत्थर मुर्गी के एक बच्चे को लग गया और वह तड़पने लगा। बस फिर कैफी से रहा न गया। वे जल्दी से अपनी जगह से उठे, मुर्गी के बच्चे को पानी पिलाने और किसी तरह से उसे बचाने की कोशिश करने लगे। जब वह बच न सका तो उन्होंने कलमबंद करके रख दिया और दो दिन तक कुछ नहीं लिखा। मुझसे कहने लगे मैंने बहुत ज्यादती की। उन्हें आवाज़ से भी भगा सकता था। जब बैठता हूं वह मुर्गी का बच्चा नज़रों के सामने घूमने लग जाता है। मैंने हंसकर बिल्कुल बच्चों की भांति समझाया यह तो आकस्मात हो गया, आपने जानबूझकर उसकी जान नहीं ली है।
11 साल की उम्र से शुरू किया था शेर कहना
अतहर हुसैन रिज़वी उर्फ़ कैफी आज़मी का जन्म 14 जनवरी 1919 को आजमगढ़ के मेजवां गांव में हुआ था। घर में ही शेरो-शायरी का अच्छा-ख़ासा माहौल था। खुद उनके घर में शेरी-नशिस्त का दौर चलता था।कैफी ने 11 साल की उम्र में ही शेर कहना शुरू कर दिया था। पहली बार उन्होंने अपने घर में नशिस्त के दौरान कलाम पेश किया। जिसे सुनकर उनके पिता बहुत खुश हुए। उन्होंने कैफी को पार्रकर पेन और एक शेरवानी दी। इसी के साथ उनका उपनाम ‘कैफी’ रख दिया। तब से ही वे कैफी आज़मी हो गए। उनकी प्रमुख कृतियों में आखिरी शब,झंकार, कैफियात और आवारा सज्दे हैं। उन्होंन तमाम फिल्मों के लिए भी गीत लिखे, जिसके लिए उन्हें राष्टीय पुरस्कारों के अलावा फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला। कलम के इस सिपाही ने 10 मई 2002 को इस दुनिया को अलविद कह दिया।
अमर उजाला में 14 जनवरी 2014 को प्रकाशित


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