शुक्रवार, 16 मार्च 2012

कवि सम्मेलन के दलाल

.............. नाजि़या ग़ाज़ी ................

एक दौर था, जब कवि सम्मेलन और मुशायरों के मंच पर फि़राक़ गोरखपुरी, निराला, महादेवी वर्मा, पंत, राज़ इलाहाबादी जैसे साहित्यकार विराजमान होते थे और लोग उनकी शायरी को गंभीरता से सुनते थे. तब ऐसे मं
चों से कही गई बात देश और समाज के लिए मार्गदर्शक होती थी, संसद तक में यहां कही गई बातों पर चर्चा होती थी. मगर इस समय ऐसे मंचों को दलालों ने अपने कब्जे में कर लिया है. कवि सम्मेलन-मुशायरा कराने के लिए अलग-अलग गुट बन गए हैं, इन गुटों के लोग दिनभर विभिन्न सरकारी-गै़र सरकारी दफ्तरों में घूम-घूम कर कवि सम्मेलन कराने के लिए अधिकारियों को तैयार करने की कोशिश करते हैं, जी-हुजूरी करते हैं और फिर अधिकारी के तैयार हो जाने पर अपने गुट के कवियों को उसमें शामिल कराया जाता है, ऐसे लोगों को भी मंच पर बुलाकर काव्य पाठ कराया जा रहा है, जिनको न तो कविता लिखने की तमीज़ है और न ही समझने की. इस तरह के दलालों को अधिकारी भी ठीक से समझ नहीं पा रहे हैं, अधिकारी अपने विभाग से सांस्कृतिक आयोजन के नाम पर धन उपलब्ध करा रहे हैं और खुद मंच पर मुख्य अतिथि बनकर गौरवान्वित हो रहे हैं. इसमें सबसे खराब बात यह है कि कवि सम्मेलनों की दलाली करने वाले लोग जानबूझकर उन लोगों को मंचों पर ले आ रहे हैं, जिन्हें एक लाइन की कविता-शायरी लिखने की तमीज़ नहीं है, दूसरों से मांगकर पढ़ते हैं और गलेबाजी की वजह से बड़े कवि बनते फिर रहे हैं. सबकुछ जानते हुए भी कवि सम्मेलनों के दलाल वास्तविक कवियों को मंच पर लाने की बजाए गवैयों को मंच पर बुला रहे हैं. कवि सम्मेलनों के संयोजक बने ये दलाल ‘तुम मुझे बुलाओ, मैं तुम्हें बुलाता हूं’ की तजऱ् पर काम कर रहे हैं. अच्छी और स्तरीय शायरी के आधार पर कवि सम्मेलनों में पढ़ने के लिए कवियों-शायरों को नहीं बुलाया जा रहा है. कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कवियों की पुण्य तिथि तक पर आयोजित होने वाले कार्यक्रम में दलाल और गैर मैयारी टाइप के उन कवियों को आमंत्रित करते हैं, जिन्हें खुद वही कवि पसंद नहीं करते थे, जिनके पुण्य तिथि पर कार्यक्रम हो रहा होता है. उनकी आत्मा इस बात पर भी नहीं जागती कि कम से कम पुण्य तिथि पर होने वाले कार्यक्रम में उन कवियों को बुलाएं जो अच्छे कवि के साथ उनके साथी भी रहे हैं. ऐसे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि कवि सम्मेलनों की क्या स्थिति है. पिछले दिनों इलाहाबाद के हिन्दुस्तानी एकेडमी में मुशायरे का आयोजन किया गया था, मंच पर उर्दू के कई बड़े अदीब मौजूद थे. संस्थान के एक बड़े अधिकारी ने अपने वक्तव्य में देश एक बहुत बड़े शायर के बारे में कहा, ‘ये साहब तो इसी कार्यक्रम के लिए इलाहाबाद में तीन दिन से पड़े हुए हैं, और ये जो दूसरे सुल्तानपुर के कवि हैं इनको तो मैंने सिविल लाइन चैराहे से उठा लिया है.’ अफ़सोस की शायरों की इस तरह बेइज़्ज़ती करने वाले उस अधिकारी के वक्तव्य का किसी ने विरोध तक नहीं किया, दांत चिहार कर सब लोग हंस रहे थे. अधिकारी को भी मालूम है कि कवियों को आमंत्रित करने का लालच देकर उनके खिलाफ़ कु भी बोल दो, फ़कऱ् नहीं पड़ता. हालत इतना बदतर है कि लोग दिनभर यह पता लगाने में जुटे रहते हैं कि कहां और कब मुशायरा हो रहा है और उसमें शामिल होने के लिए किससे जुगाड़ लगवानी है.दूसरी बात यह है कवि सम्मेलनों के मंच पर उन लोगों को भी बुलाया जा रहा है जो कवि न होकर लतीफेबाज हैं, और तकऱ् दिया जा रहा है कि क्या करें लोग इन्हीं को पसंद कर रहे हैं. यहां यह गौरतलब है कि अगर लतीफेबाजों को ही लोग सुन रहे हैं और उन्हें ही बुलाना है तो फिर उस आयोजन का नाम कवि सम्मेलन या मुशायरा क्यों दिया जाता है. जिन कार्यक्रमों में लतीफेबाज बुलाए जा रहे हैं, उनका नाम लाफ्टर शो, लतीफा सम्मेलन या इसी तरह कुछ और नाम दिया जाना चाहिए, ये क्या बात हुई कि नाम कवि सम्मेलन का और मंच पर बैठे हैं लतीफेबाज लोग. दुखद पहलू यह है कि सबकुछ जानते हुए भी इन स्थितियों के खिलाफ़ खड़ा होने की कोई हिम्मत नहीं कर रहा है, जबकि तमाम ऐसे प्रभावशाली साहित्यका हैं जो अगर खुलकर सामने आ जाएं तो बात ब सकती है.

गुफ्तगू के मार्च 2012 अंक का संपादकीय

1 टिप्पणियाँ:

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

बहुत ही उम्दा सम्पादकीय बधाई |

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