शनिवार, 21 जुलाई 2012

आर्ट और तिज़ारत का रिश्ता बहुत नाज़ुक होता है-निदा फ़ाज़ली

बाॅलीवुड से लेकर साहित्य तक में निदा फ़ाज़ली का नाम बहुत इज़्ज़त के साथ लिया जाता है। एक तरफ जहां उनके गीतों ने बाॅलीवुड में धूम मचाया मचाया तो दूसरी ओर उनकी शायरी और दोहों की वजह से उन्हें आधुनिक कबीर कहा जाता है। 12 सितंबर 1938 को जन्मे श्री फ़ाज़ली का पूरा नाम मुक्तिदा हसन निदा फ़ाज़ली है। ग़ज़ल, दोहा और नज़्म लिखने में इन्हें महारत हासिल है। सुर,आप तो ऐसे न थे,सरफरोश,तमन्ना,इस रात की सुबह नहीं,रजिया सुल्ताना सहित कई फिल्मों के लिए आपने गीत लिखे हैं। जबकि टीवी सीरियल सैलाब, नीम का पेड़,जाने क्या बात हुई, और ज्योति के लिए टाइटल सांग भी आपने ही लिखा है। लफ्ज़ों के फूल, मोरनाच,आंख और ख़्वाब के दरम्यां,सफ़र में धूप तो होगी एवं खोया हुआ कुछ नामक किताबें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं। साहित्य अकादमी, स्टार स्क्रीन एवार्ड और बालीवुड मूवी एवार्ड से आपको नवाजा जा चुका है। गुफ्तगू की संपादक नाजि़या ग़ाज़ी ने उनसे कई मुद्दों पर बात की-
सवाल: आज देश में हर तरफ भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आवाज़ तेज़ होती जा रही है। इस आवाज़ को और मुखर करने में साहित्य जगत की समुचित भागीदारी किस प्रकार से हो सकती है।
जवाब: आज देश में या देश से बाहर जो हो रहा है उससे हर समझदार ज़ेह्न जुड़ा हुआ है, यह ज़रूरी भी लेकिन इस ज़रूरत की अभिव्यक्ति के तरीके, साहित्य से अलग हैं और पत्रकारिता के अलग हैं। पत्रकार ख़बर लिखता है, उसके लेखन की भाषा दो और दो चार जैसी होती है। और साहित्य की शब्दावली में दो और दो पांच होते हैं और कभी सात हो जाते हैं। देखे हुए को दिखाने और देखे हुए में अनदेखे को दर्शाने में अंतर है। और दोनों की भाषाओं का यही अंतर एक को दूसरे से अलग करता है। ख़बर छपने के बाद दूसरे दिन बासी हो जाती है, जबकि ग़ालिब, फि़राक़, यगाना की ग़ज़लें जितनी कल जवान थीं आज भी उतनी ही जवान हैं। साहित्य की भागीदारी समय के उतार-चढ़ाव से शुरू हो रही है और हमेशा रहेगी। ग़ज़ल के प्रथम शायर वली दकनी ने औरंग़जेब के युग में कहा था-
मुफलिसी सब बहार खोती है
मर्द और एतिबार खोती है।
एक शेर में मर्द के एक शब्द में उस युग के धर्मन्द्व के कितने आयाम छुपे हुए हैं, इसकी सूचना कोई शब्दकोश नहीं दे सकता। इसकी पहचान के लिए पत्रकारिता और साहित्य के अंतर की पहचान ज़रूरी है। मर्द मज़बूर भी है और सरमद की तरह से हाकिम भी है बादशाह की तरह से बेखौफ़ भी है उस इमाम की तरह से जिसने औरंग़जेब को सीख दी थी।
सवाल: वर्तमान में पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाने वाले कवि और मंचीय कवियों में कहीं कोई तालमेल नहीं दिख रहा है, क्यों ?
जवाब: आपके प्रश्न से डाॅ. धर्मवीर भारती जी का एक वाक्य याद आ रहा है। हुआ यूं, एक रात मैं अपने घर में टीवी पर कोई कवि सम्मेलन सुन रहा था, सुनते-सुनते मैंने भारती जी को फोन कर दिया। मैंने उनसे उसी मंचीय चुटकुलेबाजी का जिक्र किया जो आपकी भी शिकायत है। भारती जी ने मेरी बात सुनी और सवाल का सीधा जवाब देने के बजाए मुझसे ही सवाल पूछ लिया, ये बताओ धर्मयुग के लिए अपनी कविताएं कब भेज रहे हो। उनकी नज़र में चुटकेलेबाजी का कोई महत्व नहीं था, मंच पर उस समय काका हाथरसी और नीरज का दरबार सजा हुआ था। लेकिन आज अंधायुग और ठंडा लोहा के कवि भारती जी हर जगह हैं और दरबार मंच के साथ ही रुख़सत हो गया। उर्दू में अनवर मिजऱ्ापुरी मुशायरों की छतें उड़ाते थे और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ मुश्किल से सुने जाते थे। आज फ़ैज़ हर जगह हैं और उनके साथ के मुशायरों के शायर कहीं नहीं हैं।
सवाल: क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि वर्तमना में साहित्य में गैर जिम्मेदार लोग ज़रूरत से अधिक आ गए हैं?
जवाब: इतिहास के हर युग में ऐसा ही होता रहा है, हर युग में कई-कई नाम होते हैं, लेकिन हर युग हमेशा किसी एक युग पुरुष के नाम से जाना जाता है। ज़ौक, मोमिन, आशुफ्ता का दौर मिजऱ्ा ग़ालिब से मंसूब है और बहुत से नामों की भीड़ और निराला अलग से नज़र आते हैं। समय की छलनी धान फटककर चावल को और भूसे को अलग कर देती है।
सवाल:  एक आलोचक और एक शायर की भूमिका में क्या फ़कऱ् है ?
जवाब:  आलोचक और रचनाकार का रिश्ता है तो ज़रूरी, लेकिन  ये रिश्ता इतिहास के लंबे रास्ते में उतार-चढ़ाव से गुजरा है। कभी इस रिश्ते ने कबीर और नज़ीर को सिरे से कवि मानने से इंकार किया, कभी अपनी पसंद के ग़ैर ज़रूरी नामों को प्यार दिया, लेकिन न प्यार से बात बनी न इंकार से, जब भी बात बनी रचनाकार के व्यक्तिगत किरदार से ही बात बनी। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कबीर को गले से लगाया और प्रगतिशील आलोचना ने नीरज को अपनाया। आज आलोचना के दोनों शिकार हमारी अदबी विरासत की निशानियां हैं।
सवाल:  फिल्मी गीतों में संगीत के शोर-शराबे के बीच कथ्य और शिल्प नदारद होते जा रहे हैं, इस गिरावट के क्या कारण हैं ?
जबाव:  आर्ट और तिज़ारज का रिश्ता बहुत नाज़ुक होता है, ज़रा सी भूल चूक से इसका संतुलन बिगड़ जाता है। यही बात फिल्मों ने गीत और संगीत के बदलते स्तरों के बारे में कही जा सकती थी, ज़ुबानो-बयान की कमज़ोरी और ताक़त दोनों लिखने वाले के क़लम में होती है। जब साहिर के हाथ में होता है तो ‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों’ लिखा जाता है और शैलेन्द्र के हाथों में होती है तो वह लिखता है ‘जो लोग जानते हैं, इंसान को बस पहचानते हैं’ और हाथ बदलते हैं तो शब्द भी अपना रूप बदलते हैं। इश्क़ कमीना और चलती है खंडाला जैसे बताते हैं कि क़लम और किनके हाथों में है। शब्दों की तरह सुर भी छोटे-बड़े हाथों की तरह छोटे-बड़े होते हैं। उर्दू-हिन्दी पहले के  संगीतकारों को आती थी। आज संगीतकार इन भाषाओं से दूर हैं, इसलिए शब्दों का अनादर करने के लिए मज़बूर हैं।
सवाल: मंचों पर हुल्लड़बाजी, चुटकुलेबाजी और फुहड़पन ही बचा है, बड़े कवि शायर इस स्थिति का विरोध क्यों नहीं करते ?
जवाब: विरोध करने में जो समय खर्च होगा, वह बेकार जाएगा, इसलिए यही अच्छा होगा कि मीर की नसीहत मानकर -
ग़ैरते यूसुफ़ है ये वक़्ते अज़ीज़
मीर इसको रायगां खोता है क्या।
इसे अपनी रचनात्मकता के लिए इस्तेमाल किया जाए। कुसूर स्टेज का नहीं है। स्टेेेज पर निराला, फि़राक़, फ़ै़ज़ आदि सभी आते थे, लेकिन जो लिखते थे वहीं सुनाते थे। श्रोता और रचनाकार के बीच तालमेल था। सुनने वाला कवि को उसके नाम से नहीं काम से जानता था। सुनाने वाला भी अपने मकाम को पहचानता था, अब न तो वह सुनने वाले हैं न वे सुनाने वाले हैं। इसलिए अब स्टेज से जो पेश किया जाता है उसमें शब्दों की महक नहीं होती, धंधे की चमक होती है। अब आज मुशायरा-कवि सम्मेलन तफरीह या तमाशा बन गये हैं। ग़ालिब और फि़राक़ की ग़ज़ल को सुनने के लिए श्रोताओं में जिस तहज़ीब की ज़रूरत है, वह आज के श्रोताओं में नहीं है।
सवाल:  आपने लेखन की प्रेरणा कहां से ग्रहण की और अपना उस्ताद किसे मानते हैं ?
जवाब:  मेरी उस्ताद पुस्तक है। मेरी प्रेरणा, मेरे जिये हुए रात-दिन हैं। मैंने जि़न्दगी को पढ़कर जि़न्दगी को लिखा है और जो भी सीखा है वह इसी से सीखा है।
सवाल: नई पीढ़ी साहित्य को अधिक तवज्जो नहीं दे रही, इलेक्टृानिक मीडिया ने प्रिन्ट मीडिया का महत्व घटा दिया है। इस बात से आप कहां तक सहमत हैं ?
जवाब: प्रिन्ट मीडिया की ज़रूरत कभी कम नहीं होगी। लिखे हुए शब्द से ही बोला हुआ शब्द चित्रित किया जाता है।
सवाल: नये रचनाकारों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे ?
जवाब: पढ़ो ज़्यादा, लिखो कम। पढ़ने को ज़मीनों की तरह भाषाओं की सरहदों में कैद नहीं करो। हर भाषा का अपना दायरा होता है, देश की भाषायें हो या विदेश की, हर भाषा का साहित्य हमारी विरासत का हिस्सा है।
दीवारें उठाना तो हर युग की सियासत है,
ये दुनिया जहां तक है, इंसां की विरासत है।
गुफ्तगू के जून 2012 अंक में प्रकाशित

सोमवार, 2 जुलाई 2012

सफेद जंगली कबूतर


     - मुनव्वर राना
कबूतर भी अजीव परिंदा है. इंसानों का साथ उस वक्त भी नहीं छोड़ा जब हज़रत नूह (अलि.) की कश्ती सैलाब में बेसिम्ती का शिकार हो गई थी, चहार सिम्त ग़रक़ाब बस्तियों के निशानात के बावजूद इस ताजा ज़मीन की तलाश में निकल पड़ता जिस पर सैलाब के पानी ने अपने गुल बूटे न टाके हों. अपनी उम्मत के उतरे हुए चेहरे हज़र नूह (अलि.) से नहीं देखे जाते थे और कबूतरों की परेशानी का सबब ये था कि अगर बची खुची उम्मत भी सैलाब की नज़र हो गई तो वह किसी के साथ रहेंगे, इंसान अगर अशरफुलमखलूकात है तो कबूतर इंसानों से बेपनाह मुहब्बत करने वाला परिंदा. हजरत नूह (अलि.) के ज़माने से ही कबूतर इंसानों के लिए ज़मीन तलाश करते हंै और खुद दरबदरी का शिकार रहते हैं-
सफ़र है खत्म मगर बेघरी न जाएगी
हमारे घर से ये पैगम्बरी न जाएगी। (शाहीन)
दुनिया पर हुकूमत का ख्वाब देखने वाले इंसानों को क्या मालूम कि फिज़ा में उड़ते हुए कबूतर को ज़मीन खेत की तरह और दुनिया गांव के बराबर मालूम होती है. कबूतर अमन व आशती का पैगंामबरियों कहलाता है कि उसकी मासूमियत में स्कूल जाते हुए नन्हें बच्चों की झलक दिखायी देती है. उसको आवाज़ मंे फ़ाख़्ता और कोयल का मुश्तरका दर्द शामिल रहता है. उसके शहपरों की हवा बीमार की सेहत बख्शती है, जहां रहता है वहां नफरतें घोंसला नहीं लगा पाती, जिन छतों पर बैठता है वह जलजले में भी महफूज रहती है, जिस शाने पर बैठ जाए वह जिम्मेदारियां उठाने के लायक बन जाएं, बिजली के नंगे तार भी उसके खून की हिद्दत के आगे बर्फ हो जाते हैं. जिन तालाबों के करीब उतरता है, वह बरसहाबरस दरिया बने रहते हैं. अमन की बहाली में एक कबूतर एक हजार सिपाहियों के बराबर होता है. कहा जाता है कि जिस घर में कबूतर का टूटा हुआ पर गिर जाए, सांप बिच्छू उस घर से गुजरना छोड़ देते हैं, कबूतर सुबह होते ही अपने परों की सफेदी से सूरज का मवाजना करता है. रोज नए हौसले के साथ उड़ता है और बुलंदी पर पहुंच कर तारा बन जाता है, इंसानों के साथ रहने वाला यही एक परिंदा है जो हमेशा इंसानों के साथ ही रहना चाहता है, वरना पर निकलते ही चींटी भी अलग ठिकाना तलाश करने लगती है. इंसानों के साथ रहना कितना दुश्वार है, ये शायद कबूतर से ज्यादा कोई नहीं जानता. भटकती हुई कश्ती के मुसाफिरों को नई जमीन का पता देने वाला ये कबूतर आज भी मुस्तकिल सफर में रहता है. इंसानों को जलाई हुई बस्तियों से हमेशा के लिए हिजरत कर जाता है. न सोने के पिजड़े की फरमाईश करता है, न चंादी की दीवारें तलाश करता है. पेड़ पर भी ब-हालते-मजबूरी बैठता है. दरख्तों पर नहीं बैठता कि वहां वीरानी होती है, जंगल में नहीं रहता कि वहां जानवर होते हैं, सेहराओं में नहीं रूकता कि वहां आबादी नहीं होती, खेतों में नहीं रहता कि कनाअत की ताजदारी छनती है. हां बंजर जमीनों पर बैठ जाता है क्योंकि अल्लाह की बनाई दुनिया में कबूतर ही अशरफुखाकसार होता है. बुलंदी से गिद्ध खाना देखता है, उकाब निशाना देखता है, इंसान घराना देखता है और कबूतर सिर्फ ठिकाना देखता है.
कबूतर सदियों तलक पैगाम रसानी का काम करता रहा. न डाकिये थे, न पोस्ट आफिस, न वायरलेस था, न टेलीफेान. न मोबाइल था, न इन्टरनेट. न तेज रफ्तार गाडि़या थीं, न हवाई जहाज. लेकिन एक दूसरे की ख़ैरियत और मिज़ाज़ पुरसी के चिराग़ दिलों में टिमटिमाते रहते थे. यूं तो मुहब्बत हर अहद में संगसारी के मराहिल से गुजरती है लेकिन एक वह ज़माना भी था कि इश्क़ कबूतर के सिवा किसी के सामने भी इज़हार की किताब नहीं खोलता था-
गुफ़्तगू फन पे हो जाती है ‘राना’ साहब
अब किसी छत पे कबूतर नहीं फेंका जाता
कबूतर जब तक पैगाम रसानी करता रहा, मजारे इश्क की सज्जादां नशीनी और नमाज इश्क़ की इमामत के लिए उर्ज़ अवामिक, लैला मजनूं, शीरीं फरहाद, सोहनी महीवाल, रोमियों जुलियट और मिजऱ्ा साहबान का जन्म होता रहा. लेकिन मुहब्बत तो पत्थर की तरह होती है, किसी के लिए हीरा बन जाती है और किसी को मिट्टी मंे मिला देती है. जब से कबूतरों ने खत लाना, ले जाना छोड़ दिया, दुनिया में इश्क़ की दास्तान एैयाशियों की कहानी बन कर रह गई-
चाहिए पैगाम्बर दोनों तरफ
लुत्फ क्या जब दूबदू होने लगी। (दाग़)
मुझे बचपन से कबूतरबाजी का शौक है. दरअसल उत्तर प्रदेश के बेशुमार शहर, खुसूसी तौर पर अवध के कस्बात और तहसीलें कबूतरबाजों से आबाद थीं. कबूतर के शौक में हर मजहब, हर मसलक और हर उम्र के लोग गिरफ्तार थे लेकिन सान्हा पाकिस्तान, काॅलोनी कल्चर, बढ़ती हुई बेरोजगारी और एक एक घर में कई कई चूल्हों की आंच में कबूतरों के पर जल कर राख हो गए. कबूतरबाजों के हौसले ख़ाक हो गए और कबूतर बाजी के शौक ने हिन्दू बीवी की तरह सिमट कर एक कोना पकड़ लिया. ख़ानदानों के इंतिशार, दौलत की बेइंतिहा हवस, गुरबत और दरबदरी के जमाने में कबूतर की तरफ कौन निगाह डालता है, कभी शहर में सिर्फ एक अस्पताल होता था और सारा शहर सेहतमंद रहता था. अब हर मुहल्ले मंे कई नर्सिग होंम होते हैं लेकिन सारा शहर बीमार रहता है. शायद खुद ग़रज ज़माने ने हर आदमी को ये समझा दिया है कि उसकी कहानी दुनिया के इसकरीन पर उसी वक्त तक फूल बिखेरती रहेगी, जब तक वह जि़न्दा रहेगा, लिहाजा लोग जि़न्दा रहने की कोशिश में और ज़्यादा मरने लगे. यूं तो कबूतर के लिए जितने मुंह उतने मुहावरे मशहूर हैं लेकिन खास मुहावरों से लुत्फ हासिल करने के लिए कस्बाती और जस्बाती होना ज़रूरी है. कुछ मुहावरे कबूतरबाज़ ही समझ सकते हैं. कुछ ऐसे भी मुहावरे हैं जिन्हें कबूतर बन कर ही समझा जा सकता है. मसलन कुछ लोगों के कहने के मुताबिक कबूतर सैयद होते हैं लेकिन कुछ लोगों का ये भी कहना है कि कबूतर सिर्फ अपनी अफ़जाईशे-नस्ल चाहते हैं. इन दोनेां मुहावरों में ग़ज़ब का तजाद हैं. अगर कबूतर सैयद होते हैं तो फिर अफ़जाईशे नस्ल की चाह गलत है क्योंकि सैयद अगर अफ़जाईशे नस्ल पर ही ध्यान देते तो कर्बला में जाम शहादत क्यों नोश फरमाते-
उम्मत की सर बुलंदी की खातिर खुदा गवाह
जालिम से खुद नबी के नवासे उलझ पड़ें (मुनव्वर राना)
यूं तो कबूतर कई रंगों के होते हैं. लेकिन फि़ज़ा में सफेद और सियाह कबूतर ही ज्यादा दिखाई देते हैं. अमूमन सियाही मायल कबूतर जंगली ओैर सफे़द रंग के कबूतर पालतू कहलाते हैं. कबूतर अपना घर फि़ज़ा में उड़ते हुए भी नहीं छोड़ता. कुछ कबूतर तो अपने घर को इस कदर करकज़ बना कर उड़ते है कि आंगन में रखे कटोरे के पानी में मुस्तकिल दिखाई देते हैं. घर से इसी बेपनाह मुहब्बत की मौजूदा हालत भी अब कबूतरों जैसी हो कर रह गई है. वह घर से लगाव के सबब हिजरत भी नहीं कर सके और शब व रोज सियासी चील कौव्वों के शिकार होते रहते हैं.
दुश्मनी ने काट दी सरहद पे अपनी जि़न्दगी
दोस्ती गुजरात में रह कर मुहाजिर हो गई। (मुनव्वर राना)
आदमी, कबूतर और कुत्ता अपनी ड्योड़ी, ठिकाना और आशियाना आसानी से नहीं छोड़ते. पुलिस की गिरफ़्त में आने वाले बेशतर ख़तरनाक मुजरिम सिर्फ़ घर से मुहब्बत के ऐवज एनकाउंटर की नज़र हो जाते हैं. दंगे में भी वही लोग मारे जाते हैं जो अपने बुजुर्गो की जूतियां आंखों से लगाए रहते हैं. वफादारी की सबसे बड़ी खराबी तो यही है कि शेर को भी कुत्ता बना देती है. मुसलमानों का मसला भी यही है कि शेर की तरह जीना चाहता है और बेइंतिहा वफादारी उसे कुत्ता बनाए रखती है.
कबूतर जब तक घरों में रहते है, बिल्कुल पालतू होते हैं. कभी बच्चों की तरह दादी की गोद में बैठ जाते हैं, कभी ताक पे रखी रेहल के पास अदब से अपने परों को समेट लेते हैं, कभी बच्चों की तरह स्कूल के बस्ते पर बैठ जाते हैं, कभीे अम्मी की नकाब में छुपने की कोशिश करते हैं, कभी सुराही पर बैठ कर अपनी साकीगरी का ऐलान करते हैं, कभी अनाज चुनती हुई लड़कियों में अपनी जगह बनाने में मसरूफ रहते हैं, कभी बाल सुखाती मौसी के साथ छत पर अपने परों को सुखाने में मशगूल दिखाई देते हैं, कभी चोंच में तिनका दबा कर अपने ख्वाब की ताबीर का ऐलान करते हैं, कभी रोटी की डलिया के पास बच्चों की तरह बे अदब नज़र आते हैं, कभी मिट्टी के प्याले में पानी पीते हुए कभी चाय के कप में अपनी चोंच भिगोते हुए, कभी घर की अलगनी पर कभी मुंडेरे पर कभी बुजुर्गो को करतब दिखाते हुए, कभी अनाज में अपना हिस्सा लगाते हुए, कभी रोशनदान में गुनगुनाते हुए, कभी चारपाई पर बेतकल्लुफी से परों को छप्पर बनाते हुए ये कबूतर जिस घर में भी रहते हैं. वहां का अटूट हिस्सा बन जाते हैं.
सर्दियों में सुबह की पहली आहट पर धूप की गुनगुनाहट से हमकलाम होने के लिए ढाबलियों से बाहर निकल आते हैं, थोड़ी देर तक अपने शैपरों को फड़फड़ाहट की तरबीयत दे कर अलसाई हुई तबीअ़त से छुटकारा हासिल करते हैं, थोड़ा झूमते हैं, फिर सूरज की अंगीठी में तापते हैं. अपने आपको धूप में सेकते हैं, जैसे मां सर्दी खाए हुए बच्चे के सीने पर तेल सुखाती है, जैसे लड़कियां स्कूल की ड्रेस धो कर अलगनी पर सूखने को टांग देती हंै, जैसे बच्चे धुली हुई तख्ती सुखाते हैं, जैसे दादी अपने घुटनों पर तेल मलती है, दादी स्कूल के बच्चों के आने के मुन्तजिर रहती है और बच्चे आसमान से कबूतरों के मुन्तजिर रहते हैं. कबूतर कितनी ही बुलंदी पर पहुंच जाए, अपना घर नहीं भूलते. उनकी आंखों से शामासाई की रोशनी फूटती रहती है. वह अपने घर के ताज़ महल को शाहजहां की आंखों से देखा करते हैं. बहादुरशाह की नजरों से दिल्ली का जायज़ा लेते हैं. वाजिब अली शाह और बेगम हजरत महल की हिजरत नसीब आंखो से लखनऊ को देखते हैं. खुली फिज़ा में भी अपनी आंखों में घर की फूल पत्तियां सजाए रहते हैं. अपने ही टूटे परों से अपने घोसले की तामीर करते हैं. अपने परों की सफेदी से बादलों को शर्मिन्दा करते हैं. मौसमों से जंग करते हैं हादसों से निगाहे मिलाते हैं. आसमान को अपने परों के बराबर समझते हैं. चांद को अपना साथी समझते हैं. छिटकी हुई धूप को चांदनी समझते हैं, जिन्दगी को उड़ान और मौत को महबूबा समझते हैं.
लेकिन उड़ान को जिन्दगी और हादसात को अपने कूवते बाजू को इम्तिहान समझने वाला कबूतर कभी कभी तेज़ बारिश, मौसम की खराबी, तूफान की शिद्दत, आंधी के तेज झकड़ों या शाम के धुंधलकों के गहरा जाने की वजह से अपना घर तलाश करने में परेशान हो जाता है. देर तक उड़ने वाले गिरहबाज कबूतर जब आसमान की बुलंदियों पर पहुंच कर तारा बन जाते हैं तो अक्सर घर वापसी के वक्त अंधेरा हो जाता है. घर से दूर अंधेरा हो जाने के बाद औरत को कबूतर की वापसी दुश्वार हो जाती है. यूं भी औरत और कबूतर की जि़न्दगी में बड़ी मसामलत होती है. अपना घर ढूंढता हुआ कबूतर अगर किसी कबूतरबाज के हाथ लग जाता है तो वह फौरन उसके पर कतर देता है या मजबूती से बांध देता है. पाकिस्तान जाती हुई बहुत सी हिजरत नसीब औरतें भी पंजाब के कबूतर बाजों के हाथ लग गई फौरन उनकी दोशीजगी का कत्ल कर के उनकी कोख में नए रिश्तों की चलती फिरती जंजीरें बो दी गई कि फिर वह हमेशा के लिए अपनी उड़ान के किस्से को भूल जाएं. उनके इतजार में पुराने रिश्ते की आंखे पथरा गई, चेहरे झुरिर्यो की आमाजगाह बन गए और जिस्म हड्डियांें के ढांचों
में तब्दील हो गए-
परवाज़ की ताकत भी नहीं बाकी है लेकिन
सय्याद अभी तक मेरे पर बांधे हुए हैं. (मुनव्वर राना)
घर से भटका हुआ कबूतर कई दिनों तक मुसलसल फिजा में उड़ते हुए अपना घर तलाश करता है. कभी ऊंची ऊंची इमारतों के दरमियान से गुजरते हुए, कभी मन्दिरों के कलश को चूमते हुए, कभी मस्जिदों के बुलंद होती हुई सदाए हक़ के उजाले में, लेकिन मेले में खोया हुआ बच्चा और घर से भटक जाने वाला कबूतर वापस कहां आता हैं. भूख प्यास की शिद्दत, घर छूटने का गम और मुस्तकिल तलाश व जुस्तजू में सरगर्म रहते रहते कबूतर अपने परों को ताकत से नावाकिफ़ होने लगता है. कुछ दिनों तक जंगल झाड़ी खेत, खलिहान, मुहल्ले और बस्तियों में भटकने के बाद कबूतर की आरजूओं के पर मैले होने लगते हैं. फिर एक दिन यही दूध और चांदनी से धुला धुलाया कबूतर किसी मन्दिर या मस्जिद के गुबंद को आबाद कर लेता है. कुछ दिनों तक तो वह अपने आस-पास बैठे हुए जंगली कबूतरों में अजनबीयत महसूस करता है लेकिन रफ़्ता रफ़्ता वह भी उसी माहौल, मौसम और ठिकानों का आदी हो जाता है. थोड़े ही दिनों के बाद इल्म से आरास्ता लोग उसे भी जंगली कहना शुरू कर देते हैं. इंसान भी कितना खुदगरज होता है जो उसका कहना मान ले, वह पालतू और जो कहना न माने वह जंगली कहलाने लगता है.
भिवंडी में अलीगढ़ या बनारस में नहीं लड़ते
कबूतर जंगली हो कर भी आपस में नहीं लड़ते। (मुनव्वर राना)

(गुफ्तगू के जून 2012 अंक में प्रकाशित)


                                                        


बुधवार, 13 जून 2012

कलाम बांटने वाले उस्ताद शायर

  
                       - इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
अजब दुनिया है नाशायर यहां पर सर उठाते हैं।
जो शायर हैं वो महफिल में दरी-चादर उठाते हैं।
ग़ज़ल हम तेरे आशिक़ हैं मगर इस पेट की खातिर,
कलम किस पर उठाना चाहिए, कलम किस पर उठाते हैं।
मुनव्वर राना की ये पंक्तियां वो सब-कुछ बयान कर रही हैं, जो समाज का आइना कहे जाने वाले अदब की दुनिया में हो रहा है। शायरी को ईश्वरीय देन माना जाता है, इसे सिर्फ़ इल्म या दौलत से हासिल करना तकरीबन नामुमकिन है, मगर देशभर में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो दूसरे उस्ताद शायरों से ग़ज़लें लिखवाकर मुशायरों में बतौर शायर पढ़ते हैं और पत्र-पत्रिकाओं में छपकर वाहवाही लूटते हैं। कई लोगों के तो काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। हैरानी की बात तो यह है कि शायरी की दुकान चलाने वाले या ग़ज़लें वगैरह बांटने वाले लोग खुलेरूप में  स्वीकार करते रहे हैं कि ऐसा करते आये हैं। इसे वे बुरा भी नहीं मानते। हां, मगर कलाम बांटने वाले ये उस्ताद उन लोगों का नाम नहीं बताते जिनको वे कलाम बांटते हैं।
अब सवाल पैदा होता है कि अदब, जिसे समाज का आइना कहा जाता है, वहां जब इस तरह का खेल खेला जाएगा तो समाज और देश की रूपरेखा कैसी बनेगी? इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उर्दू विभाग के प्रोफेसर अली अहमद फातमी भारी मन से कहते हैं, ‘अदब एक पाकीज़ा, मोकद्दस और जिम्मेदाराना अमल है, इसको एकदम से मजाक बनाया जा रहा है। यही नहीं जबरदस्ती के बनावटी शायर पैदा किया जाना बहुत बड़ा जुर्म है।’ दरअसल, इलाहाबाद अदब का बड़ा मरकज़ रहा है। नूह नारवी, फिराक़ गोरखपुरी, समर हल्लौरी, अकबर इलाहाबादी जैसे उस्ताद शायरों की देखरेख में यहां का अदब पला-बढ़ा है। इन उस्तादों के जमाने में अच्छे शार्गिद पैदा करने की होड़ लगी रहती थी। इन उस्तादों से जुड़े लोगों को उनके उस्तादों के नाम से ही पुकारा जाता था। कभी-कभी ये उस्ताद अपने शार्गिद को पूरा-पूरा कलाम लिखकर दे देते थे। मगर, यह काम वे विशेष परिस्थितियों में ही करते थे। और फिर वे किसी शार्गिद को लगातार कलाम न देकर उसके अंदर शायरी के गुण पैदा करने की कोशिश करते थे। शार्गिद भी पूरी गंभीरता से शायरी के विभिन्न पहलुओं को सीखते और खुद अच्छा और सही शेर कहने लगते थे। मगर, आज स्थिति बिल्कुल बदल गयी है। उस्ताद शायर पूरा-पूरा कलाम लिखकर दे रहे हैं और शार्गिद जानने-सीखने की कोशिश कतई नहीं कर रहे हैं। कुछ शार्गिद अपने उस्तादों को नज़राना पेश करते हैं तो कुछ शेर के बदले उनके दूसरे काम करते या करवाते हैं।
ऐसे कई उस्ताद हैं, जो किसी न किसी तरह से स्वीकार करते हैं कि वे ऐसा कर रहे हैं। ऐसे ही एक उस्ताद इलाहाबाद के काटजू रोड पर दवा की दुकान चलाते थे, नैयर आकि़ल (तीन जून 2006 को निधन हो चुका है) के नाम से मशहूर हैं। लिखने के अलावा खुद महफिलों में शिरकत भी करते थे। बड़ा नाम है उनका, लेकिन वे अपने शार्गिदों की खुलकर ‘इसमें’ मदद करते रहे हैं। वह कहते हैं, ‘वसूलन तो यह गलत है, मगर कुछ लोग ऐसे भी आते हैं, जिन्हें एक-दो बार ग़ज़ल दे देने पर धीरे-धीरे खुद शेर कहने लगते हैं। लेकिन ज्यादातर ऐसे हैं जो पिछले 20-25 वर्षों से लेकर पढ़ते हैं, कभी खुद कहने की कोशिश नहीं करते।’ पूरे मुल्क में आपका नाम है, फिर ग़ज़लों की सप्लाई का काम क्यों करते हैं ? इस सवाल पर दलील पेश करते हैं, ‘घर बैठे शोहरत मिलती है, शार्गिद जहां-जहां जाकर पढ़ते हैं या छपते हैं, वहां-वहां किसी न किसी तरीके से बात पहुंच ही जाती है कि किसका कलाम है।’ पैसा लेकर अशआर बांटने की बात पर वह कहते हैं, ‘और लोगों की तो मैं नहीं जानता, लेकिन जिस दिन जिसको मैं कलाम देता हूं, उस दिन उसके पैसे की चाय तक मैं नहीं पीता।’
इलाहाबाद के अहमदगंज मुहल्ले में रहने वाले उस्ताद शायर अनवार अब्बास, जो पेशे से वकील भी हैं, इनकी शहर में काफी शोहरत है। ग़ज़ल बांटने के सवाल पर इनका अलग ही तर्क है, ‘इस तरह का काम किस क्षेत्र में नहीं हो रहा है। दूसरों से शोधग्रंथ लिखवाये जाते हैं, फिल्मों में गीत कोई लिखता है, नाम किसी का जाता है। तो फिर उर्दू अदब पर ही इल्जाम क्यों लग रहा है ?’ आप क्यों लोगों को कलाम बांटते हैं ? इस सवाल पर कहते हैं, ‘शार्गिद की खिदमत वगैरह से रिश्ता बंध जाता है, शार्गिद को सिखाने पर भी वह नहीं सीख पाता है, ऐसे में उसे लिखकर दे देना ही मुनासिब लगता है।’ प्रो. अली अहमद फ़ातमी इस सफाई को सिरे से खारिज करते हैं, ‘अपनी गलती को छिपाने के लिए दूसरों की गलती को पेश करना किसी भी नजरिये से सही नहीं हो सकता।’
शाहगंज मुहल्ले में रहने वाले उस्ताद शायर मासूम आज़मी की उस्तादी भी काफी चर्चित है, पहले रेलवे में नौकरी करते थे तो अपने को अंजाम देने के लिए कम ही वक़्त निकाल पाते थे, अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं, लिहाजा काम में भी तेजी आयी है। वे मानते हैं कि कलाम की सप्लाई से अदब का नुकसान हो रहा है, मगर खुद के कलाम बांटने के सवाल पर कहते हैं, ‘लोग आकर बैठ जाते हैं, जब तक उन्हें लिखकर न दे दिया जाए वो नहीं जाते हैं। इनमें से कुछ लोग तो बाद में धीरे-धीरे शेर कहने लगते हैं, मगर ज्यादातर जि़न्दगीभर लेने का ही काम करते रहते हैं।’ ऐसे ही एक अन्य उस्ताद गुलाबबाड़ी काॅलोनी में रहते हैं, उस्तादी के अलावा मुशायरा संचांलन के लिए मशहूर इक़बाल दानिश नामक इस उस्ताद के शार्गिदों की अच्छी-खासी तादाद है। ये कलाम बांटने को गलत नहीं मानते। उनका अपना तर्क है, ‘जिन लोगों के अंदर शेर कहने की सलाहियत नहीं है, मगर उनको उर्दू अदब से लगाव है। ऐसे लोगों को लिखकर देने में क्या बुराई है। आखिर ये लोग अदब की तरफ आ तो रहे हैं।’ कुछ इसी तरह की बात दायराशाह अजमल के पास रहने वाले उस्ताद अरमान ग़ाज़ीपुरी कहते हैं, ‘पहले भी यह सिलसिला था, आज भी है। दूसरे से लिखवाकर ले जाने वाले लोग मुशायरा कराते हैं, चंदा देते हैं और विभिन्न आयोजनों के लिए वितरित किये जाने वाले निमंत्रण पत्र को पहुंचाने का काम भी करते हैं। इतनी खिदमत करने वालों को अगर अशआर लिखकर दे दिया जाता है, तो इसमें बुराई ही क्या है?’ वह कहते हैं कि पहले के भी उस्ताद अपने शार्गिदों के कलाम पर इस्लाह (संशोधन) का काम करते थे और अपना कलाम ज्यादा देते थे। फ़र्क बस इतना है कि पहले के शार्गिद उस्तादों से सीखते थे, शेर कहने की कोशिश करते थे। मगर आज के शार्गिद सीखना नहीं चाहते, उन्हें पूरा लिखकर देना पड़ता है।
सीनीयर शायर एम. ए. क़दीर इस तरह के उस्ताद शायरों और शार्गिदों के बहिष्कार करने की बात करते हैं, ‘ऐसे लोगों को किसी भी साहित्यिक आयोजन में नहीं बुलाना चाहिए। कलाम बांटने वाले और लेने वाले अदब में शामिल होकर इसे जहरीला बना रहे हैं।’ मगर, बहिष्कार की बात पर अरमान ग़ाज़ीपुरी कहते हैं, ‘किसका-किसका बहिष्कार होगा और कौन करेगा? साहित्यिक आयोजन भी तो ग़ज़ल लेने और देने वालों की मदद से होते हैं।’
बहरहाल, इलाहाबाद समेत पूरे देश में उस्तादों द्वार डुप्लीकेट शायर पैदा करने का सिलसिला जारी है। लगभग सभी उस्ताद खुद द्वारा कलाम सप्लाई की बात स्वीकारते हैं, लेकिन अपने उन शार्गिदों के नाम नहीं बताना चाहते, जिन्हें कलाम बांटते हैं, शायद दुकानदारी खतरे में दिखाई देने लगती है।
(हिन्दी साप्ताहिक ‘सहारा समय’ में 10 दिसंबर 2005 को प्रकाशित)

सोमवार, 11 जून 2012

‘गुफ्तगू’ ने आयोजित की काव्य गोष्ठी


गुफ्तगूकी तत्वावधान में करैली, इलाहाबाद स्थित 'अदब घर' में काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ शायर एहतराम इस्लाम द्वारा की गई, तथा मुख्य अतिथि तलब जौनपुरी थे। संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया। इस अवसर पर गुफ्तगू के तकनीकी व्यवस्थापक वीनस केसरी के द्वारा घोषणा की गई की अब से हर महीने के दूसरे शनिवार को 'गुफ्तगू' की और से 'अदब घर' में काव्य गोष्ठी आयोजित की जाएगी, जिसका सभी शायरों तथा कवियों ने खुले दिल से स्वागत किया तथा गुफ्तगू के इस शुरुआत की सराहना की

कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए नवोदित कवि अजय कुमार ने हरिवंश राय बच्चन की कृति मधुशाला को समर्पित कविता पढ़ी-

कृष्ण काल की सुरमय भीतर रखती मधुशाला
कर लेता आकर्षित सबको मुरली के जैसा प्याला।

मधुशाला है कृष्ण यहां पर, प्याला है मुरली जैसे,
राधा का किरदार निभाताा, इस युग में पीने वाला।
 



खुर्शीद हसन ने कहा-

गर्मी से बिलखता है हर एक बशर भाई,
राह में लगा देना तुम एक शजर भाई।

 


डाॅ. नईम साहिलने कहा-

बदल दी शक्लो-सूरत आंधियों ने,
मकां सारे पुराने लग रहे हैं।

हालात ऐसे होंगे ये सोचा न था कभी,
होगा मज़े में आइना पत्थर के साथ।

कवि सौरभ पांडेय ने अपनी कविताओं में गांव का चित्रण किया-

सरकारिया बयान सुधर गांव-गांव है
बरबादियों का दौर मगर गांव-गांव है।

जिन कुछ सवाल से सदा बचते रहे थे तुम
हर वो सवाल आज मुखर गांव-गांव है।

 



वीनस केसरी की ग़ज़ल ने सभी का प्रभावित किया-

एक रानी ने गढ़ा गुड्डे का इक किरदार है।
और गुड्डा भी तो बस चाभी भरो तैयार है।

बढ़ती महंगाई के मुद्दे पर बहस की आड़ में,
काले धन पर मौन हर इक पक्ष को स्वीकार है।


 अजीत शर्मा आकाशने अच्छी ग़ज़ल सुनाई-

एक तिनके का सहारा चाहता है,
और क्या गर्दिश का मारा चाहता है।

नोच खाएगा उसे जिसको कहोगे,
पालतू कुत्ता इशारा चाहता है।


संचालन कर रहे इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की ग़ज़ल काफी सराही गई-

रस्मे उल्फ़त अदा कीजिए,
आप मुझसे मिला कीजिए।

गर सलीक़ा नहीं इश्क़ का,
बस ग़ज़ल पढ़ लिया कीजिए।

प्यार करते हैं गर आप भी,
एसएमएस कर दिया कीजिए।




सलाह ग़ाज़ीपुरी ने कहा-

नुमाइश जिस तरह अब हो रही है सारी दुनिया में,
खुली सड़कों पे यह आवारगी देखी नहीं जाती।

मुझे वह मुफलिसी के दिन कभी जो याद आते हैं,
किसी घर की भी मुझसे मुफलिसी देखी नहीं जाती।


युवा कवि शैलेंद्र जय की कविताओं ने काफी प्रभावित किया-

त्योंरियां चढ़ाना भी फैशन हो गया।
कितना यांत्रिक मानव जीवन हो गया,

मुस्कुराता है नफा-नुकसान देखकर
आदमी भी आज एक विज्ञापन हो गया।



फरहार बनारसी ने ग़ज़ल पढ़ी-

दुश्मनों की बात क्या थी सारे अपनों ने मुझे
ज़ह्र का प्याला पिलाया, बात जब सच्ची कही।


फरमूद इलाहाबादी की ग़ज़ल को लोगों ने काफी पंसद किया-

किसी तरह नहीं ममता से कमतर बाप का साया,
सभी हाथों के साए से हैं बेहतर बाप का साया।आसिफ ग़ाज़ीपुरी ने कहा-

फूल खिलने भी न पाये थे के मौसम बदला,
लग गयी आग गुलिस्तां में बहारों के करीब

आपकी बज़्म से उठकर मैं चला आया था,
क्या सबब इसका था के आपने पूछा भी नहीं।

शाहिद इलाहाबाद ने कहा-

अब सोचता हूं ईंट का पत्थर से दूं जवाब,
लेकिन रसूले पाक को क्या मुंह दिखाउंगा।

शायर अख़्तर अज़ीज ने तरंन्नुम में ग़ज़ल सुनाकर खूब वाहवाही बटोरी-

छबी चिनगारियां कम कर रहे हैं।
कि हम शोलों को शबनम कर रहे हैं।

खुशी उस शख़्स को क्यों मिल रही है,
इसी इक बात का ग़म कर रहे हैं।


मुख्य अतिथि तलब जौनपुरी ने कहा-

माहौल का अजीब सा तेवर है आजकल।
गुमराहियों में मुब्तिला घर-घर है आजकल।

ज़ालिम ने मेरे सर पे ज़रा हाथ क्या रखा,
रुतबा मेरा जहान से उपर है आजकल।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे एहतराम इस्लाम की ग़ज़ल को खूब दाद मिली-
वार्ताएं, योजनाएं, घोषणाएं फैसले
इतने पत्थर और तन्हा आइना निष्कर्ष का।
 



शुक्रवार, 8 जून 2012

गुफ्तगू के नरेश कुमार ‘महरानी’ अंक का हुआ विमोचन

  
 ‘मय का प्याला’ में हैं कई अनछुए पहलू
इलाहाबाद। नरेश कुमार ‘महरानी’ ने अपनी कृति ‘मय का प्याला’ में कई अनछुए पहलुओं को रेखांकित किया है, जिसे हर पाठक वर्ग पसंद करेगा। कुछ शिल्पगत कमियां होने के बावजूद कवि के इस प्रयास की सराहना की जानी चाहिए, साथ ही हमें उम्मीद करनी चाहिए कि नरेश की अगली रचना और भी बेहतर होगी। यह बात ‘गुफ्तगू’ पत्रिका के नरेश कुमार ‘महरानी’ अंक के विमोचन अवसर पर प्रसिद्ध उर्दू आलोचक प्रो. अली अहमद फ़ातमी ने कही। उन्होंने गुफ्तगू पत्रिका की सराहना करते हुए कहा कि आज के आर्थिक युग में साहित्यिक पत्रिका नौ वर्षों से प्रकाशित करना बड़ी चुनौती है, लेकिन गुफ्तगू की टीम ने इसे कर दिखाया है। 04 जून 2012 को विमोचन समारोह और मुशायरे का आयोजन हिन्दुस्तानी एकेडेमी में किया गया, जिसकी अध्यक्षता प्रो. फ़ातमी ने की, जबकि मुख्य अतिथि के रूप में भारतीय डाक सेवा के निदेशक कृष्ण कुमार यादव मौजूद रहे। विशिष्ट अतिथियों में शहर पश्चिमी की विधायक पूजा पाल, वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र, हाईकोर्ट के संयुक्त निबंधक हसनैन मुस्तफ़ाबादी, डाॅ. पीयूष दीक्षित प्रसिद्ध लेखक मेवाराम और सुलेम सराय के पूर्व सभासद मुकेश केसरवानी मौजूद रहे। संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया।
अपने संबोधन में कृष्ण कुमार यादव ने कहा कि गुफ्तगू का यह अंक अन्य अंकों के मुकाबले बेहतर दिखाई दे रहा है, इससे प्रतीत होता है कि पत्रिका ने काफी प्रगति की है। उन्होंने कहा कि नरेश कुमार की रचना ‘मय का प्याला’ कई मायने में उल्लेखनीय है, इन्होंने अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से शराब पीने वालों का विरोध किया है और कई दृश्यों से यह साबित किया है कि एक शराबी का परिवार कई तरह से प्रताडि़त होता है। नरेश कुमार ‘महरानी’ ने कहा कि मैंने अपने निजी अनुभवों से महसूस किया है कि जिस परिवार में एक भी व्यक्ति शराबी हो जाता है, वह परिवार बहुत दुःखी होता है। बड़ों से लेकर बच्चों तक का भविष्य चैपट हो जाता है। यह बात मुझे बहुत परेशान करती रही है, यही वजह है कि मैंने ‘मय का प्याला’ नामक कृति लिख डाली है। गुफ्तगू ने इसे अपने परिशिष्ट में शामिल करके लोगों तक पहुंचाने का काम किया है। शहर पश्चिमी की विधायक पूजा पाल ने कहा कि गुफ्तगू पत्रिका में प्रकाशित हर रचना पठनीय होती है, अच्छी बात यह है कि पत्रिका द्वारा समय-समय पर साहित्यिक आयोजन किये जाते हैं, जिसकी वजह से सरगर्मी बनी रहती है। वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र ने कहा कि नरेश कुमार ने एक अच्छा खंड काव्य लिखा है, उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से शराब पीने का विरोध किया है, जो निश्चित रूप से उल्लेखनीय है। डाॅ. पीयष दीक्षित ने कहा कि यह पत्रिका कई मायने में अन्य पत्रिकाओं से बेहतर है, यही वजह है कि इसके पाठकों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के निबंधक हसनैन मुस्तफ़ाबादी ने कहा कि शुरू से ही इस पत्रिका के तेवर ने लोगों को आकर्षिक किया है, इसमें एक ग़ज़ल प्रकाशित हो जाने पर दूर-दूर से पाठकों की प्रतिक्रिया मिलने लगती है, जिससे यह साबित होता है कि इसके पाठकों की संख्या लाखों में है। रविनदंन सिंह, मेवाराम और वीनस केसरी ने भी लोगों केा संबोधित किया।
 कार्यक्रम के संयोजक शिवपूजन सिंह ने कहा कि गुफ्तगू की टीम खासतौर पर नये प्रतिभाओं को सामने लाने का प्रयास करती रही है। लेकिन हम नये लोगों से यह अपेक्षा जरूर करेंगे कि वे कविता लिखने से पहले उसके व्याकरण की जानकारी ज़रूर हासिल कर लें। कार्यक्रम का संचालन कर रहे इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि ‘गुफ्तगू’ जनवरी 2013 में दस वर्ष पूरे करने जा रही है, बिना किसी संसाधन के हमने दस साल का सफ़र तय कर लिया है। इस अवसर पर हम जनवरी में एक अखिल भारतीय कार्यक्रम करने जा रहे हैं। उन्होेंने कहा कि सिर्फ़ प्रशंसा से पत्रिका नहीं चल सकती, इसलिए गुजारिश है कि इसकी सदस्यता अवश्य लें।
इस अवसर पर एहतराम इस्लाम, फरमूद इलाहाबादी, वीनस केसरी, अख्तर अजीज,  नंदल हितैषी, शकील ग़ाज़ीपुरी, अजीत शर्मा आकाश, शादमा ज़ैदी शाद, रमेश नाचीज, वाकिफ अंसारी आदि मौजूद रहे।