बुधवार, 30 जून 2021

रचनाओं में जीवन-जगत का अद्यतन स्वरूप



                                                
 अमर नाथ श्रीवास्तव

 कवि जमादार धीरज के गीत का समय है वह 40 वर्ष से उपर का है, इसलिए इनकी भाषा और काव्य दृष्टि को इसी संदर्भ में देखना और समझना ज़रूरी है। इनकी रचनाओं में जीवन-जगत का अद्यतन स्वरूप, जिसका एक सामाजिक सरोकार है, जगह-जगह देखने को मिलता है। लेकिन प्रकृति का वैभव और मनुष्य की गरिमा भी इनकी रचना केंद्र में हैं। जहां जीवन का  नाकारात्मक चित्रण है वहां भी ‘सबसे उपर मानुष....’ का भाव ही उभरकर सामने आता है। गीत एक मनः स्थिति विशेष और भावना विशेष के बिंदु का विस्तार है। इनके गीत चाहे रूपासिक्त को, निराश मन के उद्वेलन का है, चाहे देश प्रेम का, सबमें भावों के उद्मग का सफल विस्तार है। इस विस्तार का संप्रेषित करने में इनकी काव्य भाषा जो पिछले चालीस-बयालिस साल से अपना स्वरूप् निर्धारित कर रही है बहुत सहायक है। कभी-कभी तो आश्चर्य होता है कि ऐसी जन संप्रेष्य और जन संवेद्य भाषा का लोप क्यों होता जा रहा है ? क्या आधुनिकता के नाम पर जिस तरह हम बनावटी चमक-दमक में खुद की पहचान भूूलते जा रहे हैं, कभी भाषा के साथ भी तो ऐसा ही नहीं हो रहा है। समकालीनता और आधुनिकता के संदर्भ में निस्संदेह एक नई भाषा चाहिए जो अपनी जड़ से जुड़ी है। कवि जमादार धीरज की पहचान इनकी लोक भाषा की जड़ में है। इसको पहचानने के लिए इनकी अवधी की रचनाओं में भाव और भाषा की समृद्धि को पहचानना ज़रूरी है। मुझे याद है विद्वान समीक्षक डाॅ. राम विलास शर्मा ने अवधी अप्रतिम कवि पं. बलभद्र दीक्षित पढ़ीस को निराला को निराला के साथ ही उदकृत किया है। इन संदर्भ में उनका एक लेख भी महत्वपूर्ण है। 
  मैं जमादार धीरज की भाषा की जड़ इनकी अवधी ज़मीन में देख रहा हूं। इनकी एक कविता है ’सूखा’। कविता शुरू होती है-
                    हम कहा तेवार काउ करी
                    सूखा नहरा, बालू चमकड़
                    कीरा का केंचुल अस लपकड़
                    देखत-देखत अंखिया सूनी
                    ना बादर से टपकड़ बूनी
                    सूखी बेहनि, जरि गई बजरी
                    हम कहा तेरी काउ करी।
नहर का सूखना, सांप के केंचुल जैसा बालू का चमकना जैसा अप्रस्तुत विधान के साथ ही हम कहा तेवारी काउ करी, जैसा संबोधन जमादार की काव्य प्रतिमा को उद्भासित करता है। देस-जवार की चिन्ता, वहां की मिट्टी की खुश्बू और कीचड़-कांदो में सने रहकर भी इस मिट्टी की चमक से गौरवान्वित होने की अनुभूति और इस गौरव पर आये संकट की पहचान कवि धीरज की हिन्दी कविता में, इसी अवधी भाषा के शिल्प से आती है। इसलिए इनकी भाषा में शिल्प का प्रयोग कम है, लेकिन परंपरा के निर्वाह में नयेपन की एक चमक है, जो आजकल कम देखने को मिलती है।
  रचनाकार के गांव की मिट्टी देश की पवित्र मिट्टी बनती है और अपनी मातृभूमि की चिंता इनके गीतों में उजागर होती है। कवि काश्मीर की सुषमा और उस पर आये संकट को चित्रित करता है -
                           खुश नहीं क्यों आज बादल
                           वादियों को चूम कर
                           सेब की बगिया बुलाती
                           है नहीं क्यों झूमकर
                           क्यों कली कश्मीर की
                           सहमी हुई, सूखे अधर
                           झील की रंगीनियों को
                           लग गई किसी नज़र
जैसा मैंने पहले ही कहा कि इनकी भाषा को समझे बग़ैर इनकी कविताओं को समझना एक बंधे-बंधाये फार्मूले को अनुकरण जैसा ही होगा। जमादार धीरज के गांव की भारतीय नारी अब भी वही है जहां सालों पहले थी। उसकी मर्यादा इस आधुनिकता की दौड़ में भंग हुई है। गांव में शहरों के प्रवेश ने जीवन-मूल्य पर अर्थ को वरियता दी है। जिसकी शिकार सबसे पहले औरत है। इस चिन्ता को, जो उनके गांव की बहू बेटी की चिंता है और प्रकारान्तर से पूरे भारतीय समाज की चिंता है, रचनाकार ने अनेक रचनाओं में व्यक्त किया है। उनकी नारी शीर्षक की कविता में उस स्त्री की व्यथा-कथा है जो राजा की पत्नी होकर भी बेंच दी गई, दुर्दिन के बहाने। उस औरत की कहानी है जो वन में पति का साथ देती है, लेकिन वहां अपहृत हो जाती है। विरह की आग में झुलसती रही लेकिन जब दिन बहुरे तो उसे अग्नि-परीक्षा देनी पड़ी। कवि पूछता है कि इससे किस मर्यादा की रक्षा हुई। कवि उस साध्वी स्त्री का भी जिक्र करता है, जहां भ्रष्ट और कामान्ध देवराज यथावत है किन्तु अबोध स्त्री को शिला होने का शाप झेलना पड़ता है। ये सभी मिथक निरर्थक हो जाते हैं अगर रचनाकार इन्हें तन्दूर में भून डाली गई सुनयना के पति की क्रूरता के साथ चित्रित नहीं करता। यह संदर्भ पाकर प्रस्तुत कविता अत्याधुनिक हो जाती है और निसंदेह रचनाकार की सामाजिक चेतना और उसकी मूलदृष्टि स्पष्ट होती है। यद्यपि यह रचना छंद की है लेकिन इसमें जो लयात्मकता है, इसे गीत की कोटि में लाती है। 
  जमादार धीरज के गीतों के मूल में एक पीड़ा है जो प्रत्यक्ष उनकी निजी है लेकिन उसका दायरा बड़ा है। सम्प्रेषणीयता के स्तर पर मुक्ति बोध का कथन समीचीन है कि ‘जो वस्तु देखने में निजी होती है, कविता में उसके बहुत बड़े हिस्से पर देश और समाज होता है’। इस प्रकार इनकी रचना अपनी क्षमता के चलते बहुतों की हो जाती और पूरे समाज की चिन्ता से  
उद्वेलित है। कवि अपनी ‘आंसू’ कविता मे कहता है -
                        नये गीत सब गई उमंगे
                        एक साथ मिट गयी तरंगे
                        सूखे अधर कंठ रूठे हैं
                        अब स्वर में संगीत नहीं है
                        आंसू है, यह गीत नहीं है।
इन आंसुओं के कारक के तत्व रचनाकार की स्मृतियां हैं-
                        मन के सागर में उठती है
                        यादों की अविराम तरंगे
                        रह-रह कर उभरी आती है
                        बीते क्षण की छिपी उमंगे
                        छोटे से जीवन में साथी
                        तेरे मन की थाह न पाया
संभवतः यह गीत किशोरावस्था का है और इसमें बाद की ‘जीवन सांझ’ ढलती वय का गीत है। दोनों रचनाओं में रचनाकार की उम्र बोलती है। उम्र की इन सीढ़ियों का अनुभव कविता में रचनकार बहुत की कुशलता से व्यक्त करता है। इन गीतों को ‘वियोगी होगा पहला कवि’ जैसी प्रसिद्धिा भले न मिले लेकिन इनकी भाव-सघनता रसात्मक है जो नहीं भूलती। यह समझना आनंदायक है कि रचनाकार के जीवन की निराशा में प्यार का रूप है या असफलता उसे जीवन की असफलताओं के रूपक से जोड़ती है। रचनाकार कहता है-‘ गीत रूठे हुए कंठ सूखे हुए, शब्द अधरों पे आने से डरने लगे’ लेकिन इसी पीड़ा के आसपास न घूम कर वह कहता है ‘ जल रहे हैं दिये पर हटा तम नहीं, हम सजाते हुए थाल चलते रहे’। प्यार की निराशा से उपजे अंधेरे का विस्तार तो रचनाकार की काव्य चेतना में है, लेकिन वह जगह-जगह रोशनी तलाशता है। इस तलाश में उसके अंदर आशा और उत्साह की तरंगें भी  उपतजी हैं। वह जीवन के प्रति सकारात्मक हो उठता है। लेकिन इससे पहले वह दर्द को गीत में बदलता है। इन गीतों में अपसंस्कृति का दर्द तो है ही। एक जगह रचनाकार कहता है-
                       कामना मन में यही, सरिता बहा दूं प्यार की
                       पर सदा मिलती रही सौग़ात मुझको हार की
                       लोग मेरी हार के उपहार पर हंसते रहे
                       हर कदम की हार को मैं जीत ही लिखता रहा
                       मैं नयन में नीर भरकर गीत ही लिखता रहा।
कवि अपने पराजय के क्षणों में भी उम्मीद की डोर नहीं छोड़ता। उसका सौंदर्य बोध एक समानांतर भाव भूमि का स्जन करता है। प्रकृति के विस्तृत प्रांगण में बसे हुए गांव अपनी गरीबी और अभाव के बावजूद वसंतागमन के उल्लास से प्रफुल्लित हो जाते हैं। इस उल्लास में कृषक और श्रमिक नारियां कहां पीछे रहने वाली हैं -
                        प्रातगात पुलकित हिय हर्षित
                        हंसिया हाथ लगाये
                        चलीं खेत को कृषक नारियां
                        नयनों में मुस्कायें
                        हाथ मिलाये चले मगन मन
                        गाते नूतन गीत रे।


जमादार धीरज


 रचनाकार की काव्यदृष्टि विस्तार पाती है। कविताओं में लोकमंगल की कामना जगह-जगह देखते बनती है। इन्हीं भावनाओं से प्रेरित और अपनी विरासत पर गर्व करने वाले रचनाकार जमादार धीरज की दृष्टि कभी अरुणाचल की सुषमा को समेटने का प्रयास करती है, मदर टेरेसा को अंतिम प्रणाम देेती है और देश के वीर जवानों को याद करती है। रचनाकार का निजत्व देश और समाज से जुड़ता है। लोक जीवन और लोक संस्कृति इनकी रचनाओं का आधार है। जिसमें शिल्प का अंधानुकरण नहीं करतीं। ये उन कवियों में भी नहेीं आते जो निरंकुश हुआ करते हैं। फिर भी इनकी हिन्दी का ग्राम्यत्व जो छंद और भाषा के स्तर पर है, एक चुनौती है। यह संस्कृतनिष्ठ हिन्दी प्रेमियों को चैंकाता ज़रूर है। लेकिन हिन्दी प्रेमियों को रुचिकर है। भरत मत के पुष्ट करते हुए भोज के ‘ग्रात्यत्व’ को विद्वदजनों की  उक्ति में गुण माना है, जो प्रत्यक्षत: उनकी दृष्टि में एक दोष है। किन्तु हिन्दी के वैयाकरण आचार्य भिखारी दास तो भाषा और भाव की समृद्धि की दृष्ट से इसे स्वीकार नहीं करते। उनका कहना है-

                     ‘कहूं भदेषों होत कहुं, दोष होत गुन खान’

हिन्दी जैसी जीवित भाषा अपनी खुराक लोकभाषा से लेती है। यहां प्राय: ग्राम्यदोष एक सकारात्मक पक्ष है। भरत मुनि के शब्दों में भी दोष का विपर्यय गुण है। ‘न्यून पदत्व’ एक दोष है। इसके विपर्यय के लिए जमादार धीरज देशज और तद्भव शब्दों का प्रश्रय लेते हैं। रचानाकार ने एक ऐसी भाषा स्वीकार की है जो सरल, सर्वमान्य और सर्वग्राहा्र है। इनके शब्दों में पारंपरिक शब्द जैसे गीत, दर्द, दीपक, अंधेरा, जीत, हार, सौगात आदि का व्यवहार है क्योंकि ये शब्द लोकभाषा में यथावत है और इन्हें समझ लेने से कविता की चमक बढ़ जाती है। इनकी रचनाओं में बिम्ब-विधान संक्षिप्त और धारदार छंद कम हैं, क्योंकि कवि आवश्यकतानुसार वर्णनात्मक कविताओं में ही संवेदना और सप्रेषणीयता के गवाक्ष खोलता है, और अन्य आलम्बन तलाश करता है। कुछ ऐसी रचनाएं भी हैं जो कवि की काव्य दृष्टि की ओर संकेत करती हैं। ‘वक़्त आया सरकता गया पास से, हम खड़े बस बगल झांकते रहे गये साथ में जो बहे वे किनारे लगे, हम खड़े धूल को फांकते रह गये’। रचनाकार 26 जनवरी के गीत में भी कहता है -

                        आज देश पर ताक लगाये

                        तत्व स्वार्थी भ्रष्ट निगाहें

                        उनसे हमें सजग रहना है

                        चलो रोक दें उनकी राहें

                        हम प्रहरी है सजग राष्ट्र के

                        आओ स्वयं दीप बन जायें।

इस उद्बोधन गीत की मूल दृष्टि भगवान की ‘अत्त दीपो भव’ है। कवि अपनी एक कविता में कहता है।

                  मन को छलकर जीते-जीते जीवन भार हुआ

                  मीठे विष को पीते-पीते तन बेज़ार हुआ।

कविता में जो नकारात्मक है वह प्रकारान्तर में एक सकारात्मक भाव का सृजन करती है। विचारों में कहीं न कहीं एक दार्शनिकता है। जमादार धीरज की कविताएं पुराने शिल्प में  नवता की संकल्पना ज़रूरी हुआ तो उद्बोधन का भी आश्रय लेती है। इनकी रचनाओं में देश, समाज, गांव-घर और स्वयं की पीड़ा है, सुख-दुःख है और तद्जनित एक मूलदृष्टि है।

(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2020 अंक में प्रकाशित)



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