गुरुवार, 17 जून 2021

’सौम्य, सुशील जमादार धीरज’


  
                    
     श्रीराम मिश्र ‘तलब जौनपुरी’

                                       

 जमदार धीरज से मेरी मुलाकात का सिलसिला कवि गोष्ठी, कवि सम्मेलन एवं मुशायरों के माध्यम से सन, 1990 के आसपास शुरू हुआ। निरंतरता के साथ नज़दीकी और अंततः दोस्ती में तब्दील हो गया और उनके जीवन पर्यंत बदस्तूर प्रगाढ़ता के साथ निभाता चला गया। जिससे मुझे धीरज जी के बारे मे जानने-समझने का अवसर मिला। उनके संबंध में आगे  कुछ कहने से पहले मैं उनके साहित्यिक गुरु स्व. डाॅ. श्रीपाल सिंह ‘क्षेम’ के गीत का एक चर्चित मुखड़ा उद्धृत करना चाहता हूं-
           एक पल ही जियो फूल बन कर जियो ,
           शूल बन कर ठहरना नहीं ज़िन्दगी।
जमादार धीरज के जीवन का यदि हम समग्रता के साथ सिंहावलोकन करें तो हमें उपरोक्त पंक्तिया पूर्ण रूप से चरितार्थ होती दिखती हैं। फूलों की तरह सुकोमल व्यक्तित्व, हमेशा मुस्कुराता हुआ चेहरा, शांत सौम्य स्वभाव, हरदिल अज़ीज़, अजातशत्रु जमादार धीरज एक मोहक व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति थे। कोई भी मिलने-जुलने वाला व्यक्ति उनके आकर्षण से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। सांसारिक जीवन में संतुलन बनाकर जीवन यापन करना भी एक तरह की बहुत बड़ी साधना  होती है जो धीरज जी के जीवन में स्पष्टतः दृष्टिगोचर है। एयरफोर्स जैसे संवेदनशील विभाग में एक राजपत्रित अधिकारी के उत्तरदायित्व को बखूबी निभाते हुए एक कुशल गृहस्थ एवं उच्चकोटि के स्थापित साहित्य कार के जीवन में जो समन्वय बना कर धीरज जी ने  सफल जीवन जिया है वह क़ाबिल-ए-तारीफ है। अक्सर साहित्यकारों में देखा जाता है कि वह घर-गृहस्थी के प्रति कुछ उदासीन जरा फक्कड़पन लिए हुए होते हैं लेकिन धीरज जी इसके अपवाद रहे हैं। उनका साहित्यिक और गृहस्थ जीवन दोनों सजे संवरे रहे हैं।
 



 धीरज जी के सभी बच्चे सभ्य, सुशील एवं मिलनसार हैं। अपने-अपने कार्य में लगे हुए, उनकी एक बेटी श्रीमती मधुबाला गौतम स्थापित कवयित्री हैं, जो धीरज जी की विरासत को बखूबी आगे बढ़ा रही है। धीरज जी के घर पर सजने वाली अदबी महफ़िलों में उनके बच्चे  अपनी-अपनी सामथ्र्य के अनुसार बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। ख़ासकर सम्मिलित होने वाले कवियों और शायरों के आवभगत एवं खान पान की व्यवस्था बच्चों के हाथ में होती थी जिसको वह लोग बखूबी निभाते रहे हैं।

             कबिरा खड़ा बजार में दोनों दल की ख़ैर,

             ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।

कबीर का यह दोहा इस पड़ाव पर मुझे अनायास ही नहीं याद आ गया इसके पीछे धीरज जी की और मेरी शुरूआती मुलाक़ात के ज़माने की साहित्यिक संस्था ‘राष्ट्रीय साहित्य संगम’ है जो आज भी सक्रिय है, का बड़ा रोल है। राष्ट्रीय साहित्य संगम का सृजन अभी  नया-नया ही हुआ था कुछ प्रतिष्ठित साहित्यकार धीरज जी सहित इसकी कार्यकारिणी में पदाधिकारी थे संस्था बहुत जोश ओ ख़रोश के साथ आगे बढ़ रही थी। इसकी साहित्यिक गतिविधि चरम पर थी, इसी दरम्यान कुछ अप्रिय घटना घट गई संस्था के मुख्य पदाधिकारियों के बीच उत्पन्न विवाद स्वरूप संस्था टूट कर दो भागों में विभक्त हो गई एक मूल संस्था राष्ट्रीय साहित्य संगम और दूसरी अक्षयवट राष्ट्रीय साहित्यिक एवम् सांस्कृतिक संस्था। जाहिर सी बात है  संस्था के पदाधिकारीगण भी अपनी-अपनी पसंद के मुताबिक बंट कर अलग-अलग संस्थाओं से जुड़ गए। मेरे आश्चर्य का ठिकाना तब नहीं रहा जब मैंने देखा जमादार धीरज दोनों संस्थाओं से शिद्दत के साथ जुड़कर पदाधिकारी के रूप में कार्यरत हो गए। धीरज जी का द्रष्टा भाव तो यह था, दुनिया में रहकर दुनिया से निर्लिप्त रहना। ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर ऐसे लोग विरले ही मिलते हैं। वे जितने अच्छे साहित्यकार थे उससे अच्छे व्यक्ति थे। जितना अच्छा लिखते थे उससे अच्छा पढ़ते थे।

 उनकी रचनाएं कवि सम्मेलनों, गोष्ठियों में खूब वाह-वाही लूटती थी। आप छान्दस गीत के मर्मज्ञ थे। आपने अपनी कविताओं में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राजनीतिक, आध्यात्मिक, समाजिक आदि विभिन्न पहलुओं पर सम्यक प्रकाश डाला है। युग प्रवर्तक डाॅ. भीमराव अम्बेडकर जी पर तो आपका एक पूरा प्रबन्धकाव्य ही है। धीरज जी की दर्द हमारी जीत हो, युग प्रवर्तक डा.भीमराव  अम्बेडकर, आंखिन की पुतरी बिटिया, दलित दर्पण एवं भावांजलि आदि कृतियां मंजर ए आम पर हैं जो बराबर पढ़ी व सराही जा रही हैं। आपकी कविताओं को प्रकाशन विभिन्न प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्रों एवम् पत्रिकाओं में होता रहा है। आपकी कविताओं का प्रसारण आकाशवाणी एवम् दूरदर्शन पर भी होता रहा है। देश की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं से धीरज जी सम्मानित हुए हैं, जो उनकी साहित्यिक स्तरीयता का परिचायक है।

 यह जानकर प्रसन्नता हो रही है कि देश की प्रतिष्ठित पत्रिका ’गुफ़्तगू’ धीरज जी पर एक विशेषांक प्रकाशित करने जा रही है। जिसके लिए मैं संस्था के बानी इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी को बहुत बहुत मुबारकबाद पेश कर रहा हूं। यह बहुत ही सराहनीय कार्य है। धीरज जी जैसे लोग विरले ही मिलते हैं। अतः मैं अल्लामा इक़बाल का एक शेर

                हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पर रोती है,

                बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।

उद्धृत करते हुए जमादार धीरज जी को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा हूं। भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे।

( गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2020 अंक में प्रकाशित )

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