प्रो. सोम ठाकुर |
जमादार धीरज |
संसार में मनुष्य निष्कलंक संस्कार लेकर जन्म लेता है, किन्तु जगत में आकर वह यहां के मायाजाल में विकृतियों से घिर जाता है। इस भाववता को कवि ने निम्न पंक्तियों में व्यक्त किया है -
ढ़ूढ़ता सुख रहा दुख के संसार में
हर कदम आंसुओं से भिगोता रहा
एक पीड़ा-कसक-दर्द, तड़पन चुभन
झेलता मैं सिसकता ही रोता रहा
धोर के तम का पड़ा सोच का आवरण
अर्थ उन्माद ने ऐसा पागल किया
बस मुखौटे बदलता रहा रात दिन
छल कपट द्वेष पाखंड में ही जिया
देने वाले ने दी थी धवल ज़िन्दगी
बीज मैं वासनाओं के बोता रहा।
नारी कविता की मूल प्रेरणा स्रोत होती है। प्रिया के अभवा सृजन अकर्मण्यता की ओर अग्रसर होता है -
बासठ बरस संग बिताये पलों को
बताओ भला भूल पायेगें कैसे
तुम्हारे बिना लेखनी आज गुम सुम
भला गीत के भाव आयेंगे कैसे।
तुम्ही शब्द हो, छन्द हो, गीत हो तुम
तुम्ही गीत बनकर हो अधरों पे आई
तुम्ही गीत उद्गम, तुम्हीं प्रेरणा हो
प्रथम गीत सुनकर तुम्हीं मुस्कुराई
सदा प्यार में थी लपेटी शिकायत
तुम्हें गीत रचकर सुनायेंगे कैसे।
जमादार धीरज ने ऋतु प्रसंगों को बड़े कौशल से आत्मसात किया है, जो निम्न पंक्तियों से दृष्टव्य है -
फागुन में बहकी बहार बहे मस्त-मस्त
जन-जन के मन में उमंग आज होली में
बौराई बगिया में गंध उठे मदमाती
झूम-झूम गाये विहंग आज होली में
पीली चुनरिया में सर सैया शरमाये
गदराये गेहूं के संग आज होली में
मौसम वासंती है, जीव जन्तु मस्त हुए
जंगल में नाचे कुरंग आज होली में
उपर्युक्त पंक्तियों में कवि ने फगुनाहट को पूर्ण सशक्त ढंग से शब्दायित किया है। नारी अस्तित्व और उसके सशक्तीकरण पर कवि ने बल दिया है -
सदियों से चलता चला आ रहा है
नारी के श्रम का यही सिलसिला है
कहते हैं देवी जनम दायिनी पर
विरासत में उसको कहो क्या मिला है?
पारिवारिक परिवेश पर हिन्दी में बहुत कम लिखा गया है। डाॅ. कुंवर बेचैन और डाॅ. सरिता शर्मा ने इस दिशा में अच्छे गीत लिखे हैं। जमादार धीरज ने बहन को श्रद्धांजलि देते हुए भलीभांति संवेदना को निम्न पंक्तियों में व्यक्त किया है-
क्यों मौन हुई कुछ बोली तो
मन कहता है तुमसे बात करूं
तुम बसी हुई तो वादों में
मैं क्या भुलूं? क्या याद करूं?
सर्वहारा वर्ग के प्रति कवि ने सकारात्मक ढंग से अपने गीत व्यक्त किये हैं, जिसमें लेबर वेलफेयर की सुगंध का अनुभव किया जा सकता है -
दो संस्कृतियों की सहमति से
जब समुद्र मंथन होता है
अमृत-विष के बंटवारे में
ठगा हुआ-सा श्रम रोता है
समाज के साथ सायुज्य के दायित्व पर जमादार धीरज ने बल दिया है -
साथ जो न ज़माने के ढल जाएगा
ज़िन्दगी को ज़माना ही छल जाएगा
वक़्त पहचानिए जो रुकेगा नहीं
अपना चेहरा छुपाये निकल जाएगा।
नाम सबका न इतिहास बनता यहां
काल कितनों को बैठा निगल जाएगा
आह को मैं सवारूं इसी चाह से
गीत में दर्द अपना बदल जाएगा।
उपर्युक्त पंक्तियों में पाठकों को नागरी ग़ज़ल की सुगंध अवश्य मिलेगी। हिन्दी में ऐसे कवि बहुत कम हैं, जिनको खड़ी बोली के साथ-साथ लोकभाषा में भी महारत हासिल हो। जमादार धीरज ने अवधी में अनेक रस-सिक्त गीतों की रचना की है। कवि ने गीत-ग़ज़ल और दोहों में भी अपनी रचनाशीलता का परिचय दिया है। जमादार धीरज ने जीवन, समाज, राजनीति आदि सभी पाश्र्वों का सफलतापूर्वक स्पर्श किया है।
( गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2020 अंक में प्रकाशित)
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