डॉ. विधु खरे दास |
- ऋतंधरा मिश्रा
डॉ. विधु खरे दास का जन्म बहराइच में हुआ। इनके पिता इलाहाबाद के माध्यमिक शिक्षा परिषद में डिप्टी सेक्रेटरी थे। विधू खरे की रुचि रंगमंच की गतिविधियों में रही, प्रारंभिक पढ़ाई द्वारिका प्रसाद गल्र्स इंटर कॉलेज से इंटरमीडिएट, ईसीसी से ग्रेजुएशन और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से मास्टर्स किया। छात्र जीवन से ही मंच की गतिविधियों से जुड़ गईं। साइंस की स्टूडेंट होने के कारण इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के जुलॉजी डिपार्टमेंट मंे अनिता गोपेश, स्वर्गीय पी के के साथ जुड़ गईं। पीके मंडल और अनिल रंजन भौमिक के साथ बहुत सारे नुक्कड़ नाटकों मे काम किया। बहुत से गांवों में गईं, लखनऊ मे भी खूब काम किया। नेहरु युवा केंद्र के लिए भी नुक्कड़ किया।
ये सब करते-करते डॉ. विधु खरे दास का मन इसी में रमने लगा। स्पार्टाकस नाटक में अभिनय करने के बाद परिपक्वता आने लगीं। हालांकि यह काम घर वालों को बिल्कुल पसंद नहीं आ रहा था। एमएससी पूरा हो जाने पर बीएड करने के लिए अवध यूनिवर्सिटी प्रतापगढ़ चली गईं। प्रतापगढ़ में बीएड करने के साथ वहां भी खूब थिएटर किया। खुद ही लिखतीं थी खुद की नाटक करती थी, खुद ही डायरेक्ट भी करती थी। उस समय मोहन राकेश कृत ‘अण्डे के छिलके’ किया जो पहला बड़ा डायरेक्ट नाटक था। बीएड पूरा करने के दौरान ही नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा का फॉर्म आया था, कथाकार मार्कंडेय जी और दूधनाथ की प्रेरणा से एनएसडी के लिए अप्लाई किया, जहां इनका चयन हो गया। एनएसडी के बाद फेलोशिप मिल गई तो मुंबई चली गईं। मुंबई में टेलीविजन, फिल्म इंडस्ट्री में काम भी किया, लेकिन ज्यादातर समय रंगमंच को दिया। अपना प्रोडक्शन किया जो खुद का लिखा हुआ था नाम था ‘अन्तर्बहियात्रा’ ये महिला पात्रो पर आधारित नाटक था। भारतीय व पश्चिम के विभिन्न नाटको की महिला पात्रों को एकत्रित करके एक स्क्रिप्ट बनायी थी। फिर मुंबई से वापस आ गईं, एन एस डी के टाई विंग के साथ मिलकर एक्टर टीचर की तरह एक साल काम किया। फिर दिल्ली और पूरे देश मे घूम-घूम कर कार्यशालाएं की। एनएसडी के एक्सटेंशन डिपार्टमेंट के साथ जुड़ गईं। विभिन्न निर्देशकों जैसे अनुराधा कपूर, कीर्ति जैन, फैजल अलकाजी, विपिन शर्मा अमिता उत्गाता आदि के साथ काम किया।
प्रतिवर्ष इलाहाबाद आकर सचिन तिवारी के मार्गदर्शन में कैंपस थिएटर के अंतर्गत एक नाटक करती रहीं। सीतापुर, चित्रकूट, आजमगढ़ आदि जगहो में भी कार्यशालाएं आयोजित की। भारतेंदु नाट्य अकादमी में वही रहकर कुछ समय तक अध्यापन कार्य किया। छात्रों के साथ प्रोडक्शन किया। रंगमंच में काम करने के लिए मंत्रालय से जूनियर व सीनियर फेलोशिप भी मिली। प्रो. देवेन्द्र राज अंकुर के मार्गदर्शन में रंगमंच मे ही पीएचडी भी कर लिया। सन 2011 से महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के ड्रामा विभाग में अध्यापन का कार्य किया।
डॉ. विधु खरे का कहना है कि आज समाज में स्त्री व पूरुष सभी को बराबर का दर्जा दिया जाता है, किंतु यह पूर्ण सच्चाई नहीं है। वास्तव मे रंगमंच मे महिलाएं अब भी गिनी-चुनी ही हैं। खासतौर पर अभिनेत्री बहुत ही कम है, क्योकि परिवार व समाज दोनों साथ नही देता। जबकि रंगमंच समाज का ही हिस्सा है । रंगमंच संदेश देने का कार्य नहीं करता वरन रंगमंच स्वयं एक संदेश है। आप मंच पर क्या दिखा रहे है यह अवश्य महत्वपूर्ण है। हमें रंगमंच पर गरिमा सौंदर्य तथा अनुभूति का एक विश्वसनीय स्तर बनाये रखना चाहिएं। रंगमंच पैसा कमाने का माध्यम नहीं है। ये एक बहुत ही पारिश्रमिक कला स्वरूप है। रंगमंच मे आनें वाले कलाकारो को सिर्फ़ पैसा कमाने के लिए इसमे नही आना चाहिये। डाॅ. विधु वर्तमान समय में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।
(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2021 अंक में प्रकाशित)
1 टिप्पणियाँ:
जानकारी देने के लिए शुक्रिया।
एक टिप्पणी भेजें