प्रो. ओपी मालवीय से साक्षात्कार लेते प्रभाशंकर शर्मा |
इलाहाबाद में सांप्रदायिक सौहार्द के प्रतीक 85 वर्षीय रिटायर्ट प्रोफेसर ओपी मालवीय का वास्ता आज भी सामाजिक सरोकारों के साथ-साथ शिक्षण कार्य से है। ‘गुफ्तगू’ के उप संपादक प्रभाशंकर शर्मा और अनिल मानव ने आपसे मुलाकात कर बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत के संपादित अंश-
सवाल: सबसे पहले आप अपने शुरूआती जीवन के बारे बताइए ?
जवाब: मेरा जन्म 17 सितंबर 1933 को एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में रानीमंडी, इलाहाबाद में हुआ। हम 50 वर्षों से कल्याणी देवी मोहल्ले में रह रहे हैं। मेरी शिक्षा म्युनिसपल स्कूल और राजकीय विद्यालय से हुई। अध्ययन के प्रति अभिरुचि होने के कारण मुझे सफलता मिलती गई। इंटरमीडिएट परीक्षा में उस समय मुझे प्रदेश में तीसरा स्थान मिला था। मैंने एमए अंग्रेजी विषय से किया, उसमें भी अच्छा स्थान रहा। हमारे समय में अच्छा एकेडेमिक कैरियर होने पर तुरंत नौकरी मिल जाया करती थी। फिलहाल मेरे परिवार में पांच पुत्र और उनकी संतानें हैं।
सवाल: आप कई वर्षों तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर रहे, उस दौरान के माहौल के बारे में बताइए ?
जवाब: विश्वविद्यालय में मेरा अनुभव सुखद और प्रेरणादायक था। विश्वविद्यालय में कभी-कभी छात्र आंदोलन भी चलते थे, दूसरी तरफ कक्षाएं भी चलती थीं। एक तरफ छात्र आंदोलन और दूसरी तरफ अविरत पाठ्यक्रम, ये मेरे लिए अच्छा अनुभव था।
सवाल: आपके समय में फ़िराक़ गोरखपुरी साहब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में थे, उस समय उनका क्या प्रभाव था ?
जवाब: मैं व्यक्तिगत रूप में फ़िराक़ साहब को जानता हूं। फ़िराक़ साहब मेरे आदरणीय रहे हैं। उन्होंने मुझे यह अवसर प्रदान किया कि मैं उनके चरणों के निकट बैठकर अनेक विषयों पर उनसे चर्चा कर सकूं। मैंने उनके उपर 14 मिनट की एक टाॅक तैयार की थी। मैं उनसे बहुत ही प्रभावित था, वे मेरे लिए बहुत ही प्रेरणादायक गुरु थे। उनके बारे में फैलाई गई भ्रांतियां द्वेषपूर्ण हैं। वे पढ़ाने में बहुत ही दिलचस्पी लेते थे। यह मेरा सौभाग्य था कि मैंने उनकी अंग्रेज़ी की रेग्युलर क्लासेज और सेमिनार अटेंड की है। मैंने उनकी ग़ज़लों को ताल और राग में निबद्ध किया है और इनका शास्त्रीय गायन भी किया है।
सवाल: आप शिक्षा जगत से जुड़े रहे हैं, बदलते परिवेश में क्या शिक्षा का पैटर्न बदलने की ज़रूरत है ?
जवाब: यह तो प्रतिक्षण महसूस हो रही है, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जो सत्तारूढ़ लोग हैं, वे शिक्षा के सुधार की तरफ वास्तविक ध्यान नहीं दे रहे हैं। समय-समय पर उनके वक्तव्य प्रकाशित हो जाने से कोई लाभ नहीं है। शिक्षा में आमूल-चूल सुधार की आवश्यकता है। हमारा ‘डेमोग्राफिक डिवीडेंड’ यानी की कार्यशील युवकों की संख्या सर्वाधिक है। चीन औंर सारा यूरोप बूढ़ा हो रहा है। हमारे नवयुवक उर्जा संपन्न हैं, दृष्टि संपन्न हैं लेकिन ये अपने भविष्य के प्रति आश्वास्त नहीं हैं। इसके लिए जिस राजनीतिक संकल्प की आवश्यकता होनी चाहिए उसका बिल्कुल अभाव है।
सवाल: क्वालिटी एजुकेशन के मामले में सरकारी शिक्षण संस्थान एवं प्राइवेट शिक्षण संस्थान में क्या अंतर है ?
जवाब: बहुत बड़ा अंतर है। पहले तो हमारे सरकारी संस्थान थे, जिन्होंने बहुत बड़ा योगदान लोगों को शिक्षित करने में किया है। उनकी पूरी उपेक्षा हो रही है और इंग्लिश मीडियम के प्राइवेट संस्थान हैं इनका मुझे बहुत निकट का प्रतिक्षण अनुभव है। प्राइवेट संस्थानों में शिक्षक उतने योग्य नहीं हैं फिर भी छात्रों से फीस बहुत अधिक ली जाती है, ये मेरे लिए चिंता का विषय है। राजकीय विद्यालयों की उपेक्षा हो रही है, अध्यापक राजकीय विद्यालयों में पढ़ाने के लिए तैयार हैं, किंतु विद्यार्थी कम मिल रहे हैं। राजकीय विद्यालयों की उपेक्षा हो रही हंै और सारा ध्यान निजी अंग्रेज़ी स्कूलों पर दिया जा रहा है। यह मेरा दुखद अनुभव है और इसके बारे में मैं बड़ी निस्सहायता का अनुभव करता हूं।
सवाल: आज के सामायिम परिवेश में अंग्रेज़ी शिक्षा के संदर्भ में क्या कहना चाहेंगे ?
जवाब: मेरी शिक्षा किसी प्रकार से अंग्रेज़ी या निजी विद्यालय में नहीं हुई, लेकिन मैंने अंग्रेजी को अध्यापन विषय के रूप में चुना। अंग्रेज़ी के प्रति मेरा लगाव है अंग्रेज़ियत से मेरा सख़्त विरोध है।
सवाल: आपने कब्रिस्तान में पौधरोपण का कार्य कराया, इसका ख़्याल आपको कैसे आया ? क्या इसका कोई सामाजिक या धार्मिक विरोध नहीं हुआ ?
जवाब: यह बड़ा अच्छा प्रश्न हैं, इसके दो पहलू हैं। पहला तो यह कि पौधरोपण के प्रति मेरा रूझान क्यों हुआ। मैंने पढ़ाई के समय पंचमुखी महादेव विशाल शिवमंदिर के नीचे बैठकर पढ़ाई की है तो वृक्षों के प्रति मेरा मोह रहा है। दूसरी बात यह कि 1970 में एक कांफ्रेंस हुई ‘सेव द अर्थ’ उस कांफ्रेंस में बहुत सी बातें उभकर आईं, उसमें मैंने अनुभव किया कि पौधरोपण का कार्य प्रत्येक व्यक्ति कर सकता है। कब्रिस्तान को मैंने प्रयोग स्थली बनाया और उस समय वृक्षों के सींचने के लिए बड़ी दूर से पानी लाना पड़ता था, जिसमें हमारे परिवार और हमारे विद्यार्थी सहयोग करते थे। मेरे पौत्र उत्कर्ष और पुत्र परिमल भी इस कार्य में लगे रहते थे। उत्कर्ष की दादी हर गुरुवार को मुख़्तार बाबा की मजार पर जाती थीं। उन्हीं के आग्रह पर कब्रिस्तान में पौधे लगाने की प्रेरणा मिली। कुल मिलाकर कब्रिस्तान पर पौधरोपण का ज्यादा विरोध नहीं हुआ, बल्कि सकारात्मक सहयोग ही मिला। हम लोगों ने पौधरोपण के लिए ‘वृक्ष मित्र समाज’ नामक संस्था भी बनाई है।
सवाल: 1992 के दंगों के समय शहर में कफ्र्यू लगा था, तब के माहौल के विषय में कुछ जानकारी दें ? शहर के क्या हालात थे और आपको कैसे हालात का सामना करना पड़ा ?
जवाब: 1992 के दंगों के प्रारंभ में तो घोर निराशा थी। ऐसा लगा कि कल्याणी देवी और दरियाबाद मोहल्ले आपस में विभक्त हो गए हैं और हम लोग आपस में मिल ही नहीं पाएंगे। फिर हम लोग बनवारी लाल शर्मा जी से मिले और हम लोग ने निकलना शुरू किया। लोगों से मिलकर सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया। सामंजस्य स्थापित करने में जितना सहयोग हमें मुसलमानों से मिला उतना हिंदुओं से नहीं मिला। हो सकता है इसके पीछे कोई कारण या सुरक्षा की भावना रही हो। अंत में लोगों में सहयोग की भावना पैदा हुई और फिर धीरे-धीरे एक-आध हफ्ते में ही माहौल सामान्य हो गया। हमारे यहां सहयोगपूर्ण वातावरण रहता है। रमजान के महीने में हमारे यहां इफ्तार पार्टी में सभी लोग आते हैं।
सवाल: इलाहाबाद में सांप्रदायिक सौहार्द बढ़ाने के लिए आपने बहुत काम किया है। सांप्रदायिकत सौहार्द बढ़ाने के लिए देश के मौजूदा हालात में क्या कदम उठाने की ज़रूरत है ?
जवाब: आर्थिक असमानता पूरे देश को एक सूत्र में बांधने में बाधक बन रहा है। सबसे ज़्यादा आवश्यकता है कि आर्थिक प्रगति हो। हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने इसी उद्देश्य से आर्थिक प्रगति के लिए योजना आयोग बनाया था, जो अब नहीं रहा। इस समय मैं रामचंद्र गुहा की एक पुस्तक पढ़ रहा हूं, जिसका नाम ‘भारत गांधी के बाद’ है। इसमें बड़ी ही निष्पक्षता, तटस्थता एवं भावुकता के साथ उस समय की समस्याओं का वर्णन किया है। आर्थिक प्रगति, असमानता के निराकरण के साथ एकेडेमिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम, साहित्य व संगीत की गोष्ठियों में सांप्रदायिकता की दीवारें टूट जाती हैं। मैं आशा और प्राथना करता हूं कि देश के इस तरह का वातावरण बने। पं. नेहरु जी का वाक्य ‘हू लाइव्स इफ इंडिया डाइज? हो डाइज इफ इंडिया लाइव्स’ अर्थात भारत देश के जिन्दा रहने पर कोई नहीं मरेगा और अगर भारत नहीं है तो आप कहीं नहीं हैं। इस देश को बनाने और संवारने में एक-एक व्यक्ति का योगदान है और हमें अपने नौजवनों को सिखाना है कि वे अपने एक-एक क्षण का प्रयोग अपने अध्ययन और देश के निर्माण में करें।
सवाल: इलाहाबाद को आप लंबे अर्से से देख रहे हैं। आप तब के इलाहाबाद और अब के इलाहाबाद में क्या अंतर महसूस करते हैं?
जवाब: अंतर तो महसूस करते हैं पर वास्तविकताा यह है कि पिछले काफी दिनों से मैं इसी कमरे में रहता हूं। आज के इलाहाबाद को देखने का मुझे उतना अवसर नहीं मिला। सार्वजनिक कार्यक्रमों में शामिल होता हूं, जिसमें तात्कालिक उद्देश्य की तो पूर्ति हो जाती है पर आपके इलाहाबाद के बारे में मुझे उतनी जानकारी नहीं है।
सवाल: जहां तक हमें जानकारी मिली है कि आप रिटायरमेंट के बाद भी विदयार्थियों को निःशुल्क ट्यूशन देते हैं ?
जवाब: जो विद्यार्थी फीस दे सकते हैं उसने आंशिक रूप में फीस लेता हूं और इसका एक हिस्सा सामाजिक कार्य में लगाता हूं। अभी तक मैंने बड़ी तल्लीनता के साथ शिक्षण कार्य किया है। पिछले एक-दो वर्षों से पढ़ाने में कठिनाई भी हो रही है, अब हो सकता है घर पर शिक्षा देने का कार्य उस गति से न चल पाए। जितने विद्यार्थियों को मैंने विश्वविद्यालय में पढ़ाया होगा उससे कहीं अधिक बच्चों को मैंने घर पर पढ़ाया है। मेरा फीस हमेशा नाम मात्र हुआ करती थी। मैंने अभी तक किसी बच्चे से 150 रुपये से ज़्यादा फीस नहीं ली है।
सवाल: आज के समय में प्रगतिशील लेखक मंच कहां तक प्रासंगिक है ?
जवाब: प्रासंगिक तो बहुत है, उसे हमेशा प्रासंगिक होना चाहिए क्योंकि यह ऐसे लेखको और साहित्यकारों का संगठन है जिसका उद्देश्य प्रगतिशील विचारों को संरक्षित करना और आगे बढ़ाना है। किंतु दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि इस समय मैं इस संघ से संतुष्ट नहीं हूं। पुराने सदस्य तो संघ को छोड़ते जा रहे हैं और नए सदस्य निष्क्रियता के कारण नहीं आ रहे हैं। सदस्यों में आगे निकलने की ख़्वाहिश है, सभी पदाधिकारी बनना चाहते हैं।
सवाल: उम्र के इस पड़ाव में आपकी क्या कार्य योजना है ?
जवाब: अध्ययन मेरे जीवित रहने का प्रमाण है। अगर मैं अघ्ययन न कर पाउं तो समझूंगा कि मेरी उपयोगिता समाप्त हो गई। दूसरा, मेरी साधना एक विषय संगीत है, पिछले छह महीने से संगीत साधना नहीं कर पा रहा हूं। पर अभी कल ही मैंने अपने परपोते के उपलक्ष्य में गाया। मेरे पोते विमर्श और संघर्ष तबले व पखावज़ पर मुझे संगत देते हैं। विमर्श को बालश्री पुरस्कार मिल चुका है। अब इस उम्र में कितना कर पाउंगा देखना है। अभी मैंने ‘गोरा’ और ‘गोदान’ उपन्यास पर अनुशीलन लिखा है जो प्रकाशित होना है।
प्रो. ओपी मालवीय को ‘गुफ्तगू’ पेश करते हुए अनिल मानव |
1 टिप्पणियाँ:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (23-05-2018) को "वृद्ध पिता मजबूर" (चर्चा अंक-2979) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
एक टिप्पणी भेजें