रविवार, 4 फ़रवरी 2018

साहित्य, कला का विकास नेहरु युग की देन: नामवर सिंह

प्रो. नामवर सिंह से इंटरव्यू लेते हुए डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव
                                                                           
प्रो. नामवर सिंह हिंदी के जाने-माने शीर्षस्थ मूर्धन्य आलोचक हैं। उनके कहे और लिखे गए वाक्य साहित्य जगत में ब्रह्म वाक्य के समान हैं। उन्होने हिंदी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य पर भी लिखा है। हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां, इतिहास और आलोचना, कविता के नए प्रतिमान, दूसरी परंपरा की खोज, वाद विवाद संवाद, छायावाद सहित अनगिनत आलोचना पुस्तकों और वाचिक भाषणों से उन्होंने भारतीय साहित्य को समृद्ध किया है। वे प्रगतिशील आलोचना के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। 1965 से 1967 तक जनयुग (साप्ताहिक) और 1967 से 1990 तक फिर पुनः सन् 2000 से आलोचना के संपादक रहे। पहल, पूर्वग्रह, दस्तावेज, वसुधा, बहुवचन और पाखी जैसी देश की कई प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं ने नामवर पर कंेद्रित अंक प्रकाशित किए हैं। वह साहित्य जगत के युग पुरूष तो हैं ही राममनोहर लोहिया के खिलाफ चुनाव में उतरकर राजनीति का मजा भी चख चुके हैं। साहित्य अकादमी पुरस्कार, शलाका सम्मान, साहित्य भूषण सम्मान, शब्द साधक शिखर सम्मान, महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान सहित उन्हें साहित्य के कई बड़े पुरस्कार मिले हैं। उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, जोधपुर विश्वविद्यालय, आगरा विश्वविद्यालय (क.मु. हिन्दी विद्यापीठ और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया है। वे महात्माा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति भी रहे हैं। डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव ने उनके दिल्ली स्थित आवास पर उनसे बात की। चित्रकारी उदित रावत ने की।
सवाल: अपने प्रारंभिक जीवन के बारे में बताइए ?
जवाब: मेरे पिताजी प्राइमरी स्कूल में पढ़ाते थे। सातवीं से लेकर इंटरमीडिएट तक काशी में मेरी स्कूलिंग हुई। मेरे स्कूल थे हीवेट क्षत्रिय हाईस्कूल और उदय प्रताप काॅलेज। हीवेट क्षत्रिय हाईस्कूल का हैडमास्टर अंग्रेज हुआ करता था। वहां हम 1940-1941 के बीच गांव से गए थे, मालूम हुआ था क्षत्रियों के लिए स्कूल है, बोर्डिंग हाउस है, खाने का इंतजाम है और फीस भी नहीं लगती। मैस मेें खाने का इंतजाम था। छात्रावास में जगह मिल गई। एक कमरे मे चार लड़के रहते थे। बड़ा नियमित जीवन था वहां का। घंटी बजती थी, हम हाॅस्टल के बाहर निकलते थे, हाजिरी होती थी, फिर एक घंटा पी.टी. के बाद दूध-नाश्ता मिलता था, फिर घंटी बजती तो हम दौड़ कर क्लास में पहुुंच जाते। दोपहर में खाना-पानी पाकर आराम करते थे। फिर शाम को 5 बजे खेलकूद के लिए अनिवार्य रूप से जाना ही पड़ता था। शाम को संध्या कराई जाती थी। संध्या में प्रवचन उपदेश भी सुनता था। संध्या के बाद तुरंत मैस में जाते थे, खाना खाते थे। फिर बारहवीं के बाद उदय प्रताप काॅलेज में पढ़ा जो बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के दूसरे छोर पर था। हम गंगा घाट के किनारे गोविंद लाॅज में रहते थे। बी.ए. में मैंने हिंदी विषय का चयन किया साथ ही संस्कृत और प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति विषय से बी.ए. किया। फिर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एम.ए. और पी.एच.डी. किया। बाद मेें प्रथम पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत मैं बी.एच.यू. में अस्थाई तौर पर अध्यापक नियुक्त हो गया।
सवाल: आपके अंदर रचना करने का संस्कार कैसे पैदा हुआ ? 
जवाब: इसका कारण स्कूल में होने वाली अंत्याक्षरी प्रतियोगिताएं हैं। अंत्याक्षरी के लिए मैं कवित्त, सवैया, चैपाई, दोहे इत्यादी कंठस्थ करता था। उधर मैंे समस्यापूर्ति भी करने लगा था। इससे धीरे-धीरे मेरी कविताओं में रुचि बढ़ने लगी। कई साहित्यकार हमारे स्कूल आते थे। श्याम नारायण पांडेय हमारे बगल में ही रहते थे और अक्सर आकर हमें ‘‘हल्दी घाटी‘‘ सुनाते थे। शंभू नाथ सिंह उदय प्रताप काॅलेज आया करते थे जो हमारे आदर्श बन गए थे। काशी के साहित्यिक संस्कार ने मेरे अंदर की रचनात्मकता को पल्लवित और पोषित किया और यह संस्कार अंत तक बना रहा। जब मैं एम.ए. में था तब मैं ‘‘नीम के फूल‘‘ लिख चुका था।
सवाल: फिर एक कवि आलोचना की ओर कैसे उन्मुख हुआ ?
जवाब: देखिए पढ़ाई के दौरान परीक्षाओं में वस्तुतः उत्तर में आलोचना ही लिखनी होती है। कविताएं तो उदाहरणार्थ दी जाती हैं। अतः पाठ्यक्रम की तैयारियों के लिए मैं आलोचना करने का अभ्यस्त होता गया। फिर प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठियों में जो बहस होती थी उसके लिए कविताएं नहीं बल्कि विचारों की आवश्यकता थी। तो आलोचना की ओर जाने का कारण ये गोष्ठियाॅ भी रहीं। फिर देखिए, प्रगतिशील आंदोलन भी लोगों को आलोचक बना देता है।
सवाल: इलाहाबाद शहर के साहित्यिक मिज़ाज पर आपके क्या विचार हैं ?
जवाब: गंगा-जमुनी तहज़ीब का शहर है। काशी और इलाहाबाद के सहित्यिक मिज़ाज में काफी समानता है। काशी में कर्मनाशा तो इलाहाबाद में संगम है। काशी भारतेंदु से लेकर अब तक साहित्यकारों का शहर माना जाता है। वास्तव में काशी और इलाहाबाद ही साहित्य के दो बड़े केन्द्र थे। दिल्ली में तो कुछ था ही नहीं, वह तो बहुत बाद में साहित्य का केन्द्र बनी। कहा जा सकता है कि इलाहाबाद में हिंदी और उर्दू का भी संगम था। वहां महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत जैसे हिंदी के साधक थे तो वहीं फिराक गोरखपुरी साहब भी कलाम कर रहे थे। ट्रेन से बनारस और इलाहाबाद का मात्र तीन घंटे का सफर था, तो अक्सर हम अवकाश के समय में इलाहाबाद अपने साथियों से मिलने पहुंच जाते थे। एक ओर साहित्यिक संस्कार की नगरी काशी थी तो दूसरी ओर पास ही इलाहाबाद में एक समृद्ध साहित्य की धारा बहती थी। इन दोनों शहरों से मेरा लगाव-जुड़ाव था। काशी और प्रयाग धर्म, संस्कृति, साहित्य एवं ज्ञान की नगरी हैं। सच पूंछिए तो बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना करने वाले मालवीय जी तो इलाहाबाद के ही थे। इलाहाबाद से बनारस आकर उन्होंने स्वयं गंगा किनारे विश्वविद्यालय खोलने के लिए काशी नरेश से ज़मीन मांगी थी। और यही बी.एच.यू. इतनी वैल प्लान्ड बनी जितनी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी भी नहीं है। ऐसी यूनिवर्सिटी मैैैंने इंग्लैंड में ही देखी है, अमेरिका तो गया नहीं। जितनी वैल प्लान्ड़ आॅक्सफोर्ड और कैेंब्रिज भी नहीं है। उससे ज्यादा सुनियोजित काशी हिंदू विश्वविद्यालय है। हिंदी में योगदान की दृष्टि से इलाहाबाद विश्वविद्यालय और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, दोनों की ही महती भूमिका है।
सवाल: आलोचना का प्रारंभ पत्र पत्रिकाओं से माना जाता है, किंतु आज मीडिया में साहित्य और आलोचना हाशिये पर आ गए  हैं , इस पर आपके क्या विचार हैं?
जवाब: देखिए वाणिज्य युग अपने चरम पर है। बिजनेस केन्द्र में हो गया है। परिणामतः साहित्य और कला इत्यादि हाशिये पर चले गए हैं। मैं तो यह नेहरू युग की देन मानता हूं कि साहित्य कला इत्यादि विकसित हुए। नेहरू का ही विज़न था कि तीन अकादमियां खुलें जिनमें से एक साहित्य अकादमी के पहले अध्यक्ष खुद जवाहर लाल नेहरू थे। इसी क्रम में देश में ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी, नेशनल स्कूल आॅफ ड्रामा इत्यादि खोले गए।
सवाल: हिंदी-उर्दू सहित अन्य भारतीय भाषाओं के लिए आपने क्या कार्य किए हैं ?
जवाब: मैं एन.सी.ई.आर.टी. में हिंदी विंग का चैयरमैन भी रहा हूं। तब मैंने स्कूल लेवल से लेकर काॅलेज लेवल तक की कई टैक्स्ट बुक तैयार करवाई थीं। भारतीय भाषा केन्द्र (जे. एन. यू) में आर्ट फैकल्टी की बजाय स्कूल आॅफ लैंग्वैजेज था। इसमें विदेशी भाषाएं और हिंदी का अध्ययन कराया जाता है। इसमें हिंदी के अलावा संस्कृत, उर्दू और दक्षिण भारतीय भाषा तमिल भी शामिल है। हम ज्यादा से ज्यादा भारतीय भाषाओं को लेकर चलना चाहते थे। वहां मात्र हिंदी विभाग नाम का कोई विभाग नहीं है। यहां यह अनिवार्य किया गया कि जो छात्र हिंदी लेगा उसे उर्दू का एक कोर्स करना पड़ेगा और उर्दू के छात्र को हिंदी का एक कोर्स करना पड़ेगा। क्योंकि हिंदी उर्दू परस्पर गहरे रूप से संबंद्ध हैं।
सवाल: अकादमिक स्तर पर कार्य कर रहे हिंदी के शिक्षक इत्यादि और मात्र मसिजीवी लेखकों के योगदान के बारे में आप क्या सोचते हैं ?
जवाब: यह आपके जाॅब और रुचियों से जुड़ा हुआ है। था एक ज़माना जब इस देश को हिंदी वालों की जरूरत थी। देश की जरूरत के लिए भाषा तो साधन है लक्ष्य नहीं है। 
सवाल: पिछले दिनों असहिष्णुता को लेकर जो साहित्य अकादमी अवार्ड वापसी प्रकरण घटित हुआ उस पर आप क्या सोचते हैं?
जवाब: मेरी राय में वह एक राजनितिक निर्णय था। असहिष्णुता का इन पुरस्कारों, साहित्यकारों या साहित्य की संवेदना से कुछ लेना-देना नहीं था। देखिए अब वह क्रम रुक गया है।
सवाल: राजभाषा की दृष्टि से आप हिंदी की स्थिति को कैसा पाते हैं, क्या राजभाषा बन जाने से हिंदी अपना न्याय संगत स्थान प्राप्त कर चुकी है ?
जवाब: एक कहावत है मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। इसी प्रकार मजबूरी का नाम हिंदी है। राजभाषा के नियमों के चलते सरकारी लोगों की मजबूरी है कि वे हिंदी में कामकाज का प्रदर्शन करें। दरअसल हिंदी तो जन-भाषा है। राजभाषा कहकर या बना कर हम उसके महत्व को कैसे रेखाकिंत करेंगे। सोचिए, अकेले गांधी जी ने दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचार किया, जबकि वे एक गैर हिंदी भाषी व्यक्ति थे। इस भाषा की एक व्यापक जन समूह तक पहुंच है। अंग्रेजी हमारे शासन प्रशासन के कामकाज में गहरे से विद्यमान है। (चुटकी लेते हुए) बी.जे.पी. वालों को अंग्रेजी आती कहां है। आर.एस.एस. की भाषा तो कायदे से मराठी होनी चाहिए। लेकिन उनकी सारी कार्यवाही हिंदी में होती है।
सवाल: कृपया अपने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कार्यकाल के अनुभवों के बारे में बताइए?
जवाब: मैं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में दो बार चांसलर रहा हूं। यह यूनिवर्सिटी कागज पर थी। बहुत गंभीरता से किसी ने काम किया नहीं था। एक वाइस चांसलर केरल के थे, एक सज्जन थे वे दिल्ली से ही राज करते रहे। तब मैंने बड़े ही व्यावहारिक आदमी विभूति नारायण राय को वाइस चांसलर बनवाया। तब जो विश्वविद्यालय कागज पर था, उसे विभूति जी ने अथक परिश्रम से ज़मीन पर उतार दिया। शिक्षण के स्तर पर कई गुणात्मक सुधार किए गए। शिक्षण खंड सहित रहने के लिए क्वाटर बनवाए गए।
सवाल: विश्व काव्य शास्त्र के मुकाबले भारतीय काव्य शास्त्र के बारे में आप क्या सोचते हैं ?
जवाब: हमारा देश इस मामले में सौभाग्यशाली है कि जिसे पोइटिक्स कहते है वह यहां बहुत समृद्ध है। हमारा साहित्य अंग्रेजी सहित फै्रंच, जर्मन इत्यादि दुनिया की दूसरी भाषाओं में अनूदित हो रहा है। अतः विश्व के नक्शे पर भारतीय साहित्य आ गया है। यद्यपि यूरोप में भी ग्रीक प्लूटो से आंरभ हुआ काव्य शास्त्र बहुत समृद्ध है। किंतु फिर भी दुनिया में सबसे समृद्ध काव्य शास्त्र किसी का है तो वह संस्कृत का है। भरत मुनि के नाट्य शास्त्र से लेकर पंडित राज जगन्नाथ तक। प्री-हिस्टोरिक पीरीयड से लेकर साहित्य शास्त्र की इतनी लंबी, महान और अद्वितीय परम्परा यूरोप के पास भी नहीं थी। यूरोपियों ने संस्कृत काव्यशास्त्रीय ग्रंथों के अंग्रेजी में अनुवाद करके अपने यहाॅ थ्योरी चला दीं।
सवाल: हिंदी आलोचना की परम्परा पर कुछ प्रकाश डालिए ?
जवाब: हिंदी में आलोचना की बड़ी समृद्ध परम्परा है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और डाॅ. राम विलास शर्मा जैसे आलोचकों ने हिंदी आलोचना को समृद्ध किया है। हिंदी आलोचना भारतीय भाषाओं में किसी से कम नहीं है। क्योंकि जैसा कि मैंने बताया कि उसके पास संस्कृत काव्य शास्त्र की महान परम्परा है। मेरा मानना है कि जिस साहित्य की रचना बड़ी होती है, उस साहित्य की आलोचना भी बडी़ होती है।
सवाल: आलोचना को आप कैसे परिभाषित करेंगे?
जवाब: एक शेर है ‘‘कुछ लोग जिधर हंै वो उधर देख रहे हैं। हम देखने वालों की नज़र देख रहे है‘‘। आलोचक का काम होता है कि कवि क्या देख रहा है, उस देखने वाले कि आंख को तो भी देखना चाहिए इसलिए आलोचना का जो काम होता है वो देखने वालों की नज़र है। आलोचना में यह महत्वपूर्ण है कि कविता में मर्मस्पर्शी स्थलों को पहचाना जाए। कवि या उपन्यासकार इस दुनिया को एक ढंग से देख रहा है। आलोचक उसकी आंख में झांकेगा और यह जानने की चेष्टा करेगाा कि क्यों रचनाकार को ‘यही‘ दिखलाई पड़ रहा है ‘वह‘ क्यों नहीं दिखलाई पड़ रहा। मेरे गुरु आचार्य हजारी प्रसार्द िद्ववेद्वी ने ‘साहित्य सहचर‘ में लिखा है कि आलोचक साहित्यकार का सहचर होता है। आलोचना में रचनाकार, आलोचक और पाठक तीनों के तार आरकेस्ट्रा की भांति जुड़ जाते हैं। यह आलोचना की शुरूआती आवश्यकता है, फिर वह एक संवाद है। 
सवाल: रचना और आलोचना में आप क्या संबंध देखते हैं?
जवाब: रचना और आलोचना दोंनो इस तरह से परस्पर संबंद्ध हैं कि एक का उत्कर्ष दूसरे के उत्कर्ष का आधार बनता है। जिस दौर में रचना का स्तर उठता है उसी दौर मेें आलोचना का भी स्तर बढ़ता है। उदाहरणार्थ आप छायावाद की श्रेष्ठ कविताएं और आलोचना को देख सकते हैं। हमारे यहां आलोचना अब केवल टीका-भाष्य नहीं रह गई है, बल्कि आलोचना अब विमर्श बन गई है। परिणामतः रचनाकारों का मूल्यांकन विमर्श के धरातल पर होने लगा है।
सवाल: आप तो एक नामवर आलोचक हैं, पर क्या आपके भी कुछ आलोचक हैं?
जवाब: (ठहरकर) अभी मैंने देखने वालों की नज़र की बात की। उसके बाद एक और प्रक्रिया होती है- अपनी खुद की नज़र को देखना, जो बड़ा मुश्किल काम है। इसकी जांच भी करनी चाहिए कि जो मैं देख रहा हूं किसी पूर्वाग्रह से तो नहीं देख रहा। सवाल है अपनी आंख को कोई कैसे देखेगा? देखी गई नज़र को जब कागज़ पर उतार लेता हूं, फिर जांचता हूं कि मैने यह देखा है और यह लिखा है। फिर रिव्यू करता हूं  कि हमने क्या सचमुच वही देखा है जो हमने लिखा है। हमें देखना होता है कि किसी ने क्या देखा है और क्या छोड़ दिया है। आलोचक दोनों ही पक्षों पर प्रकाश डालता है।
सवाल: पहले के आलोचक और सामयिक आलोचकों में आप क्या अंतर देखते हैं ?
जवाब: अब अखबारनवीसी बढ़ गई है। आलोचना एक गंभीर और पित्तमार काम है लेकिन लोंगो को लिखने की और छपवाने की हड़बड़ी बहुत ज्यादा है। रचना करने में जितना आत्मसंघर्ष करना पड़ता है, रचना को देखने समझने के लिए दुगनी-तिगनी मेहनत करनी पड़ती है। आलोचक का काम ज्यादा मुश्किल है।
सवाल: आज के साहित्य में स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श के बारे में आप क्या सोचते हैं?
जवाब: दोनों जरूरी हैं। अब स्त्री स्वयं बोल रही है। पहले महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चैहान जैसी इक्का-दुक्का लेखिकाएॅ ही थीं। अब बड़ी संख्या में साहित्य के क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति है। स्त्री लेखन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अब दलित और बैकवर्ड सहित आदिवासी भी बहुत अच्छा लिख रहे हैं। हाँ, कहीं-कहीं उनमें कटुता ज्यादा है। यही कटुता उनकी कमज़ोरी है। क्योेंकि कोई कड़वाहट युक्त कहे तो उसका मुंह तो खराब होगा ही सुनने वाले के कान भी खराब होते हैं। अतः कटुता कला की दुश्मन है, दलित साहित्य को इस कटुता से मुक्त होना पडेगा। वे जरूर विरोध करें, विरोध करने से कोई मनाही नहीं है। लेकिन विरोध करने के लिए जो तेवर होना चाहिए उस तेवर की गरिमा को मेनटेन करना चाहिए। हम जानते हैं कि पहली कविता विरोध से ही हुई है, उस निषाद के गुस्से को तो किसी ने देखा नहीं, बल्कि वाल्मीकि का गुस्सा तो आज तक उस पहली कविता के रूप में अमर है। दरअसल यह वाल्मीकि का शोक है गुस्सा नहीं। शोक है इसलिए वह श्लोक बना अन्यथा गालीगलोज हो जाता। इसिलिए आचार्यों ने कहा यह कविता करूणा से निकली है।
सवाल: आपने तुलनात्मक साहित्य पर भी कार्य किया है, खासतौर पर बांग्ला पर?
जवाब: जी हां, स्वयं को मैंने हिंदी तक सीमित नहीं रखा बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं के साहित्य पर लिखा है, बोला है। मैंने बांग्ला पर तुलनात्मक कार्य किया है। बांग्ला मुझे आती है। पढ़ लेता हूं, बोल लेता हूं। पहले मित्रों के साथ बांग्ला बोलता था। जब से उनका साथ छूटा तो बांग्ला का अभ्यास भी छूट गया। (नामवर जी उठते हैं अपने बेड रूम से एक पुस्तक लाकर मुझे देते हुए कहते हैं.....) ये ‘‘रवीन्द्रनाथ की संचियता‘‘ मैंने हाईस्कूल में बनारस से दस रुपये में खरीदी थी। यह अजिल्द थी। जिल्द मंैने बनवाई थी। उसी समय रवीन्द्रनाथ टैगोर को पढ़ने के लिए बांग्ला सीखी थी।
सवाल: कुछ समय पूर्व अशोक वाजपेयी ने कहा है कि हिंदी आलोचना बहुत बुरे दौर में है। बाद में कुछ और लोगों ने उनका समर्थन किया। इस बारे में आपका क्या कहना है ?
जवाब: ऐसा रिमार्क करने वालों को जरा रुक कर अपने अंदर भी देखना चाहिए, कि आप क्या लिख रहे हैं। दूसरे लोग तो खराब लिख रहे हैं आप कुछ बेहतर लिखें तब तो ठीक है। अशोक वाजपेयी खुद क्या लिख रहे हैं? एक लंबे अरसे से उनकी कोई कविता तो देखी ही नहीं, आलोचना भी नहीं देखी। था एक ज़माना जब वे लिखते थे। इसलिए दूसरों पर उंगली उठाने से अच्छा है कि ऐसे लोग स्वयं बेहतर लिख कर जवाब दें।
सवाल: आजकल आपके अध्ययन कक्ष में क्या चल रहा है?
जवाब: (मुस्कुराते हुए) ‘मसि कागद छुओं नहिं, कलम गह्यो नहिं हाथ‘ बहुत दिनों से लेखन में स्वास्थ्य बाधा बना हुआ है। लेखन के लिए जो तन्मयता और एकाग्रता चाहिए वह शारीरिक कारणों के चलते आ नहीं पाती। लिखने में मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ती है। अब खराब तो लिखा नहीं जाएगा, वर्ना दूसरों की नज़र में तो बाद में गिरूंगा पहले अपनी ही नज़र में गिर जाऊंगा। जैसा मैं चाहता हूं अगर वैसा नहीं लिख सकता तो बेहतर है कि ना लिखूं। (मुस्कुराते हुए) जीवनभर आपके लिए बहुत कुछ लिख और बोल दिया है।
(गुफ्तगू के अक्तूबर-दिसंबर: 2017 अंक में प्रकाशित)


3 टिप्पणियाँ:

'एकलव्य' ने कहा…

निमंत्रण

विशेष : 'सोमवार' २६ फरवरी २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने सोमवारीय साप्ताहिक अंक में आदरणीय माड़भूषि रंगराज अयंगर जी से आपका परिचय करवाने जा रहा है।

अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

'एकलव्य' ने कहा…

निमंत्रण

विशेष : 'सोमवार' १९ मार्च २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने सोमवारीय साप्ताहिक अंक में आदरणीया 'पुष्पा' मेहरा और आदरणीया 'विभारानी' श्रीवास्तव जी से आपका परिचय करवाने जा रहा है।

अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

'एकलव्य' ने कहा…

निमंत्रण

विशेष : 'सोमवार' १६ अप्रैल २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक में ख्यातिप्राप्त वरिष्ठ प्रतिष्ठित साहित्यकार आदरणीया देवी नागरानी जी से आपका परिचय करवाने जा रहा है। अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/



टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

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