मैत्रेयी पुष्पा वर्तमान समय में देश की अग्रणी महिला साहित्यकारों में प्रमुख स्थान रखती हैं। जितनी बेबाकी उनकी कलम में दिखती है उतनी ही बेबाकी व्यक्तित्व में भी है। इनका जन्म 30 नवंबर 1944 को अलीगढ़ के सिकुरी गांव में हुआ। बाद में झांसी के खिल्ली गांव में इनका बचपन बीता और एमए तक की पढ़ाई वहीं संपन्न हुई। मैत्रेयी पुष्पा देश में अकेली ऐसी महिला साहित्यकार हैं जो ‘रूरल इंडिया’ पर लिखती हैं। वर्तमान समय में वे दिल्ली हिन्दी एकेडेमी के उपाध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाल रही हैं। रोहित त्रिपाठी ‘रागेश्वर’ ने उनके नोएडा स्थित आवास पर उनसे बात की, जिसे ‘गुफ्तगू’ के महिला विशेषांक में प्रकाशित हुआ है।
सवाल: आपके बारे में कहा जाता है कि आप अकेली ऐसी महिला साहित्यकार हैं जो ‘रूलर इंडिया’ पर लिखती हैं। क्या इसकी कोई ख़ास वजह है?
जवाब: हां, लोग ऐसा कहते हैं। जिसके जैसे अनुभव होंगे वो वही लिखेगा। कई लोग कहीं जाते हैं वहां से थॉट लाते हैं और फिर लिख देते हैं। लेकिन उसमें कितनी गहराई आ पाती है ये एक शोध का विषय है। हमारे जो अनुभव होते हैं हमें दो-चार दिन में नहीं आते, बल्कि समय के साथ हमारी उम्र में घुस जाते हैं। वो ही हम अच्छे से लिख सकते हैं, बोल सकते है, कह सकते हैं। क्योंकि ये महसूस करने की बात होती है। मैं गांव में रही हूं और मैं कॉलेज भी गांव से ही जाती थी, तो मेरे पास ऐसे ही अनुभव हैं।
सवाल: आपने गांव में रहकर पढ़ाई की और गांव में ही रहती थीं, तो ऐसे माहौल में लेखन की शुरूआत कैसे हुई ?
जवाब: लेखन की शुरूआत तो बड़े खतरनाक तरीके से हुई। बात तब की है जब मैं ग्यारहवीं की छात्रा थी। ग्यारहवीं की परीक्षा चल रही थी और मुझे एक पत्र मिला। जिसको आप प्रेमपत्र कह सकते हैं, क्योंकि वो एक लड़के ने लिखा था। वो मेरी क्लास का नहीं था, वो 12वीं में था। उसने कोई पत्र नहीं लिखा था बल्कि वो एक कविता थी। संबोधन मेरे लिए थौ मेरी उससे कभी कोई बात नहीं हुई थी, लेकिन ऐसा ज़रूर लगता था कि उसका ध्यान मेरी तरफ है, और वो कोई सीरियस टाइप का लड़का नहीं था। वो एकदम हंसता, जैसे होते हैं न खिलन्दड़ टाइप के, वैसा। जब वो पत्र मिला तो मैंने उसे खड़े-खड़े कई बार पढ़ा और एक किशोरी की तरह कई चीज़ें एक साथ मेरे अंदर आयीं। मैं थोड़ा सहमी थी, थोड़ा घबराई भी थी। थोड़ा-थोड़ा अच्छा भी लग रहा था। मैं एक घंटे के लिए विचलित सी हो गई। फिर जब में घर आयी तो मेरे मन में एक बात आयी कि अगर ये लड़का कविता लिख सकता है, तो मैं क्यों नहीं? इसी को चाहे आप लेखन समझ लो। और मैंने शुरू किया। मैंने एक रजिस्टर बनाया, तुकबंदियां शुरू की और फिर उस समय जो लोग लिख रहे थे उनको पढ़ना शुरू किया और मुझे पता नहीं चला कि मैं कब लेखन की तरफ बढ़ गई।
सवाल: आजकल महिला साहित्यकार क्या लिख रही हैं, और क्या नहीं लिख रही हैं?
जवाब: महिला साहित्यकारों पर स्वतंत्रता बहुत ज्यादा हावी हो गई है। देखो, जब हम समाज में रहते हैं तो केवल उन्हीं चीजों को तोड़ते हैं, जो हमारे तरक्की के रास्ते में आती हैं। उनको थोड़ी तोड़ते हैं, जो हमारे विकास में सहायक होती हैं। मैंने फेसबुक पर लिखा था कि आप भी तो खुले कपड़े पहनकर आ़ज़ादी के नारे लगा रही हैं। क्या कपड़ों से आजादी आती है? या खुलकर सेक्स कर लिया, इससे आज़ादी आती है? आज़ादी तो बहुत बड़ी चीज़ है जो बड़ी सोच के साथ आती है। ये तो कोई भी कर लेगा। इसमें कौन-सी बहादुरी है? ये कोई कठिन काम है क्या? तो आजकल इन्हीं चीज़ों पर ज़्यादा लिखा जा रहा है। ठीक है, मैं मानती हूं इसमें कुछ चिंताएं भी होंगी। मैं ज्यादा पढ़ नहीं पाती आजकल। लेकिन जो एक परिदृश्य दिखाई पड़ रहा है, तो कुछ ऐसा नहीं दिखाई पड़ रहा है कि लेखिकाओं ने कोई नई ज़मीन तोड़कर कोई नया मुहावरा गढ़ा है, नये समाज की संरचना की है, या कुछ पॉजीटिव किया है, कुछ सकारात्मक पहलू इज़ाद किए हैं, ऐसा तो नहीं लगता।
सवाल: महिला साहित्यकारों के लेखों में पुरूषों को लेकर एक अजीब तरह का आक्रोश दिखता है। इसकी क्या वजह है?
जवाब: आक्रोश दिखता है तो हो सकता है कि वे भुक्तभोगी हों। मैं मानती हूं इस बात को, उनके लिए रूकावटें भी होती हैं। आज हम दिल्ली को देखकर सारे फैसले ले लेते हैं। दिल्ली को देखकर फैसले नहीं लेने चाहिए। हिन्दुस्तान तो दिल्ली के अलावा भी है। तो रूकावटें तो होती हैं, और दूसरी बात ये कि उनके हक़ों का भी हनन होता है, जैसा कि अभी पंचायती चुनाव में हुआ। हरियाणा में लोगों ने इसलिए दूसरी शादियां की क्योंकि वो पंचायत के पदों पर बने रहना चाहते थे और उनकी पत्नियां आठवीं पास थीं। तो आक्रामकता बेवजह नहीं है। लेकिन उसका भी कोई तर्क होना चाहिए।
सवाल: प्रायः कवयित्रियों के बारे में कहा जाता है कि वो स्वयं नहीं लिखीती और मंचों पर दूसरों से लिखवाकर कविताएं पढ़ती हैं। इस पर आपकी क्या राय है ?
जवाब: अरे हां, मैंने भी सुना है और हो भी सकता है। जब आपने ये बात चलाई तो मुझे एक घटना याद आती है। हमारे यहां एक कवयित्री थी, उसकी शादी तो नहीं हुई थी लेकिन वो प्रेग्नेंट थी। एक कवि सम्मेलन में जब मैंने उससे पूछा तो ये कवि सम्मलेनों की ही देन थी। यहां तक बात आती है। जब बात यहां तक आती है तो जाहिर है उसे कविता तो कोई आदमी लिख के दे ही देगा न। ये मैं सबके लिए नहीं कह रही हूं। लेकिन होता है, ऐसा भी, ये असंभव नहीं है।
सवाल: साहित्यकारों को राजनीति करनी चाहिए या नहीं ?
जवाब: मैं कहती हूं कि राजनीति में हस्तक्षेप करो लिख के। आपकी किताबों में हस्तक्षेप होना चाहिए न कि आप भी पहुंचा जाओ वहां। दूसरी बात, राजनीति में जाना है तो राजनीति में जाओ, साहित्य में फिर आपका क्या काम? और मेरी जो अपनी मुहिम है, मैं राजनीतिज्ञों को साहित्यकार बनाने पे तुली हुई हूं ताकि उनको भी कुछ संवदेना आये।
सवाल: महिलाओं की रचनाएं अक्सर महिलाओं पर ही केंद्रित होती हैं, ऐसा क्यों?
जवाब: ये इसलिए कि वो खुद एक महिला होती हैं। वो महिलाओं की समस्याओं को जल्दी से पकड़ती हैं, तो वे अपने अनुभव से लिखती हैं। जब महिलाएं नहीं लिखती थी तो पुरूष लिखते थे। लेकि उन्होंने अनुमान से लिखा है और वो अनुभव से लिखती हैं, ये फ़र्क़ है।
सवाल: आत्मकथा में आत्ममोह की झलक क्यों दिखती है?
जवाब: नहीं दिखनी चाहिए। यही करना है तो मत लिखो। आप कितनी महान हैं, कौन जानना चाहता है। अक्सर आत्मकथा में दूसरे पक्ष को दोषी ठहराया जाता है। दूसरा पक्ष प्रायः पति होता है। हमेशा दूसरा पक्ष ही दोषी नहीं होता, कुछ कमियां आप में भी हो सकती हैं, क्योंकि आप भी मनुष्य हैं। दोनों पक्ष बैलेंस्ड होने चाहिए। दूसरी बात स्त्रियों की आत्मकथाओं में अक्सर ये होता है कि हमने तलाक ले लिया, छोड़ दिया, बड़ी वीरता की। इसमें वीरता नहीं होती। छोड़ने में तो कोई दिक्कत नहीं है, दिक्कत तो साथ रहने में है। ऐसे लोग जो स्वयं पर केंद्रित आत्मकथा लिखते हैं, उन्हें नहीं लिखना चाहिए।
सवाल: असहिष्णुता के मुद्दे पर लोगों ने पुरस्कार वापस किया और फिर वापस भी ले लिया। ये साहित्यकारों की छवि को किस तरह प्रभावित करता है?
जवाब: पुरस्कार वापस करने से समस्यायें हल नहीं होती हैं। पुरस्कार तो हमारे पास एक-दो होते हैं। पद्मश्री और साहित्य अकादमी के पुरस्कार वापस किए जा रहे थे। कोई ये बता दे कि कितनों के पास है ये पुरस्कार? मैंने पहले भी कहा है कि लिखो कड़े से कड़ा, क्योंकि लिखोगे तो वो देर तक चलेगा। पुरस्कार तो बस एक दिन वापस कर आये, फिर क्या करोगे? आप सरकार से नाराज़ हैं और पुरस्कार एकेडेमी को वापस कर रहे हैं। जब हम अपनी एकेडेमी को इतना कमज़ोर बना देंगे तो उस पर उन्हीं का वर्चस्व हो जाएगा जिन ताक़तों से हम लड़ रहे हैं। आपने तो खुद ही हथियार डाल दिए। अब लड़ेंगे कैसे? और फिर लखनउ कथाक्रम में मैंने नाम लेकर कहा कि ये लोग मुझे बताएंगे कि इन्होंने कितनी ईमानदारी से पुरस्कार पाया है ? काशीनाथ जी नाराज हो गए लेकिन मुझे किसी की नाराज़गी से क्या लेना? जब मैंने सुना कि अब वापस भी लिये जो रहे हैं तो मैंने फेसबुक पर पोस्ट डाली तो नयनतारा सहगल ने मना किया कि नहीं मैंने वापस नहीं लिया। लेकिन जो सिलसिला है वो तो शुरू ही हो गया न, आम आदमी की नज़रों में साहित्यकारों की छवि तो खत्म हो गई न।
सवाल: साहित्य में लघु पत्रिकाओं का कितना योगदान है?
जवाब: हां, बहुत योगदान है। क्योंकि अख़बारों में जगह कम हो गई है। साप्ताहिक हिन्दुस्तान या धर्मयुग जैस पत्र बंद हो गए, तो जगह नहीं बची। वो स्पेस अब लघु-पत्रिकाओं ने ंभरी है, जिनको लोग अपने संसाधनों से चला रहे हैं। जब कारपोरेट घरानों ने ये काम बंद कर दिया तो अब ये लोग ही कर रहे हैं। ये अच्छा चल रहा है।
(गुफ्तगू के मार्च-2016 अंक में प्रकाशित)
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