रविवार, 3 अगस्त 2014

!!! समाज में कहां खड़ा है साहित्यकार !!!


- नाजिया गाजी
सज्जाद ज़हीर ने जब प्रगतिशील लेखक संघ की बुनियाद डाली और लोगों को अपने उद्देश्य से रुबरु कराया, तब पूरे में देश एक लहर सी उत्पन्न हो गई। साहित्यकारों के अलावा आमलोगों को भी लगने लगा कि देश के साहित्यकार अब वास्तविक रूप में समाज की भलाई के लिए काम करेंगे, और ऐसा हुआ भी। साहित्यकारों ने समाज की बेहतरी के लिए अनेकानेक काम किए, सिर्फ़ लेखन से ही नहीं बल्कि ज़मीनी स्तर पर समाज के बीच आकर बात रखी गईं, लोगों का काफी सहयोग मिला। तब ये आम धारण थी कि साहित्यकार हमेशा देश-समाज हित में कार्य करते हैं, इसी के लिए जीते-मरते हैं। अपने लेखन के माध्यम से साहित्यकार जिन बुराइयों को रेखांकित करता, खुद भी कोसों उनसे दूर रहता है, शायद यही उसकी असली पहचान भी है। मगर आज इसके ठीक वितरीत हो रहा है। यही वजह है कि प्रायः समाज में साहित्यकार और उसकी लेखनी को पूण रूप से स्वीकार नहीं किया जाता। लगभग यह धारणा बन चुकी है कि अधिकतर साहित्यकार लोगों को बेवकूफ़ बनाने का कार्य करते हैं, जिन बुराइयों को अपनी लेखनी में उजागर करते हैं, वास्तवित रूप में उनके अंदर वहीं बुराई दिखती हैं। ऐसे में लोगों के बीच लेखन किस तरह प्रभावी होगा, लोग क्यों साहित्यकार और उनकी लेखन का खुले दिल से सम्मान करेंगे।
हालत यह है कि तमाम बड़े साहित्यकार अपनी रचनाओं-पुस्तकों के प्रकाशन, संस्थाओं से पुरस्कार और विरोधियों को खारिज करने में लगे रहते हैं। इसके लिए अच्छे लेखन और अच्छे कार्य करने की रणनीति नहीं बनाई जाती। बल्कि किसी भी माध्यम से, कोई भी जरिया अपनाकर अपने को हाईलाइट करने की साजिश रची जाती है। अधिकतर लोग अपने और बेगाने ग्रुप के साहित्यकार हो चुके हैं। दिल्ली में तो कई बड़े साहित्यकार ऐसे भी हैं, जो साहित्य सेवा के नाम सारी सुविधाएं पा रहे हैं, मगर हिन्दी या उर्दू की विकास के लिए काम करने के बजाए, खुद अपनी स्थिति को और मजबूत बनाने का कार्य करते हैं। इसकी जानकारी अधिकतर लोगों को है, लेकिन कोई बोलने को तैयार नहीं है। जब बात साहित्यकार और उसके हित रक्षा की आती है तो ढोंग दिखाना शुरू कर देते हैं। डंका बजाकर यह बताने की कोशिश करते हैं कि हम समाज की बेहतरी के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं, इसलिए उनके हित का काम होना चाहिए। कुल मिलाकर अधिकतर साहित्यकारों का दोहरा चरित्र लोगों के सामने आ चुका है, यही वजह है कि आज आम आदमी साहित्य से दूर जा रहा है, कुछ लोग साहित्य अगर पढ़ते भी हैं तो मनोरंजन की दृष्टि से। गंभीर मामला या गंभीर समस्या को लेकर कोई साहित्य और साहित्यकार के मार्गदर्शन या लेखन को सुनने-पढ़ने को तैयार नहीं है। धीरे-धीरे अधिकतर साहित्यकारों ने समाज में अपनी ऐसी इमेज बना ली है कि लोग या तो मजाक उड़ाते हैं या सिरे से खारिज कर देते हैं। पिछले लोकसभा का चुनाव इस परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण उदाहरण भी है। वामपंथी संगठन की साहित्यिक संगठनों ने ऐडी-चोटी का जोर दिया, लेकिन न तो पश्चिम बंगाल में कम्युनिष्ट पार्टियों को जीत दिला सके और न ही भाजपा की जीत को रोक सके। जबकि ये संगठन भाजपा के खिलाफ पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ मैदान में आए थे। परिणाम से पहले तो कई बड़े साहित्यकारों ने यह दावा कर दिया था कि नरेंद्र मोदी की जीत हुई तो वे डूब मरेंगे, किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। परिणाम के बाद उनका सुर बदल गया। क्या यही है साहित्य और साहित्यकारों का प्रभाव? समाज के लोगों ने इनकी बातों को तवज्जो नहीं दी। आज की यह स्थिति साहित्य और साहित्यकारों के लिए बेहद महत्वपूर्ण हो गई है। अधिकतर साहित्यकार दूसरों की बुराई गिनाने में जुटा है, और जब उसकी बुराई कोई गिना देता है तो अपने में सुधार लाने के बजाए उखड़ जाता है। बुराई गिनाने वालों के खिलाफ कार्य करने में जुट जाता है। जो लोग खुद अपना आंकलन इमानदारी से नहीं कर पाते, वे कैसे साहित्यकार हैं और क्यों समाज उनकी बातों को सुनना-पढ़ना चाहेगा। इस संदर्भ में प्रगतिशील लेखक मंच की कार्यशैली भी बेहद उल्लेखनीय है, इसके तमाम बड़े पदाधिकारी अप्रगतिशील कार्यों में जुटे हैं, इनके उपर कोई टिप्पणी कर देता है तो उसमें सुधार की बजाए उन लोगों का विरोध शुरू कर दिया जाता है। पिछले दिनों शुक्रवार के एक अंक में छपे लेख का प्रलेस के लोगों ने खूब विरोध किया। इसमें छपी बातों पर गौर करके दुरुस्त करने की बजाए यह मांग की गई कि ये बातें बाहर क्यों उठाई जा रही हैं, कार्यकारिणी में क्यों नहीं। जैसे ये लोग किसी राजनैतिक दल के हैं, बाहर आवाज जाने पर वोट बैंक कम हो जाएगा। इस बात पर विचार नहीं किया गया कि जो चीज़े ग़लत हो रही हैं उसको कैसे ठीक किया जाए। इससे सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि साहित्यिक संगठनों की स्थिति क्या है ? सिर्फ़ कुएं की मेढ़क की तरह अपने को सबसे अधिक ज्ञाता और चालाक समझते हैं। मगर सच्चाई यह है कि इसी मानसिकता के कारण आज साहित्य आम लोगों से दूर हो गया है। यह गंभीर विषय है, इस पर ग़ौर किए जाने की आवश्यकता है।

गुफ्तगू का संपादकीय

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