मंगलवार, 17 जून 2014

इम्तियाज़ ग़ाज़ी ने प्रलेस से दिया इस्तीफा


इलाहाबाद। प्रगतिशील लेखक संघ के सिद्धांतों से खिलवाड़ करने का आरोप प्रलेस के अध्यक्ष और कार्यकारी सचिव पर लगाते हुए इम्तियाज़ अहमद गाजी ने प्राथमिक सदस्यता और सचिव मंडल सदस्य के पद से इस्तीफा दे दिय है। श्री गाजी ने आरोप लगाया है कि पिछले छह-सात महीन से अध्यक्ष और कार्यकारी सचिव प्रलेस की मौलिका सिद्धांतों के साथ खिलवाड़ कर रही हैं।
उन्होंने अपने इस्तीफे में अध्यक्ष को संबोधित करते हुए लिखा है कि पिछले पांच-छह महीनों में इलाहाबाद के प्रगतिशील लेखक इकाई में जो गतिविधियां चल रही हैं, वो बेहद अफ़सोसनाक हैं। सभी मामलों को देखने के बाद स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि इस संगठन की कार्य प्रणाली संघ की तरह तो दिखाई दे रही हैं, लेकिन प्रगतिशीलता कहीं भी नहीं दिख रही। इसे निजी खुन्नस और खुशामद का संगठन बना दिया गया है, जो किसी भी कीमत पर प्रगतिशीलता नहीं हो सकती। इसमें गैर लेखक और राजनैतिक पृष्टभूमि के लोग घुस आए हैं। आप अपने दफ्तर के चैंबर में ऐसे लोगों के साथ बैठकर लोगों का मजाक उड़ाते हैं। आपने एक बैठक में यह बात कही है इम्तियाज अहमद गाजी को प्रलेस में प्रो. अली अहमद फ़ातमी के कहने पर शामिल किया गया, महोदय मैं आज से पांच वर्ष पहले भी प्रलेस में संयुक्त सचिव रहा चुका हूं। नौकरी के लिए कानपुर चला गया था, इसलिए प्रलेस छोड़ दिया था। ऐसी टिप्पणी करने से पहले आपको अपने बारे में भी सोच लेना चाहिए। आप अध्यक्ष भी प्रो. फ़ातमी के कहने व सुझाव पर ही बने हैं। और जो कार्यकारिणी सचिव बनाई गई हैं, वो भी प्रो. फातमी के सुझाव पर बनी हैं। सचिव पद के लिए तो कोई तैयार ही नहीं हो रहा था। श्री सुरेंद्र राही, प्रो. अनिता गोपेश और मुझसे भी सचिव बनने के लिए पूछा गया था। हम तीनों ने जब मना कर दिया तो सुश्री संध्या निवोदिता को कार्यकारणी सचिव बनाया गया। आप आधा सच क्यों बताते हैं, पूरा सच बताइए। ऐसे में इस संगठन से जुड़े रहने का औचित्य नहीं रहा। मैं अपना त्याग पत्र आपको सौंप रहा हूं, लेकिन कुछ चीजें स्पष्ट कर देना जरूरी है।
उपाध्यक्ष मंडल में शामिल श्री असरार गांधी साहब ने तमाम ऐसी कहानियां लिखी हैं जो प्रगतिशीलता के विपरीत तो हैं ही, साथ ही प्रलेस में शामिल लोगों की निजी जिन्दगी पर आधारहीन तरीके से कुठराघात भी है। लेकिन आपने इन कहानियों का खूब लुत्फ उठाया है, लोगों के बीच चर्चा का विषय आप बनाते रहे हैं। इनमें आपको संगठन के प्रति कोई गलत चीज़ नज़र नहीं आती। मगर मेरी पत्नी (श्रीमती नाज़िया ग़ाज़ी, संपादक-गुफ्तगू) जब प्रगतिशीलता की विडंबनाओं पर लिखती हैं तो आपकी परेशानी बढ़ जाती हैं, तब आपको अचानक लगते लगता है कि इस विषय पर नहीं लिखा जाना चाहिए। मेरी पत्नी द्वारा लिखे गए जिस आलेख पर आपको परेशानी है, उसे पढ़कर तो ऐसा लगता है कि प्रलेस में बहुत कुछ गड़बड़ चल रहा है, इसमें सुधार लाने की जरूरत है। हैरानी की बात यह है कि इसके लिए आपने मेरे खिलाफ अभियान चलाना शुरू कर दिया, क्या यही है मौजूदा दौर की प्रगतिशीलता। महोदय, हम लोकतांत्रिक देश में रहते हैं और हमें असहमति को खुशी से स्वीकार कर उस पर चर्चा करनी चाहिए, लेकिन आप किसी भी गलती को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं, क्या कोई संगठन ऐसे चलता है? आप यह चाहते हैं कि आप और कार्यकारी सचिव महोदया जो आदेश जारी कर दें या जो निर्णय ले लें, उसका प्रलेस से जुड़े सारे लोग पालन करें। क्या सांस्कृतिक व साहित्यिक संगठन का संचालन ऐसे ही होता है?
भारत में प्रलेस के गठन से पहले का एक वाक्या आपको याद दिला दूं। संभवतः 1934-35 की बात है। पेरिस में वर्ल्ड राइटर एसोसिएशन का कांफ्रेंस में हुआ। इसमें भारत से सज्जाद ज़हीर और मुल्क राज आनंद सहित कई अन्य लोगों ने शिरकत की थी। इसे देखकर सज्जाद जहीर को लगा कि इसी तरह का एक  संगठन भारत में बनना चाहिए। श्री जहीर ने एलिया एडनवर्ग से इस संबंध में बात की, एलिया ने इस पर खुशी जाहिर करते हुए, दो महत्वपूर्ण बात कही। पहली- लिटरेरी सोसाइटी में किसी लोकत्रांतिक देश के संविधान से ज्यादा लोकत्रांतिक माहौल होता है, हर किसी की सहमति-असहमति पर गौर किया जाना चाहिए। दूसरी-साहित्यकारों को एक जगह इकट्ठा करना मेढक तौलने के बराबर है। इसके बाद सज्जाद जहीर ने लंदन के एक रेस्त्रां में प्रलेस का संविधान बनाया और भारत में प्रेमचंद सहित कई लोगों से बातकर प्र्रलेस की नींव डाली।
इलाहाबाद की मौजूदा कार्यकारिणी सचिव महोदया ने एक पत्र मेरी पत्नी के नाम लिखा है, जिसमें उन्होंने बताने की कोशिश की है कि तीस्ता के कार्यक्रम के बहिष्कार का निर्णय एक बैठक करके लिया गया है। इस पत्र के संबंध में दो बातें कहनी है। पहली- सचिव महोदया ने प्रलेस की कार्यकारिणी से पास कराए बिना ही पत्र लिख दिया। क्या यह सही है, क्या प्रलेस उनकी व्यक्तिगत प्रापर्टी है? दूसरी- सचिव महोदया ने पत्र के साथ कुछ अखबारों में छपी खबर की कटिंग लगाई है, जिनमें छपा है कि प्रलेस की बैठक में यह निर्णय लिया गया कि तीस्ता के कार्यक्रम में शामिल नहीं हुआ जाएगा। मगर सच्चाई यह है इस बैठक में शामिल हुए अधिकतर लोग तीस्ता के कार्यक्रम में शामिल हुए थे। आखिर यह कैसी बैठक है और ये कैसा निर्णय है ?
श्रीमती नाज़िया गा़ज़ी के जिस लेख को लेकर आपत्ति है, उसके कुछ ंिबंदुओं पर आपका ध्यान दिलाना जरूरी है। तीस्ता सीतलवाड़ के कार्यक्रम को लेकर प्रलेस द्वारा लिए निर्णय के संबंध में जो उस लेख में लिखा गया है, वो बिल्कुल सही है। आपने पहले से ही निर्णय लेकर प्रलेस की बैठक बुलाई और तय किया कि कोई भी इस कार्यक्रम में भाग नहीं लेगा, क्योंकि इसमें कांग्रेस की नेता डॉ. रीता बहुगुणा जोशी शामिल हो रही हैं। इसके बावजूद दो-तीन लोगों केा छोड़कर पूरा प्रलेस शामिल हुआ। अब आपके निर्णय और बैठक के औचित्य को क्या कहा जाए, कितना सफल रहा? इससे कई चीज़ें निकलकर सामने आ रही हैं। आपका यह तर्क कि प्रलेस के जितने लोग तीस्ता के कार्यक्रम में शामिल हुए हैं, वो सभी व्यक्तिगत तौर पर शामिल हुए थे। अब यह समझ से परे है कि व्यक्तिगत और संगठनात्मक क्या होता है। क्या ये संभव हैं कि जब कोई इंसान चार-पांच या आठ-दस कांग्रेसियों के साथ कहीं बैठ जाए तो वह कांग्रेसी और अकेले कहीं जाए तो भाजपा, सपा या बसपा की मानसिकता का होगा। आपके मुताबिक इंसान व्यक्तिगत पर किसी संगठन का होता है और संगठनात्मक तौर पर ठीक उसके विपरीत। आपका यह तर्क किसी भी हिसाब से उचित है क्या? एक दूसरी बात इसी मामले में सामने आ रही है कि आपने बैठक करके इसमें शामिल नहीं होने का निर्णय लिया क्योंकि कांगेसी नेत्री इसमें शामिल हो रही थीं। इसी आयोजन के तकरीबन दस दिन बाद जब आपने सांप्रदायिकता विरोधी रैली निकाली तो इसमें आपने एक ऐसे कांग्रेसी नेता को भी शामिल किया और उसका कार्ड पर नाम छापा, जिसने कुछ दिन पूर्व अपने यहां श्री राहुल गांधी की बैठक बुलाई, ग्रामीणों केा बुलवाकर कांग्रेस के हक में वोट देने की बात कहलवाई। ये आपका कौन सा स्टैंड है? प्रलेस के ही संरक्षक मंडल में कई ऐसे लोग भी शामिल हैं जो कांग्रेस और सपा के संगठन तक में अंदर तक जुड़े हैं, महत्वपूर्ण कार्य अपनी पार्टियों के लिए करते हैं, क्या इन्हें प्रलेस का संरक्षक रहना चाहिए। इसी आयोजन में बीएसयू के अवकाश प्राप्त अध्यापक श्री चौथी राम जी शामिल हुए थे। उन्होंने अपने वक्तव्य में मुजफ्फनगर दंगे के लिए गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और भाजपा नेताओं केा जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने प्रदेश की सपा सरकार के खिलाफ एक शब्द नहीं बोला। प्रदेश की सत्ता की बागडोर संभाल रही सरकार क्या इसके लिए बिल्कुल भी जिम्मेदार नहीं है? उच्चतम न्यायालय भी इस मामले में प्रदेश सरकार को लापरवाह बता चुकी है। लेकिन श्री चौथी राम जी को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से पुरस्कार मिला है, इसलिए प्रदेश सरकार के खिलाफ नहीं बोलेंगे। श्री चौथी राम जी का यह स्टैंड आपकी नजर में बिल्कुल ठीक है।
इसी प्रकार प्रलेस के राष्टीय अध्यक्ष महोदय दिल्ली में भाजपा और आरएसएस के तमाम नेताओं के साथ मंच साझा करते रहे हैं, तब किसी को कोई आपत्ति नहीं, वे सही हैं। उनके तमाम फोटोग्राफ देखे जा सकते हैं।
                                                    इम्तियाज़ अहमद गा़ज़ी
                                                    सदस्य सचिव मंडल-  प्रलेस
                                            

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