फहमीदा रियाज़ अंतरराष्ट्रीय ख़्याति प्राप्त तरक्की पसंद अदीबा व शायरा हैं. पाकिस्तान के सिंध राज्य में रहती हैं. यूं तो पाकिस्तान में एक से बढ़कर एक शायरा पैदा र्हुइं, लेकिन परवीन शाकिर, जह़रा निगाह, किश्वर नाहिद और फहमीदा रियाज़ की तरह किसी और शायरा को इतनी शोहरत व मक़बूलीयत नसीब नहीं हुई. फहमीदा रियाज़ इलाहाबाद में दूसरी बार नवंबर 2013 में आयी. इसी दौरान गुफ़्तगू के उपसंपादक डॉ. शाहनवाज़ आलम ने बात की. प्रस्तुत है उसके कुछ प्रमुख भाग.
सवालः आपने लिखना कब शुरू किया?
जवाबः जब मैं 15(पंद्रह) साल की थी, तभी कालेज के दिनों में एक नज़्म लिखी थी. जिसको मेरे दोस्तों ने बहुत सराहा. दोस्तों की ही जिद़ पर मैंने यह नज़म पाकिस्तान के उस ज़माने के मशहूर रिसाला ‘फूनून’ में छपने के लिए भेजा. जिसके संपादक मशहूर अफ़साना निगार व शायर अहमद नदीम क़ासमी थे.
सवालः आपका पहला काव्य संग्रह कब प्रकाशित हुआ?
जवाबः ‘पत्थर की ज़बान’ 1968 ईं. में छपा तब मैं 22 साल की थी. मेरे शादी को सिर्फ दो महीने हुए थे.
सवालः अपनी शुरूआती ज़िन्दगी के बारे में कुछ बताइए?
जवाबः मैं 28 जुलाई 1946 को उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में पैदा हुई. मेरे वालिद रियाजुद्दीन अहमद जदीद दौर के माहिरे तालीम थे. उन्होंने सिंध पाकिस्तान में इस सिलसिले में ज़बरदस्त काम किया. वह वहां जदीद तालीम के बानी माने जाते हैं. जब मैं चार साल की हुई तो वालिद साहब का इंतेक़ाल हो गया. वालिदा ने परवरिश की. मेरी वालिदा हुस्ना बेगम ने बड़ी ही जद्दोजहद से हम लोगों को पढ़ाया. सिंधी और उर्दू मीडियम से मैंने पढ़ायी की और इन दोनों ज़बानों में शायरी भी. बाद में मैंने फारसी और अंग्रेजी भी सीखी. कालेज के दिनों में ही मैं पाकिस्तान रेडियो मंे न्यूज कास्टर की हैसियत से काम करने लगी.
सवालः अपने इब्तेदाई दिनों की कोई नज़्म सुनाइए?
जवाबः मेरी चमेली की नर्म खुश्बू/हवा के धारे पर बह रही है
हवा के हाथों में खेलती है/तेरा बदन ढूंढने चली है
मेरी चमेली की नर्म खुश्बू/ मुझे तो ज़ंज़ीर कर चुकी है
उलझ गयी कलाईयों में/मेरे गले से लिपट गयी है
वह याद की कुहर में छुपी है/सियाह खुन्की में रच गयी है
घनेरे पत्तों में सरसराते/तेरा बदन ढूंढने चली है।
सवालः अपने परिवार के बारे में कुछ बताइए?
जवाबः ग्रेजुएशन के बाद मेरी शादी हुई. एक बेटी हुई, कुछ सालों बाद तलाक़ हो गया. उस वक्त मैं बीबीसी उर्दू प्रोग्र्राम से मुंसलिक हो गयी थी. इसी दौरान मैंने फिल्म मेंकिग में डिग्री हासिल की. कराची में एक एडवरटाइजिंग एजेंसी खोली और एक उर्दू प्रकाशन ‘आवाज़’ नाम से शुरू किया. उन्हीं दिनों जफ़र अली उज़ान से मुलाक़ात हुई. वह एक लेफिस्ट पॉलिटीकल कार्यकर्ता थे. हम लोगों ने एक दूसरे को पसंद किया और शादी कर लिया. इनसे दो बच्चे हुए वीरला अली उज़ान, कबीर अली उज़ान (मरहूम). हमारे पब्लिकेशन ‘आवाज़’ में लिबरल और राजनैतिक किताबों की खबर लोगों तक पहुंची. लोगों ने खूब बवाल मचाया और कई तरह के मुकदमे हम पर डाल दिए गए थे. मुक़दमे जफ़र पर भी थे. ब्रिटिश ऐक्ट 124ए के तहत मुकदमें चले. मैं आवाज़ की एडिटर और पब्लिशर थी. ज़फर जेल चले गये. हमें हमारे चाहने वालों ने जेल जाने से पहले ही जमानत पर रिहा करवाया और मैं अपने दो छोटे बच्चों और बहन के साथ हिन्दोस्तान आ गयी. बाद में जेल से छूटकर ज़फ़र भी हिन्दोस्तान आ गये. मैंने यहां सात साल गुज़ारे. इस दौरान जामियां मिल्लिया इस्लामिया और जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर की हैसियत से काम किया. फिर बेनज़ीर भुट्टों के शादी के मौके से हम लोग पाकिस्तान गए. जब बेनज़ीर भुट्टों पहली बार प्रधानमंत्री बनीं तो हमें नेशनल बुक फाउंडेशन का मैनेजिंग डायरेक्टर बनाया गया. नवाज़ शरीफ सरकार ने हमें हिन्दोस्तानी एजेंट और बहुत सारे इल्जाम से नवाज़ा. जब बेनजीर भुट्टों दूसरी बार वज़ीरे आज़म बनी तो मुझे क़ायदे आज़म एकेडमी का चार्ज दिया गया. इसी दौरान मेरा बेटा कबीर अक्टूबर 2007 ई. में अपने दोस्तों के साथ पिकनिक मनाने गया और स्विमिंग के दौरान हादसे का शिकार हुआ. 2008 में मैंने मौलाना रोमी की पचास नज़्मों का तर्जुमा फारसी से उर्दू में किया. यह मसनवी मौलाना जलालुद्दीन रोमी ने अपने शेख शम्स तबरेज़ को डेडीकेट किया है. मैं 2000 से 2011ई. तक उर्दू शब्दकोश बोर्ड की मैनेजिंग डायरेक्टर भी रही. मैंने सामाजिक और राजनैतिक कार्यकर्ता के रूप में भी काम किया. मैंने सिंध यूनिवर्सिटी में एम.ए के दौरान छात्र राजनीति में हिस्सा लिया. मैंने यूनिवर्सिटी संविधान के खिलाफ खूब लिखा. जनरल अयूब खां के जमाने में छात्र राजनीति पर पाबंदी लगा दी गई. जनरल ज़िया उल हक़ के ज़माने में हमें बहुत ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ा.
सवालः आप अपनी रचनाओं के बारे में कुछ बताइये. अब तक आपकी काव्य और गद्य की कितनी किताबें छप चुकी हैं?
जवाबः- जो मन में आता है लिख देती हूं. बाद में कई बार लोग बुरा-भला भी कहते हैं जिससे तकलीफ़ होती है. एक लड़की होना हमारे समाज में एक ऐसी चीज़ है जो समझ से परे है. लड़कियों को इंजॉय करने की समाज इजाज़त नहीं देता. मैं तो कुछ लिख भी देती हूं, लेकिन समाज अभी भी दकियानूसी दौर में जी रहा है. वैसे मैंने 15 साल की उम्र में लिखना शुरू किया. मेरी पहली नज़्म उस जमाने के मशहूर रिसाला फूनून में शाया हुआ. कई मुजमुए, नावेल और तर्जुमें प्रकाशित हुए. ‘बदन दरीदा’, पत्थर की जब़ान, ख़ते मरमूज़, गोदावरी नावेल, क्या तुम पूरा चांद न देखोगे, कराची, गुलाबी कबूतर, धूप, आदमी की ज़िन्दगी, खुले दरीचे से, हलक़ा मेरी जंजीरों का, अधूरा आदमी, पाकिस्तानी लिट्रेचर और सोसायटी, क़ाफिला परिंदो का, ये खाना-ए-आबो-गिल, दरीचा-ए-निगारिश, हम रिकाब आदि. इसमें शेरी मजमुए, नाविल, सफरनामे और तर्जुमें वग़ैरा शामिल है.
सवालः जब आप हिन्दोस्तान तशरीफ लाईं तो यहां किसी तरह की परेशानियों का सामना तो नहीं करना पड़ा?
जवाबः परेशानी ही परेशानी थी, लेकिन यहां मेरे दोस्तों ने संभाला. खासतौर से जनवादियों ने डी.पी.त्रिपाठी साहब ने उस वक्त मेरी बहुत मदद की. पहले वह कम्यूनिस्ट पार्टी में थे. अब शायद पार्टी बदल ली है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक दंगों का बाज़ार गर्म था. आडवानी साहब रथ यात्रा निकाल रहे थे. गुलाम ख्बानी ताबां, डी.पी.त्रिपाठी और मैं पश्चिम उ.प्र. के दौरे पर गए. जिस तरह के खून खराबे से हम सिंधी मजबूर थे. उसी तरह के हालात पैदा हो गये थे.
सवालः सबसे मुश्किल दौर आपके ज़िन्दगी का कौन सा था?
जवाबः मैं हिन्दोस्तान इसलिए आयी थी कि यह एक सेक्युलर मुल्क है, लेकिन यह सब ख्वाब था. मैंने यहां के सांप्रदायिक माहौल पर एक नज़्म ‘नया भारत’ लिखा. इस पर इतना बड़ा हंगामा हुआ कि पूछिये मत. दो दिन बाद मेरी फ्लाइट थी. मैं सोच नहीं पा रही थी कि क्या करूं. फिर मैं पाकिस्तान वापस चली गयी. वह नज़्म हमें कुछ कुछ याद आ रहा है.
नया भारत
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले/अब तक कहां छुपे थे भाई।
वह मुरखता वह घामड़पन,/जिसमें हमने सदियां गंवायी।
आखिर पहुंची द्वार तुम्हारे,/अरे बधाई, बहुत बधाई।
प्रेत धर्म का नाच रहा है, कायम हिन्दू राज करोगे।
सारे उलटे काज करोगे, अपना चमन ताराज़ करोगे।
तुम भी बैठे राज करोगे,/सोचा कौन है हिन्दू कौन नहीं है।
तुम भी करोगे फतवा जारी,/अरे बधाई बहुत बधाई।
एक जाप सा करते जाओ,/बारम-बार यही दुहराओ।
कितना वीर महान था भारत/कैसा आलीशान था भारत।
प्रेत धर्म का नाच रहा है/अरे बधाई बहुत बधाई
इस नज़्म को मेरे दोस्त खुशवंत सिंह जो एक सीनियर सहाफ़ी भी हैं ने अंग्रेजी में तर्जुमा करके अंग्रेजी अख़बारात में प्रकाशित कराया.
सवालः पाकिस्तान में साहित्य पर क्या काम हो रहा है?
जवाबः पाकिस्तान में अदब में बहुत कुछ लिखा जा रहा है. मैं समझती हूं कि हिन्दोस्तान से ज़्यादा, क्योंकि वहां की ज़रूरत है. हिन्दोस्तान में जितनी आज़ादी औरतों को हासिल है, पाकिस्तान में नहीं है. मैंने समाजी, सियासी नाइंसाफी के खिलाफ़ खुलकर आवाज़ उठायी और बहुत कुछ लिखा.
सवालः पाकिस्तान में मजहबी ग्रुप बहुत ज़्यादा हावी है. हम लोग यहां के अख़बारों में पढ़ते रहते हैं कि कभी वह मस्जिद में धमाके कर रहे हैं तो कभी मदरसे में गोली चला रहे हैं. बार-बार फौज़ी हूकूमतें आ रही हैं, मार्शल ला लग रहा है, जम़हूरियत की धज्जियां बिखेरी जा रही है? ऐसे में वहां की जनता किस तरह रहती है?
जवाबः हां! यह बात कुछ हद तक सही हो सकती है. कुछ लोग है जिन्हें असल मज़हब के मायने नहीं पता है. इन लोगों को कौन बताये कि मज़हब लोगों को अलम करने के लिए नहीं है, बल्कि लोगों को जोड़ने के लिए आया है. यही सोच मार्क्स का भी है सांप्रदायिक सदभाव और मार्क्सवाद असल में एक ही चीज़ है. दोनों इन्सान को इन्सान बनाना सिखाता है और समाजी बराबरी की सीख देता है.
सवालः आपने मौलाना जलालुद्दीन रोमी के मसनवी का उर्दू तर्जुमा (शायद यह उर्दू का पहला मन्जूम तर्जुमा भी है) किया है? आप का नाम साउथ, इस्ट एशिया के मशहूर तरक्की पसन्द अदीबों में होता है. फिर आपने एक मज़हबी शायर के किताब का तर्जुमा किया बात समझ में नहीं आती?
जवाबः मार्कसी होने का मतलब नाज़ी के सारे फ़साने का ठुकराना हो ऐसा नहीं होना चाहिये. सज्जाद ज़हीर जब जेल में रखे गये तो उन्होंने ‘हाफ़िज़’ पर किताब लिखी, सरदार ने इक़बाल पर मैंने मौलाना रूमी पर लिखी तो कौन सी बुरी बात हुयी.
सवालः आपके पड़ोसी मुल्क अफगानिस्तान मेें अभी तक जंग-जारी है. क्या पाकिस्तान ने और वहां के अदीबों ने उस दिशा में अमनो, अमान के लिए कोशिशें की?
जवाबः वहां के हालात दूसरे हैं, अभी तो पाकिस्तान की ही हालत ठीक नहीं है. मजहबी ग्रुप हावी है. अफगानिस्तान में तालिबान की ज़ालिमाना हरक़त को पूरी दुनिया जानती है. उन्होंने वहां के तारीख को मिटाना चाहा. ‘बुद्ध’ जो शान्ति की अलामह है, उनकी मूर्ति को खाक में मिला दिया. इस पर मैंने एक नज़्म लिखी थी. मोजस्सेमा गिरा मगर ये दास्तां अभी तमाम तो नहीं हुयी दिया कई बरस तैय हुये. लिखेगा दिन को आदमी/बरंगे आबो जुस्तजू/ वह हुस्न की तलाश में/वह मुन्सफ़ी की आस में/खुली है सड़क खुल गयी दुकां में कितना माल है/दुकां में दिलबरी नहीं/मकां में मुन्सिफ़ी नहीं/ अभी तो हर बला नयी/अभी है काफ़ले रवां/गुलों मेें नस्ब है निशा।/मुजस्सेमा गिरा मगर/जमीं पे ज़िन्दगी दुकां के नाम पर नहीं हुयी/हमारी दास्तान अभी तमाम पर नहीं हुयी.
सवालः हिन्दोस्तान और पाकिस्तान को आपसी रिश्ते की बहाली के लिए आपकी नज़र में क्या कदम उठाना चाहिये?
जवाबः दोनों तरफ की अवाम अमन चाहती है. दोनों मुल्कों को चाहिये कि ाजां में आसानी पैदा करें. कश्मीर तनाज़े का शांतिपूर्ण हल निकाला जाये. दोनों मुल्क अपने सैन्य वजह में कमी करके आम जनजीवन के लिए काम करें. दोनों मुल्कों को एक दूसरे की टेक्नोलाजी से फायदा उठाना चाहिये. अंतरराष्टीय अमन और एलाक़ाई अमन के लिए सार्क मुल्कों की आपसी मशविरे और गुफ़्तगू करके एक बड़़ा मजबूत ‘नो वार पैकेट एग्रीमेंट’ करें. तक़सीने हिन्द के बाद इलाके में रहने वाले लोगों के रिश्ते सरहद के उस पर बंट गये, उसकी बहाली की कोशिश करनी चाहिये. ब्तवेे व िस्ण्व्ण्ब्ण् ज्तंकम को फ़रोग देने के लिए दोनों तरफ के ब्ींउइमते व िबवउउमतबम पदकनेजतपमे को ऐतेनाद में लेकर मसबत कदम उठायाा जाये. दोनों तरफ सैकिंग सिस्टम को बहाल करके हिजारत को फरोग़ दिया जाये।
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें