नवाब शाहाबादी अंक का विमोचन और मुशायरा
इलाहाबाद। साहित्यिक पत्रिका ‘गुफ्तगू’ अपने प्रकाशन के 11वें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है, इलाहाबाद शह्र से इस तरह की पत्रिका का प्रकाशन होना अपने आप में बेहद सराहनीय है। गुफ्तगू टीम ने इस दौर में साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन सफलतापूर्वक करके एक मिसाल कायम किया है। ये बातंे वरिष्ठ शायर एम.ए.क़दीर ने छह अप्रैल 2014 को महात्मा गांधी अंतरराष्टीय हिन्दी विश्वविद्यालय के परिसर में नवाब शाहाबादी अंक के विमोचन अवसर पर कही। वे कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि मौजूद रहे। कार्यक्रम की अध्यक्षता पं. बुद्धिसेन शर्मा ने की, विशिष्ट अतिथि के तौर पर कानुपर के प्रो. खान फारूक, प्रो. अली अहमद फ़ातमी और गोपीकृष्ण श्रीवास्तव मौजूद रहे। संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया। गोपीकृष्ण श्रीवास्तव ने अपने संबोधन में कहा कि यह पत्रिका अब धीरे-धीरे इलाहाबाद की पहचान बन गई है। हमें ऐसे प्रयासों की प्रसंशा करनी चाहिए।दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया।
इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी-
अब इलेक्शन का ये फलसफ़ा हो गया।
वो जो क़ातिल रहा रहनुमा हो गया।
नरेश कुमार महरानी-
निगाहों में बसी थी तू कभी मेरे इस तहर के,
भुलाने तुझे कसमें कभी खाई नहीं होती
अजय कुमार-
मर्यादा के भाव न जाने,बनते रधुनंदन,
कट्टा पिस्टल हाथों में है
माथे पर चंदन
शिवपूजन सिंह-
कुछ यादें कुछ वादें, कुछ दिल की फरियादेंकुछ इरादे कुछ मुरादें,
कुछ कुछ यही तो है ज़िन्दगी
कविता उपाध्याय-
ज़िन्दगी ख्वाब की मानिन्द हुई जाती है,
जब तलक होश में आए हैं फिसल जाती है।
अख़्तर अज़ीज़-
हमसे अलग-थलग वो कहीं डर के हो गए,
हम एहतियातन आज से पत्थर के हो गए।
रमेश नाचीज़-
दो पैरों दो हाथों वाले जितने भी हैं दुनिया में,मैं सबको इंसान समझ लूं ये कैसे हो सकता है।
संजू शब्दिता-
बेकली मेरे दिल की मिटा दीजिए।
ऐ मेरे चारागर कुछ दवा दीजिए।
शैलेंद्र जय-
ज्ीने की कला मैंने फूलों से उधार ली है,
यू ही नहीं ज़िन्दगी कांटों में गुजार ली है।
मनमोहन सिंह तन्हा-
काम जो तन्हा करो तुम काम वो दिल से करो,
ज़िन्दगी का क्या भरोसा आज है कल हो न हो।
रज़िया शबनम-
मैं किससे गुफ्तगू करूं किससे मिलूं गले,
मुझको अभी खुलूस का इंसां नहीं मिला
।
रोहित त्रिपाठी ‘रागेश्वर’-
मेरे हंसने से चिढ़ते हो अगर तो पहले कह देते,मेरे कारण तेरा जलता है घर तो पहले कह देते।
-
नुसरत इलाहाबादी-
उनकी आंखों में तश्नगी के सिवा,
हमने अब तक नमी नहीं देखी।
अरविन्द कुमार वर्मा-
कई बार होठों पर याचना के थरथराए हैं वचन,
भूली सी राह पर बढ़ गए हैं अंजाने कदम।
अशरफ अली बेग-
तड़प हर आन पीछे जाएगी फ़िर,
बला टल करके भी सर आएगी फिर.
तड़प हर आन पीछे जाएगी फ़िर,
बला टल करके भी सर आएगी फिर.
डा. विक्रम-
खता क्या थी कि लोगों ने पागल बना दिया,
बाजार गया तो लोगों ने अवारा बना दिया।
केशव सक्सेना-
सार्वजनिक होती अश्लीलता सेअपने देश को बचाओ
नई पीढ़ी को संस्कार सिखाओ।
अमित कुमार दुबे-
नये ये नजारे बहुत दिलनशीं हैं,
मगर मुझको भाती है चीजें पुरानी।
रितंधरा मिश्रा-
निगाहों से शरारत सामने ही कर रहा कोई,
अपनी ही अदायगी से मोहब्बत कर रहा कोई।
अजय पांडेय-
ढल रही शाम यह दिन गगन में ढल गया,लो ज़िन्दगी का एक दिन हाथ से फिसल गया।
एम.ए.क़दीर-
खेल और जंग के वह खुद ही बनाता है उसूल,और जब हारने लगता है, बदल देता है।
रोज़ पत्थर की इमारत पर कहां पड़ती है जान,
इश्क़ सदियों में कोई ताजमहल देता है।
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