- NAZIYA GHAZI
प्रगतिशील लेखक मंच और इसके सहयोगी संस्थाओं ने 8 दिसंबर 2013 को इलाहाबाद में सांप्रदायिकता विरोधी रैली निकाली, सभा और काव्य संध्या का आयोजन किया। इसमें शिरकत करने के लिए बाहर से भी कई प्रगतिशील लोग आए थे। मुद्दा था कि देश-प्रदेश में सांप्रदायिकता फैलाने वालों के प्रति लोगों को जागरुक किया जाए। देखने-सुनने में तो यह विषय बहुत ही अच्छा है, लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है। इस आयोजन के तकरीबन 10-12 दिन पहले तीस्ता शीतलवाड़ गुजरात से इलाहाबाद आयीं थीं, इनको लेकर कई सामाजिक संगठनों ने गोष्ठियों का आयोजन किया। तीस्ता ने गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों की वास्तविकता से लोगों को रुबरु कराया, इन आयोजनों में कांग्रेस की रीता बहुगुणा जोशी सहित कई नेता और कार्यकर्ता भी शामिल हुए। कांग्रेसियों के शिरकत करने पर प्रलेस की इलाहाबाद इकाई ने आपत्ति जताई, उनका कहना था कि इसमें किसी राजनैतिक दल को शामिल नहीं किया जाना चाहिए। प्रलेस ने सिर्फ़ आपत्ति ही नहीं जताई बल्कि तीस्ता के कार्यक्रमों का बहिष्कार भी किया। मजे की बात यह है कि विरोध करने का निर्णय भी प्रलेस इलाहाबाद इकाई के दो-तीन लोगों ने मिलकर ले लिया, कार्यकारिणी में शामिल एक दर्जन से अधिक लोगों की राय तक इस विषय पर नहीं ली गई। इसका नतीज़ा यह हुआ कि सिर्फ़ तीन-चार लोग ही इनके विरोध के समर्थन में आए, इनके अलावा पूरा प्रलेस तीस्ता के कार्यक्रमों में शरीक हुआ। अब सवाल यह उठता है कि सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन में अगर किसी राजनैतिक दल के लोग शामिल हो रहे हैं, तो इसमें गलत क्या है, हमें तो ऐसे लोगों का स्वागत करना चाहिए, चाहे वे किसी दल से हों। गलत तब होता जब किसी राजनैतिक दल के आयोजन में प्रलेस या कोई सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन शामिल हों। अगर हमारे आयोजन में कोई शिरकत करने आता है तो यह हमारे लिए अच्छी बात है, इससे नतीज़ा यह निकलता है कि हमारा आयोजन-आंदोलन सही दिशा में हैं।
सिक्के के दूसरे पहलू को देखा जाए तो तीस्ता के कार्यक्रमों के बाद 8 दिसंबर को जब सांप्रदायिकता विरोधी रैली निकाली गई। इसमें एक ऐसे व्यक्ति-नेता को भी आमंत्रित किया गया जिसने कुछ दिनों पहले अपने देखरेख में कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी का चौपाल लगाया था, ग्रामीणों को बुलाकर उन्हें कांग्रेस के हक़ में वोट देने की बात कहलवायी गई थी। आखिर प्रलेस का यह कैसा चरित्र है, दूसरे के आयोजन में कांग्रेसी नेता आएं तो उसका विरोध और खुद के आयोजन में ऐसे लोगों को आमंत्रण। 8 दिसंबर के ही कार्यक्रम में शामिल होने के लिए बीएचयू के एक अवकाश प्राप्त अध्यापक को बुलाया गया, जिनके प्रगतिशील होने का डंका प्रलेस के लोग खूब पीटते हैं। इन्होंने अपने सांप्रदायिका विरोधी वक्तव्य में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की जमकर अलाचोना की, यहां तक कि मुजफ्फनगर दंगों के लिए भी भाजपा और उसके सहयोगियों पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराया। मजे की बात यह है कि उत्तर प्रदेश सरकार के खिलाफ़ एक शब्द भी नहीं कहा। जबकि मुजफ्फनगर दंगों के मामले में यह बात पूरी तरह से उजागर होकर सामने आयी है कि शासन-प्रशासन की लापरवाही से ही दंगा इतना अधिक भड़का। अगर प्रशासन सख़्त हो जाए तो बड़े से बड़े षयंत्रकारी की हिम्मत नहीं है कि वह अपने नापाक इरादे में कामयाब हो सके। मगर बीएचयू के सेवानिवृत्त अध्यापक महोदय को ऐसा नहीं लगता, उनकी नज़र में मुजफ्फनगर दंगों के प्रति प्रदेश सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं है। बाद में पता चला कि इन महोदय को प्रदेश सरकार की एक संस्था ने ‘लोहिया सम्मान’ से नवाजा़ है, इसलिए वे उनके खिलाफ़ नहीं बोलेंगे, आखिर यह कैसी प्रगतिशीलता? क्या यही है वर्तमान समय की प्रगतिशीलता। इसी प्रकार प्रलेस के राष्टीय अध्यक्ष दिल्ली में बीजेपी और आरएसएस के नेताओं के साथ पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में मंच साझा कर रहे हैं, उनके साथ तमाम फोटाग्राफ सोशल मीडिया पर देखे जा सकते हैं, तब वे सही हैं और प्रगतिशील भी हैं? कुल मिलाकर प्रगतिशीलता का मतलब सभी धर्मों को गाली देना, अय्याशी करना और दारू-मुर्गा का सेवन करना रह गया है। प्रगतिशील लेखक संघ का पदाधिकारी बनने से कोई प्रगतिशील नहीं हो सकता, इंसान अपने कामों-विचारों और प्रगतिशीलता के अनुपालन से प्रगतिशील होता है। प्रगतिशील होने के लिए किसी संस्था का सर्टिफिकेट नहीं चाहिए।
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