सोमवार, 10 दिसंबर 2012

गुफ्तगू की मासिक काव्य गोष्ठी में चला शेरो-शायरी का दौर

इलाहाबाद। साहित्यिक पत्रिका ‘गुफ्तगू’ के तत्वावधान में 02 दिसंबर को करैली स्थित अदब घर में काव्य गोष्ठी एवं नशिस्त का आयोजन किया, जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ शायर एहतराम इस्लाम ने किया, मुख्य अतिथि सागर होशियारपुरी थे। संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया। सबसे पहले युवा कवि भानु प्रकाश पाठक ने कविता सुनाई-
लक्ष्य जाना है अविरल चलो चलते रहो
लाख आये मुश्किलें पर तुम सदा बढ़ते रहो।
जब तक सफलता न मिले संघर्ष यूं करते रहो
साधना का दीप बन जलते रहो जलते रहो।
शायरा हुमा अक्सीर ने ग़ज़ल पेश की-
कैसे-कैसे मंज़र मुझे दिखाई देता है।
उसके हाथों में जो खंज़र दिखाई देता है।
अब किसे तिश्नालब जा के मैं सुनाउंगी,
प्यासा-प्यास मुझे समुंदर दिखाई देता है।
शादमा बानो की कविता यूं थी-
देखा है तुम्हें शशि की  शीलतता में
और पाया है पुष्पों की सुगंधता में
विमला वर्मा ने कहा-
निज स्वरूप को भूल के मानव क्यों आपस में लड़ते,
प्राणिमात्र में बसे राम तज भूमि की खातिर मरते।
शैलेंद्र जय की कविता भी सराहनीय रही-
म्ुमकिन है कि वो नज़रों से उतार दे
पर करता हूं वही जो दिल को करार दे।
अवधेश अनुरागी ने कहा-
तुम्हारी आंखों से कलम होते हैं हजारो आशिक़,
खता तुम से ये करते हो, तुम्हें सुधरना होगा।
आज मिटा दो ख्याल हमारा अपने जहन से,
याद कल आउंगा, तो तुम्हें संवरना होगा
राजेश कुमार ने अच्छा दोहा सुनाया-
मैंने तेरी राह में, रख दी है तकदीर।
रामानुज की राह में, जैसे पड़े कबीर।
फरमूद इलाहाबादी ने हास्य-व्यंग्य सुनाया-
मिलीं जो सूपनखा, पूतना की खाला मिलीं
मेरे नसीब में लड़की झकास है नहीं नहीं
डा. मोनिका मेहरोत्रा ‘नामदेव’ ने कहा-
प्रकृति जो सिखाती है, अगर सीख जाएं हम तुम,
बन जायेगा सुंदर जीवन, जिसमें होता परम आनंद।
प्रकृति जब शिक्षिका होगी, उचित ज्ञान तुम पाओगे,
मगर होती है मौन यह भाषा, क्या तुम इसे सुन पाओगे।
इम्तियाज़ अहमद गा़ज़ी की ग़ज़ल काफी सराही गई-
तुझको मेरे मरने की ख़बर है कि नहीं है
सच बोल मोहब्बत में असर है कि नहीं है।
माना कि मोहब्बत का तुम्हें शौक़ बहुत है
बतला तेरा पत्थर का जिगर है कि नहीं है।
फरहान बनारसी ने कहा-
अगर्चे तेज़ है तूफान खौफ़ क्या करना
हमें है इसका बहरहाल सामना करना।
तलब जौनपुरी ने अच्छा कलाम पेश किया-
चलो मिलजुलकर हम छेड़ें तराना प्यार का यारो
कि एखलाको मोहब्बत को ये शामिल साज़ अपना है।
सागर होशियारपुरी की ग़ज़ल सराहनीय रही-
कभी जब कैफ में डूबी सुहानी शाम होती है
मज़ा लेता है दिल लेकिन नज़र बदनाम होती है।

अध्यक्षता कर रहे एहराम इस्लाम ने दोहा पेश किया-
पंछी ही है फाख्ता, पंछी ही है बाज
बस दोनों का है जुदा जीने का अंदाज।

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें