सृजनात्मकता का सराहनीय प्रयास
- अजीत शर्मा ‘आकाश’
‘अस्तित्व की पहचान’ पुस्तक में कवयित्री मंजू लता नागेश की 109 काव्य रचनाएं संग्रहीत हैं। इन रचनाओं के वर्ण्य-विषय में विविधता दृष्टिगोचर होती है। जीवन के विविध क्षेत्रों पर लेखनी चलाने का प्रयास किया गया है। अधिकतर रचनाएँ आध्यात्मिक प्रवृत्ति की सम्मिलित की गयी प्रतीत होती हैं। संग्रह में सावन में बदरा झूम झूम बरसो, बसंत ऋतु स्वागत गीत, सावन की फुहार आई, रंग बसंती देख छवि मन रचनाओं में ऋतु वर्णन किया गया है। जय हिंद जय भारत, देश के जांबाज़ों को शत-शत नमन, एकता, हमारे पूर्वज, आगे बढ़ना ऊंचाई पर चढ़ना मं देशप्रेम एवं भारतीय संस्कृति का पोषण व्याप्त है। महिला पर्वों एवं त्यौहारों पर आधारित रचनाएँ भी हैं, यथा-करवाचौथ, नागपंचमी, अक्षय तृतीया, हरितालिका तीज, होली में, राखी की पहचान रहे आदि। कुछ रचनाएँ एक तुम प्रीतम, सावन के दिन प्रिय गुजरे कैसे, बस थोड़ा सा प्यार आदि रचनाएँ श्रृंगार रस की हैं, जिनके अन्तर्गत प्रणय, प्रेम एवं सौन्दर्य का शब्द-चित्रण करने का प्रयास किया गया है।
पुस्तक के कुछ अश इस प्रकार हैं -‘जला दो ज्ञान की ज्योति’- जला दो ज्ञान की ज्योति अन्तर्मन में सवेरा क्यों नहीं होता/हमारे घर कभी खुशियों का डेरा क्यों नहीं होता। ‘बस थोड़ा सा प्यार’- तुम ही प्रियतम गीत, ग़ज़ल हो, तुम हो सुर संसार/नैना बरसे निर्झर, बस थोड़ा सा इंतज़ार। ‘राखी की पहचान रहे’- त्योहारों का देश अनोखा जो भारत की है पहचान/राखी का त्योहार निराला इसकी एक निराली शान। ‘नारी शक्ति’- बहुत सहा जुर्म, त्याग नारियों का नहीं होगा बलात्कार है, बढ़ेगा मान मिलूगा हक़, अत्याचारों का पतन होगा ये चीत्कार है। ‘पर्यटन’- जीवन की आपाधापी में मन हो परेशान/घूम आए देश विदेश अब न हो परेशान। ‘सावन की फुहार आई’- सावन की बहार आई, तीज का त्यौहार लाई/भीग गए बन बाग, झूले की बहार छाई।
प्रस्तुत संग्रह को पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि रचनाकार को काव्य व्याकरण के विषय में विशेष जानकारी नहीं है, जिसके कारण पुस्तक में संग्रहीत कविताओं में काव्यानुशासन की कमी, काव्यात्मकता का नितान्त अभाव तथा छन्दहीनता दृष्टिगोचर होती है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि रचनाकार का यह प्रयास सृजनात्मकता एवं रचनाधर्मिता की दृष्टि से एक सराहनीय प्रयास है, जिसे और धार दी जाने की आवश्यकता है। गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित की गयी 128 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 250 रूपये है।
अशोक ‘अंजुम’ की ग़ज़लों का पठनीय संकलन
सुप्रसिद्ध साहित्यकार बालस्वरूप राही के सम्पादन एवं संचयन में ‘ग़ज़लकार अशोक ‘अंजुम’शीर्षक से 101 ग़ज़लों का संग्रह प्रकाशित हुआ है। संग्रह के अधिकतर शे’र युगबोध से जुड़े हैं तथा कहीं-कहीं प्रेम एवं श्रृंगार की भावनाओं को भी स्पर्श किया गया है। कथ्य के दृष्टिकोण से ग़ज़लों में वर्तमान समाज का चित्रण, जीवन की अनुभूतियां एवं संवेदनाएं, अपने एवं ज़माने के दुख-दर्द, सामाजिक सरोकार, आम आदमी का संकट, आज के राजनीतिक हालात आदि विषयों को स्पर्श करते हुए मनोभावों को अभिव्यक्ति प्रदान की गयी है। इनके माध्यम से रचनाकार ने सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियों को भी उजागर करने का प्रयास किया गया है; साथ ही अपने समाज और बदलते परिवेश के प्रति आम जन की चिंता भी व्यक्त की गयी है।
ग़ज़ल रचनाओं में आम बोलचाल की भाषा एवं कहीं-कहीं साहित्यिक भाषा दृष्टिगत होती है, जिसमें अन्य भाषाओं के शब्द जैसे ट्रेन आदि का भी प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त दवाई, दीखा, मेंटे जैसे क्षेत्रीय बोलचाल के शब्द भी हैं। वाक्य विन्यास के अन्तर्गत ‘न‘ के स्थान पर ‘ना‘ का प्रयोग उचित नहीं कहा जा सकता। कुल मुहल्ले खलबली, लहर हैं (पृ0-70), हो रहीं क्या-क्या बात (पृ0-116), सौ वारदात (पृ0-119), जैसे प्रयोग व्याकरणिक अशुद्धियों की ओर संकेत करते हैं। कुछ ग़ज़लों में दोस्तो, अजी, कि, अमा, अरे, यारो जैसे भर्ती के शब्द भी आये हैं। इनके अतिरिक्त ग़ज़ल व्याकरण की दृष्टि से रचनाओं में गुहर रख, कर रहा, सैंतालिस से, नज़र रेशमी, मत तू (ऐबे-तनाफ़ुर), उमर, इन्तेज़ार, किसम किसम, बज़ार, रस्ता, मज़्हब (ऐबे-तख़ालुफ-़किसी शब्द के हिज्जों से छेड़छाड़) तथा तक़ाबुले रदीफ जैसे दोषों का समावेश भी परिलक्षित होता है। पुस्तक में संग्रहीत ग़ज़लें सामान्य स्तर की कही जा सकती हैं। कुछ रचनाओं में सपाटबयानी भी प्रतीत होती है। पुस्तक में संकलित कुछ ग़ज़लों के अश्आर इस प्रकार हैं-“तू सिखाता है नेकियों का सबक़ दुनिया को/तेरे ही नाम पे बहता है लहू क्यों मौला।.....वफ़ाएँ लड़खड़ाती हैं भरोसा टूट जाता है/ज़रा-सी भूल से रिश्तों का धागा टूट जाता है।.....दुनिया को नई राह दिखाने के वास्ते/सूली पे चढ़े कौन ज़माने के वास्ते।.....मज़हब के सौदागर ने/मेंटे भाईचारे सब।.....निकली है आज छूने लो आसमान चिड़िया/भर लेगी मुट्ठियों में सारा जहान चिड़िया।..... खाना-पीना, हँसी-ठिठोली सारा कारोबार अलग/जाने क्या-क्या कर देती है आँगन की दीवार अलग।.....कुर्सियों का गणित बिठाते हैं/ये वतन को सँवारने वाले।.....दो-दो पैग लगा लें चल/तुझ पर कितने पैसे हैं।.....चाँद का अक्सर छत पर आना कितना अच्छा लगता है/तुमसे घंटों तक बतियाना कितना अच्छा लगता है।
कुल मिलाकर पुस्तक ग़ज़लकार अशोक ‘अंजुम’ को पठनीय कहा जा सकता है। 172 पृष्ठों की इस पुस्तक को सागर प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली ने प्रकाशित किया है, जिसका मूल्य 300 रूपये है।
(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2025 अंक में प्रकाशित)
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