शनिवार, 26 नवंबर 2022

फूल अब गुफ़्तगू भी करने लगे

                                      - डॉ. वारिस अंसारी 
                                           फतेहपुर
                                           मो. 9935005032



 ज़हे-नसीब आज मेरे हाथ में एक मशहूर सहाफी, गुफ्तगू जैसी अज़ीम पत्रिका के संस्थापक और मुनफरिद लब-ओ-लहजे के खूबसूरत शाइर इम्तियाज़ अहमद गाज़ी की ताज़ा तरीन किताब ‘फूल मुखातिब हैं’ मौजूद है। सवाल इस बात का है कि कोई किसी से क्यों मुखातिब होगा ? इसके दो तीन जवाब हो सकते हैं। एक तो ये कि मुख़ातिब होने वाले शख़्स का कोई काम हो, दूसरा रस्मी तौर पर भी लोग मुख़ातिब हो जाते हैं। तीसरी सबसे अहम वजह ये कि हम जिससे मुख़ातिब हैं, वह एक बा-सलाहियत और नेक इंसान है, वह लोगों की कद्र करना जानता है। यही सारी बातें इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी के साथ भी लागू होती है कि वह बा-सलाहियत शख़्स के साथ-साथ नेक दिल इंसान भी हैं। आप कमाल की शायरी करते हैं। इस किताब में तीन सौ अशआर हैं, जिसमें कहीं फूल गाज़ी से बात कर रहे हैं और कहीं गाज़ी साहब फूलों से गुफ्तगू करते नज़र आ रहे हैं। एक शे’र देखते चलें- 
            उनको देखा तो ये हुआ मुमकिन,
            फूल अब गुफ्तगू भी करने लगे।
  ऐसे बहुत से अशआर हैं जो कि काबिले-तारीफ हैं। आपने आसानी से और नए रंग में अशआर पेश कहं हैं। खुद गाज़ी साहब की ज़ुबानी ‘मैने चाय की चुस्कियों के साथ ऐसे अशआर कहे हैं’ इस तरह इतने खूबसूरत की शे’र की तखलीक अपने आप में किसी मोजेजा से कम नहीं। आपकी शायरी में संजीदगी है। अमन और भाईचारे का संदेश है। मोहब्बत का खूबसूरत पैगाम है और यही एक सच्चे शाइर का मकसद होता है। खूबसूरत कवर के साथ इस किताब में 80 पेज हैं। गुफ्तगू पब्लिकेशन प्रयागराज से प्रकाशित इस किताब की कीमत 150 रुपए है। उम्मीद करता हूं कि गाज़ी साहब की ये किताब अदब में आला मुकाम हासिल करेगी ।


सच्चाई का अक्स गई हैं ख्वाबों का जज़ीरह



 ख्व़ाबों का जज़ीरह सरफराज अशहर का शेरी-मजमूआ है, जिसमें 56 गजलें हैं। मजमूआ में गज़लें भले ही कम लग रही हों लेकिन जितनी गज़लें हैं एक से बढ़ कर एक हैं। सारी गज़लें हालात की अक्कासी करती नज़र आ रही हैं। सरफराज़ अशहर ने वही ख़्यालात पेश किए हैं जो कि एक सच्चा अदीब पेश करता है। इनकी गजलों को पढ़ कर अंदाज़ा होता है कि शायरी सिर्फ इनका शौक़़ नहीं बल्कि इन्हें लोगों के दर्द का एहसास भी है। समाजी हालात को बा-ग़ौर देखने के साथ-साथ आदिल के इंसाफ पर भी पैनी नज़र रखते हैं। मुफलिसों का कर्ब इन्होंने करीब से देखा है। यही सब वजूहात हैं कि जाम ओ साकी, लब ओ रुखसार तक नहीं गया। इन्होंने अपनी शायरी में सच् की आवाज़ बुलंद की है। ज़ालिम और गुमराह लोगों को आइना दिखाने का काम किया है जो काबिले-तहसीन है। अशहर साहब बहुत ही सादगी से अपनी बात कहने का हुनर जानते हैं। इनकी शायरी की एक बड़ी खूबी ये है कि पाठक आसानी से पढ़ता चला जाता है और बोझिल होने का एहसास भी नहीं करता। इनकी शायरी में बला की सादगी है और पुरानी बातों को भी नए स्लूब में ढाल देते हैं। जिससे कारी सोचने पर मजबूर हो जाता है। इनकी शायरी झूट और बनावट से पाक है। अगर इनका मश्के सुखन यूं ही जारी रहा तो आने वाले कल के लिए इनकी शायरी अदब में एक मुनफरिद पहचान की हासमिल होगी। इस मजमूआ में 140 पेज हैं। खूबसूरत जिल्द के साथ किताब की कीमत सिर्फ 250 रुपए है। इस किताब की किताबत रूशान प्रिंटर्स देहली से हुई है और एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है। उम्मीद करता हूं ख्वाबों का एक जजीरह अवाम व अदब में एक बुलंद मुकाम तक मकबूल होगा।


अवाम का एहसास है एहसास-ए-मुजाहिद



 
मुजाहिद हुसैन चौधरी अदब का वह नुमाया नाम है, जिसे किसी तआरूफ की ज़़रूरत नहीं। कहीं वह अपने पेशे (वकालत) के लिए पहचाने जाते हैं तो कहीं समाजी कारकुन और लोगों के मददगार के रूप में जाने पहचाने जाते हैं। आपकी अदबी पहचान तो बिल्कुल ही मुनफरिद है।  आपका शेरी-मजमूआ ‘एहसास-ए-मुजाहिद’ बहुत ही खूबसूरत और नायाब है। मैंने पढ़ना शुरू किया तो मुझे पता ही नहीं चला कि कब मैंने पूरी किताब खत्म कर ली। कहने का मतलब कि शायरी में जिस तरह की रवानी है, सादा अल्फाज़ हैं, उम्दा खयालात हैं पढ़ने में एक अलग किस्म का मज़ा देते हैं। आपकी शायरी इश्क़, मोहब्बत,  हालात की अक़्क़ासी सब कुछ बहुत दिलकश अंदाज़ में देखने को मिलता है। एक ख़ास बात और कि आपके यहां वतन-परस्ती का जज़्बा भी खूब है। एक मतला मुलाहेज़ा करते चलें- 
            शहीदाने वतन की ज़िंदगी किस्मत से मिलती है, 
            वतन पर जां लुटाने की घड़ी किस्मत से मिलती है।
   आपकी शायरी पढ़ कर अंदाज़ा होता है कि आपने शायरी को कहीं भी मजरूह नहीं होने दिया और निहायत खूबसूरती के साथ अशआर कहे हैं। लोगों के दर्द को अपना दर्द समझा और फिर उस एहसास को लोगों तक पहुंचाया जो आसान काम नहीं है। आपकी शायरी एहसासत का ज़खीरा है जो कि दुनिया ए अदब में मील का पत्थर साबित होगी। इस किताब की कंपोजिंग हर्फ कंपोजिंग सेंटर दिल्ली ने की है और प्रकाशन सलमान आफसेट प्रेस मौज पुर दिल्ली से हुआ है। 128 पेज की इस किताब की कीमत 90 रुपए है। इस खूबसूरत मजमूआ के लिए मैं मुजाहिद हुसैन चौधरी साहब को अमीक दिल से मुबारकबाद पेश करता हूं और दुआ करता हूं कि ये किताब अदबी घराने में खूब मक़बूल हो।


ज्ञान का भंडार है पिकनिक



पिकनिक शब्द का अर्थ यूं तो सैर सपाटा या किसी मनोरम जगह का भ्रमण करना है लेकिन मोहतरमा शाह ताज खान ने पिकनिक के माध्यम से बहुत कह दिया। बेहद आसान ज़बान में सरल शब्दों का प्रयोग करके लिखी गई वाकई पिकनिक की तरह ही लग रही है। पढ़ना शुरू कर दो तो ऐसा लगता है पढ़ते ही चले जाओ। ऐसे-ऐसे उदाहरण दे कर बात की गई है कि बच्चे भी आसानी से समझ सकते है जिससे बच्चों में ज्ञान का भंडार भी बढ़ेगा और उन्हें आनंद भी आएगा। अक्सर कुछ चीजें होती हैं जो पढ़ने में काम लेकिन सुनने और देखने पर ज्यादा समझमें आती हैं। लेकिन इस किताब का यही कमाल है कि जब आप इस किताब को पढ़ेंगे तो महसूस करेंगे कि हम वही दृश्य, वही चीजे़ं देख रहे हैं जो इस किताब में मौजूद हैं। जैसे पहली कहानी ही ले लीजिए जिसका शीर्षक ही पिकनिक है। इस कहानी में हाथी को मास्टर साहब के किरदार में दिखाया गया है जबकि शेर  चीता, बंदर आदि जानवरों के बच्चों को विद्यार्थी के रूप में। मास्टर साहब के साथ जानवरों के ये बच्चे पिकनिक पर जाते हैं। जहां इंसानों को पिंजरे में कैद किया गया है। सचमुच ये कहानी इंसान को झकझोर देने वाली है। 

 इस किताब में अठारह कहानियां हैं जो कि एक से बढ़ कर एक हैं। नाखूून, नींद, ज़बान संभाल के जैसी कहानियों को पढ़ कर बहुत कुछ सीखा जा सकता है। और बच्चों के लिए तो ये किताब बेहद कारामद है जिससे उनका दिमाग भी तेज होगा। किताब के पीछे कवर पेज पर मतीन अचल पुरी की एक बहुत ही शानदार तौशीही नज़्म भी है। खूबसूरत कवर, उम्दा किस्म का कागज़ और शानदार प्रिंटिंग वाली इस किताब पिकनिक में 112 पेज हैं। यह किताब का दूसरा एडिशन है, जिसे शाह ताज खान आफसेट भिविंडी, महाराष्ट्र से कंपोज कराकर समर पब्लिकेशन मालेगांव महाराष्ट्र से प्रकाशित किया गया है। कवर पेज की डिजाइन क्षितिजा वाहुवाल पूना से हुई है। इस किताब की कीमत मात्र 120 रुपए है। 



 अवाम का दर्द है ‘देखो तो जरा


ज़रा देखो तो अशफाक ब्रदर के नसरी नज्मों का संग्रह है। जो कि अपने अंदर अवाम की आवाज़, अवाम का दर्द समेटे हुए है। एक दौर था जब उसातज़ह (गुरुजन) लोग इस तरह की नस्री नज़्म/कविता को शायरी के पैराए से अलग मानते थे। मज़ाक की निगाह से देखते थे लेकिन धीरे-धीरे वक़्त बदला, लोग बदले और बीसवीं सदी के करीब यह विधा भी कविता में शामिल हो गई। आज इस तरह की कविताओं का चलन बन गया है। कहा जाए तो यह दौर ही आधुनिक कविताओं का दौर है। आधुनिक कविताएं पढ़ने में तो आसान लगती हैं लेकिन इनकी रचना करना उतना ही मुश्किल है। हालांकि बहर, औजान, रदीफ ,क़ाफिया में कै़द शायरों ने कभी आज़ाद नज़्म की जानिब तवज्जह नहीं दी, मगर कुछ अदबी दानिशवरों ने इस तरफ पूरा ध्यान दिया और यहां तक कह दिया कि शेर वज्न और बह्र का मोहताज नहीं बल्कि जो वाक्य नस्र (गद्य) में होते हुए भी एक भाव पैदा करे वह भी शेर है। 

     ऐसे ही सिफत के मालिक अशफाक ब्रदर हैं, जो कि नई नज्मों के एक बाकमाल शायर की हैसियत रखते हैं और अदब में भी उनका एक अलग मुकाम है। अशफाक ने अपने अदबी सफर की शुरुआत 1980 के बाद अफसानों से किया। उनके अफसानों में भी शायरी की झलक मिलती है। अशफाक ब्रदर की किताब ‘जरा देखो तो’ नसरी नज्मों का मजमुआ है। जिसमें अवाम का दर्द है, लोगों के दिल की बात है। उन्होंने जो देखा और महसूस किया वही अपनी नज्मों में ढाल दिया। उनकी एक छोटी सी नज़्म की बानगी देखें जो इंसान को सोचने पर मजबूर कर देती है- ‘पल पल कर/जवां होते अहसासात/ आज/क्या मांग रहे हैं ?/ तालीम या दो वक्त की रोटी/या फिर दोनो/मगर इसमें/अहम तरीन कौन?/रोटी या तालीम।’ ऐसी ढेरों नज्में मौजूद हैं । 

बेहद मकबूल किताब जरा देखो तो खूबसूरत जिल्द के साथ 166 पेज की इस किताब की कीमत सिर्फ 200 रुपए है। जो कि अब्दुल बाकी कासमी कम्प्यूटर से कंपोज हुई और इंप्रेशन प्रिंट हाउस लाटूस रोड लखनऊ से प्रकाशित हुई है। इस खूबसूरत संग्रह के लिए अशफाक ब्रदर को खूब खूब मुबारकबाद। उम्मीद कि अदब में ये किताब मील का पत्थर साबित होगी।


( गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2022 अंक में प्रकाशित )


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