मंगलवार, 29 मार्च 2022

सीरियस लिटरेचर हमेशा पॉपुलर लिटरेचर से आगे होगा : असग़र वजाहत

 गुफ़्तगू पत्रिका पढ़ते हुए असग़र वजाहत

 असग़र वजाहत का जन्म 05 जुलाई 1946 को उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले में हुआ। इन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. करने के बाद यहीं से पी-एच.डी. भी किया। पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली से किया। 1971 से जामिया मिलिया इस्लामिया, दिल्ली के हिंदी विभाग में अध्यापन का कार्य किया है। रिंकल शर्मा ने उनके नोएडा स्थित निवास पर उनसे मुलाकात कर विस्तृत बातचीत किया है। प्रस्तुत है उसके प्रमुख अंश।

सवाल:  आपके लिखने-पढ़ने का सिलसिला है कब से और कैसे शुरू हुआ ?

जवाब: 1963-64 में जब मैं अलीगढ़ मे पढ़ रहा था, तभी दिलचस्पी पैदा हुई और लिखना शुरू किया। वजह ये  थी कि मैं चीज़ों को शेयर करना चाहता था। मैं यह चाहता था कि मेरे जो एक्सपीरियंस है  जैसे-मैं जो देखता हूं, जो सुनता हूं या जो लोग मुझे बताते हैं, अगर वो  इंपॉर्टेंट है तो उसे मैं लोगों के साथ शेयर करूं। सबसे पहले वहां की जो स्टूडेंट मैगजीन निकलती थी, उसमें छपा और फिर धीरे-धीरे बाहर की मैगज़ीन में भी छपने लगा। 

सवाल:  लेखन की शुरुआत कहानियों से हुई या कविताओं से ? 

जवाब: पहले कहानियां लिखना शुरू किया। उस ज़माने में कविता से सभी को बड़ा लगाव होता था,  तो कुछ कविताएं भी लिखी और नाटक भी। उस ज़माने में लेखक के लिए जो अलग-अलग विधाएं है, उन सभी विधाओं में कोशिश करते रहे. ज्यादातर कहानियां लिखी जो उस ज़माने की साहित्यिक पत्रिकाओं में छपने लगीं। 

असग़र वजाहत से बात करतीं रिंकल शर्मा    

सवाल: जब आपने लिखना शुरू किया उस समय समाज में लेखक, कवि और साहित्य का समाज में ख़ास स्थान होता था। आज के समाज में साहित्य का क्या स्थान है ? 

जवाब: उस ज़माने में जो पॉपुलर लिटरेचर है वो ऐसा नहीं था जैसा आजकल है। मैं पॉपुलर लिटरेचर का विरोधी नहीं हूं.  लेकिन मैं यह कहना चाहता हूं कि समाज में पॉपुलर लिटरेचर उस समय भी था लेकिन आज मीडिया की वजह से पॉपुलर लिटरेचर के लिए स्पेस बड़ी हो गई है। पहले जो कवि सम्मेलन या मुशायरा हुआ करते थे, वहां पर पॉपुलर कवि, पॉपुलर संगीतकार सुनाते थे, आमतौर से अच्छे कवि भी जाते थे. लेकिन अब मीडिया ने पॉपुलर लिटरेचर को बहुत बड़े-बड़े प्लेटफार्म दे दिये हैं। इतने बड़े प्लेटफार्म पर पॉपुलर लिटरेचर पहले नहीं था। दूसरा अंतर यह है कि जो गंभीरता पहले हुआ करती थी उसमें अब शायद कुछ कमी आई है, क्योंकि जब आप पॉपुलर कल्चर में चले जाते हैं तो उसमें फिर सफलता के स्टैंडर्ड से अलग हो जाते हैं। सफलता के स्टैंडर्ड फिर ये हो जाते हैं कि- किसको कितना पैसा मिलता है ? किसको कितना काम मिलता है? अब स्टैंडर्ड काम की क्वालिटी नहीं होती बल्कि ये है कि कविता से या रचना से कितना पैसा मिलता है। तो ये दो बड़े अंतर है जो उस समय से लेकर आज के बीच में दिखाई देते हैं।

सवाल: आपकी एक बहुचर्चित कहानी ‘ड्रेन में रहने वाली लड़कियां’ एक ऐसी कहानी है जो कन्या भ्रूण हत्याओं पर सीधा प्रहार करती है। इस कहानी को लिखने की प्रेरणा आपको कैसे मिली ?

जवाब: देखिए हर लेखक या साहित्यकार जो है वह अपने समाज से सीखता है। समाज  सबसे बड़ी पाठशाला है। आप ऐसा नहीं सोच सकतीं हैं कि कोई लेखक या साहित्यकार  समाज से कट जाएगा और पूरी तरह खुद लिखेगा। समाज से कटना असंभव है और समाज से कट के कोई लिख नहीं सकता। समाज में जो हो रहा है उसकी एक तरीके से गूंज सुनाई देती है लेखन में, जिसको पुराने लोग कहा करते थे कि साहित्य समाज का आईना है। आज आप देखिये हमारे समाज में महिलाओं के साथ जो भेदभाव है. ख़ासतौर से कमजोर वर्ग की महिलाओं के साथ जो शोषण होता है। आज भी वहां किसी घर में लड़की पैदा हो जाए तो उसको बहुत बुरा मानते हैं। तो इस तरह के पूरे माहौल ने ये प्रेरणा दी कि इस तरीके की कहानी जो है, वो लिखी जाए। आपने पढ़ा भी होगा कि राजस्थान में या कई दूसरी जगहों पर भी, लड़कियों के पैदा होते ही, परिवार के लोग ऐसी कोशिश करते हैं कि वह न रहे. ये समाज की बहुत बड़ी ट्रेजडी है.

सवाल: जिस समय आपने यह कहानी रची उस समय से लेकर आज तक भी देखा जाए तो हालात वही है. हमारे समाज में भू्रण हत्याएं आज भी होती हैं। बतौर लेखक आप किसे जिम्मेदार मानते हैं?

जवाब: देखिए सबसे बड़ी बात है शिक्षा जो आपके संस्कार है समाज के वह बदलने चाहिए हमारे देश में सबसे बड़ी गलती क्या हुई। हमारे देश के नेताओं ने प्रारंभ में यह सोचा कि जब देश आजाद हुआ कि आर्थिक प्रगति होगी तो उससे सामाजिक प्रगति भी होगी तो उन्होंने पंचवर्षीय योजनाएं बनाई. बहुत बड़े-बड़े कल-कारखाने लगाएं ताकि लोगों को नौकरी मिले. यदि ज्यादा काम मिलेगा, प्रोडक्शन बढ़ेगा तो आर्थिक व्यवस्था सुधरेगी और इससे जीवन अच्छा होगा। लेकिन उन्होंने यह नहीं सोचा कि आर्थिक प्रगति जो है वह सामाजिक और बौद्धिक विचारों की प्रगति करती हो, इसकी कोई गारंटी नहीं। जैसे एक आदमी ट्रैक्टर चलाता है और वह हत्यारों की पूजा करता है या एक आदमी डॉक्टर है लेकिन उसके विचार जो है वो पुरातन विचार हैं। तो क्या हालात सुधरेंगे? शिक्षा के द्वारा लोगों के नए विचार या  संस्कार बनाने की कोशिश नहीं की गई। केवल आर्थिक प्रगति कराई गई, आर्थिक प्रगति  ज़रूरी नहीं है कि सामाजिक प्रगति भी करे.  इसलिए आज ज़रूरी है कि शिक्षा के ऊपर बल दिया जाए। कम्पलसरी एजुकेशन अगर चीन में हो सकती है तो हमारे देश में क्यों नहीं हो सकती? जबकि चीन हमसे बड़ा देश है. हमने सामाजिक प्रगति पर ध्यान नहीं दिया. सामाजिक प्रगति पर अगर ध्यान दिया होता तो आज यह स्थिति नहीं होती.

सवाल:  आपका रंगमंच से भी आपका बहुत गहरा नाता रहा है।  रंगमंच के प्रति आकर्षण कैसे हुआ ? 

जवाब: रंगमंच एक तरीके का मास मीडिया है, आप जब मंच के ऊपर कुछ प्रस्तुत करते हैं तो उसके हजारों दर्शक होते हैं और उसका बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ता है, देखने वालों के मन के ऊपर। थिएटर जो है वह समाज से इतना अधिक जुड़ा है कि समाज को सीधे तौर पर प्रभावित करता है और समाज से वह ग्रहण भी करता है, उसका रिश्ता समाज से बहुत गहरा बनता है। साहित्य की एक तरीके की सीमा है कि वह जब जाएगा, तभी लोगों तक जाएगा। लेकिन थिएटर में जो नहीं पढ़ा लिखा है अगर वह भी देख रहा है तो उसको भी संदेश जा रहा है. वह समझ रहा है कि क्या कहना चाह रहा है लेखक। हमारे जैसे देश में जहां पढ़े-लिखे साक्षर लोगों की संख्या कम है वहां थिएटर की एक बहुत बड़ी भूमिका है.  रंगमंच हमेशा हमारे देश की पुरानी परंपरा है। हजारों साल पुरानी इस नाटकीय परंपरा को बनाए रखना और आगे बढ़ाना, ये हम सब लोगों का काम है। इसी वजह से मैं नाटक के क्षेत्र में आया।


असग़र वजाहत की पत्नी रेहाना, असग़र वजाहत और रिंकल शर्मा  

सवाल: आपका एक बहुत चर्चित नाटक रहा है ‘‘जिन लाहौर नहीं वेख्या...’ जिसमें बंटवारे का एक दर्द दिखाया गया है। क्या असल जिं़दगी में आपके जीवन में कोई ऐसा वाकया रहा जिससे आपको नाटक लिखने का आईडिया आया ?

जवाब: जैसा कि मैंने कहा कि हम लोग समाज से ही सीखते हैं। इस नाटक में बहुत सी ऐसी बातें या बहुत से ऐसे किरदार आपको मिलेंगे जो की रियल लाइफ से या रियल लाइफ में घटी घटनाओं से मिलते जुलते हैं। तो उन हो चुकी घटनाओं को विस्तार देना, उनको एक कहानी में पिरोना और उनको प्रारंभ से लेकर क्लाइमेक्स तक ले जाना, यह सब काम जो है वह लेखक का होता है। तो इसमें भी मुझे जानकारी मिली थी कि पार्टीशन के बाद लाहौर में एक बूढ़ी हिंदू औरत रह गई थी। चूंकि वह बड़ी भली औरत थी, सबकी सहायता करती थी मदद करती थी इसीलिए उसका लोग बड़ा सम्मान करते थे। केवल इतनी जानकारी मुझे मिली और इस जानकारी में, मैंने यह सोचना शुरू किया कि अगर कुछ लोग उसको बहुत पसंद करते थे, तो कुछ ऐसे लोग (कट्टरपंथी टाइप) भी होंगे जो उसको नहीं पसंद करते होंगे, तो यहां से द्वंद्व शुरू हो गया। नाटक की जो आत्मा है वह है-कनफ्लिक्ट और इसी कनफ्लिक्ट को फिर बढ़ाया और इसमें दूसरे पात्र,  दूसरी घटनाएं आकर जुड़ना शुरू हुई, दूसरे साहित्य शामिल होना शुरू हुई फिर इसमें धर्म का एक पक्ष आकर जुड़ा क्योंकि मेरा मानना यह है कि हर धर्म जो है अच्छाई की शिक्षा देता है। कोई धर्म आपको संसार में ऐसा नहीं मिलेगा जो यह कहे कि हत्या करना, चोरी करना या अपराध करना ठीक है। सारे धर्म यही कहते हैं कि यह सब ग़लत है। जैसे इस नाटक में जो मौलवी है जब उससे पूछा जाता है कि यह हिंदू औरत (मुख्य नायिका) है और यह देश अब पाकिस्तान बन गया है तो क्या यह यहां रह सकती है? तो मौलवी यही कहता है कि इस पूरी धरती को भगवान ने बनाया है, अल्लाह ने बनाया है., मनुष्य को भी उसी ने बनाया है तो हमें क्या अधिकार है कि हम यह कह सकंे कि भगवान की बनाई सृष्टि में भगवान का बनाया हुआ कोई व्यक्ति कहीं रह सकता है या नहीं रह सकता। तो इस तरह से धर्म का एक ऐसा स्वरूप जो कि मानवतावादी है वह इस नाटक में सामने आया. और फिर यह आगे बढ़ता गया।  

सवाल: जब आप ऐसे एक नाटक लिखते हैं तो नाटक के चरित्रों और घटनाओं की रूपरेखा  किस तरह बनाते हैं ? 

जवाब: इसके लिए बहुत ज़रूरी है कि आपके अनुभव व्यापक हों,  जैसे मान लीजिए यह नाटक लिखने से पहले मैंने पार्टीशन के ऊपर जो किताबें पढ़ी तो एक किताब से मुझे एक बिंदु मिला, दूसरी किताब से दूसरी चीज़ मिली। एक किताब में एक पात्र मिला जो पाकिस्तान गया था रियल लाइफ कैरेक्टर है और वह पूरे जीवन यह समझने की कोशिश करता रहा कि विभाजन क्यों हुआ ? क्या आधार था ? उसके समझ नहीं आता कि यहां भी यही भाषा वहां भी यही भाषा, यहां का भी यही कल्चर वहां का भी यही कल्चर. तो कहने का मतलब यह है कि जब आपको एक कथा सूत्र मिल जाता है तो उस कथा सूत्र को फैलाने के लिए अध्ययन की आवश्यकता पड़ती है. जैसे-जैसे आप का अध्ययन बढ़ता जाता है वैसे-वैसे उस कथा सूत्र में चीज़ें आगे जुड़ती जाती है और उसका विस्तार होता जाता है.

सवाल: आप अपने लेखन में मुहावरों या लोकोत्तियों का इस्तेमाल करते हैं। आज जो साहित्य लिखा जा रहा है उसमें जिस तरह की भाषा इस्तेमाल हो रही है. भाषा में आये बदलाव पर आपकी क्या राय है ?

जवाब: बदलाव तो हमेशा से आते रहे हैं और आते रहेंगे। अब सवाल यह भी देखने का है कि वह कितने प्रभावशाली हैं ? क्या उनसे भाषा हमारी सक्षम हो रही है, उसके अंदर नये  शब्द आ रहे हैं या उसके अंदर नई अभिव्यक्ति आ आ रही है कि नहीं आ रही ? बदलाव जो  पॉजिटिव है तो उनका स्वागत होना चाहिए और अगर वह पॉजिटिव नहीं है तो उसके बारे में चर्चा होनी चाहिए कि क्या किया जाए ? आप देखिए  इतनी बड़ी भाषा है अंग्रेज़ी, उसके अगर आप 10 शब्द निकालिए तो उसमें से पांच आपको दूसरी भाषा के मिलेंगे जैसे फ्रेंच के मिलेंगे, जर्मन के मिलेंगे या इटालियन के मिलेंगे। अंग्रेज़ी मुल्कों ने उन्हें स्वीकार किया, अपनी भाषा को बढ़ाया और विस्तार दिया. तो भाषा को विस्तार देना बहुत ज़रूरी है और भाषा को संकुचित बनाना, भाषा को मार देना जैसा है .

सवाल: आज सहित्य का सामने जो बड़ी चुनौती है वो ये कि पाठकों की संख्या घट रही है. किताबें कम बिक रही हैं. इसके लिए आप किसे जिम्मेदार मानते हैं ?

जवाब: साहित्य को नुक्सान हो रहा है चूंकि पाठक कम हो रहे हैं, यह मूल वज़ह नहीं है। आप मुझे बता दो कि हिंदी का ऐसा कौन सा प्रकाशक है जो नुकसान में है या बंद हो गया है। हिंदी में जिन्होंने 10 साल पहले प्रकाशन शुरू किया था, उनका प्रकाशन आज बहुत ऊंचा हो गया है। अगर किताबें भी लोगों ने खरीदी नहीं तो कहां से प्रकाशन चला। हिंदी में मुझे किसी ने बताया कि हर रोज़ 5000 किताबें छपती है।  5000 किताबें कहीं न कहीं तो जाती होंगी, गोदामों में तो पढ़ी नहीं रहती होंगी। दूसरी बात यह है कि जो किताब जिस तरीके का  आप को साहित्य दिया करती थी, उस कमी को पॉपुलर लिटरेचर या मीडिया पूरी कर रहा है. 

सवाल:  सुरेन्द्र मोहन पाठक ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था की सीरियस साहित्य की अपेक्षा  पॉपुलर साहित्य की किताबें अधिक बिकती हैं. इस पर आपका क्या दृष्टिकोण हैं ? 

जवाब: पॉपुलर साहित्य बनाम सीरियस साहित्य। आप पॉपुलर साहित्य की कोई किताब मुझे ऐसी बताएं जो सबसे अधिक बिकी हो। मान लीजिए गुलशन नंदा का एक उपन्यास कितना बिका होगा 5,00,000 या 10,000,00 और फिर बिकना बंद हो गया होगा। अब आप देखिए गोदान प्रेमचंद का 1936 से लेकर हर साल हजारों में छपता है और आज भी छपा चले जा रहा है, वह बंद नहीं हो रहा। गंभीर साहित्य जो न केवल संख्या में अधिक होता है बल्कि उसकी लाइफ भी ज्यादा होती है। सीरियस लिटरेचर जो है, वह हमेशा पॉपुलर लिटरेचर से आगे होगा. पॉपुलर लिटरेचर जो है एक सीडी है जो ज़रूरी है लोगों को साहित्य की तरफ़ आकर्षित करने के लिए। लेकिन पॉपुलर लिटरेचर को ही महत्वपूर्ण मान लेना वह ज़रूरी नहीं है।

सवाल: यह सोशल मीडिया का ज़माना है। लोग फेसबुक या ट्विटर पर अपनी रचनाएं लिखते हैं। सोशल मीडिया पर जो साहित्य है इसे आप साहित्य के लिए सही मानते हैं या गलत ?

जवाब: जब टेक्नोलॉजी कोई नई आती है तो प्रारंभ में यह आप बिल्कुल नहीं कह सकते कि इससे आगे चलकर क्या होगा। लेकिन अनुभव यह बताता है कि टेक्नोलॉजी की प्रगति ने हमेशा चीज़ को बढ़ाया है जैसे जब प्रिंटिंग प्रेस आया तो लोग डर गए कि अब क्या होगा ? साहित्य तो लिखा जाता था और लिखी हुई किताबें चलती थी, पर अब छप रही है, लेकिन आप जानती हैं कि उस टेक्नोलॉजी ने साहित्य की एक क्रांति ला दी. लेकिन समय हमेशा बदलता रहा है आप ऐसा नहीं कह सकते कि छपी हुई किताब हमेशा चलेगी. एक समय आएगा कि यह कम होगी और ज्यादा लोग जो है वो डिजिटल पढ़ना चाहेंगे। इसी तरह से जो आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या सोशल मीडिया है ये शुरुआत है और इससे आगे चलकर क्या होगा कह नहीं सकते।

सवाल:  हर लेखक चाहता है कि उसकी किताब बेस्ट सेलर हो, सफल लेखक बनने के लिए बेस्ट-सेलर का तमगा कितना आवश्यक है ?

जवाब: बेस्टसेलर किताबें तो लेखक से ज्यादा प्रकाशक को चाहिए। लेखक तो पीछे रह जाता है लेकिन एक प्रकाशक किताब को बेस्ट सेलर बनाता है क्यूंकि ये उसका व्यवसाय है और उसको व्यवसाय में फायदा होता है। हर दुकानदार कहता है कि मेरा सामान सबसे अच्छा है, कौन होगा जो यह कहेगा कि नहीं जी मेरा सामान अच्छा नहीं है। अब यह तो खरीदने वाले पर है कि वह देखे किसका समान अच्छा है, किताब को बेस्टसेलर बनाने में  लेखक रुचि लेते हैं क्योंकि थोड़ा बहुत लाभ तो लेखकों को भी जाता है। अच्छे साहित्य और बेस्टसेलर साहित्य में वही फर्क है जो गुलशन नंदा के उपन्यास और प्रेमचंद के गोदान में है।   इसलिए यह मानना कि वह बेस्ट सेलर हो गया तो बहुत अच्छा होगा, इसका कोई मतलब नहीं है।

सवाल:  आपने फिल्मों के लिए भी पटकथा लिखीं हैं, फिल्मों की पटकथा लेखन और साहित्य लेखन में कितना अंतर होता है ?

जवाब: बहुत अंतर होता है क्योंकि दोनों मीडियम अलग है। फिल्म जो है वह ऑडियो-वीडियो मीडियम हैं और इस मीडियम की अपनी लिमिटेशंस होती है। फिल्में विजुअलिटी की लिबर्टी नहीं देती. जैसे मैं एक मिसाल दूं आपको कि आपने कहीं लिखा हुआ पढ़ा कि वहां पर एक बाग था और आपको विजुअल में एक गार्डन दिखाई दिया. तो जो आपको विजुअल में गार्डन दिखाई दिया उसने आपको लिमिट कर दिया उसी गार्डन तक.  लेकिन जब आपने बाग शब्द को पढ़ा तो आपने इमेजिन किया कि अच्छा गार्डन क्या होगा ? तो अब आपके सामने जो होगा वो आपकी पसंद का गार्डन होगा। शब्द जो है वह आपको लिबर्टी देता है और विजुअल जो है वह आपको बांधता है। वीडियो एक तरीके से सरल होता है जो लोग सोचना नहीं चाहते। सिनेमा की रिक्वायरमेंट अलग है और राइटिंग के रिक्वायरमेंट अलग है। दोनों माध्यम अलग हैं इसीलिए दोनों के लिखने में काफी फर्क है।

सवाल:  एक बेहतरीन रचना तैयार करने के लिए किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ? 

जवाब: यह बात तय है कि जो काम आप कर रहे हैं, उस काम में अगर पूरा इंवॉल्वमेंटनहीं होगा तो काम अच्छा नहीं हो पाएगा, जितना ज्यादा इंवॉल्वमेंट होगा उतना ही काम ज्यादा अच्छा होगा। चाहे फिल्म हो या राइटिंग हो या म्यूजिक हो या वह पेंटिंग हो,  जितना ज्यादा करने वाला उसके अंदर डूबेगा, जितना उसको महसूस करेगा और टाइम देगा, उसको उतना ज्यादा अच्छा रिजल्ट मिलेगा। आपको मालूम है एक राइटर थीं कुर्रतुल ऐन हैदर जिनका उपन्यास है ना आग का दरिया, तो वह अपने घर में अकेली रहती थी और उनके दिमाग में उसकी राइटिंग के अलावा कुछ और नहीं रहता था. वो छोटे-छोटे कागज़ों पर शब्द लिख लेतीं थीं फिर उस शब्द को उस जगह पर चिपका लेतीं थी जहां उसकी आवश्यकता पड सकती है. जितना ज्यादा एक राइटर इंवॉल्व होगा उसकी राइटिंग में उतना अच्छा रिजल्ट होगा।

सवाल: आजकल सम्मान समारोह बहुत आयोजित होने लगे हैं. लेकिन कहीं न कहीं इस सम्मानों की प्रासंगिकता पर भी सवाल उठते रहते हैं। इस पर आप क्या कहना चाहेंगे ? 

उत्तर: देखो एक साइकेट्रिस्ट है पाकिस्तान के मुश्ताक अहमद युसूफ उनका कहना है कि “झूठ बोलने वाला और सुनने वाला दोनों जानते हो कि यह झूठ है तो उसे फिर झूठ नहीं मानेंगे”. अवार्ड के मामले में, मैं नहीं कहता कि सब अवार्ड ग़लत है. चूंकि मैं बड़ी-बड़ी बोर्ड कमिटी में रहा हूं तो वहां क्या होता है यह मुझे मालूम है. मैं ये नहीं कह सकता सब ग़लत होता है लेकिन ये भी नहीं कह सकता कि सब सही होता है। सबसे बड़ा अवार्ड लेखक को दूसरे तरीकों से मिलता है जैसे मैं आपको एक एग्जांपल दूं। अभी तीन-चार दिन पहले मेरे पास एक फोन आया तो कोई बच्चा बोल रहा था, बच्चे की आवाज थी तो मैं समझ गया कि उसने अपने फादर का फोन लेकर नंबर मिलाया है। तो मैंने उससे पूछा कि किससे बात करनी है? तो कहने लगा आप ही से बात करनी है, मैंने कहा भाई कौन हो तुम ? तो कहने लगा, ‘मैं सिक्स क्लास में पढ़ता हूं और आपकी एक किताब मैंने पढ़ी, मुझे बहुत अच्छी लगी”. इस तरह चीज़ें राइटर को ज्यादा सेटिस्फेक्शन देती है बजाय इसके कि कोई अवार्ड मिल जाए। तो कहने का मतलब यह है कि अवार्ड से ज्यादा एप्रिसिएशन ज़रूरी है.

सवाल: आपने बहुत से देशों की यात्रा की है, विदेशों में साहित्य को लेकर कैसा वातावरण है ?

उत्तर: जिस देश में पढ़ाई लिखाई ज्यादा होगी, उस देश में लोगों के अच्छे संस्कार बनेंगे, उन देशों में साहित्यकार या कलाकार के सम्मान का तरीका ही अलग है। जैसे मैं आपको बताऊं कि एक देश है ऑस्ट्रिया। ऑस्ट्रिया के नोटों के ऊपर एक म्यूजिक कंपोजर की फोटो छपती है। उनका यह मानना है कि कलाकार से ज्यादा कोई और समाज को कोई कुछ दे नहीं सकता। जैसे म्यूजिक कंपोजर तो मर गया, 200 साल हो गए लेकिन उसका म्यूजिक जो है, वह अब तक लोगों को कुछ दे रहा है. कोई भी रचना जो है वह मरती नहीं है. मैं नहीं रहूंगा तो ऐसा नहीं है कि मेरी रचा कुछ नहीं रहेगा। तो जो समाज जैसा होता है, वह अपने  कलाकारों का वैसा सम्मान करता है.

सवाल: आजकल आप क्या नया लिख रहे हैं ?

जवाब: बहुत सी है चीज़ें हैं जो चलती रहतीं हैं। एक दो प्ले हैं जिन पर काम चल रहा है. साथ ही राजकुमार संतोषी ने मेरे नाटक गोडसे एट गांधी डॉट कॉम पर एक फिल्म बनायीं है. फिल्म अभी रिलीज़ नहीं की है क्यूंकि सिनेमा हॉल खुले नहीं है। दूसरा मेरे नाटक ‘जिन लाहौर नहीं वेख्या ओ जम्याई नई’ पर भी फिल्म बन रही है.  

सवाल: नवोदित रचनाकारों को क्या सन्देश देना चाहेंगे ?

जवाब: देखिए दो बातें हैं एक बात तो यह होती है कि जो एक्सपीरियंस है समाज का वह

होना चाहिए। एक सी जिं़दगी जीते हुए कि सुबह उठे ऑफिस गए  और ऑफिस से शाम को घर आ गए तो क्या अनुभव होगा। अनुभवों के लिए समाज को अनुभव कीजिये। दूसरा एक्सपीरियंस का तरीका है रीडिंग यानि पढ़ना.  अगर आप पढ़ेंगे तो आपको दूसरों के अनुभवों को जानने का अवसर प्राप्त होगा.

( गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2021 अंक में प्रकाशित )

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