रविवार, 11 जुलाई 2021

उर्दू के सही उच्चारण के बिना फिल्मों में नहीं मिलता काम : अजमेरी


23 जनवरी 1961 को राजस्थान के अजमेर में जन्मे आफ़ताब अजमेरी फिल्म इंडस्ट्री में मुख्यत कलाकारों को उर्दू का सही उच्चारण करना सीखाते हैं। इंडस्ट्री के लगभग सभी बड़े स्टार को इन्होंने यह गुण सिखाया है और आज भी सिखा रहे हैं। आपने स्नातक की पढ़ाई अजमेर से पूरी करने के बाद अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से अदीब, माहिर, कामिल की डिग्री हासिल की। शायरी का शौक़ बचपन से ही रहा है। पहले मां और फिर बाद में पत्नी ने इनके काम में काफी सहयोग किया। कलाकारों को उच्चारण सिखाने के साथ इन्होंने कई फिल्मों के लिए डायलाॅग और गीत भी लिखे हैं, तमाम फिल्मों और टीवी सीरियलो में अभिनय भी किया है। उर्दू शायरी के लिए उन्होंने अपने उस्ताद से अरुज़ आदि भी सीखा है। मुशायरों में भी जाते रहे हैं। अनिल मानव ने इनसे विस्तृत बातचीत की है। प्रस्तुत है उसका प्रमुख अंश।


                                 दिलीप कुमार के साथ आफ़ताब अजमेरी (फाइल फोटो)



सवाल: फिल्मी अदाकारों को उर्दू का उच्चारण सिखाने के लिए क्या करना पड़ता है, इसमें किस प्रकार की दिक्कतें आती हैं ?

जवाब: आपने बिल्कुल सही फरमाया। मैं बतौरे-ख़ास फिल्म स्टारों को उर्दू की तालीम देता हूं। जो अपने तलफ़्फुज, उच्चारण या प्रोनॉन्सिएशन सही करना चाहते हैं, उन्हें सीखताा हूं। मगर जिनको मैंने पढ़ाया उनका नाम मैं नहीं लेना चाहता, क्योंकि कुछ लोग कहते हैं जैसे- ऋषि कपूर, रितिक रोशन...। इनको थोड़ा सा एतराज है, कि साहब! आप हमारे नाम का सहारा लेकर अपने आप को पॉपुलर कर रहे हैं। जी-न्यूज में भी मैंने एक इंटरव्यू दिया था। उसमें सब स्टारों के नाम ले लिए थे। तो उनको नाराजगी हुई थी। कहा साहब! आप हमें पढ़ाते हो। उसके पैसे लिए थे। बहरहाल मैं यह अर्ज करना चाह रहा था कि पढ़ाने के लिए  जो स्टार हैं उनका तलफ्फुज़ दुरुस्त कराने होते हैं। उर्दू लिखना और पढ़ना नहीं सीखना होता। क्योंकि वह बोलते ग़लत हैं ‘सीन’ की जगह ‘शीन’ बोलते हैं। उनको यह मालूम नहीं होता, कि सीन, नून, ग़ैन ये कहां बोले जाते हैं। जबकि यह हुनर मैं जानता हूं। बहुत सारे लोग लिखते-पढ़ते भी हैं। और वो लिखना-पढ़ना भी सीखना चाहते हैं। कुछ लोग चाहते हैं कि खाली हमारा तलफ़्फुज दुरुस्त करा दो, ताकि जब हम डायलॉग बोले, तो उसमें तलफ़्फुज की ग़लतियां न हो। इसके लिए मेरा नाम स्क्रीन पर भी आता है। जिन फिल्मों और सीरियलों के अंदर मुझे डायलॉग डायरेक्टर की हैसियत से बुलाया जाता है, वहां पर मैं अपना नाम देता हूं। हर सेट पर एक डायलॉग डायरेक्टर तो होता ही है। इससे अच्छा असर पड़ता है। ग़लतियां दुरुस्त हो जाती हैं। फिल्म अच्छी होती है। ऐसा लोगों का मानना है। इस काम के अंदर बहुत-सी दुश्वारियां आती हैं, क्योंकि जो भी शख़्स हो, वह जिस जगह का होता है। वहीं की भाषा बोलता है। पंजाब का एक बंदा मेरे पास आया। उसने कहा हम भी पढ़ेंगे।  उनका जो टोन और लबो-लहजा था। वह पंजाबी था। वह जब भी बोलते तो पंजाबी अंदाज़ में ही बोलते थे। जो नजाकत और नफ़ासत उर्दू में है, वह उनकी जुबान में नहीं आ रही थी। वह उनके लबो-लहजे में नहीं आ रहे थे। उर्दू तो माशाअल्लाह एक ऐसी मीठी और प्यारी जुबान है। किसी ने क्या खूब कहा कि--वो जो बोले तो हर एक लफ्ज से खुशबू आये/ ऐसी बोली वही बोले जिसे उर्दू आये।’ 

 आजकल मैं एक बंगाली लड़के को पढ़ा रहा हूं। वह बंगाल के फिल्मों का हीरो है। यहां वह मुम्बई में आया हुआ है। इसमें इतनी तकलीफ होती है, कि उसे तलफ़्फुज दुरुस्त आ ही नहीं रहा। लेकिन यहां की फिल्मों में काम करने के लिए उसे सही तलफ़्फुज वाली हिंदी-उर्दू बोलनी है। अभी-अभी आपने एक सवाल किया, कि मैं जो उर्दू पढ़ाता हूं। उसका सर्टिफिकेट उर्दू में क्यों नहीं आता। हां, यह एक बड़ी अजीब बात है। हमारी बहुत सारी फिल्में जैसे ‘लैला-मजनू’ और बहुत सारे सीरियल जैसे ‘इश्क सुबहान अल्लाह’ चल रहा है। इसके अलावा ‘कुबूल है’ सीरियल जिसके अंदर मैंने 3 साल तक काजी मौलवी का रोल किया है।  उसकी हीरोइन चेंज हो गई। हीरो आर्टिस्ट लोग आते रह जाते रहे। लेकिन गुलबानो जो इसकी प्रोड्यूसर है। उन्होंने कहा नहीं साहब आफ़ताब आजमेरी ही हमारे फिल्म का काजी रहेगा। और आखिर में तीन साल बाद ताजमहल में जाकर उसका आखिरी एपिसोड हुआ। मुंबई में उसके अंदर मैंने उसी हीरो-हीरोइन को निकाह पढ़ाया और फिल्म खत्म हुई। इसी तरह ‘जोधा-अकबर’ एक सीरियल है। उसके अंदर मैंने दो साल तक जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर का सलाहकार के रूप में काम किया। और बहुत सारी सीरियल हैं जिसमें उर्दू की ज़रूरत पड़ती है। आप मुझे गूगल पर सर्च करेंगे तो उसके साथ काजी आफताब आजमेरी लिखा हुआ आएगा। हालांकि मैं काजी नहीं हूं। मैं तो शेख हूं। लेकिन क्या है, फिल्मों में काम कर-कर के ‘काजी’ वाला काम करते-करते मुझे गूगल वालों ने भी काजी आफ़ताब आजमेरी कर दिया। वैसे मैं रोल हर तरह का करता हूं। क्योंकि हम एक्टरों की जिं़दगी ऐसी ही है-‘रोज नए सांचे में ढलती रहती है/ज़िंदगी क्या-क्या रंग बदलती रहती है। मैं भी एक उम्मीद लगाए फिरता हूं/सुनता हूं तक़दीर बदलती रहती है।’ और यक़ीनन मेरी जिं़दगी बदल रही है अल्लाह का बड़ा एहसान है।


                                      सलमान खान के साथ आफ़ताब अजमेरी                             

सवाल: आपने यह काम कब से शुरू किया ? इसकी शुरूआत कैसे हुई ?

जवाब: फिल्म इंडस्ट्री में मैं आया नहीं, बल्कि लाया गया हूं। मैं अजमेर के मोनिया इस्लामिया हाई सेकेंडरी स्कूल के अंदर जे़रे-तालीम था, तो एक फिल्मी यूनिट आकर के ठहरा।  जिसके अंदर हाजी मस्तान साहब ने सोना को और सतीश कौल को लेकर एक फिल्म बनाई थी। उसका नाम था ‘सुल्तान-उल-हिंद’। उसकी शूटिंग होने के लिए आई तो सब लोग बड़े खुश थे। मैंने देख, कि मधुबाला की एक हमशक़्ल औरत बाद में उसका नाम पता चला कि वह मधुबाला नहीं थी, बल्कि सोना थी। और वही उस फिल्म की हीरोइन थी। एक शख़्स से हमने कहा कि हमें भी इस फिल्म में काम मिल जाए तो इसके लिए किस से बात करें। उन्होंने कहा कि वह सामने बैठे हैं लूंगी और कुर्ता पहने हुए वे हाजी मस्तान हैं। उनके पास जाकर कहो, वो काम दे सकते हैं। मैंने जाकर उन्हें सलाम किया और कहा कि सर मुझे भी आपकी फिल्म इंडस्ट्री में काम मिल जाए तो अच्छा होगा। उन्होंने चश्मा उतारते हुए कहा कि क्या काम जानते हो ? क्या करते हो ? मैंने कहा, कि मैं शायर हूं। मैं कुछ भी काम कर लूंगा। उन्होंने कहा शायर हो तो सरकार गरीब नवाज के लिए लिख रहे हैं हम। सरकार पर मनक़बत लिखो, कव्वाली लिखो, तो हम तुम्हें काम दे देंगे। तो मैंने कहा शुक्रिया। बस इतनी-सी बात की और सलाम करके चला आया। फिर उसके बाद मैं नसीम अजमेरी साहब से मिला और उनको मैंने बताया कि भाई इस-इस तरह से चाहिए। वह उस्ताद थे। बेहतरीन शायर थे। उनके साथ फिर हम लग गए। और हमने एक कव्वाली लिखी-‘आफताब-ए-रिसालत मदीने में है/ और किरण जगमगाती है अजमेर में।’ जो मशहूर कव्वाली हुई। पाकिस्तान के मशहूर कव्वाल ने गायी। साबरी ब्रदर्स, जिन्होंने पहले सरकार गरीब नवाज में यह कव्वाली गायी। फिर उसके बाद स्टूडियो के अंदर उसकी रिकॉर्डिंग हुई। और उसी यूनिट के साथ मैं यहां मुंबई आ गया। वह फिल्म जब तक बनती रही। तब तक मैं उनके ऑफिस के अंदर जो तारदेव में तीन महले पर था। हाजी मस्तान का ऑफिस, जिसमें मैं रहता रहा। खाना-पीना मुझे मिलता था। उनकी फिल्मी यूनिट के साथ शूटिंग के लिए चला जाता था। और उसके अंदर कई जगह मेरे छोटे-छोटे कुछ सीन भी हैं।  जहां ज़रूरत पड़ी, वहां मुझे उन्होंने इस्तेमाल किया। जब वह फिल्म कंप्लीट हो गई, तो उन्होंने मुझसे कहा भाई हमारी फिल्म हो गई और अच्छी चली। अब आप वापस अपने घर अजमेर जा सकते हैं। अब मैं क्या जाता ? किसको क्या मुंह दिखाता ? लिहाजा फिर मैं वहीं कोशिश करता रहा। आज मैं यहां फिल्मों में सिंटा का मेंबर हूं। जूनियर आर्टिस्ट का मेंबर हूं। चीफ सेना का मेंबर हूं। और आल इंडिया फिल्म राइटर एसोसिएशन का मेंबर हूं। मैंने राइटर एसोसिएशन में कई कहानियां भी लिखीं। सीन भी लिखता हूं। डायलॉग भी लिखता हूं। इसके अलावा मैंने एक फिल्म थी जो राज कपूर साउंड रिकॉड्रेस अलाउद्दीन खान साहब बना रहे थे। उनकी फिल्म का नाम था ‘खुफिया’। हीरो थे उस जमाने के जितेंद्र जी और विद्या सिन्हा हीरोइन थी। डेविड साहब ने उनके बाप का रोल किया था। बहुत अच्छी स्टार कास्ट थी उस ज़माने की। उनके पास मिलाया मुझे किसी ने। और कहा कि भाई यह शायर हैं, तो उन्होंने कहा कि तुम गाना लिखो। उन्होंने पहली बार कल्याणजी-आनंदजी भाई के पास ले गए। उनके बंगले पर हम लोग पहुंचे। उन्होंने कहा कि यह शायर हैं हमारे लिए ये गाना लिखेंगे। तो उन्होंने कहा, कि सिक्वेंस बता दिया आपने। उन्होंने कहा कि ‘हीरो-हीरोइन का छेड़छाड़ वाला गाना है।’ वो बैठ गए हारमोनियम पर और उन्होंने कहा डडा डडा डा डडा डूडू. मैंने कहा, ये क्या है। तो उन्होंने कहा भाई! यह लिख लो आप। मैंने कहा ये तो मेरे समझ में नहीं आया। मैंने आज तक जो शायरी की है। उसके अंदर एक मिसरा दिया जाता है और उसके ऊपर हम शायरी करते हैं। लेकिन उन्होंने ऐसी धुन दे दी और उसको कह दिया, कि यह मीटर है। इसी मीटर पर आपको लिखना है। यह मेरे लिए बड़ी दुश्वारी ही हुई। लेकिन मैंने कहा मुझे कोशिश करके कामयाब होना था। इसलिए मैंने उनका वह मीटर लिख लिया। और उस मीटर पर लिखने के बाद एक गाना लिखा। जो बहुत पॉपुलर हुआ। मोहम्मद रफी साहब और लता जी के आवाज में फिल्माया गया। और म्यूजिक डायरेक्टर उसके कल्यानजी भाई-आनंदजी भाई हैं। उसके फिल्म का नाम है ‘खुफिया’। मैंने लिखा- ‘हुस्न शिकारी बन कर आया हो गया खुदी शिकार/जीत के सपने देखने वाले हो गई तेरी हार।’ इसमें जितेंद्र जी का बड़ा थिरकना-मटकना जो उनकी स्टाइल थी। बहुत ही अच्छा किया। और वह मेरा पहला गाना इस तरह से हुआ। बाद में इंदीवर जी से जुड़ गया और उन्होंने मुझे अपना असिस्टेंट लिख रख लिया। उनके लिए मैं लिखता था। वह जो मिसरा मुझे देते थे, जो सिचुएशन बताते जाते थे मुझे उस पर मैं लिखता था। और फिर कई मुख़्तलिफ लोगों के साथ काम किया मैंने। खासतौर से मैंने क़ादर खान साहब के साथ। उन के बहुत सारे असिस्टेंट थे। उनमें मैं भी एक असिस्टेंट रहा। और मुझे रोज़ाना के पैसे मिलते थे जो मेरे खर्च के लिए काफी होते थे। इस तरह से मेरा यह फिल्मी सफ़र शुरू हुआ।


ऋषि कपूर के साथ आफ़ताब अजमेरी (फाइल फोटो)


सवाल: फिल्मों में अभिनय करने के ख़्वाहिशमंद नए लोगों के लिए उर्दू उच्चारण की सही जानकारी कितनी ज़रूरी है ?

जवाब: बहुत अच्छा सवाल किया मानव साहब आपने। जो नए लोग आते हैं उनका जब ऑडिशन होता है। नए लड़के और लड़कियां जो हैं, वो सही डायलॉग नहीं बोल पाते या उनका तलफ़्फुज वगैरह नहीं दुरुस्त होता। तो वहां कहा जाता है, कि ‘तुस्सी तो पंजाबी हो।’ यह उर्दू सीरियल है। यहां पर इससे काम नहीं चल पाएगा। आजकल फिल्मों के बजाय वेबसीरीज बहुत बन रही है। हुआ यह है कि फिल्म स्टार जबसे कोरोना आया है, जब से यह बीमारी शुरू हुई। तब से सारे स्टार्स कुछ तो मुंबई से बाहर चले गए हैं और कुछ जैसे सलमान खान जैसे लोगों ने अपने फॉर्म हाउस के अंदर ही सेट लगा दिया है। ‘बिग-बॉस’ करने के लिए वह घर से निकलते हैं और अपने सामने वाले मैदान पर डायलॉग बोलते हैं और वापस अपने घर में चले जाते हैं। आमिर खान, शाहरुख खान और बहुत सारे स्टार्स मुंबई से बाहर चले गए हैं। जब तक यहां खतरा है। वह लोग वहां से लौटकर नहीं आने वाले हैं। सही भी है जिं़दगी अनमोल है। लेकिन अक्षय ऐसे आदमी हैं, जो अभी तक शूटिंग कर रहे हैं। उनकी डे-नाइट शूटिंग चल रही है। उनका वही क्राउड है। वही शोर-शराबा है। खाली अक्षय यहां पर सक्रिय हैं और काम कर रहे हैं।

 वेब सीरीज इसलिए ज्यादा बन रही है, क्योंकि जो लड़के-लड़कियां नये आए हैं। वो ‘बालाजी’ या बालाजी जैसे और दूसरे प्रोडक्शन उन लोगों को हीरो-हीरोइन के रूप में ले लेते हैं। उन पर एक छोटी सी कहानी लिखते हैं। दो घंटे या एक घंटे की। और उसकी वेबसीरीज बनती है। वह सस्ती बन जाती है। फटाफट बनती है। क्योंकि डे-नाइट काम होता है। वो आर्टिस्ट ऐसी डेटों का प्रॉब्लम नहीं डालते, जैसे हमारे स्टार डालते हैं। उनकी अभी एक डेट है, फिर महीने दो महीने तक डेट नहीं होगी। वेब सीरीज वाली फिल्म जल्दी बन जाती है। और मोबाइल पर भी चलती है। इसलिए वह बिक भी जल्दी से जाती है। इसलिए वेबसीरीज आजकल अधिक कामयाब है। सीरियल तो बहुत मुख़्तसर चल रही हैं। जो डे-नाइट चल रही हैं। जो कई महीनों सालों से चल रही हैं, वही चलती जा रही हैं। उनको और बढ़ावा मिल रहा है। उनके अगले एपिसोड बनते रहते हैं। बस मैं यह कहना चाहता हूं, कि नए लोगों के लिए भी उर्दू सीखना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि जब तक वह सीख नहीं पाते हैं तब तक उन्हें काम नहीं मिलता है। उन्हें वापस कर दिया जाता है। बहुत से लोग फिल्मी दुनिया में काम करने के लिए आए और उनकी यहीं पर पूरी उम्र गुजर गई। कुछ नहीं कर पाए। छोटे-मोटे, कहीं पर खड़े हैं, कहीं बैठे हैं, कहीं एक लाइन का डायलॉग मिल गया, पूरी उम्र गुजर गई। अभी लाॅकडाउन में हमारे यहां बहुत सारे लोग आए थे करेक्टर करने के लिए। जो जूनियर आर्टिस्ट में थे। बहुत सारे लोगों की मौत हो गई। उनके पास घर-बार नहीं, ठिकाना नहीं। कुछ बना नहीं पाये। कुछ कर नहीं पाए। इसलिए वो लोग ऐसे ही मर गए। और जब उनके घर वाले को पता चला, वो लोग आए, तो हमें ताज्जुब हुआ कि वह बहुत बड़े घराने के लोग थे। बड़ा कामयाब बनाना था। बहुत पढ़े लिखे थे। और यहां पर ठोकरे खा-खाकर ख़त्म हो गए। तो यह मुंबई है, जो कि रोज नए सांचे में ढलती रहती है।


विनोद खन्ना के साथ आफ़ताब अजमेरी (फाइल फोटो)


सवाल: आप शायरी से कब से जुड़े हैं ? किन विधाओं की शायरी करते हैं, आपका कोई उस्ताद भी है ?

जवाब: बचपन से ही मैं शेरो-अदब की दुनिया में दिलचस्पी रखता हूं। इसके अंदर सबसे बड़ा दखल मेरी वालिदा मोहतरमा शफाद बानो मिर्ज़ा का है। जिन्होंने मुझे बचपन से नाते-नबी और इक़बाल के नगमे याद करा दिए थे। और मैं स्कूल के ज़माने में स्कूल के स्टेज पर या तो ख्व़ाजा गरीब नवाज के दरबार में मनक़बत पढ़ता था। इस तरह मेरी शेरो-अदब का जौक़ बढ़ता गया। पहले वहां एक बड़े मशहूर उस्ताद थे, जिनका नाम था आरसी उस्ताद। उन्होंने फिल्म डंका में गाने लिखें। उसके बाद एक हाफिज कमर आसिफ थे। एक कैसर शाहजहांपुरी मशहूर शायर थे, जो शकील बदायूनी के शागिर्द थे। उनसे भी मैंने इस्लाह ली और मैं बस कोशिश करता रहा। और जो भी मोतबर शख़्स मिला। उसे मैंने कहा कि मोहतरम इसे दुरुस्त कर दें। बस समझ लीजिए वही मेरे उस्ताद हैं। और इस तरह से मेरे कई उस्ताद रहे। आज भी मैं अपने आप को मुकम्मल नहीं पाता। मैं समझता हूं कि यह बहुत बड़ा समंदर है और इसके अंदर ढलने के लिए ज़रूरी है कि कोई एक सहारा हो। कोई एक पतवार हो, एक कश्ती हो। जिसके जरिए इस समंदर को पार कर सकें। दिल में तो एक समंदर है जितना पढ़ते जाइए बढ़ते जाइए। मैं गजलियात, नज्में, दोहे, कतात, नाते-नबी, मनक़बत आदि लिखता हूँ। 

सवाल: फिल्मों में जो गीत लिखे जाते हैं, उनके लिखने वाले ज्यादातर उर्दू के ही शायर है, ऐसा क्यों ?

जवाब: दरअसल यह है, कि उर्दू में जितने भी गाने लिखे गए या जितने फिल्मों में गीत लिखे जाते हैं। उसके गीतकार इंदीवर और बहुत सारे लोग हिंदू भी हैं, मगर मगर इत्तेफ़ाक़ की बात यह है कि वह पुराने जमाने के लोग हैं और उर्दू से वाक़फ़ियात रखते हैं। वहीं ज्यादा बेहतर लिख सकते हैं, जो उर्दू जानते हैं। क्योंकि उर्दू मीठी ज़बान है। उर्दू की जो शेरीयत है जहनो-दिल में उतरती चली जाती है। चैनो-सुकून बख्सती है, और वही कामयाब है। आज के दौर में जितने गाने लिखे जा रहे हैं। देर तक नहीं याद किए जाते। लोग सुनते हैं और फिल्म थिएटर हाल से बाहर निकलते-निकलते भूल जाते हैं। कि क्या था वो गाना यार ? उसी वक़्त वह गाना डिंग डोंग करके निकल जाता है। मगर पिछले ज़माने के गाने जो मोहम्मद रफी, लता मंगेशकर, आशा भोंसले आदि जितने भी लोगों ने गाए हैं। वो आज भी लोगों के जे़ह्न ओ दिल में है। अपने तन्हाई को दूर करने के लिए और सुकून हासिल करने के लिए आज भी सुने-सुनाये जाते हैं। 


सैफ़ अली खान के साथ आफ़ताब अजमेरी


 सवाल: फिल्मों के डायलाग कैसे मुकम्मल होता है ?

जवाब: जब मैं यहां आया था तो राज कपूर के साउंड रिकॉर्ड्स अलाउद्दीन खान की फिल्म में मौका मिला था और उसके बाद मैंने कई जगह लिखे, लेकिन वो गाने मेरे नाम से नहीं हो सके। जाहिर है, कि जब इंदीवर जी के साथ आप काम कर रहे हैं। असिस्टेंट हैं। तो जो भी लिखेंगे, जो भी नाम होगा, इंदीवर जी का होगा। कादर खान साहब अकेले थोड़ी लिखते थे सारे डायलॉग। उनके कई असिस्टेंट थे। एक स्क्रिप्ट आती थी। उसमें कह दिया जाता था, कि भाई! अमिताभ बच्चन का एक डायलॉग है। एक लाइन दी जाती थी मिसरे की तरह कि ये डायलॉग बोलना है। और यह सीन है। एक ही कहानी पर एक ही लाइन पर दस लोग डायलॉग लिखते थे और शाम को कादर खान आकर उसका करेक्शन करते थे। दिन भर काम करने वाले लोगों की पेमेंट उनको दी जाती थी। इस तरह से कादर खान की वह स्क्रिप्ट मुकम्मल होती थी। और उसे वह बहुत ही खूबसूरत अंदाज़ से अपने जहन से कुछ अल्फाज़ मिलाकर प्रोड्यूसर को देते थे। उसके वह लाखों रुपए लेते थे। लिखने वाले लोगों को जो भी उनका मुआवजा तय होता था वह दे दिया जाता था। तो इस तरह से मैंने कोशिश भी की है और काम मिला भी है। अल इंडिया फिल्म रायटर्स एसोसिएशन का 35 साल पुराना मेंबर भी हूं।

( गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2021 अंक में प्रकाशित )


1 टिप्पणियाँ:

चंद्रपाल कुशवाहा सीपी ने कहा…

अच्छी जानकारी मिली

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