- अख़्तर अज़ीज़
यूं तो शायरी रह दौर में होती रही, मगर हम्दिया और नातिया शायरी की सिन्फ़ मुश्किल रही है। नात कहना मुश्किलतरीन सिन्फ़ है। शायर को बहुत ही सजग रहना पड़ता है। मौलाना मुजाहिद हुसैन रज़वी उर्फ़ ‘हसन’ इलाहाबादी का नातिया मजमुए-ए-कलाम ‘वसीला-ए-निजात’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। किताब के शुरू में फ़ाजिल-ए-बरैलवी रह. की एक रूबाई ‘ईमान ये कहता है मेरी जान है’ बतौर तबर्रुक शामिल किया गया है। ‘अपनी बात’ में शायर ने अपने और अपनी नातिया शायरी के बारे में कुछ दिलचस्प बातें लिखी हैं। उनमें सिर्फ़ एक वाक़ेया मुख़्तसरन अर्ज़ करता हूं। ‘1986 में पासबान-ए-मिल्लत हज़रत मौलाना मुश्ताक़ अहमद निज़ामी के बुलावे पर डाॅ. हसन रज़ा खान, मुहाहिद हुसैन दारुल उलूम गरीब नवाज इलाहाबाद बहैसियत मुदर्रिस तशरीफ़ ले आए। यहां उलेमा के अलावा शोअरा से भी हज़रत के मरासिम बढ़ने लगे, हां मेरे (अख़्तर अज़ीज़) वालिद मरहूम अज़ीज़ इलाहाबादी के तअल्लुकात और और मरासिम हुजूर के से अलजामियतुल अशरफ़िया मुबाकरपुर से ही थे और मुजाहिद के बारे में जिक्र करते करते हुए मुझसे अक्सर बताते कि (मेरे हज़रत यानी हुजूर हाफ़िज़-ए-मिल्लत रह. ने मौलाना मुजाहिद साहब को पढ़ाया है ) इलाहाबाद में इक़बाल दानिश से हज़रत की मुलाकात हुई। इक़बाल दानिश को उस वक़्त तक मुजाहिद साहब की शेरी सलाहियत का अंदाज़ा नहीं था, किसी ने इक़बाल दानिश से जिक्र किया कि मुजाहिद साहब भी नातिया अशआर कहते हैं। इक़बाल दानिश ने फ़रमाइश की कि कुछ सुनाइए, मुजाहिद साहब ने नात सुनाए। शेर सुनने के बाद इक़बाल दानिश को यक़ीन न आया, और कहा कि ये क्या मज़ाक है, ये अशआर आपके हैं ? इसमें तो बीस साल का तजरुबा बोल रहा है। और अगर ये अशआर आपने ही कही है तो मेरे दिए गए मिसरे पर अभी नात कहकर सुनाइए। ज़ाहिर है ये चैलेंज था और मौलाना मुजाहिद ने कुबूल करते हुए नात कहकर सुना दिया। जब इक़बाल दानिश ने सुना तो वाह-वाह कह उठे, और कहा- हज़रत आप तो आलिम-ए-दीन हैं। सरकार के फ़ज़ाएल से आपका दिल और जे़ह्न रौशन है, बेशक आप नातिया शायरी करते हैं। ‘वसीला-ए-निजात’ निजात का एक शेर देखें-‘ ज़िक्र छिड़ा उनकी अज़मत का लो महफ़िल पर छाया रंग/रंग नबी की मिदहत का है सब रंगों में चोखा है।’ इस मतले में शब़्द ‘चोखा’ का क्या खूबसूरत इस्तेमाल हुआ है। एक और शेर देखें- ‘ऐ काश सर-ए-हश्र भी मिल जाए ये मौक़ा/लहराउं वहां मिदहत-ए-आक़ा का पताका।’ इस नात का क़ाफ़िया है- खुदा, दुआ वगैरह और रदीफ़ ‘का’, पताका वो क़ाफ़िया का इस्तेमाल हुआ है- जिसमें रदीफ़ शामिल है, जिसे उर्दू शायरी में मामूल का क़ाफ़िया कहा जाएगा या कहते हैं। वसीला-ए-निजात में ढेर सारे अशआर मिसाल में पेश किये जा सकते हैं। और दो अशआर देखिए- ‘अच्छा हुआ हुजूर मेरे पास आए गए / था, मरहम शदीद सवाल ओ जवाब का।’ ‘एक पल में वो मकां से लामकां आए गए / कोई अंदाज़ा करे सरकार की रफ़्तार का।’ इस तरह के अशआर किताब में भरे पडे हैं। किताब में एक हम्द, एक मुनाजात और ‘एक आरजू’ के उनवान से शायर ने अपनी तमन्ना पेश किया है, जिसके बाद किताब में 114 नात हैं। 192 पेज के इस सजिल्द पुस्तक को एजुकेशन पब्लिशिंग हाउस दिल्ली ने प्रकाशित जिसकी कीमत 500 रुपये है।
ज़ेरे नज़र मजमुआ ‘क़लम काग़ज़ पे सजदे कर रहा है’। अनवार कमाल ‘अनवर फिरोज़बादी’ की नातों और मनाक़िब का खूबसूरत शायरी का मुजमुआ कलाम है। जिसमें 61 नात हैं और सात मनक़बतें हज़रत अली करमअल्लाह वजहुल करीम की शान-ए-अक़दस में, और बाक़ी मनक़बतें हज़रत इमाम हुसैन रजि. की शान-ए-मुक़द्दस में और तमाम शोहदा-ए-करबला रिज़वान उल्लाह तआला अलैहिम अजमईन की बारगाह-ए-कुद्स में हैं। अनवर फ़िरोज़ाबादी का मजमुआ ‘क़लम काग़ज़ पे सजदे कर रहा है’ पढ़ने से यह अंदाज़ा लगता है कि शायरी पर अनवर साहब की गिरफ़्त मज़बूत है, क्योंकि इतनी रवानी से ढले-ढलाए मिसरे किसी अच्छे शायर की निशानदेही करते हैं। इनकी नातों और मनक़बत (मनाक़िब) में अक़ीदत की फ़रावानी तो है ही, रवानी और वाक़ेयाती अशआर भी बेशुमार हैं। मुझे इनकी नातों के कुछ अशआर बहुत पसंद आए, आप भी मुलाहिज़ा फ़रमाएं। ‘नाम है जिसका मदीना नगर खुश्बू का /है इसी अर्ज़-ए-मुक़द्दस पे तो घर खुश्बू का’, ‘जो शह्र-ए-तैबा में गुज़रे वो ज़िन्दगी अच्छी/ दयार-ए-सरवर-ए-आलम की मौत भी अच्छी’, इतना क़रीब दूसरा कोई नबी नहीं/सरकार मेरे जितने खुदा के करीब है’। इस तरह के नातिया अशआर जा बजा मिलते हैं। यही बात मनक़बत में भी देखने को मिलती है। हज़रत अली की पैदाईश के बाद का वाक़या देखें- ’जब आए नबी खोल दीं अपनी आंखें/पता था ये उनको नबी आ गए हैं’। एक शेर और देखें, जिसमें मुश्किलकुशाई का जिक्र है- ‘छुटकारा चाहते हो अगर मुश्किलात से/लिखवाओ तुम मकान पे मौला अली का नाम’। इसी तरह के अशआर मजमुए में मिलते हैं। हज़रत इमाम हुसैन की शान में भी बेशुमार अशआर हैं। और तमाम शोहदाए कर्बला की तौसीफ़ करते हुए शायर कहता है- ‘ग़म-ए-हुसैन में जब आंख रोने लगती है/खुदा के फ़ज़ल की बारिश भी होने लगती है’। कुल मिलाकर अनवर फ़िरोज़ाबादी का कामयाब नातिया और मनक़बत का यह मजमुआ है।
किताब का नाम ‘बतख़ मियां असांरी’ कुछ अजीब सा मगर पढ़ने पर आंखें दंग रह गई। इतनी हिम्मत, जुरअत और बहादुरी वाली शख़्सियत कम ही देखने को मिलती है। इस किताब के लेखक सय्यद नसीर अहमद है, और तेलगु से उर्दू में अनुवाद अबुल फै़ज़ान ने किया है। किताबचा मोहन दास करमचंद गांधी जी की ज़िन्दगी से ताल्लुक रखता है। जिसके पढ़ने से ये अंदाज़ा साफ़ लगाया जा सकता है कि गांधी जी और उनके साथियों ने मुल्क को आज़ाद कराने के लिए कैसे-कैसे जोखि़म उठाए हैं। बतख मियां अंसारी 1867 में पैदा हुए और 1957 में इंतेकाल कर गए। 15 अप्रैल 1917 को गांधी जी मुजफ्फरपुर, मोतिहार पहुंचे थे। गांव वालों ने गांधी जी का बहुत ही ज़ोरदार इस्तक़बाल किया, इस्तक़बाल करने वाले गांव के लोग ज़्यादातर नील की काश्तकारी करते थे और इन कारखानों के मालिक अंग्रेज़ हुआ करते थे। अग्रेज़ मालिक तरह-तरह के तरी़कों से कारखानों में काम करने वाले लोगों को परेशान किया करते और ज़बरदस्ती टैक्स लगाया करते थे। हालात से लड़ने, राजकुमार शुक्ला और पीर मोहम्मद मोनिस अंसारी की अपीलों को ध्यान में रखते हुए गांधी जी मोतिहारी पहुंचे थे। चूंकि गांव वाले बिना डर के अपनी परेशानी गांधी जी को जी भर के सुनाया। जुल्म और ज़बरदस्ती टैक्स वसूली की बात बताई। ये सब देखकर अंग्रेज़ों को फ़िक्र सताने लगी और उनको किसी अनहोनी के होने का डर सताने लगा। इसी के तहत इरविन नामक अंग्रेज ने गांधी जी को मारने का प्लान बनाया, और ये तय किया कि गांधी जी को दावत पर बुलाया जाए और खाने-पीने की किसी चीज़ में ज़ह्र दे दिया जाए। इस ख़तरनाक काम को करने के लिए अपने बावरची बतख मियां अंसारी का चयन किया, और ये हुक्म दिया गया कि दूध में ज़ह्र डालकर तुम्हें गांधी जी को पिलाना है। ये सुनते ही बतख़ मियां अंसारी के होश उड़ गए, उनको हिचकिचाता देखकर इरविन ने लालच देना शुरू किया कि तुमको ज़मीन की शक्ल में इनाम दिया जाएगा, तुम्हारी तनख़्वाह बढ़ा दी जाएगी और भी बहुत चीजें दी जाएंगी। बतख़ मियां इतना सहम गए कि कुछ न बोलेाा, ख़ामोश खड़े रहे, मगर अंदर-अंदर उनका ज़मीर उनको काट रहा था। गांधी जी और उनके साथियों को दावत पर बुलाया गया, गांधी जी बाबू राजेंद्र प्रसाद और कुछ लोगों के साथ इरविन के यहां पहुंच गए। बस यहीं पर बतख़ मियां अंसारी की हिम्मत की दाद देनी पड़ती है। बतख़ मियां ने तमाम साज़िशों से नक़ाब हटाते हुए गांधी जी को बता दिया कि दूध में ज़ह्र पड़ा हुआ है। इस तरह इरविन की साज़िश नाकाम हो गई और गांधी जी की जान बच गई। इस वाक़ेये से इरविन के गुस्से की इंतिहा ने रही, बतख़ मियां को गिरफ्तार कराया, उन पर जुल्म कराए, उनका घर ज़ब्त कराया, नौकरी से निकाल दिया और यहां तक किया कि उन्हें बाल बच्चों समेत उन्हीं के गांव सिसवा असग़री से बेदखल कर दिया। मगर बतख़ मियां सब कुछ झेलने के बाद भी अंदर से गांधी जी की जान बचाकर खुश रहे, कुछ दिनों तक चम्पारन के लोगोें के साथ रहे और अचानक कहीं चले गए। फिर 1950 में भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद जी चम्पारन में एक जलसे में तक़रीर कर रहे थेा, बहुत ज़्यादा भीड़ थी, उसी भीड़ में एक बूढ़ा शख़्स बाबू राजेंद्र प्रसाद जी के पास लगातार पहुंचने की कोशिश किये जा रहा था, मगर पुलिस उन्हें बार-बार पीछे कर देती। अचानक राजेंद्र प्रसाद जी की नज़र पड़ी और पुलिस को हुक्म दिया कि उनको यहां ले आओ, करीब आने पर मालूम हुआ कि वह बतख़ मियां अंसारी थे। बतख़ मियां को राजेंद्र जी ने गले से लगाया और अपने बगल में बिठाया। फिर तक़रीर में सारा वाक़या दोहराया कि बतख़ मियां अंसारी ने कितनी हिम्मत दिखा के गांधी जी की मेरी तमाम लोगों की जान बचायी। ये वाक़या सुनकर मजमा सन्न रह गया। अगर राजेंद्र प्रसाद जी ये बात भरे मजमे में इसे ने बताते तो शायद यह वाक़या किसी का पता ही नहीं चलता। चूंकि बतख़ मियां ने राजेंद्र प्रसाद जी को अपने और उनके बच्चों पर हुए जुल्म की दास्तान सुना चुके थे, जिसे सुनकर राजेंद्र प्रसाद जी पर काफी असर हुआ और सहम गए। जिसके बाद उन्होंने ज़राअती ज़मीन एलाह करने के लिए वहां के कलेक्टर को हुक्म दिया। बतख़ मियां अंसारी काफी खुश थे कि उनके दिन फिर जाएंगे, मगर वह सात साल दफ्तरों के चक्कर काटते रहे और कोई नतीज़ा नहीं निकला, आखि़रकार वह दुनिया स ेचल बसे। 28 पेज के इस किताबचे में बहुत ही मालूमाती जानकारी है, जिसे आज़ाद हाउस पब्लिकेशन, आंध्र प्रदेश ने छापा है, जिसकी कीमत 25 रुपये है।
ज़ेरे नज़र मजमुआ ‘हमनशीं’ नौजवान शायर आसिफ़ अलअतश की ग़ज़लों का सरमाया है। आसिफ़ माशा अल्लाह अभी पच्चीस-छब्बीस साल के नौजवान शायर है और इस उम्र में शेरी मजमुआ मंज़रेआम पर लाने की सोचना, सबके बस की बात नहीं। मैं आसिफ़ अलअतश को मुबारकबाद पेश करता हूं । आसिफ़ की तहीरर से मालूम होता है कि ये एक शरीफ़ और दीनदार घराने से तअल्लुक रखते हैं। किताब में वालदैन के नाम इन्तेसाब करना मांग की दुआओं का ज़िक्र करना, नाना जान की नज़्र करना, ये तमाम बातें इस बात का सुबूत पेश रकती हैं। शुरूआत में जनाब फ़ैज़ुल हसन ने दुआओ से नवाज़ा (मुदीर) ने दुआओं से नवाज़ा, फ़िरोज़ हैदर (शोअब-ए-उर्दू, मारिस काॅलेज नागपुर) ने हौसला अफ़जाई कलमात से बेहतरीन राय दी, शिबली सना (इलाहाबाद) ने हौसला बढ़ाया। इसके अलावा अर्ज़-ए-इाल में आसिफ़ ने अपने सिलसिल में भी मुख़्तसर मगर जामे बयान किया। आसिफ़ ने खूब शेर कहे, और कहीं-कहीं मुतास्सिर भी करते हैं, मगर फ़िरोज हैदरी साहब के एक जुमले से इत्तेफ़ाक़ करना पड़ता है कि कहीं-कहीं कमसिनी की छाप नज़र आती है। मिसाल के तौर पर नात का मतला और एक शेर, मतला- ‘या रसूल अल्लाह दुनिया चल रही है आप से/मेरी शोहरत की भी शम्मा जल रही है आप से।’ बेहतरीन मतला है, मगर लफ़्ज़े शम्अ ग़लत नज़्म हेा गया है। इस तरह बह्र में आ जाएगा। ‘शम्अ की शोहरत हमारी, जल रही है आपसे’। वही बात शेर में भी हो गई है- ‘आपके तलवों का सदक़ा है सुबह की रौशनी’ यूं सही हो जाएगा- ‘आपके तलवों का सदक़ा सवेरे की किरन।’ बहरहाल, इस तरह किसी से भी हो सकती है। इनकी ग़ज़लों के कुछ अशआर ने बहुत मुतास्सिर किया, आप भी मुलाहिज़ा करें। ‘मुझको अपने भाई से मिलना है आसिफ़/उसने इतना कहकर खंज़र तोड़ दिया।’, ‘वफ़ादारी, मुरव्वत और चाहत/ वो पल्लू में सभी बांधे हुए हैं।’, ‘ इस अहल-ए-इश्क़ हैं हमसे न उलझो/शिुफ़ा मिलती है हमको ज़ह्र खाकर’, ‘हवा और धूप बोसे लेे रही थी/ वो जब बैठे थे आंगन में नहाकर’, ‘एक दो लोग ही सच्चाई पे चलने वाले/झूठ के सामने लश्कर की तरह होते हैं’। बेशक, आसिफ़ अलअतश बस यू हीं अपने मंज़िल की ओर बढ़ते रहिए, कामयाबी एक दिन क़दम चूमेगी। बस एक मशविरा, खूब मंजाई करके कागज़ पर अशआर लाइए, हालांकि अभी इस तरह की चूक हो जाना फ़ितरी है, हम सब लोग इसी मंज़िल से गुज़र चुके हैं। हां, एक बात तय है एक दिन ज़रूर शिनाख़्त कायम करेंगे। 120 पेज की इस किताब को उर्दू फाउंडेशन मुंबई ने शाया किया है, जिसकी कीमत 120 रुपये है।
( गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2019 अंक में प्रकाशित )
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