गुरुवार, 18 जुलाई 2019

आमजन का चित्रण करता है आज का दोहा


हरेराम समीप से बातचीत करते डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव

 13 अगस्त 1951 में मध्य प्रदेश के ग्राम मेख जिला नरसिंहपुर में जन्मे हरेराम नेमा ’समीप’ जाने माने साहित्यकार हैं। इन्हें  हरियाणा साहित्य अकादमी से राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त विशिष्ट पुरस्कार मिल चुका है। वाणिज्य एवं विधि से स्नातक हरेराम समीप ने दोहा और ग़ज़ल साहित्य पर शोध कार्य भी किया है। उनके प्रकाशित मुख्य दोहा संग्रहों में ‘साथ चलेगा कौन’, ‘जैसे’, ‘चलो एक चिट्ठी लिखें’, ‘आंखें खोलो पार्थ’ हैं तो गजल संग्रह में ‘हवा से भीगते हुए’, ‘आंधियों के दौर में’, ‘कुछ तो बोलो’, ‘किसे नहीं मालूम’, ‘इस समय हम’ आदि सम्मिलित हैं। उनका एक बहुत ही चर्चित कविता संग्रह ’मैं अयोध्या’ एवं कहानी संग्रह ‘समय से पहले’ भी प्रकाशित हैं। समकालीन हिन्दी ग़ज़लकारों पर आलोचना भी तीन खंडों में प्रकाशित है। उन्होंने समकालीन दोहा कोश, समकालीन महिला ग़ज़लकार, कथाभाषा त्रैमासिक पत्रिका आदि का संपादन तथा निष्पक्ष भारती, मसिकागद पत्रिकाओं में अतिथि-संपादन भी किया। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग के लिए उन्होंने नोबल पुरस्कार विजेता लेखकों के अनेक लेखों का अनुवाद कार्य और चर्चित दूरदर्शन धारावाहिक ’नक्षत्रस्वामी’ के लिए पटकथा व गीत लेखन भी किया। पिछले दिनों नई दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव ने उनका साक्षात्कार लिया। फोटोग्राफी प्रियंका प्रिया ने की।           


प्रश्न: अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में हमारे पाठकों को बताइए ?
उत्तर: मैं मध्यप्रदेश के एक बेहद पिछड़े गांव मेख में 13 अगस्त 1951 को एक सामान्य किसान परिवार में पैदा हुआ। मेरे पिता आज़ादी की लड़ाई के सिपाही और विद्रोही वक्ता थे। बचपन से ही उन्होंने मेरी रचनात्मक दृष्टि और विवेक को प्रखरता प्रदान की और मुझे जीवन को समझने की वह प्रविधि दी जो बाद में लेखन के माध्यम से मुझमें अभिव्यक्ति पाने लगी। दरअसल, बचपन में मैंने अपने घर, गांव और अपने इर्द-गिर्द इतना दुःख, गरीबी, अभाव और सत्ता की ऐसी-ऐसी क्रूरताएं देखी हैं कि मैं विद्रोही स्वभाव का हो गया हूं। छात्र आंदोलन किए और लेख, कविताएं, गीत, ग़जलें और दोहे लिखे फिर औद्योगिक नगर फरीदाबाद आकर श्रमिक-आंदोलनों में भाग लिया, जिसका शतांश भी अभी तक नहीं लिख पाया हूं।

प्रश्न 2 अपनी रचना यात्रा के बारे में संक्षेप में हमारे पाठकों को बताएं ?
उत्तर: सन् 1971 से कविता लेखन और पत्रकारिता के दौरान ग़ज़लें, दोहे, कविताएं और कहानियां तथा आलोचना की, मेरी 16 किताबें अब तक प्रकाशित हो गई हैं।

प्रश्न 3. वर्तमान में दोहा अपनी भाव भंगिमा और प्रस्तुतीकरण में प्राचीन काल से किस तरह भिन्न है?
उत्तर: हिन्दी काव्य में दोहा छन्द अपनी भाव-भंगिमा और प्रस्तुतीकरण में प्राचीनकाल से आज तक निरंतर अपने समय का साक्षी बनकर विद्यमान रहा है। ये दोहे हमारे साहित्य और लोकजीवन के अक्षुण्ण अंग बनकर, हमारी संस्कृति में रच बस गए हैं। परम्परागत दोहों से आधुनिक दोहा का सौन्दर्यबोध बदला है। अध्यात्म, भक्ति और नीतिपरक दोहों के स्थान पर अब वह उस आमजन का चित्रण करता है, जो उपेक्षित है, शोषित है, बेबस है। इस समूह के दोहे अपने नए अंदाज में तीव्र व आक्रामक तेवर लिए हुए हैं। अतः जो भिन्नता है वह समय सापेक्ष है। इसमें आस्वाद का अंतर प्रमुखता से उभरा है। इन दोहों में आज का युगसत्य और युगबोध पूरी तरह प्रतिबिम्बित हो रहा है।

प्रश्न 4. क्या कारण है कि एक प्राचीन छन्द होते हुए भी दोहा वर्तमान में बहुत अधिक लोकप्रिय है?
उत्तर: पिछले डेढ़ हजार साल से दोहा कभी अलोकप्रिय नहीं हुआ है। आज इसकी बढ़ती लोकप्रियता का मुख्य कारण एक तो सूचनातंत्र का विस्तार है और दूसरा महत्वपूर्ण कारण इसकी सहज ग्राह्यता है। वर्तमान जीवन की उथल-पुथल व जद्दोजहद को दोहा अधिक जीवंतता से प्रस्तुत कर रहा है। यह दोहा, जीवन की गहरी अनुभूति, संवेदना और यथार्थबोध की ताजा फसल के रूप में आ रहा है। इसमें आधुनिक भावबोध की प्रस्तुति बेहद प्रभावी अंदाज़ में हो रही है। इन दोहों में व्यक्त संवेदनाएं हमें यथार्थ से जोड़ती हैं। आज का दोहा जब हमारे आसपास उपस्थित अंधेरे को और अपने समय में उपस्थित गलत समय को शिद्दत से उजागर करेगा तो लोकप्रिय तो होगा ही।

प्रश्न 5. जन सरोकारों की दृष्टि से दोहों की उपयोगिता कितनी महत्वपूर्ण है?
उत्तर: अमानवीय शोषण पर टिकी सत्ता की इन शातिर पैंतरेबाजी से सचेत करते, असहमति जताते इन दोहों को जब आप देखेंगे तो पूरा समकालीन परिदृश्य आपके सामने स्पष्ट होता जाएगा। यही है जनता की ओर दोहों की यात्रा। मुझे लगता है कि आज दोहा व्यवस्था-परिवर्तन के लिए संघर्ष का उद्घोष कर रहा है और वह जनता की बात अगर जनता की भाषा में कर रहा है, तो इससे अधिक इसकी उपयोगिता और क्या होगी।

प्रश्न 6. सामाजिक विद्रूपताओं की अभिव्यक्ति के लिए दोहा व्यंग्य का सहारा लेकर चल रहा है क्या आप इससे सहमत हैं?
उत्तर: मैं बिल्कुल सहमत हूं। इस संवेदनहीन, आत्मरत और निष्ठुर वक्त में व्यंग्य ही लेखन की सबसे प्रभावशाली प्रविधि है। आजकल लगभग सभी विधाओं में व्यंग्य एक स्थायी माध्यम की तरह प्रयोग किया जा रहा है। फिर कबीर की परम्परा से जुड़ा हुआ दोहा ऐसे समय में व्यंग्यतत्व का प्रयोग करने में पीछे क्यों रहता। 

प्रश्न 7. दोहा लिखते समय क्या सावधानी बरतनी चाहिए?
उत्तर:दोहा एक मात्रिक छन्द है। इसका अपना एक अनुशासन है, जिसका पालन अवश्य होना चाहिए।

प्रश्न 8. दोहा-सृजन में देशज शब्दों का प्रयोग कितना उचित है?
उत्तर: भाषाई संकीर्णता के लिए दोहे में कभी कोई जगह नहीं होती। दोहों में प्रयुक्त देशज या अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्द दोहे की अर्थव्यंजना में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि कर देते हैं। लेकिन अक्सर देखा गया है कि देशज शब्दों का फैशन की तरह अतिशय प्रयोग दोहे की सम्पे्रषणीयता को बाधित करने लगता है। अतः इनका प्रयोग कुशलता से किया जाना चाहिए। 

प्रश्न 9. क्या वजह है कि हिन्दी की विधा होते हुए भी पाकिस्तान में भी दोहे खूब लिखे जा रहे हैं?
उत्तर: दरअसल दोहा एक सामथ्र्यवान मुक्तक छन्द है, जो हर कवि को आकर्षित करता है। फिर यह उर्दू ग़ज़ल की इकाई अर्थात ‘शेर’ से भी बहुत मिलता-जुलता है। अतः प्रत्येक शायर ने ग़ज़लों के साथ जब दोहे लिखे तो ये खूब प्रचलित हुए। आज दोहा अनेक भारतीय भाषाओं में ही नहीं पाकिस्तान, नेपाल और मौरीशस आदि अनेक एशियन देशों में लोकप्रिय हो रहा है।

प्रश्न 10: हिन्दी दोहों पर हाल ही में जो काम हुए हैं क्या उनकी कुछ जानकारी दे पाएंगे?
उत्तर: इस समय वरिष्ठ, युवा और तरुण दोहाकारों की तीन पीढ़ियां एक साथ दोहा लेखन में संलग्न हैं, जिसमें लगभग एक हजार दोहाकारों की सूची तो मेरे ही पास है। पिछले दिनों ‘समकालीन दोहाकोश’ का संपादन करते हुए मेरे सामने चयन की समस्या खड़ी हो गई थी, तब यही सोचा गया कि शीघ्र ही इसका दूसरा खण्ड तैयार किया जाए। अनेक पत्रिकाओं के दोहा विशेषांकों तथा समवेत संकलनों और उनमें लिखी संपादकीय भूमिकाओं ने आधुनिक दोहे को परिभाषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उम्मीद है कि ‘गुफ्तग’ू के इस दोहा विशेषांक से भी दोहा लेखन और समृद्ध होगा।

प्रश्न 11. काव्य विधा में गेयता का कितना महत्व है ?
उत्तर: गेयता कविता की पूर्णता मानी जाती है। प्राचीनकाल से अब तक वही कविताएं लोकजीवन का अंग बन पाई हैं जिनमें गेय तत्व विद्यमान रहा। यद्यपि आज की गद्य कविता की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ने काव्यपाठकों को दुविधा में डाल दिया है किन्तु लोकप्रिय काव्य गेय ही है। अतः कविता में गेयता का महत्व कभी कम नहीं होगा। 

प्रश्न 12. क्या ऐसा नहीं लगता कि छंदमुक्त कविता ने हर तीसरे आदमी को कवि तो बना दिया है, लेकिन पाठकों की संख्या लगातार कम हो रही है ?
उत्तर: नहीं भाई मुझे ऐसा नहीं लगता कि कवि बढ़ रहे हैं, लेकिन कविता के पाठक कम हो रहे हैं। इस पर बहस हो सकती है। सच यह है कि कविता के ग्राहक को किताब के अतिरिक्त अनेक साधन उपलब्ध हो रहे हैं-ई बुक्स, सोशल मीडिया, यूट्ब, इंटरनेट आदि के जरिए कहीं न कहीं वह कविता से जुड़ ही रहा है। दोहे का प्रसार भी इससे अछूता नहीं है। 

प्रश्न 13. काव्य की अन्य विधाओं के मुकाबले दोहे की कितनी प्रासंगिकता है ?
उत्तर: किसी भी विधा का भविष्य या उसकी प्रासंगिकता उसकी जीवन के प्रति दृष्टि और समय के साथ उसकी गतिमयता ही निर्धारित करती है। दोहा ने लगभग डेढ़ हजार सालों से बार-बार यह साबित किया है कि उसे अपने समय के साथ चलना आता है। रासो, अध्यात्म, भक्ति,प्रेम, श्रंगार, नीति, राष्ट्रीय चेतना, साम्प्रदायिक सामंजस्य और अब यथार्थ की मुखर अभिव्यक्ति-यात्रा करते हुए उसने  अपने सामथ्र्य की असीम संभावना के प्रति हमें आश्वस्त कर दिया है। आज जो दोहे की लोकप्रियता के नए क्षितिज खुल रहे हैं, ये उसकी अंतर्शक्ति का प्रमाण हैं। अतः दोहे की प्रसंगिकता निर्विवाद है। काव्य की अन्य विधाओं से दोहे का कोई मुकाबला नहीं है इसीलिये मुक्त गगन में आज दोहा छन्द साहित्य के नए क्षितिज तलाशने हेतु नई उड़ान पर निकला है। 

प्रश्न 14ः दोहा और ग़ज़ल, कदाचित ये दोनों साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधाएं हैं। इनके आपसी संबंधों को आप किस प्रकार देखते हैं? क्या उर्दू और हिन्दी भाषा की दृष्टि से इनमें कोई उल्लेखनीय अंतर है?
उत्तर: शेर और दोहा दो मुक्तक छंद हैं और स्वतंत्र रूप से उद्धृत किए जाते हैं। शेर और दोहा दो-दो पंक्तियों में आबद्ध होते हैं, जिनमें दोनों ही पंक्तियों की लय एक समान होती है। गेयता दोनों का ही गुण है। विशेष बात यह भी है कि दोनों की भावसंप्रेषण क्षमता अतुलनीय है। अंतर केवल यह है कि शेर अनेक बहरों में कहा जाकर ग़ज़ल में निबद्ध हो सकता है, जबकि दोहा सदैव मुक्त रहता है। यही तत्व हैं जो शायर को दोहे की तरफ और कवि को शेर की ओर आकर्षित करते हैं। 
  
प्रश्न 15 आप नए रचनाकारों को क्या संदेश देना चाहेंगे?
उत्तर : वास्तव में नए रचनाकार नए साहित्य के निर्माता होते हैं, अपने समय के प्रतिनिधि होते हैं। उन्हें अपने समय की सार्थकता तलाशनी है, अपने अतीत की समीक्षा करनी है, अपने वर्तमान की व्याख्या करनी है और अपने बेहतर भविष्य को प्रस्तावित करना है। इसके लिए उनमें स्पष्ट जीवन-दृष्टि होनी जरूरी है। उन्हें सोचना चाहिए कि आज वे ढेर सारा लिखने के बाद भी क्यों कोई विजन नहीं बना पा रहे हैं। कहीं शायद वे बाजार के दबाव में सतही उपलब्धियों में अपनी उर्जा तो नष्ट नहीं कर रहे हैं या फिर पुरस्कारों व प्रशस्तियों के जुगाड़ में लगे हैं। उन्हें जानना होगा कि क्यों उनका अधिकांश लेखन अप्रासंगिक और व्यर्थ हो रहा है। उन्हें समझना होगा कि यदि समय की संवेदनात्मक अनुभूति उसके पास नहीं है तो वह कैसे कुछ सार्थक व प्रभावी लिख पाऐंगे?

( गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च: 2019 अंक में प्रकाशित )

1 टिप्पणियाँ:

Hareram Sameep ने कहा…

वाह बहुत आच्छा साक्षात्कार ...


समीप

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