रविवार, 4 अक्तूबर 2015

‘रात अभी स्याह नहीं’का आगमन बेहद सुखद

 पुस्तक विमोचन के मौके पर बोले फिल्म गीतकार इब्राहीम अश्क 
इलाहाबाद। जब भी किसी शायर या कवि की किताब छपकर मंजरेआम पर आती है जो बेहद खुशी का एहसास होता है, और लगता है कि साहित्य का एक और इजाफा होता है। अरुण अर्णण खरे की किताब भी यही एहसास दिलाती है। इन्होंने अपनी रचनाओं में देश और समाज की भावना को बहुत ही शानदार तरीके से व्यक्त किया है। यह उनकी दूसरी किताब है, उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे भी उनकी किताबें आती रहेंगी। यह बात मशहूर फिल्म गीतकार इब्राहीम अश्क ने 06 सितंबर को साहित्यिक संस्था गुफ्तगू के तत्वाधान में अरुण अर्णव खरे के काव्य  संग्रह ‘रात अभी स्याह नहीं’ के अवसर पर कही। कार्यक्रम का आयोजन हिन्दुस्तानी एकेडेमी में किया गया, जिसकी अध्यक्षता बुद्धिेसन शर्मा ने की, विशिष्ट अतिथि रविनंदन सिंह थे। संचालन इम्तियाज अहमद गाजी ने किया।
रविनंदन सिंह ने अपने संबोधन में कहा कि पुस्तक का शीर्षक ही बता रहा है कि कवि ने अपनी रचनाओं के माध्यमों इन्होंने उम्मीद बनाए रखने की बात है। इन्होंने बताया है कि मनुष्य को कभी निराश नहीं होना चाहिए।  बुद्धिसेन शर्मा ने कहा कि गजल बहुत ही नाजुक विधा है, इसका पालन करना आसान नहीं है और पालन के बिना ग़ज़ल विधा का पालन करना संभव नहीं है। अरुण अर्णव ने इस ओर अच्छा प्रयास किया है, इसे जा रखने की जरूरत है।
दूसरे दौर में कवि सम्मेलन का आयेाजन किया गया। जिसमें नरेश कुमार महरानी, अनुराग अनुभव, इश्क सुल्तानपुरी, संजय सागर, प्रभाशंकर शर्मा, लोकेश श्रीवास्तव, अख्तर अजीज, माला  खरे, अनिमेष खरे, अनुभा खरे, तलब जौनपुरी, स्नेहा पांडेय, मखदमू फूलपुरी कविता उपाध्याय, अजीत शर्मा आकाश और डॉ. विनय श्रीवास्तव आदि ने रचनाएं प्रस्तुत की।


हिन्दुस्तान एकेडेमी सभागार में बैठे हुए बायें से: मखदमू फूलपुरी, नरेश कुमार महरानी, इब्राहीम अश्क और अरुण अर्णव खरे
इब्राहीम अश्क को अपनी पुस्तक ‘सिर्फ़ तेरे लिए’ पेश करती स्नेहा पांडेय

बुदिधसेन शर्मा-
अभी सच बोलता है ये अभी कुछ भी नहीं बिगड़ा,
अगर डांटोगे तो बच्चा बहाना सीख जाएगा।

अरुण अर्णव  खरे-
जब हर संकट से बखूबी लड़ती है ज़िन्दगी
फिर बडे  शान से आगे बढ़ती है ज़िन्दगी

इम्तियाज़ अहमद ग़ाजी-
मैं प्यार करूं तुमसे अगर कैसा लगेगा
तुम भी गर हो जाए असर कैसा लगेगा।
जिस दिन मेरे घर आवोगी दुल्हन की तरह तुम,
आने से तेरे ये मेरा घर कैसा लगेगा।

तलब जौनपुरी-
जो छींटे न पड़ती मेरे ख़ूं के उन पर,
तो चेहरे भी उनके गुलाबी न होते।

अख़्तर अज़ीज़-
वो जिसने एक चिंगारी मेरे आंगन में रक्खी थी,
धुवां अक्सर उसी के आशियाने से निकलता है।

इश्क़ सुल्तानपुरी-
जागती आंखों को ख़्वाबों का सफ़र देता है,
‘इश्क़’ इन सबको क्या-क्या हुनर देता है।

प्रभाशंकर शर्मा-
आप इन पत्थरों को छू लेते
शायद ये बुत भी खुदा हो जाते
वर्ना क्या बात थी तेरी ख़ातिर
दर्द की खुद ही दवा हो जाते।

स्नेहा पांडेय-
तुम अपनी जिम्मेदारी उठाओ
मैं अपनी जिम्मेदारी निभाउं
हमारा प्रेम एक है मगर,
जिम्मेदारियां अलग-अलग

अमित वागर्थ-
हमारे पास इक गैरत बची थी
उसी पर अब निशाना हो रहा है
मुहब्बत हम भी कर लेते मगर अब
सनम भी शातिराना हो रहा है।


लोकेश श्रीवास्तव-
एक आंगन में दो दीवारें
ये किस्सा है भारत का


पीयूष मिश्र-
फूलों की बस्तियों में
कांटे निकल रहे हैं
सबकुछ गंवा चुके हम
फिर भी मचल रहे हैं।


कविता उपाध्याय-
लोग कहते हैं अंधेरों को उजाला कर दो
शबनमी रात के पहलू में कई सपने हैं
छेड़ो न छेड़ो न रहने दो अभी सजने दो

अनुराग अनुभव-
हर एक दौर के सांचे में ढल गई दुनिया
पलक झपकते ही कितनी बदल गई दुनिया।

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