--- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ----
भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी नरेंद्र मोदी को लेकर उसी तरह की भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, जिस तरह 2004 के आम चुनाव में एनडीए के लोग बोल रहे थे। तब ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा दिया गया था। जोर-शोर से प्रचार किया गया था कि एनडीए के कार्यकाल में भारत पूरी दुनिया में चमकने लगा है। इस नारे के साथ चुनाव में उतरे एनडीए को मुंह की खानी पड़ी थी। एक बार फिर से उसी तरह का नारा दोहराने की कोशिश की जा रही है, लेकिन इस बार निगाहें कहीं है, और निशाना कहीं और पर है। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार उनके संप्रदायिकता वाली छवि के कारण बनाया गया, चूंकि यह खुलेआम कही नहीं जा सकती, इसलिए गुजरात के विकास का माडल दिखाकर मोदी को पेश किया गया है। उत्तर प्रदेश, जो अध्योया आंदोलन के समय से ही सांप्रादयिक आंदोलनों की प्रयोगशाला रहा है, यहीं से नरेंद्र भाई मोदी और अमित सहाय ने अपने अभियान की शुरूआत की है, इन दोनों नेताओं को गुजरात से सोची-समझी रणनीति के तहत लाया गया है। संदेश साफ है कि उत्तर प्रदेश सहित पूरे देश को ऐसे सांप्रदायिक रंग में रंग दिया जाए कि देशभर के हिन्दू और मुसलिम वोटर धर्म के आधार पर बंटकर वोटिंग और भाजपा को हिन्दू वोटों का लाभ मिले। भाजपा को अपने इतिहास से भी सबक लेना नहीं आता। उसे याद रखना चाहिए कि 90 के दशक में लाल कृष्ण आडवानी, कल्याण सिंह, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार आदि की छवि एक कट्टर फायर बिग्रेड हिन्दू नेता की थी, कमोवेश आज जो छवि नरेंद्र मोदी की है। आज की तारीख में इन नेताओं की खुद भाजपा में कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई। मुरली मनोहर जोशी को इलाहाबाद संसदीय क्षेत्र से हार का सामना करने के बाद अपना चुनाव क्षेत्र तक बदलना पड़ा। विनय कटियार अयोध्या से ही लगातार दो बार हार चुके हैं। उमा भारती को दर-दर की ठोंकरें खाने के बाद भाजपा में वापस आना पड़ा है, जहां उनकी स्थिति दूसरे कतार में खड़े नेताओं से भी खराब है। कल्याण सिंह कई बार भाजपा में आए-गए और अब पार्टी में उनकी कोई पूछ नहीं है। लाल कृष्ण आडवानी को पार्टी और राष्टीय सेवक संघ ने ही दरकिनार करके नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाया है। आडवानी लाख विरोध करते रहे लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी।
भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में तब उभरी जब उसने बाबरी मसजिद और रामजन्म भूमि को अपना मुख्य मुद्दा बनाया। 6 दिसंबर 1992 को मसजिद शहीद कर दी गई, और पूरे देश में दंगा भड़क उठा, इसके बाद ही भाजपा का सांप्रदायिक चेहरा सामने आया। तब की भाजपा सबसे मजबूत मानी जाती है, लेकिन बाबरी विध्वंस के बाद भी भाजपा को केंद्र में सरकार बनाने के लिए बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा, गठबंधन सरकारों का मजाक उड़ाने वाली पार्टी छोटे-छोटे दलों को मिलाकर और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे अपेक्षाकृत सेक्युलर चेहरे को लाना पड़ा, साथ ही पार्टी को अपने प्रमुख मुद्दे राम मंदिर और धारा-370 की बलि देनी पड़ी थी। तब कहीं जाकर भाजपा के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी थी। देश के सभी हिन्दुओं के प्रतिनिधित्व करने का दावा चाहे संघ जितना भी कर ले, लेकिन वह इस सच्चाई को कैसे नज़रअंदाज़ कर सकता है कि वह जिस भाजपा का समर्थन करती है, उसके पक्ष में आज तक बहुमत हिन्दुओं का वोट नहीं डलवा सकी है वर्ना भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनने से कोई नहीं रोक सकता था। इसमें कोई शक नहीं कि देश का अधिकतर पढ़ा-लिखा तबका चाहे वह हिन्दू या मुसलिम सेक्युलर है और सांप्रदायिकता के आधार पर वोटिंग नहीं करता। चंद नासमझ लोगों के कारण ही सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं और विभन्न मौकों पर राजनीति का संरक्षण मिलता रहा है। मगर हर मौके पर इस देश का पढ़ा-लिखा तबका आगे आकर सांप्रदायिक शक्तियों का मुकाबला करके उन्हें परासत करता रहा है। यही वजह है कि तमाम विडंबनाओं के बावजूद आज भारत के हर तबके के लोग बिना किसी डर के मिल-जुलकर एक साथ रहते आये हैं।
सच्चाई यह है कि संघ भी अंदरूनी रूप से नरेंद्र्र मोदी को पसंद नहीं करता, क्योंकि गुजरात में शासन करने के दौरान मोदी ने संघ की कभी नहीं सुनी, वे वही करते आये हैं, जो उन्हें ठीक लगता है। लेकिन इस वक़्त देश को जो माहौल है, उसमें संघ अप्रासंगिक हो गया है, उसे अपने अस्तित्व बचाने की चिंता सता रही है। ऐसे में संघ की प्रासंगिकता तभी साबित होगी जब केंद्र में भाजपा या उसके नेतृत्व वाली सरकार बने। ऐसे में संघ को लगता है मोदी भले ही प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी न सुनें लेकिन देश में उनकी प्रासंगकिता तो बनी रहेगी। अपने आपको बचाए रखना पहली चुनौती है। इसी को ध्यान में रखते हुए संघ ने मोदी पर दांव खेला है।
अब संघ और भाजपा की मुश्किल ये है कि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार तो बना दिया, लेकिन उन्हें उम्मीदवार बनाये जाने का असली कारण नहीं बता सकती। इसी वजह से कहा जा रहा है कि नरेंद मोदी ने गुजरात का विकास किया है पूरे देश का करेंगे। जबकि उनको सामने ले आने की वजह उनकी कट्टर छवि है। संघ-भाजपा का मानना है कि नरेंद्र मोदी की इसी छवि के कारण उन्हें हिन्दू मतों का फायदा होगा, लेकिन ये खुलेआम नहीं कही जा सकती, इसलिए गुजरात का राग अलापा जा रहा है, जबकि गुजरात से अधिक काम सबसे पिछड़ों राज्यों में से एक बिहार और मध्य प्रदेश में हुआ है। गुजरात की वास्तविक स्थिति को छुपाकर देश के पेश सामने करने की कोशिश की जा रही है, इसके लिए बकायदा एक गु्रप को लगा दिया गया है। गुजरात को लेकर हाल ही में सीएजी ने जो रिपोर्ट पेश की है, उसके मुताबिक एक तिहाई लड़कियां कुपोषण की शिकार हैं। इसके अलावा तरकीबन सत्तर फीसदी लड़कियां पांचवीं कक्षा से आगे पढ़ने के लिए नहीं पहुंच रही हैं। गुजरात से लगे पाकिस्तान बार्डर का हिस्सा सबसे अधिक असुरक्षित है। सीबीआई ने जांच के बाद एनकांउटर मामलों की जो रिपोर्ट बनाई है, उसमें से इशरतजहां का मामला साफ तौर पर सामने आ गया है कि वह आतंकवादी या आतंकियों की साथी नहीं थी, कालेज की एक सामान्य छात्रा थी। 2002 के दंगों में मोदी के इशारे पर जो कत्लेआम हुआ, वह गुजरात के इतिहास में कालों पन्ने पर दर्ज हो चुका है। हक़ीक़त ये है कि नरेंद्र मोदी पंूजीवादी ताकतों के हाथों खेल रहे हैं, उन्हे खुश करने के लिए सारा काम गुजरात में किया जा रहा है। लाखों आदिवासी किसानों को वनभूमि के नए पट्टे देने के बजाए उन्हें उनकी पुश्तैनी खेती की ज़मीनों से भी पीट-पीटकर भगा दिया गया है। दूसरी ओर रतन टाटा को 2200 करोड़ रुपए निवेश करने के लिए 9570 करोड़ रुपए ऋण सरकार ने मात्र 0.1 फीसदी ब्याज पर दे दिया। इस कर्ज को टाटा बीस वर्षों में चुका सकते हैं। दो लाख एकड़ ज़मीन टाटा, आदानी, अंबानी और ईटीवी ग्रुप को दे दिया गया है। ये ज़मीनें 900 रुपए प्रति वर्ग मीटर की दर से दी गई हैं, जबकि इसका बाजार मूल्य दस हजार रुपए प्रति वर्ग मीटर है। नरेंद्र मोदी जब 2001-02 में गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे, उस समय गुजरात का ऋण 45,301 करोड़ रुपए था, इस समय यह ऋण 1,76,000 करोड़ रुपए तक पहुंच गया है। प्रतिदिन राज्य सरकार को 4.5 करोड़ रुपए ब्याज के रूप में देना पड़ रहा है। नरेंद्र मोदी इन आंकड़ों से अच्छी तरफ वाकिफ हैं और उन्होंने ऐसी व्यवस्था बना रखी है कि विकास की हकीकत लोगों तक न पहुंच पाए। आज कोई भी स्वतंत्र एजेंसी गुजरात का सही और ठीक आंकलन अपने हिसाब से आसानी से नहीं कर सकती। ऐसे लोगों को सरकारी नुमाइंदे जहां चाहते हैं, जो चाहते हैं, वही दिखाया जाता है। आगामी लोकसभा चुनाव जहां भारत को एक नई दिशा की ओर जाने वाला साबित होगा, वहीं नरेंद्र मोदी को उनकी राजनैतिक हैसियत भी बताने वाला है। किसी भी गणित से भाजपा की अकेले सरकार नहीं बनने वाली, और दूसरे दल मोदी के नेतृत्व वाली सरकार को समर्थन देने से रहे।
भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी नरेंद्र मोदी को लेकर उसी तरह की भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, जिस तरह 2004 के आम चुनाव में एनडीए के लोग बोल रहे थे। तब ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा दिया गया था। जोर-शोर से प्रचार किया गया था कि एनडीए के कार्यकाल में भारत पूरी दुनिया में चमकने लगा है। इस नारे के साथ चुनाव में उतरे एनडीए को मुंह की खानी पड़ी थी। एक बार फिर से उसी तरह का नारा दोहराने की कोशिश की जा रही है, लेकिन इस बार निगाहें कहीं है, और निशाना कहीं और पर है। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार उनके संप्रदायिकता वाली छवि के कारण बनाया गया, चूंकि यह खुलेआम कही नहीं जा सकती, इसलिए गुजरात के विकास का माडल दिखाकर मोदी को पेश किया गया है। उत्तर प्रदेश, जो अध्योया आंदोलन के समय से ही सांप्रादयिक आंदोलनों की प्रयोगशाला रहा है, यहीं से नरेंद्र भाई मोदी और अमित सहाय ने अपने अभियान की शुरूआत की है, इन दोनों नेताओं को गुजरात से सोची-समझी रणनीति के तहत लाया गया है। संदेश साफ है कि उत्तर प्रदेश सहित पूरे देश को ऐसे सांप्रदायिक रंग में रंग दिया जाए कि देशभर के हिन्दू और मुसलिम वोटर धर्म के आधार पर बंटकर वोटिंग और भाजपा को हिन्दू वोटों का लाभ मिले। भाजपा को अपने इतिहास से भी सबक लेना नहीं आता। उसे याद रखना चाहिए कि 90 के दशक में लाल कृष्ण आडवानी, कल्याण सिंह, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार आदि की छवि एक कट्टर फायर बिग्रेड हिन्दू नेता की थी, कमोवेश आज जो छवि नरेंद्र मोदी की है। आज की तारीख में इन नेताओं की खुद भाजपा में कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई। मुरली मनोहर जोशी को इलाहाबाद संसदीय क्षेत्र से हार का सामना करने के बाद अपना चुनाव क्षेत्र तक बदलना पड़ा। विनय कटियार अयोध्या से ही लगातार दो बार हार चुके हैं। उमा भारती को दर-दर की ठोंकरें खाने के बाद भाजपा में वापस आना पड़ा है, जहां उनकी स्थिति दूसरे कतार में खड़े नेताओं से भी खराब है। कल्याण सिंह कई बार भाजपा में आए-गए और अब पार्टी में उनकी कोई पूछ नहीं है। लाल कृष्ण आडवानी को पार्टी और राष्टीय सेवक संघ ने ही दरकिनार करके नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाया है। आडवानी लाख विरोध करते रहे लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी।
भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में तब उभरी जब उसने बाबरी मसजिद और रामजन्म भूमि को अपना मुख्य मुद्दा बनाया। 6 दिसंबर 1992 को मसजिद शहीद कर दी गई, और पूरे देश में दंगा भड़क उठा, इसके बाद ही भाजपा का सांप्रदायिक चेहरा सामने आया। तब की भाजपा सबसे मजबूत मानी जाती है, लेकिन बाबरी विध्वंस के बाद भी भाजपा को केंद्र में सरकार बनाने के लिए बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा, गठबंधन सरकारों का मजाक उड़ाने वाली पार्टी छोटे-छोटे दलों को मिलाकर और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे अपेक्षाकृत सेक्युलर चेहरे को लाना पड़ा, साथ ही पार्टी को अपने प्रमुख मुद्दे राम मंदिर और धारा-370 की बलि देनी पड़ी थी। तब कहीं जाकर भाजपा के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी थी। देश के सभी हिन्दुओं के प्रतिनिधित्व करने का दावा चाहे संघ जितना भी कर ले, लेकिन वह इस सच्चाई को कैसे नज़रअंदाज़ कर सकता है कि वह जिस भाजपा का समर्थन करती है, उसके पक्ष में आज तक बहुमत हिन्दुओं का वोट नहीं डलवा सकी है वर्ना भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनने से कोई नहीं रोक सकता था। इसमें कोई शक नहीं कि देश का अधिकतर पढ़ा-लिखा तबका चाहे वह हिन्दू या मुसलिम सेक्युलर है और सांप्रदायिकता के आधार पर वोटिंग नहीं करता। चंद नासमझ लोगों के कारण ही सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं और विभन्न मौकों पर राजनीति का संरक्षण मिलता रहा है। मगर हर मौके पर इस देश का पढ़ा-लिखा तबका आगे आकर सांप्रदायिक शक्तियों का मुकाबला करके उन्हें परासत करता रहा है। यही वजह है कि तमाम विडंबनाओं के बावजूद आज भारत के हर तबके के लोग बिना किसी डर के मिल-जुलकर एक साथ रहते आये हैं।
सच्चाई यह है कि संघ भी अंदरूनी रूप से नरेंद्र्र मोदी को पसंद नहीं करता, क्योंकि गुजरात में शासन करने के दौरान मोदी ने संघ की कभी नहीं सुनी, वे वही करते आये हैं, जो उन्हें ठीक लगता है। लेकिन इस वक़्त देश को जो माहौल है, उसमें संघ अप्रासंगिक हो गया है, उसे अपने अस्तित्व बचाने की चिंता सता रही है। ऐसे में संघ की प्रासंगिकता तभी साबित होगी जब केंद्र में भाजपा या उसके नेतृत्व वाली सरकार बने। ऐसे में संघ को लगता है मोदी भले ही प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी न सुनें लेकिन देश में उनकी प्रासंगकिता तो बनी रहेगी। अपने आपको बचाए रखना पहली चुनौती है। इसी को ध्यान में रखते हुए संघ ने मोदी पर दांव खेला है।
अब संघ और भाजपा की मुश्किल ये है कि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार तो बना दिया, लेकिन उन्हें उम्मीदवार बनाये जाने का असली कारण नहीं बता सकती। इसी वजह से कहा जा रहा है कि नरेंद मोदी ने गुजरात का विकास किया है पूरे देश का करेंगे। जबकि उनको सामने ले आने की वजह उनकी कट्टर छवि है। संघ-भाजपा का मानना है कि नरेंद्र मोदी की इसी छवि के कारण उन्हें हिन्दू मतों का फायदा होगा, लेकिन ये खुलेआम नहीं कही जा सकती, इसलिए गुजरात का राग अलापा जा रहा है, जबकि गुजरात से अधिक काम सबसे पिछड़ों राज्यों में से एक बिहार और मध्य प्रदेश में हुआ है। गुजरात की वास्तविक स्थिति को छुपाकर देश के पेश सामने करने की कोशिश की जा रही है, इसके लिए बकायदा एक गु्रप को लगा दिया गया है। गुजरात को लेकर हाल ही में सीएजी ने जो रिपोर्ट पेश की है, उसके मुताबिक एक तिहाई लड़कियां कुपोषण की शिकार हैं। इसके अलावा तरकीबन सत्तर फीसदी लड़कियां पांचवीं कक्षा से आगे पढ़ने के लिए नहीं पहुंच रही हैं। गुजरात से लगे पाकिस्तान बार्डर का हिस्सा सबसे अधिक असुरक्षित है। सीबीआई ने जांच के बाद एनकांउटर मामलों की जो रिपोर्ट बनाई है, उसमें से इशरतजहां का मामला साफ तौर पर सामने आ गया है कि वह आतंकवादी या आतंकियों की साथी नहीं थी, कालेज की एक सामान्य छात्रा थी। 2002 के दंगों में मोदी के इशारे पर जो कत्लेआम हुआ, वह गुजरात के इतिहास में कालों पन्ने पर दर्ज हो चुका है। हक़ीक़त ये है कि नरेंद्र मोदी पंूजीवादी ताकतों के हाथों खेल रहे हैं, उन्हे खुश करने के लिए सारा काम गुजरात में किया जा रहा है। लाखों आदिवासी किसानों को वनभूमि के नए पट्टे देने के बजाए उन्हें उनकी पुश्तैनी खेती की ज़मीनों से भी पीट-पीटकर भगा दिया गया है। दूसरी ओर रतन टाटा को 2200 करोड़ रुपए निवेश करने के लिए 9570 करोड़ रुपए ऋण सरकार ने मात्र 0.1 फीसदी ब्याज पर दे दिया। इस कर्ज को टाटा बीस वर्षों में चुका सकते हैं। दो लाख एकड़ ज़मीन टाटा, आदानी, अंबानी और ईटीवी ग्रुप को दे दिया गया है। ये ज़मीनें 900 रुपए प्रति वर्ग मीटर की दर से दी गई हैं, जबकि इसका बाजार मूल्य दस हजार रुपए प्रति वर्ग मीटर है। नरेंद्र मोदी जब 2001-02 में गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे, उस समय गुजरात का ऋण 45,301 करोड़ रुपए था, इस समय यह ऋण 1,76,000 करोड़ रुपए तक पहुंच गया है। प्रतिदिन राज्य सरकार को 4.5 करोड़ रुपए ब्याज के रूप में देना पड़ रहा है। नरेंद्र मोदी इन आंकड़ों से अच्छी तरफ वाकिफ हैं और उन्होंने ऐसी व्यवस्था बना रखी है कि विकास की हकीकत लोगों तक न पहुंच पाए। आज कोई भी स्वतंत्र एजेंसी गुजरात का सही और ठीक आंकलन अपने हिसाब से आसानी से नहीं कर सकती। ऐसे लोगों को सरकारी नुमाइंदे जहां चाहते हैं, जो चाहते हैं, वही दिखाया जाता है। आगामी लोकसभा चुनाव जहां भारत को एक नई दिशा की ओर जाने वाला साबित होगा, वहीं नरेंद्र मोदी को उनकी राजनैतिक हैसियत भी बताने वाला है। किसी भी गणित से भाजपा की अकेले सरकार नहीं बनने वाली, और दूसरे दल मोदी के नेतृत्व वाली सरकार को समर्थन देने से रहे।
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