गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

पठनीयता का संकट कम, चोचलेबाजी ज्यादा-प्रो. बिसमिल्लाह

                                              

कवि, कथाकार व उपन्यासकार के रूप में अपनी खास पहचान बनाने वाले अब्दुल बिस्मिल्लाह उन चंद भारतीय लेखकों में हैं, जिन्होंने गंगा-जमुनी तहजीब को न सिर्फ काफी नज़दीक से देखा, बल्कि उसे अपनी लेखनी का विषय भी बनाया है। दंतकथा उपन्यास में नाबदान में फंसे एक मुर्गे के बहाने पूरी धरती पर व्याप्त भय, असुरक्षा व आतंक के बीच जीवन संघर्ष करते प्राणी की स्थिति का बेजोड़ शब्द चित्रण हो या पूर्वांचल बुनकरों की समस्या को बेस्ड बनाकर ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास में बेजोड़
शब्दों की झीनी-झीनी प्रभावी बुनावट, यह उन्हें आम लेखकों से अलग बनाती है। नई दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया में बतौर हिंदी प्राध्यापक अब्दुल बिस्मिल्लाह को सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड, हिंदी एकेडमी दिल्ली, उप्र हिंदी संस्थान से दो बार, मप्र साहित्य परिषद, देव अवार्ड, साहित्य सम्मान, कथाक्रम सम्मान, साहित्य शिरोमणि सरीखे तमाम अवार्ड मिले हैं। उन्होंने मुझे बोलने दो (कविता संग्रह) टूटा हुआ पंख ;(लघु कथा संग्रह), छोटे बुतों का बयान (कविता संग्रह), समर शेष है (उपन्यास), झीनी झीनी बीनी चदरिया (उपन्यास), जहरबाद ;(उपन्यास), दंतकथा(उपन्यास), वली मोहम्मद और करीमन बी की कविताएं (कविता संग्रह), कितने कितने सवाल (लघु कथा संग्रह), रैन बसेरा ;(लघु कथा संग्रह), अतिथि देवो भव (लघु कथा संग्रह), जेनिया के फूल(लघु कथा संग्रह), मुखड़ा क्या देखे (उपन्यास),  रफ रफ मेल(लघु कथा संग्रह), अपवित्र आख्यान (उपन्यास), रावी लिखता है (उपन्यास) आदि लिखकर अपनी खास पहचान बनाई है। इनकी रचनाओं में झीनी झीनी बीनी चदरिया उपन्यास का उर्दू, ‘द सांग आॅफ द लूम’ अंग्रेजी में तर्जुमा हुआ। इसी प्रकार दंतकथा उपन्यास का मराठी तथा रवि लिखता है का पंजाबी, रफ रफ मेल का फ्रेंच में अनुवाद हुआ। पठनीयता के संकट को चोचलेबाजी बताने वाले अब्दुल बिस्मिल्लाह इसे कुछ लोगों का दिमागी फितूर बताने तक से नहीं चूकते। कहते हैं, पठनीयता के संकट जैसा कोई मसला नहीं है। इसी बीच उल्टे सवाल दागने तक से नहीं चूकते- अगर आपकी रचना को पाठक नोटिस न लेकर उसे खारिज कर दे रहा है तो इसे पठनीयता का संकट नहीं माना जा सकता। पाठकों की बदलती अभिरूचि का भी ख्याल लेखकों को रखना होगा। इस पर भी सोचना होगा कि आखिर क्या वजह है पाठक रचना के बारे में कायदे से नोटिस नहीं ले रहा है। इलाहाबाद में 9 जून 2013 को ‘गुफ्तगू’ द्वारा आयोजित एक सेमिनार में भाग लेने आए श्री बिसमिल्लाह से शिवाशंकर पांडेय ने बात की।
सवाल- हिंदी ग़ज़ल को लेकर कितने आषान्वित हैं आप?
जवाब- देखिए, रचनाओं को भाशा में बांटना कतई ठीक नहीं है। ऐसा करना उसे छोटा करने का कार्य है। देष की तमाम भाशाओं में ग़ज़लें लिखी जा रही हैं।
सवाल- फिर भी उर्दू और हिंदी के बीच जो ग़ज़लें लिखी जा रही हैं ...?
जवाब- ;बीच में ही बात काटकर हमने पहले ही कहा कि इसे हिंदी-उर्दू में बांटना उचित नहीं है। हिंदी और उर्दू दोनों में ग़ज़लें बखूबी लिखी जा रही हैं।
सवाल- अच्छी ग़ज़लें कहने के लिए क्या-क्या अहम बातें जरूरी होती हैं?
जवाब- सबके अपने अलग-अलग तरीके हैं, लेकिन प्रभावी तरीके से ग़ज़लें लिखने के लिए परंपरा का जानना बहुत ही ज़रूरी होता है। अगर परंपरा से वाकि़फ़ नहीं हैं तो कामयाबी मिलना मुष्किल हो जाता है। यह जान लीजिए कि छंद के बगैर ग़ज़ल हो ही नहीं सकती पर ग़ज़ल केवल छंद भी नहीं है।
सवाल-नए ग़ज़लकारों के लिए क्या कहेंगे?
जवाब-एक बात तय जानिए कि ग़ज़ल लिखने के लिए कायदे से पढ़ना और उसे समझना बहुत ज़रूरी है। दिक्कत यह है कि इधर, नये ग़ज़लकार पढ़ बहुत कम रहे हैं। इसका असर उनकी रचनाओं में भी दिख रहा है। 
सवाल-‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ उपन्यास के बारे में कुछ बताइए। 
जवाब- यह उपन्यास काफी चर्चा में रहा। ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ लिखने के लिए लंबी तैयारी करनी पड़ी। पूर्वांचल के कई बुनकर बस्तियों, उनके टोले-मोहल्ले की ख़ाक छाननी पड़ी। बुनकरों की दिनचर्या, उनके रहन-सहन, बोली, हंसी-मज़ाक करने का अंदाज़ से लेकर उनकी समस्याओं का न सिर्फ़ गहराई से अध्ययन किया बल्कि उसे महसूस भी किया। तब कहीं जाकर झीनी झीनी बीनी चदरिया उपन्यास सामने आया। इसे पाठकों ने जमकर सराहा। कई विष्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में षामिल किया गया। बाद में इस हिंदी उपन्यास के उर्दू और अंग्रेज़ी भाशाओं में भी कई संस्करण छपे।
सवाल-अक्सर पठनीयता के संकट की बातें कही जाती है, कितना सहमत हैं आप?
जवाब- पठनीयता का संकट कम, चोचलेबाजी ज्यादा है। यह सब कुछ लोगों का दिमागी फितूर है। पठनीयता के संकट जैसा कोई मसला नहीं है। आपकी रचना को पाठक अगर नोटिस न लेकर उसे खारिज़ कर रहा है तो इसे पठनीयता का संकट नहीं माना जा सकता। पाठकों की बदलती अभिरूचि का भी ख़्याल लेखकों को रखना होगा। इस पर भी सोचना होगा कि आखि़र क्या वज़ह है कि पाठक रचनाओं की क़ायदे से नोटिस नहीं ले रहा है। उनकी बदलती अभिरूचि को समझकर लिखे जाने की ज़रूरत है।
(गुफ्तगू के जुलाई-सितंबर 2013 अंक में प्रकाशित)


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