-इम्तियाज़ अहमद गाजी
आज भी इलाहाबाद पूरी दुनिया में अपनी साहित्यिक कार्यप्रणाली और कारनामों के लिए जाना जाता है। देश का यह इकलौता शहर है जिसके हिस्से में छह ज्ञानपीठ पुरस्कार आएं हैं। हिन्दी कथाकारों में अमरकांत और उर्दू आलोचना में शुम्सुर्रहमान फ़ारू़की का नाम अदबी दुनिया के आसमान पर सितारों की तरह चमक रहे हैं। अकबर इलाहाबादी, फिराक गोरखपुरी, एहतेशाम हुसैन, मुजाविर हुसैन, प्रो.फजले इमाम, अली अहमद फातमी और एहतराम इस्लाम जैसे लोगों का नाम इस शहर से जुड़ा हुआ है। लेकिन उर्दू अदब के पसमंजर में अगर आज के इलाहाबाद की बात करें तो यह बेहद अफसोसनाक है कि आज के तारीख में इस शहर से एक भी उर्दू की पत्र-पत्रिका प्रकाशित नहीं हो रही है, धीरे-धीरे करके सारी पत्रिकायें बंद हो चुकी हैं। एक तरफ लोगों की पढ़ने में कम हो रही रुचि तो दूसरी ओर उर्दू से लोगों कम होती निस्बत ने ये हालात पैदा कर दिये हैं। पत्रिकाओं के अलावा उर्दू अखबारों का हाल भी बहुत ही खराब है। सही मायने में दो हिन्दी अखबार घरानों के उर्दू अखबार प्रकाशित हो रहे हैं और मार्केट में दिखते भी हैं, लेकिन कई हिन्दी अखबार जहां अस्सी हजार से एक लाख तक बिक रहे हैं, वहीं इन दोनों उर्दू अखबारों के बिकने वाली प्रतियों की संख्या 200 से भी कम है। वर्ना एक दौर ऐसा भी था जब अब्बास हुसैनी के निकहत पब्लिकेशन से प्रकाशित होने वाली जासूसी दुनिया के नाॅवेलों की एडवांस बुकिंग होती थी, पिछड़ जाने की सूरत में कई बार लोगों को ब्लैक में खरीदना पड़ता था। इब्ने शफी के इन नाॅवेलों की दुनिया के कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। 1996 से शुरू हुई ‘शबखून’ नाम मासिक पत्रिका शम्सुर्रहमान फारूकी के संपादन में वर्ष 2005 तक प्रकाशित हुई, इस पत्रिका की पहुंच दुनिया के उन सभी देशों में थी जहां उर्दू अदब से रिश्ता रखने वाले मौजूद थे। लेकिन आखिरकार सितंबर 2005 में इसके बंद होने का ऐलान कर दिया गया।
इलाहाबाद से प्रकाशित हुए उर्दू साहित्यिक पत्रिकाओं के इतिहास पर गौर करें तो यहां से सबसे पहले 1890 में मोहम्मद हमीदुल्ला ने ‘इलाहाबाद रिव्यू’ नाम से पत्रिका निकाली, फिर 1921 में डाॅ. ताराचंद्र ने ‘हिन्दुस्तानी’ निकाली। 1922 से 1927 तक आजम कुरेवां, आगा अली खान और तालिब इलाहाबादी ने मिलकर ‘अकबर’ नामक पत्रिका निकाली। इसी दौर में एज़ाज हुसैन ने ‘शुआ-ए-उर्दू’ नामक पत्रिका प्रकाशित की थी। इनके अलावा ‘अदीब’,‘चांद’,‘कारवां’,‘फसाना’,‘नयी जिन्दगी’, ‘नया हिन्द’, ‘जहांनुमा’, ‘शाहकार’, ‘सबरंग’, ‘शहपर’, ‘तीसरी दुनिया’, ‘अल-अजीज’, ‘शफक’, ‘सवेरा’, ‘अंदाजे’ और ‘पासवान’ आदि पत्रिकायें समय-समय पर निकलीं और फिर बंद हो गईं। कुछ दिनों तक प्रो. अली अहमद फ़ातमी ने ‘नया सफर’ नामक पत्रिका प्रकाशित की थी, लेकिन इस पत्रिका के असली कर्ता-धर्ता डा. कमर रईस हैं, जो दिल्ली से इस पत्रिका को प्रकाशित करते थे, कुछ समय के लिए वो रूस चले गये तो इसके प्रकाशन की जिम्मेदारी उन्होंने प्रो. फातमी को दे दी थी। फिर जब डा. रईस वापस भारत लौटे तो यह पत्रिका भी फिर से दिल्ली से प्रकाशित होने लगी। 2007 में स्वालेह नदीम और अख्तर अजीज ने मिलकर ‘तहसीर’ नामक पत्रिका निकाली। इसके पहले अंक का बड़ी धूम-धाम से विमोचन भी किया गया, लेकिन इस पत्रिका का सफर भी मात्र तीन अंकों तक ही रहा। आज की तारीख में उर्दू की एक भी साहित्यिक पत्रिका प्रकाशित नहीं हो रही है। अगर कहीं कोई प्रकाशित कर भी रहा होगा तो वह मात्र फाइल काॅपी तक ही सीमित होगी, किसी स्टाल में इलाहाबाद से प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्रिका कहीं देखने को नहीं मिलती।
आज सूरतेहाल यह है कि उर्दू से आम लोग तो कट रहे रहे हैं, मगर उर्दू साहित्य से जुड़े हुए लोग भी इस दिशा में कोई प्रयास करते नहीं दिखते, उनसे बात करने पर सारी जिम्मेदारी सरकार पर डालकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। उर्दू में जो काव्य संग्रह या कहानी संग्रह आदि जैसी किताबें प्रकाशित हो रही हैं, उनकी तादाद 200 तक सिमट चुकी है। इन पुस्तकों का प्रकाशन करके दोस्तों को मुफ्त में बांटने और उर्दू अकादमियों में जमाकर पुरस्कार बंटोरने के लिए हो रहा है।
आज भी इलाहाबाद पूरी दुनिया में अपनी साहित्यिक कार्यप्रणाली और कारनामों के लिए जाना जाता है। देश का यह इकलौता शहर है जिसके हिस्से में छह ज्ञानपीठ पुरस्कार आएं हैं। हिन्दी कथाकारों में अमरकांत और उर्दू आलोचना में शुम्सुर्रहमान फ़ारू़की का नाम अदबी दुनिया के आसमान पर सितारों की तरह चमक रहे हैं। अकबर इलाहाबादी, फिराक गोरखपुरी, एहतेशाम हुसैन, मुजाविर हुसैन, प्रो.फजले इमाम, अली अहमद फातमी और एहतराम इस्लाम जैसे लोगों का नाम इस शहर से जुड़ा हुआ है। लेकिन उर्दू अदब के पसमंजर में अगर आज के इलाहाबाद की बात करें तो यह बेहद अफसोसनाक है कि आज के तारीख में इस शहर से एक भी उर्दू की पत्र-पत्रिका प्रकाशित नहीं हो रही है, धीरे-धीरे करके सारी पत्रिकायें बंद हो चुकी हैं। एक तरफ लोगों की पढ़ने में कम हो रही रुचि तो दूसरी ओर उर्दू से लोगों कम होती निस्बत ने ये हालात पैदा कर दिये हैं। पत्रिकाओं के अलावा उर्दू अखबारों का हाल भी बहुत ही खराब है। सही मायने में दो हिन्दी अखबार घरानों के उर्दू अखबार प्रकाशित हो रहे हैं और मार्केट में दिखते भी हैं, लेकिन कई हिन्दी अखबार जहां अस्सी हजार से एक लाख तक बिक रहे हैं, वहीं इन दोनों उर्दू अखबारों के बिकने वाली प्रतियों की संख्या 200 से भी कम है। वर्ना एक दौर ऐसा भी था जब अब्बास हुसैनी के निकहत पब्लिकेशन से प्रकाशित होने वाली जासूसी दुनिया के नाॅवेलों की एडवांस बुकिंग होती थी, पिछड़ जाने की सूरत में कई बार लोगों को ब्लैक में खरीदना पड़ता था। इब्ने शफी के इन नाॅवेलों की दुनिया के कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। 1996 से शुरू हुई ‘शबखून’ नाम मासिक पत्रिका शम्सुर्रहमान फारूकी के संपादन में वर्ष 2005 तक प्रकाशित हुई, इस पत्रिका की पहुंच दुनिया के उन सभी देशों में थी जहां उर्दू अदब से रिश्ता रखने वाले मौजूद थे। लेकिन आखिरकार सितंबर 2005 में इसके बंद होने का ऐलान कर दिया गया।
इलाहाबाद से प्रकाशित हुए उर्दू साहित्यिक पत्रिकाओं के इतिहास पर गौर करें तो यहां से सबसे पहले 1890 में मोहम्मद हमीदुल्ला ने ‘इलाहाबाद रिव्यू’ नाम से पत्रिका निकाली, फिर 1921 में डाॅ. ताराचंद्र ने ‘हिन्दुस्तानी’ निकाली। 1922 से 1927 तक आजम कुरेवां, आगा अली खान और तालिब इलाहाबादी ने मिलकर ‘अकबर’ नामक पत्रिका निकाली। इसी दौर में एज़ाज हुसैन ने ‘शुआ-ए-उर्दू’ नामक पत्रिका प्रकाशित की थी। इनके अलावा ‘अदीब’,‘चांद’,‘कारवां’,‘फसाना’,‘नयी जिन्दगी’, ‘नया हिन्द’, ‘जहांनुमा’, ‘शाहकार’, ‘सबरंग’, ‘शहपर’, ‘तीसरी दुनिया’, ‘अल-अजीज’, ‘शफक’, ‘सवेरा’, ‘अंदाजे’ और ‘पासवान’ आदि पत्रिकायें समय-समय पर निकलीं और फिर बंद हो गईं। कुछ दिनों तक प्रो. अली अहमद फ़ातमी ने ‘नया सफर’ नामक पत्रिका प्रकाशित की थी, लेकिन इस पत्रिका के असली कर्ता-धर्ता डा. कमर रईस हैं, जो दिल्ली से इस पत्रिका को प्रकाशित करते थे, कुछ समय के लिए वो रूस चले गये तो इसके प्रकाशन की जिम्मेदारी उन्होंने प्रो. फातमी को दे दी थी। फिर जब डा. रईस वापस भारत लौटे तो यह पत्रिका भी फिर से दिल्ली से प्रकाशित होने लगी। 2007 में स्वालेह नदीम और अख्तर अजीज ने मिलकर ‘तहसीर’ नामक पत्रिका निकाली। इसके पहले अंक का बड़ी धूम-धाम से विमोचन भी किया गया, लेकिन इस पत्रिका का सफर भी मात्र तीन अंकों तक ही रहा। आज की तारीख में उर्दू की एक भी साहित्यिक पत्रिका प्रकाशित नहीं हो रही है। अगर कहीं कोई प्रकाशित कर भी रहा होगा तो वह मात्र फाइल काॅपी तक ही सीमित होगी, किसी स्टाल में इलाहाबाद से प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्रिका कहीं देखने को नहीं मिलती।
आज सूरतेहाल यह है कि उर्दू से आम लोग तो कट रहे रहे हैं, मगर उर्दू साहित्य से जुड़े हुए लोग भी इस दिशा में कोई प्रयास करते नहीं दिखते, उनसे बात करने पर सारी जिम्मेदारी सरकार पर डालकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। उर्दू में जो काव्य संग्रह या कहानी संग्रह आदि जैसी किताबें प्रकाशित हो रही हैं, उनकी तादाद 200 तक सिमट चुकी है। इन पुस्तकों का प्रकाशन करके दोस्तों को मुफ्त में बांटने और उर्दू अकादमियों में जमाकर पुरस्कार बंटोरने के लिए हो रहा है।
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