शुक्रवार, 11 मार्च 2011

खुसरो की जुड़वा बेटियां हैं हिंदी और उर्दू- बेकल

२८ जून १९२८ को गोंडा जिले के गोर्मवापुर गांव में जन्मे लोधी मोहम्मद शफी खान उर्फ बेकल उत्साही आज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। पद्मश्री का एवार्ड पाने से लेकर राज्य सभा के सदस्य बनने तक एक लंबा सफर तय किया है. दो दर्जन से ज्यादा किताबें छप चुकी हैं। नात, कशीदा, गीत, रुबाई, मनकबत, दोहा और गज़ल आदि में बेकल साहब ने बहुत कुछ लिखा है, जो हमारे समय का हासिल भी हैं। गुफ्तगू के उपसंपादक डॉ शैलेष वीर गुप्त ने उनसे बात कई मुद्दों पर बात की.



सवाल: साहत्य में परिवर्तन को आप किस रूप में देखते हैं?


जवाब: दखिए, परिवर्तन साहित्य में हो या राजनीति में, समाज में हो या अध्यात्म में। इन सब में माहौल का, जलवायु का और इंसानों की सोच का असर पड़ता है। यह कोई ज़रुरु नहीं है कि मालिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत लिखा तो नै नस्ल भी वैसा ही लिखे। ज़रूरत तो इस बात की है कि उसे समझने के बाद उससे अलग हटकर कुछ लिखेंगे तो यह परिवर्तन होगा, और यह सब तो कुदरत की बात है।


सवाल: नवगीत, गीत, विधा से किस प्रकार भिन्न है? नवगीत को आप किस प्रकार परिभाषित करेंगें? जवाब: गीत हो, नवगीत हो या कोई भी काव्य रचना हो, उसमे जबतक अपनी मिट्टी, अपने देश की बात नहीं होगी , उसे मैं अच्छा नहीं समझता। हमारे लिखने वाले कवि और शायर बाहर के लोगों को पढते हैं जो उनसे ज्यादा प्रभावित होते हैं, मैं उनका कायल नहीं हूँ। हमने सदियों से दूसरों को सस्कृति का पाठ पढ़ाया है तो हम अपनी संस्कृति छोड़कर दूसरों के मोहताज क्यों हों? नवगीत है ही नहीं, जो नवगीत लिखे जा रहे हैं मै उन्हें नवगीत नहीं समझता। नवगीत में जब तक कोई नै बात नहीं होगी, अपनी धरती, संस्कृति और अपने संस्कारों के माध्यम से व्यक्त नहीं लिए जायेंगे, वे नव्गात होंगे ही नहीं।


सवाल : साहित्य लेखन में पुरस्कारों का क्या योगदान है, पुरस्कारों में होने वाली राजनीति के बारे में आपका क्या ख्याल है ?


जवाब: इसका मतलब मैं सिर्फ इतना जानता हूँ कि ये गुटबंदी है। इसी वजह से हम भारतीय काव्य रचना में या कहानी में आगे नहीं बढ़ पा रहे.... चाहे वो प्रगतिशील साहित्य रहा हो, वह भी खत्म हो गया, आधुनिकवाद आया.... इस तरह से ऐसा नहीं है। शकेब ज़लाली ने ज़रूर गज़ल में नयापन दिया। हमारे भारत में दुष्यंत जी पैदा हो गए, उन्हें हमने गज़ल का सबसे बड़ा शायर मान लिया। वो गजलकार अच्छा है जो मात्रावों का पाबन्द हो। दुष्यंत जी बेबहरे हैं, इनके यहाँ बहर-वहर कुछ है नहीं, बस ख्यालात हैं, नई सोच है। लेखन में फिक्र और फन दोनों होना चाहिए। फिक्र सोच होती है और फन जिसे व्याकरण ने दिया है उसे हमने छोड़ दिया है। जब हम अपनी असल जड़ को छोड़ देंगें तो हम क्या लिखेंगें।


सवाल: उर्दू शायरी में आध्यात्मिकता समावेश कितना है ?


जवाब: बहुत है, हाली को आप भूल गए, ग़ालिब के यहाँ अध्यात्म है हाली के यहाँ अध्यात्म है, किसका नाम लूँ। अध्यात्म और तसव्वुर दो चीज़ें हैं। तसव्वुर यानी सूफीवाद वह है जिसके अंतर्गत संतों और सूफियों ने एकता और बातें की है। यह तो शुरू से, ऋवेद से चला आ रहा है कि सद्भावना है, वही इंसान को उचाईयों पर ले जाती है।


सवाल : गज़लों को हिंदी और उर्दू में बांटना कितना तर्कसंगत है?


जवाब: यह गलत है। मैं हिंदी और उर्दू में कोज फर्क नहीं समझता हूँ। ये दोनों खुसरो की जुड़वा बेटियां हैं। एक दायें से चल रही है और दूसरी बाएं से। आप लिपि पर क्यों जाते हैं। आप यह बताइये कि जो उर्दू ही वह देवनागरी में कितनी अधिक छापी जा रही है।


सवाल: आजकल कवि-मंचों और फिल्मों ने वास्तविक साहित्य को फूहडता के लिफ़ाफ़े में क़ैद कर दिया है, इससे आप कहाँ तक सहमत हैं?


जवाब: बेशक क़ैद कर दिया है। पहले जो फ़िल्मी गीतकार थे , उनमे फिक्र भी थी, फन भी था और टू द पॉइंट लिखते थे। जब से हम संगीत के पाबन्द हो गए हैं, तब से फक्कडपन आ गया। साहिर लुधियानवी जैसे गीतकार संगीत निर्देशकों से साफ़ कह देते थे कि जो मैं लिखता हूँ उसपर तुम मयूजिक दो, तुम्हारे संगीत पर मैं गीत नहीं दे सकता। जब हम दूसरों के मोहताज होकर लिखेंगे तो क़ैद ही हो जायेंगे, क्या लिखेंगे ..... के कि जगह मैं लिख देंगे। यही वजह है कि फिल्मों में लिखने का आफर मिलने के बावजूद मैं फ़िल्मी लेखन में नहीं गया। उर्दू में तो गीत हैं ही नहीं फिर भी मैंने उर्दू बहर में गीत लिखा है..... ये किस आलोचक को समझाएं और ये आलोचक भी जिसे चाहते हैं, जब चाहते हैं उछालते हैं। हमने ये ज़रूर किया है कि उर्दू गज़ल को लोकल रोज़मर्रा के शब्दों में उनकी पहचान बने है। इसलिए कि विधा और शब्दावली किसी कि बपौती नहीं होती है। ग़ालिब अल्फाज़ दे सकते हैं तो बेकल भी अल्फाज़ दे सकता है।


सवाल: फूहड़ता के लिफ़ाफ़े में क़ैद वास्तविक साहित्य , इस भयावह स्थिति से बाहर आने का कोई रास्ता आपको दिखता है?


जवाब: नई नस्ल, नई पीढ़ी से मुझे यह उम्मीद और विश्वास है कि वह फिर से हमारी हिंदी-उर्दू भाषा के व्याकरण को समझेगी और सही-सही साहित्य देगी।


सवाल: इतनी ख्याति अर्जित करने के बाद क्या आज भी आप नई शायरी करने के बाद उतने ही खुश होते हैं, जितना कि शुरूआती दौर में?


जवाब: बेहद.... बेहद..... देखिये शायर जो है उसके ह्रदय में, उसके पेट में ख्यालात पनपते रहते हैं। जैसे प्रेग्नेंट होने के नौ महीने बाद बच्चा पैदा कर जितनी खुशी एक माँ को होती है, उतनी ही खुशी शायर और कवि को होती है।


सवाल: वर्तमान समाज के निर्माण में क्या साहित्य कि कोई भूमिका शेष बची है?


जवाब: साहित्य की भूमिका तो आदि से है। आपको शायद याद हो कि किसी मंच पर पंडित जवाहर लाल नेहरु सदारत करने जा रहे थे, वे फिसल गए। उनके पीछे दिनकरजी थे, दिनकर जी ने उन्हें संभाल लिया तो नेहरूजी ने कहा दिनकरजी आपका शुक्रिया। इसपर दिनकरजी ने जवाब दिया था कि जब राजनीतिलड़खड़ाती है तो साहित्य ही उसे संभालता है। लेकिन अब राजनीति इतनी बेईमान हो गई है कि साहित्य भी उसी के साथ बेईमान हो गया है। माफ कीजिएगा, ये मौसम कि दें है, बेमौसम कभी बेर नहीं फरता।


सवाल: युवा पीढ़ी साहित्य से दूर क्यों भाग रही है?


जवाब: आजके नौजवान बेरोजगार हैं। अब वो चाहती है कि साहित्य भी व्यवसायिक हो जाए तब मैं इसमें प्रवेश करूँ। जबतक नौजवानों को रोजगार नहीं मिलेगा तबतक वो क्या लिखेगा, क्या पढेगा और क्या सोचेगा।


गुफ्तगू के जनवरी-मार्च २०१० अंक में प्रकाशित

2 टिप्पणियाँ:

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

भाई शैलेश जी बेकल साहब से बातचीत बहुत उम्दा लगी लेकिन इतने बड़े शायर से कुछ और जानने की आप कोशिश करते तो अच्छा लगता |

राजेश राज ने कहा…

कल गोरखपुर में "एक शाम : बेकल उत्साही के साथ" का आयोजन और संचालन का सौभाग्य मिला| आज के दौर में जनाब बेकल साहब गिनती के उन २-४ शायरों में हैं जो शायरी और इंसानियत दोनों में ऊँचा मुकाम रखते है | उनके बारे में जितना लिख जय कम है

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