हारुन रशीद |
- शहाब खान गोड़सरावी
सहाफ़त की दुनिया के सुप्रसिद्ध पत्रकार हारुन रशीद अलीग का जन्म 31 मई सन. 1942 ई. को मुंबई में हुआ। इनका पैतृक गांव उसिया है। इनके पिता इस्माईल खान मुंबई में टैक्सी ड्राइवर थे, माता हिफाजत बीबी जो नेक घरेलू खातून थी। हारून रशीद का गांव की तुलना में मुंबई में ज्यादा रहना हुआ। हारून रशीद श्अलीगश् के पिता समाजसेवी ईस्माईल खां ने क्षेत्रिय बच्चों की शिक्षा के लिए श्कमसार हॉस्टलश् के रूप में सन.1962 ई० को दिलदारनगर मे श्हाजी लॉजश् का निर्माण कराया। लम्बे ऊंचे कद के गोल मुखड़े में साधारण सा दिखने वाले हारुन रशीद को बचपन से नेक स्वभाव से जाना जाता था। जैनुल आबेदीन के मुताबिक 1960 ई. में हारून रशीद कक्षा चार की पढ़ाई गिरगांव, मुंबई के चैपाटी म्युनिसिपल स्कूल से पूरा करने के बाद पांचवीं की पढ़ाई के लिए मुंबई के अंजुमन इस्लाम बॉयज वींटी. हाईस्कूल में दाखिले के लिए गए तो उस स्कूल के प्रिंसिपल ने उनका दाखिला करना से मना कर दिया, उन्होंने कहा कि आपके पिता इस कॉलेज की फीस नहीं दे पाएंगे। वे रोते हुए वीटी काॅलेज से चरनी रोड के रास्ते घर वापस लौट रहे थे, तभी एक अजनबी की नज़र उन पर पड़ी। उस अजनबी ने बच्चे को रोते हुए देखकर रोने की वजह पूछी, और फिर अपनी कार मंे उन्हे बिठा उस स्कूल के रजिस्टार के दफ्तर पहुंचे, और उनका दाखिला कराया।
वीटी कॉलेज से मैट्रीक करने के बाद सन.1964 ई. मे कक्षा-11 वीं के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय मे प्रवेश लिया। वहां से इंटरमीडिएट और ग्रेजुएशन के बाद उर्दू से एम.फिल. की डिग्री हासिल की। हारुन रशीद की समाज सेवा, लेखन के साथ-साथ खेलकूद में खास दिलचस्पी थी। वो अक्सर फ्री समय में क्रिकेट खेलना पसंद करते थे। इंडो-पाक के क्रिकेट मैच में उनकी खासी दिलचस्पी थी। अलीगढ़ पढ़ाई के दरमियान ही हारून रशीद अलीग को सन. 1964-70 ई. तक हर वर्ष बेहतरीन तकरीर के लिए पुरस्कृत किया गया था। पढ़ाई के दरम्यान उनकी शादी अंजुमन इस्लाह मुस्लिम राजपूत कमसारोबार एवं गंगापार कमेटी के संस्थापक खान बहादुर मंसूर अली के परिवार में हाजी मसिहुजम्मा उर्फ जंगा खां की छोटी लड़की रिफत जहां से हुई। पढ़ाई पूरी करने के बाद हारून रशीद रोजी रोटी की तलाश में लग गए। मुंबई में कई छोटी-मोटी प्राइवेट नौकरियां की, लेकिन कहीं मन नहीं लगा, आखिर में उनका लिखने पढ़ने का हुनर काम आया और वो 1965-70 के बीच छोटे बड़े पत्र पत्रिकाओं में लिखना शुरू कर दिया। उनके मज़ामीन उर्दू टाइम्स, अखबारे-नौ, उर्दू ब्लिट्ज और उर्दू इंक़लाब में छपे, जिन्हें कई संपादको के द्वारा सराहा गया। उर्दू ज़बान-व-अदब पर उन्होंने ऐसी महारत हासिल की थी कि देखते ही देखते उन्हें मुंबई के साथ-साथ हैदराबाद, लखनऊ जैसे बड़े शहरों के उर्दू अख़बार और रसालों मे भी उनके मज़ामीन छपने लगे। उन्होंने अपने मज़ामीन के जरिए एक आज़ाद सहाफी के रूप मे समाज के बीच एक अच्छी पहचान बनाई। इनकी स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए महाराष्ट्र उर्दू-अकादमी द्वारा सन् 1980 ई० में पुरस्कृत हुए। सन् 1977 ई. मे मशहूर शायर हसन कमाल से इनकी पहली मुलाकात हुई और उर्दू बिल्टज मे बतौर सहाफी काम करना शुरू किया और 1979 ई. मे हारून रशीद अलीग साप्ताहिक उर्दू बिल्टज के संपादक बनाए गए। सन् 1995 के बाद उन्होने रोजनामा इन्क़लाब मे ‘खेल की दुनिया’ और ‘आलम-ए-इस्लाम’ व ‘कलम पे वॉर’ नामक बेहतरीन कालम लिखतेे और अपनी कड़ी मेहनत की बदौलत इन्क़लाब के शुरुआती दौर में ही अव्वल दर्जे का उर्दू अख़बार बना दिया। इनकी स्पोर्ट्स कॉलम करंजिया हॉउस मुंबई से ब्लिट्ज, इन्क़लाब के उर्दू, हिंदी, इंग्लिश तीनों अख़बारों में छपती। जिसे देखते हुए करंजिया ग्रुप ऑफ न्यूज पेपर के संस्थापक आरक करंजिया हारुन रशीद से काफी प्रसन्न थे, उन्हें अपने बेटे की तरह मानते थे। जिसकी वजह से पांच वर्षो तक बतौर रोजनामा इन्क़लाब मे संपादक बने रहे।
हारून रशीद अक्सर कमसार-व-बार इलाके के अंजुमन इस्लाहिया कमेटी के प्रोग्राम में शिरकत कर बतौर निजामत करते। सन् 1993 ई. मे बाबरी मस्जिद केस के दरमियान हिंदू-मुस्लिम भाईचारा को बनाये रखने के लिए वो सामने आए, जिसका नतीजा ये हुआ कि मुंबई ठाकुरद्वार स्थित मकान को दंगे मे जला दिया गया। सैकड़ों किताबों से भरी जिं़दगी की सारी मेहनत-मशकत की कमाई को पूरी लाइब्रेरी जलकर खाक हो गई। उनकी जब तक सांसे चली तब तक कौमी एकता के लिए काम किये और वो भी दिन आया जो अपनी तीन बच्चियों और एक बच्चे को छोड़कर 4 मार्च सन. 2000 ई. को दुनिया को अलविदा कह गये। उनकी मिट्टी उनके कहे के मुताबिक पैतृक गांव उसिया सतहवा मोहल्ला कब्रिस्तान में दफन की गई। गौरतलब हो कि हारुन रशीद की बेटी पत्रकार हुमा हारून जो ‘बीबीसी’ लंदन में बतौर एंकर रह चुकी है।
(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2020 अंक में प्रकाशित)
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