बुधवार, 15 अप्रैल 2020

नातगोई की इब्तिदा

                                        - डाॅ. जफरउल्लाह अंसारी
                                 
   
डाॅ. जफरउल्लाह अंसारी

 नात अरबी ज़बान का मसदर-ए-सुलासी मुजर्रर है जिसके लुग़वी माना तारीफ़ करने के है। इस्तिलाह-ए-शेर में नात से मुराद वो सिन्फ़ है जिसमें सरवर-ए-कौनैन हज़रत मोहम्मद सल्ल. के औसाफ़-व-फ़जायल बयान किए जाएं। इसकी रवायत निहायत ही क़दीम है, क्योंकि नबी की ज़ात ही से तख़लीक-खुदाबंदन का आगाज़ हुआ है। जैसा कि इस हदीस से वाजेह है- ‘अव्वलन अल्लाह ने मेरे नूर को पैदा किया और तमाम ख़लायक मेरे नूर से हैं।’ इसी के साथ हदीस से ये भी वाजेह है कि आप वाइस-ए-इजाद-ए-कुल हैं। ‘अगर आप को पैदा करना मंज़ूर न होता तो मैं ज़मीनों और आसमानों को पैदा न फ़रमाता।’ और ये भी हक़ीक़त है कि आप हज़रत-ए-आदम अ. कि तख़्लीक़ से पहले भी नबी थे। मैं उस वक़्त भी नबी था जब आदम आब-व-गिल के दरमियान थे। ये अहादीस इस पर दलालत करती है कि हमारे नबी की पैदाइश अर्ज़-व-समा के ज़हूर में आने से क़ब्ल हो गई थी, ये दूसरी बात है कि इस ख़ाकदान-ए-गेती पर हज़रत-ए-ईसा मसीह अ. के बाद तशरीफ़ लाए। इस एतबार से ना का नुक्तए-आगाज़ भी अर्ज-व-समा के वजूदू से क़ब्ल तस्लीम किया जाएगा। इरशाद शाकिर आवान नात का नुक़्तए-आग़ाज़ हज़रत-ए-आदम अ. की तख़्लीक़ से मानते हैं। वो इस सिलसिले में रकमतराज़ हैं-‘ मशहूर रिवायत है कि रू से फ़ख्र-ए-दुआलम सल्ल. की सिफ़ात के बयान में नात की रवायत का आग़ाज़ उसी वक़्त से होता है जिस दम हज़रत-ए-आदम की तख़्लीक हुई। कहते हैं पहले इंसान हज़रत-ए-आदम को जब पहला इल्हाम हुआ तो आपको अबू मुहम्मद कहकर पुकारा गया। आपने नूरे-ए-मुहम्मदी को देखकर तअज्जुब से पूछा, ऐ मेरे परवरदिगार ! ऐ कैसा नूर है ?  इरशाद हुआ ये नूर उस नबी का है जो तुम्हारी औलाद में से होगा, जिसका नाम आसमानों पर अहमद और ज़मीन पर मोहम्मद होगा अगर ये नूर न होता तो मैं न तुम्हें पैदा करता न ये ज़मीन-व-आसमान पैदा किऐ जाते। (अहद-ए-रिसालत में नाताा, इरशाद शाकिर आवान, मज्लिस-ए-तरक्की अदब लाहौर, 1993, पेज 24)
  अबुल बशर हज़रत-ए-आदम अ. के बाद जितने भी अंबिया व रसूल इस दुनिया में तशरीफ़ लाए, सभी ने रहमतुल्लिआलमीन हज़रत मुहम्मद सल्ल. की शान-ए-अकदस में तौसीफ़-व-तहमीद के नज़राने पेश किये और  उनकी तशरीफ़ आवरी की बशारत दी। हज़रत मसीह अ. ने सरवर-ए- दोसरा हज़रत मोहम्मद सल्ल. की आमद की खुशख़बरी जिस अंदाज़ में सुनाई उसका शाहिद खुद कलाम-ए-इलाही है और इससे भी नातगोई की राह हमावार होती है। कलाम-ए-मजदी की ये आयत मुलाहिज हो- ‘ और याद करो जब ईसा इब्न-ए-मरियम ने कहा ऐ बनी इस्राईल में तुम्हारी तरफ़ अल्लाह का रसूल हूं अपने से पहली किताब तोरैत की तस्दीक़ करता हुआ और उन रसूल की बशारत सुनाता हुआ जो मेरे बाद तशरीफ़ लाएंगे उनका नाम अहमद है।’ (पारा नंबर 28, सूरह सफ, आयत नंबर 6)
  इस आयत-ए-करीमा में ‘मिन बादी इस्तमुहु अहमदु’ से मुराद आप सल्ल. है। इसकी ताईद में बेहिक़ी की मुन्दजज़िल रिवायत पेश की जा सकती है। ‘ हज़रत इब्न-ए-अब्बास फ़रमाते हैं कि जारन्द बिन अब्दुल्लाह(जो मुल्क-ए-यमन के सबसे बड़े ईसाई आलिम थे) आए और इस्लाम कुबूल किया और उन्होंने कहा कि उस ख़ुदा की कसम है जिसने हुजूर को हक़ के साथ मन्सूब किया कि मैंने आप का वस्फ़ इंजील में देखा है और बुतूल के फ़रज़ंद (ईसा अ.) ने आप ही की बशारत दी है।’
 इस रवायत को हज़रत अल्लामा अब्दुलहक मुहद्दिस-ए-देहलवी रह. ने अपनी शोहराए-आफ़ाक़ तस्नीफ़ ‘मुदारिजुन्नबुअ’ ममें नक़्ल किया है। इस सिलसिले में उनकी इबारत इस तरह है- ‘मुआहिबुललिदुनिया में बेहिक़ी से बरिवायत सैईदना इब्ने-ए-अब्बास रजी. मनकूल है कि जब जारुद नसरानी हुजूर सल्ल. की खिदमत में हाज़िर हुआ और इस्लाम कुबूल किया तो उसने कहा कि ‘ उस खुदा की कसम जिसने आपको हक़ के साथ भेजा बिलासुब्हा मैंने इंजील में आपका वस्फ़ पढ़ा है और फ़रज़द-ए-बुतूल ने आपकी बशारत दी है।’ (मुदारिजुननवूअत हिस्सा अव्वल, शैख अब्दुलहक़ मुरद्दिस-ए-देहलवी, मुतरजिम मुफ़्ती गुला, अदबी दुनिया देहली, पेज 194)
 नबी-ए-अकरम सल्ल.उके जिक्र और उनके फ़जायत-व-मरातिब के बयान से तमाम आसमानी किताबें तुज़ैयन हैं। हज़रत-ए-आदम के तमाम सआदतमंद फरंदों ने उनसे अपनी अक़ीदत का इज़हार किया है। हुजूर के इस आलम-ए-फ़ानी में तशरीफ़ लाने से क़ब्ल अंबिया-व-रसूल के अलावा दीगर साहिबान-ए-मारफ़न ने भी उनकी आमद की बशारत ख़ल्क को गोशगुज़ार कराई है। जिसका इल्म हमें सीरत की किताबों के मुताले से बख़बूी होता है। शैख अब्दुलहक़ महद्दिस-ए-देहलवी रह. ने मुदारिजुननबूअत में इस ज़िम्न में बहुत सी अहादीस रक़म की हैं। यहां पर एक हदीस रकम की जा रही है जिसमें आंहज़रत की पैदाइश से क़ब्ल उनकी शान में नातिया अशआर कहने के शवाहिद मौजूद हैं-‘हज़रत इब्न-ए-अब्बास रजी. से मरवी है, वो बयान करते हैं कि तायफ़ के बादशाह तबा ने मदीना पर चढ़ाई की थी और उसने ऐलान किया था कि मैं शह्र-ए-मदीना को वीरान कर दूंगा और उसके रहने वालों को अपने उस लड़के के इंतिक़ाम में क़त्ल कर डालूंगा जिसे उन्होंने फ़रेब और धोखे से क़त्ल किया है तो उस वक़्त सामूल यहूदी ने जो उस ज़माने में यहूदियों का सबसे बड़ा आलिम था उसने कहा ऐ बादशाह, ये वो शह्र है जिसकी तरफ़ बनी इस्माईल से बनी आखि़रुज़्ज़मां की हिजरत होगी और उस नबी की जाए-विलादत मक्कए-मुकर्रमा है, उसका इस्म-ए-गिरामी अहमद है। ये शह्र उसका दार-ए-हिजरत है और उसकी कब्र-ए-अनवर भी उस जगह होगी। तबा यंू ही वापस हो गया।’ मुहम्मद इब्न-ए-इस्हाक़ किताबे-ए-मुग़ाजी में नक़्ल करते हैं कि तबा ने नबी आखि़रुज़्ज़मां के लिए एक आलीशान महल तामीर कराया तबा के हमराह तोरैत क चार सौ उलेमा ने जो उसकी सोहबत छोड़कर मदीना मुनव्वरा में इस आरज़ू में ठहर गए कि वो नबी आखि़रुज़्ज़मां की सोहबत की सआदत हासिल करेंगे और तबा उन चार सौ आलिमों में से हर एक के लिए एक-एक मकानन बनवाया और एक-एक बांदी बख्शी और उनको मास-ए-कसीर दिया। तबा ने एक ख़त लिखा जिसमें अपने इस्लाम लोन की शहादत की। इसमें चंद शेर ये थे-‘मेैंने इस बात की गवाही दी कि अहमद सल्ल. हर जानदार को पैदा करने वाले अल्लाह के रसूल हैं अगर मेरी ज़िन्दगी उनकी ज़िन्दगी तक दराज़ हो जाएगी तो मैं उनका वज़ीर और इब्न-ए-अम रहूंगा।’
 फिर तबा ने अपने उस ख़त को सर-व-मुह्र करके चार सौ उलेमा के सबसे बड़े आलिम के सुपुर्द कर दिया और वसीअत की कि अगर वा ेनबी आखि़रुज़्ज़मां को पाएं तो ये ख़त उनकी खिदमत में पेश कर दें वर्ना अपनी औलाद-दर-औलाद को इस वसीअत को पहंुचाते रहना वो मकान जो ख़ातिमुलअंबिया सल्ल. के लिए बताया गया था वो हुजूर सल्ल. के क़दमरंजा फ़रमाने तक मौजूद रहा। कहते हैं कि हज़रत-ए-अबू अय्यूब अंसारी रजी. का वो मकान जिसमें हुजूर सल्ल. ने हिज़रत के बाद नुज़ूल-ए-इजलाल फरमाया था वही मकान था। (मुदारिज्जुननबूअत हिस्सा अव्वल, शैख अब्दुलहक़ मुहद्दिस-ए-देहलवी, मुतरजिम मुफ्ती गुलाम मुईनुद्दीन, अदबबी दुनिया देहली, पेज नंबर 204-5)
  महव्वला बाला इक़्ितबास ने मनक़ूल अशआर के अलावा हुबा के दो शेर और भी मशहूर हैं, जिनमें तबा ने आपकी बेसत तक ज़िन्दा रहने की तमन्ना ज़ाहिर की है। वो अशआर मुलाहिज़ा हो- ‘और इस इसके बाद एक अज़ीम इनसान आएगा, वो नबी जो किसी हराम काम की इज़ाज़त नहीं देगा। ऐ काश ! मैं आपकी बेसत के बाद एकाध साल जिं़न्दा रहता।’ ये एक मुसल्लमा हक़ीक़त है कि नातगोई की इब्तिदा ख़ुद बारी तआला ने की और उसके बाद इस रवायत को अंबिया, रसूल और सुहदा की जमाअत ने आगे बढ़ाया, जिसके शवाहिद कुतुब-ए-सुहदा के अलावा दीगर माखि़ज़ से बखूबी दस्तयाब होता है, लेकिन उस रवायत में उस वक़्त इस्तिहकाम पैदा हो जाता है जब कुफ्फ़ार-ए-मक्का इसलाम और रसूल सल्ल. की शान में गुस्तख़ाना अशआर कहना शुरू कर देते हैं। डाॅ. अब्दुल हलीम नदवी इस सिलसिले में लिखते हैं-‘आप जब करैशियों से अपने बारे में और इस्लाम के बारे में हज्ब सुनते-सुनते थक गए तो हस्सान बिना साबित, काब बिन मालिक और अब्दुल्लाह बिना खाहा से खुद ही कुरैशियों की हज्ब कहने की फ़रमाइश की और हज़रत हस्सान ने यहां तक फ़रमाया कि जब तक तुम खुदा और उसके रसूल की तरफ़ से मुदाफ़ियत करते रहोगे रुहुलकुद्स (हज़रत-ए-जिब्रील) तुम्हारी मदद करते रहेंगे और जब हज़रत हस्सान ने उनकी हज्ब में अशआर कहे तो खुश होकर फरमाया ‘‘हजाहुम हस्सानु फशफ़ा वशतफ़ा’ यानी हस्सान ने उनकी हज्ब करके मेरे दिल को भी और अपने दिल को भी ठंडक पहुंचाई’’ (अरबी अदब की तारीख़, जिल्द दोअम, डाॅ. अब्दुल हलीम नदवी, तरक्कीए उर्दू ब्यूरो, नई दिल्ली 2000, पेज 150-51)
  अरबी अदब की बेशतर कुतुब-ए-तारीख़ में मज़्कूर शोअरा का जिक्र मिलता है और उनके तअल्लुक से ये सराहत मिलती है कि उन्होंने अहल-ए-कुरैश की हज्ब और इस्लाम और उसके रसूल की मदाफ़ियत में अशआर कहे और उन्हीं शोअराए-रसूल के ज़रिए बाज़ाब्ता नातगोई की इब्तिदा होती है। लेकिन इनमें हज़रत हस्सान बिन साबित रजी. को फौकियत हासिल है। इरशाद शाकिर आवान ने भीा अपनी किताब ‘आहद-ए-रिसालत में नात’ में लिखा है-‘ अक़दुलफ़रीद, जमहरत अशआरुलअरब, असदुलग़ावा मज्मुअतुलनबहानिया और मुहाबिललिदुनिया के अलावा सरीत की तमाम किताबों में ये वाक़िया तफ़सील से मिलता है कि हुजूर-ए-अकरम से अबूसूफ़ियान वग़ैरह अहल-ए-कुरैश की मावहगोई की शिकायत की गई। आप ने फ़रमाया ऐ अल्लाह!  लोग मेरी हज्ब कहते हैं मैं शायर नहीं तू खुद मेरी तरफ़ से उनकी हज्ब कह। बाज़ दूसरी रवायत में है कि आप ने अपने जांनिसारों को जमा करके फ़रमाया ‘तुम लोगों ने तलकर से मेरी मदद की, कुरैश मेरी हज्ब करते हैं। क्या तुम में से कोई है जो ज़बान-ए-शेर से मेरी मदद करे।’  हज़रत अली और अब्दुल्लाह बिना खाहा ने रजी. आगे बढ़े मगर हुजूर ने फ़रमाया ये तुम्हारा काम नहीं, फिर हज़रत हस्सान रजी. उठे और अपनी नोक-ए-ज़बान दिखाकर कहने लगे बसरा और सन्आ का कोई ज़बानआवर मेरी बराबरी का दावा नहीं कर सकता (हज़रत हस्सान पहले हीरह और ग़स्सान के मुलूक के दरबारी रह चुके थे और अलआशा और अलहुनसा जैसे नाबग़ा से उक्काज़ वगैरह के मेलों में दाद-ए-सुख़न पा चुके थे) हुज़ूर ने फ़रमाया मगर तू उन (केरैश-ए-मक्का) की हज्ब कैसे कह सकेगा जबकि मैं खुद भी उनमें से हूं। हज़रत हस्सान रजी. ने अर्ज़ की फिक्र न कीजिए मैं आपको उनसे इस तरह अलग कर दूंगा जैसे गूंधे हुए आंटे से बाल निकाल लिया जाता है।
  आक़ा-ए-नामदार हज़रत मोहम्मद सल्ल. ने हस्सान बिन साबित रजी. का अपनी मिदहत के लिए इंतिख़ात किया था। इसकी शहादत मंदरजा ज़ैल हदीस भी पेश करती है- ‘‘हज़रत बरा रजीअल्लाह तआला अनहु से रवायत है कि बनू करीजा के महासरे के दिन रसूलअल्लाह ने हस्सान इब्न-ए-साबित से फ़रमाया ‘मुशरिकों की हज्ब कहो जिब्रील तुम्हारे साथ है’ रसूलअल्लाह स. हस्सान के लिए फ़रमा रहे थे मेरी तरफ़ से जवाब दो। ऐ अल्लाहा! रुहुलकुद्स (जिब्रील अ.) के ज़रिये उनकी मदद फ़रमा।’’
 अल्लाह के रसूल सल्ल. ने हज़रत हस्सान रजी. के लिए मस्जिद में मेंबर रखवाते थे और वो उस पर खड़े होकर रसूल की तरफ़ फ़ख्र करते और उनकी मुदाफ़ियत में अशआर कहते थे, जिनका सुनकर आप सल्ल. फरमाते थे- ‘ जब तक हस्सान मेरी तरफ़ से फ़ख्र और मुदाफ़ियत करता है अल्लाह जिब्रील के ज़रिए मदद फ़रमाता है।’ दरबार-ए-रसूल में हस्सान रजी. की पज़ीराई ने नातगो शोअरा के राहें हमवार की दी । जिसके नतीज़े में नातगोई की रवायत का फ़रोग़ हुआ और सिन्फ़ निहायत ही सुरअत रफ़्तारी के साथ अपने इर्तिकाई मराहिल तय करती हुई अरबी से अलावा दीगर ज़बानों में भी शोहरत व मक़बूलियत हासिल करती  रही। 
  जहां तक उर्दू ज़बान में नातगोई का सवाल है, इसमें इब्तिदा ही से इसके नुक़ूश मिलने शुरू हो जाते हैं। प्रोफेसर तलहा रज़्वी बर्क़ ने इसके तअल्लुक से बजा फ़रमाया है कि-‘उर्दू को दीगर ज़बानों के दरमियान ये एजाज़-व-इफ्तिख़ार हासिल है कि ये अपनी पैदाइश के वक़्त से ही मोमिना और कलमागो रही है। सूफ़ियाकिराम और मुबल्लेगिन के हाथों दीन-ए-मतीन की तर्वीज-व-इशाअत के लिए ये परवान चढ़ी औश्र शुरू से ही इसकी तोतली ज़बान पर हम्द व सना और नात-ए-रसूल-ए-म़क़बूल जारी हो गई। (उर्दू की नातिया शायरी, डाॅ. तल्हा बर्क़, दानिश अकादमी, आरा, पेज-5)
 उर्दू में नातगोई की एक मुस्तहकम रवायत मौजूद है। उर्दू की पहली मसनवी ‘कदम राव पदम राव(फख्र-ए-दीन निज़ाामी)  में भी नात के अशआर मौजूद हैं। और ये सिलसिला दराज़ होते हुए मौजूदा नस्ल के शोअरा तक पहुंचता है। आज भी कसीर तदाद में नातें लिखी जाती हैं। ( लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उर्दू के अध्यापक हैं)

 ( गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2019 अंक में प्रकाशित )

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें