-इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
वर्तमान समय काव्य विधाओं ग़ज़ल और दोहा के लिखने-पढ़ने का प्रचलन सबसे अधिक है। शायद इसकी मुख्य वजह दो पंक्ति में एक बड़ी बात को पूरी कर देना ही है। यही वजह है ये दोनों की विधाएं खासी लोकप्रिय हैं। जहां तक दोहा की बात है, तो यह ख़ासकर हिन्दी की प्राचीनतम विधा है। कबीर से लेकर अमीर खुसरो तक, गोपाल दास नीरज लेकर हरेराम समीप तक दोहा लेखना की प्रक्रिया निरंतर जारी है। इस समय हरेराम राम समीप के दो दोहा संग्रह मेरे सामने हैं। हेरराम समीप ग़ज़लों और कहानियों में अपने भाव-बिम्बों, कथ्य और शिल्प के अनूठेपन के लिए प्रतिष्ठित रचनाकार रहे हैं। अपनी कहन के अनूठेपन, भाव-व्यंजना की मौलिकता से भरी ताज़गी और युगीन वैचारिकता के तेवरों का बांकपन उनकी ख़ासियत है, जिन्हें उन्हें ग़ज़लों और कहानियों के लेखन-क्षेत्र में अग्रणी हस्ताक्षर के रूप में प्रतिष्ठित किया है, साथ ही इनके दोहे जिस भोलेपन और ताजगी भरे अनुभवों से समन्वित अभिव्यक्ति को संप्रेषण देते हैं, वह निश्चय ही एक अछूत भावुकता की धरोहर है। हरेराम समीप के पहले दोहा संग्रह ‘जैसे’ में कई कालजयी दोहा संग्रहित हैं। इस पुस्तक में शामिल एक दोहे का बांकपन यूं है- सोच रहा हूं देखकर, जल का तेज़ बहाव/काठ बनी ये ज़िन्दगी, डाले कहां पड़ाव।’ जीवन की ययार्थ को बयां करता इनका ये दोहा भी लाजवाब है- ‘प्रश्नों से बचता रहा, ले सुविधा की आड़/ अब प्रश्नों की टेकरी लो बन गई पहाड़।’ एक और दोहा ज़िन्दगी की हक़ीक़त को रेखांकित करता हुआ- ‘मुझको दिखलाओ नहीं, बार-बार ये पर्स/सबकुछ रुपयों से मिले, मगर मिले ना हर्ष।’ ‘जैसे’ 98 पेज का पेपरबैक संस्करण है, जिसे फ़ोनीम पब्लिशर्स से प्रकाशित किया है।
हरेराम समीप की दूसरी पुस्तक है ‘आखें खोलो पार्थ’। इस दोहा संग्रह में भी मारक दोहों की भरमार है। वे खुद अपने दोहों के बारे में लिखते हैं-‘हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब नयी पीढ़ी को तरह-तरह के नशे देकर उनके सपने छीने जा रहे हैं, उन्हें सुलाया जा रहा है, विवेकहीन बनाया जा रहा है। बेरोेजगारी का दैत्य पहले से उनकी जिन्दगियां छीन रहा है। ऐसे में इस नए कुरूक्षेत्र में नए ‘पार्थ’ को जगाना होगा और नए बदलाव के हेतु संघर्ष करना होगा। संभवतः यही इन दोहों का अभीष्ट भी है।’ इनकी बात बिल्कुल सही है, तभी तो वे अपने दोह में कहते हैं-‘अब तो बतला ज़िन्दगी, क्यों तू बनी अज़ाब/कब तक दफ़नाता रहूं, अपने ज़िन्दा ख़्वाब।’ राजनीतिज्ञों पर कटाक्ष करता इनका एक और शानदार दोहा- ‘पिछले सत्तर साल के, शासन का निष्कर्ष/कचरे घर पर खेलता, नन्हा भारतवर्ष।’ इसी तरह पूरी पुस्तक में एक से बढ़कर एक दोहे प्रकाशित हैं, जो मानवीय संवेदना से लेकर जीवन के अन्य सभी पहलुओं पर कटाक्ष करते हुए सबक देते हैं। ‘आंखें खोलो पार्थ’ 96 पेज का पेपरबैक संस्करण है, जिसकी कीमत 120 रुपये है, इसे बोधि प्रकाशन ने प्रकाशित किया है।
ग़ज़ल और दोहा सृजन में एक प्रमुख नाम विज्ञान व्रत का है। वर्तमान समय के कवियों में विज्ञान ने अपनी रचनाशीलता और सक्रियता से एक अहम मुकाम बनाया है, ऐसे मकाम आसानी से नहीं बनते। साहित्य सृजन के लिए इन्हें कई सम्मान प्राप्त हो चुके हैं, कई किताबों प्रकाशित हो चुकी हैं। इनके दोहा संग्रह ‘खिड़की भर आकाश’ का वर्ष 2018 में चैथा संस्करण प्रकाशित हुआ है, 2006 में पहला संस्करण आया था। आज के दौर में किसी दोहा संग्रह का चैथा संस्करण प्रकाशित होना ही अपने आपमें बहुत बड़ी बात है। इनका एक शानदार दोहा देखें- ‘राजा देखे महल से, खिड़की भर आकाश/फुटपाथों की ज़िन्दगी, उसको दिखती काश।’ वर्तमान व्यवस्था पर चोट करता एक और दोहा यूं है-‘सिर्फ़ नज़रियें ने किया, ऐसा एक कमाल/मेरे लिये हराम जो, उसके लिए हलाल।’ इस तरह पूरी पुस्तक में उल्लेखनीय दोहों की भरमार है-‘चाहे उनको राज दो, या दे दो बनवास/राम रहेंगे राम ही, यह मेरा विश्वास।’ ‘कभी-कभी सम्मान दो, कभी-कभी अपमान/मेरी पूजा मत करो, मैं हूं इक इंसान।’ ‘हम ऐसे ही ठीक हैं, जैसे भी हैं आज/हमें काम से काम है, नहीं चाहिये ताज।’ इस तरह पूरी किताब दोहों का एक शानदार दस्तावेज है, जिसे संभालकर रखने की आवश्यकता है। 80 पेज के इस सजिल्द पुस्तक को अयन प्रकाशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 180 रुपये है।
झज्जर हरियाणा के कवि राजपाल सिंह गुलिया वरिष्ठ रचनाकार हैं। इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनका दोहा संग्रह ‘उठने लगे सवाल’ में कई शानदार दोहे पढ़ने को मिलते हैं। दोहा लेखन में हरियाणा के कई बड़े नाम हैं, जिन्होंने अपनी अभिव्यक्ति से पाठकों को अपनी ओर आकर्षित किया है। जीवन के प्रांरभिक दौर में सैन्य सेवा और वर्तमान में अध्यापन कार्य से जुड़े गुलिया जी में अनुशासित सिपाही और सुयोग्य शिक्षक के गुण का सुंदर समन्वय दिखाई पड़ता है। इस समन्वय की झलक इनके दोहों के कथ्य और शिल्प दोनों स्तर पर देखी जा सकती है। एक दोहा में अपने बचपन के दिनों को याद करते हैं-‘मुझे आज भी याद है, वो नन्हा संसार/बापू जब भी डांटते, मां लेती पुचकार।’ दूसरे को खुश देखकर जलने वालों पर कहते हैं-‘चलन मुझे संसार का, तनिक न आया रास/खुद दूजे को देखकर, होते लोग उदास।’ आज के समय में धर्म की आड़ लेकर राजनीति की जा रही है, राजनीतिज्ञों की चाहत कुर्सी की है, लेकिन वे आड़ राजनीति का ले रहे हैं। इस पर कवि कहता है-‘ साधु संत और मौलवी, लगे चाहने ताज/धर्म कर्म को छोड़कर, करें सियासत आज।’ इस तरह पूरी पुस्तक अच्छे दोहों से भरी पड़ी है। 96 पेज के इस सजिल्द पुस्तक को अयन प्र्रकाशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 200 रुपये है।
उदयपुर, राजस्थान के डाॅ. गोपाल राजगोपाल चिकित्सक हैं। मगर काफी समय से रचनारत हैं। मुख्यतः ग़ज़ल और दोहा लिखते हैं। पिछले दिनों इनका दोहा संग्रह ‘सबै भूमि गोपाल की’ प्रकाशित हुआ है। इनके दोहों में नये तेवर, सामाजिक यर्थाथता और दूर दृष्टि स्पष्ट रूप से जगह-जगह दिखाई देती है। कथ्य के साथ शिल्प को भी बेहद सादगी से मारक बनाने का काम कवि ने अपने दोहों में किया है। कवि अपने दोहों में समय का जो तीखा बोध उपस्थित करा रहा है वह बेहद सराहनीय है। सुबह के साथ नई उम्मीद और उर्जा का वर्णन कवि करता है, पुस्तके पहले ही दोहा में वह कहता है-‘किरणों में है आज कुछ, नई-नवेली बात/शुभ-शुभ होती आपको, देखे से परभात।’ जीवन की सच्चाई को कवि अपने एक दोहे में यूं बयान करता है-‘उम्र गुजारो फ्लैट में, रहो सुखी-आबाद/ना अपनी छत है यहां, ना अपनी बुनियाद।’ एक कटाक्ष ये भी है-‘मान लिया सरकार का, कुछ तो है आकार/लिक्खा देखा कार पर, जब भारत सरकार।’ इनका एक रोमांटिक दोहा भी उल्लेखनीय है-‘महकी रानी रात की, महका हर सिंगार/नाम लिया जब आपका, तब-तब उमड़ा प्यार।’ इस तरह पूरी किताब में एक से बढ़कर एक दोहे शामिल हैं। 116 पेज के इस पेपरबैक संस्करण को बोधि प्रकाशन ने प्रकाशित किया, जिसकी कीमत 120 रुपये है।
अलवर राजस्थान के विनय मिश्र डिग्री काॅलेज में हिन्दी के अध्यापक हैं। इनकी कविता संग्रह और ग़ज़ल प्रकाशित हो चुकी है, इनके अलावा विभिन्न संकलित पुस्तकों में भी इनकी रचनाएं छपी हैं। पिछले दिनों ‘इस पानी में आग’ नाम से इनका दोहा संग्रह प्रकाशित हुआ है। इस पुस्तक के बारे में रामकुमार कृषक के लिखे गए फ्लैप सामग्री से ही इनके दोहों का अंदाज़ा सरलता से लगाया जा सकता है, जिसमें लिखा है-‘ इन दोहों का विनय मिश्र ने जो व्यवस्था दी है, उसकी अपनी प्रासंगिकता है। समय, स्मृति, प्रकृति, आत्म और प्रतिवाद, ये पांचों खंड कवि के अपने मनोलोक को खोलते हैं। पाठकों से महज बौद्धिक आत्मालाप करने से उसे परहेज है। उनसे वह सिर्फ़ संवेदनात्मक संवाद करता है। यही आज के दोह की मांग है, यही उसकी काव्य संस्कृति। विनय मिश्र ने इस संस्कृति का बखूबी निर्वाह किया है।’ यह बिल्कुल सटीक टिप्पणी है। एक दोहा देखें-‘ जब से मेरे गांव का, मुखिया बना बबूल/कांटों की मरजी बिना, खिला न कोई फूल।’ फिर आगे एक दोहे में राजनैतिक विकास पर टिप्पणी करते हैं-‘ इस विकास की बात से, बदला क्या परिवेश/भूखा नंगा आज भी, बदहाली में देश।’ एक और दोहा यूं है- ‘सब्जबाग दिखला रहे, इसीलिए वे आज/तुम सपने देखा करो, पे पा जाएं ताज।’ इस तरह के मारक और सटीक दोहे पूरी किताब में भरे पड़े हैं। ऐसी रचनाशीलता के लिए विनय मिश्र बधाई के पात्र हैं। 124 पेज वाले इस सजिल्द पुस्तक को बोधि प्रकाशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 200 रुपये है।
( गुफ़्तगू के दोहा विशेषांक में प्रकाशित)
वर्तमान समय काव्य विधाओं ग़ज़ल और दोहा के लिखने-पढ़ने का प्रचलन सबसे अधिक है। शायद इसकी मुख्य वजह दो पंक्ति में एक बड़ी बात को पूरी कर देना ही है। यही वजह है ये दोनों की विधाएं खासी लोकप्रिय हैं। जहां तक दोहा की बात है, तो यह ख़ासकर हिन्दी की प्राचीनतम विधा है। कबीर से लेकर अमीर खुसरो तक, गोपाल दास नीरज लेकर हरेराम समीप तक दोहा लेखना की प्रक्रिया निरंतर जारी है। इस समय हरेराम राम समीप के दो दोहा संग्रह मेरे सामने हैं। हेरराम समीप ग़ज़लों और कहानियों में अपने भाव-बिम्बों, कथ्य और शिल्प के अनूठेपन के लिए प्रतिष्ठित रचनाकार रहे हैं। अपनी कहन के अनूठेपन, भाव-व्यंजना की मौलिकता से भरी ताज़गी और युगीन वैचारिकता के तेवरों का बांकपन उनकी ख़ासियत है, जिन्हें उन्हें ग़ज़लों और कहानियों के लेखन-क्षेत्र में अग्रणी हस्ताक्षर के रूप में प्रतिष्ठित किया है, साथ ही इनके दोहे जिस भोलेपन और ताजगी भरे अनुभवों से समन्वित अभिव्यक्ति को संप्रेषण देते हैं, वह निश्चय ही एक अछूत भावुकता की धरोहर है। हरेराम समीप के पहले दोहा संग्रह ‘जैसे’ में कई कालजयी दोहा संग्रहित हैं। इस पुस्तक में शामिल एक दोहे का बांकपन यूं है- सोच रहा हूं देखकर, जल का तेज़ बहाव/काठ बनी ये ज़िन्दगी, डाले कहां पड़ाव।’ जीवन की ययार्थ को बयां करता इनका ये दोहा भी लाजवाब है- ‘प्रश्नों से बचता रहा, ले सुविधा की आड़/ अब प्रश्नों की टेकरी लो बन गई पहाड़।’ एक और दोहा ज़िन्दगी की हक़ीक़त को रेखांकित करता हुआ- ‘मुझको दिखलाओ नहीं, बार-बार ये पर्स/सबकुछ रुपयों से मिले, मगर मिले ना हर्ष।’ ‘जैसे’ 98 पेज का पेपरबैक संस्करण है, जिसे फ़ोनीम पब्लिशर्स से प्रकाशित किया है।
हरेराम समीप की दूसरी पुस्तक है ‘आखें खोलो पार्थ’। इस दोहा संग्रह में भी मारक दोहों की भरमार है। वे खुद अपने दोहों के बारे में लिखते हैं-‘हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब नयी पीढ़ी को तरह-तरह के नशे देकर उनके सपने छीने जा रहे हैं, उन्हें सुलाया जा रहा है, विवेकहीन बनाया जा रहा है। बेरोेजगारी का दैत्य पहले से उनकी जिन्दगियां छीन रहा है। ऐसे में इस नए कुरूक्षेत्र में नए ‘पार्थ’ को जगाना होगा और नए बदलाव के हेतु संघर्ष करना होगा। संभवतः यही इन दोहों का अभीष्ट भी है।’ इनकी बात बिल्कुल सही है, तभी तो वे अपने दोह में कहते हैं-‘अब तो बतला ज़िन्दगी, क्यों तू बनी अज़ाब/कब तक दफ़नाता रहूं, अपने ज़िन्दा ख़्वाब।’ राजनीतिज्ञों पर कटाक्ष करता इनका एक और शानदार दोहा- ‘पिछले सत्तर साल के, शासन का निष्कर्ष/कचरे घर पर खेलता, नन्हा भारतवर्ष।’ इसी तरह पूरी पुस्तक में एक से बढ़कर एक दोहे प्रकाशित हैं, जो मानवीय संवेदना से लेकर जीवन के अन्य सभी पहलुओं पर कटाक्ष करते हुए सबक देते हैं। ‘आंखें खोलो पार्थ’ 96 पेज का पेपरबैक संस्करण है, जिसकी कीमत 120 रुपये है, इसे बोधि प्रकाशन ने प्रकाशित किया है।
झज्जर हरियाणा के कवि राजपाल सिंह गुलिया वरिष्ठ रचनाकार हैं। इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनका दोहा संग्रह ‘उठने लगे सवाल’ में कई शानदार दोहे पढ़ने को मिलते हैं। दोहा लेखन में हरियाणा के कई बड़े नाम हैं, जिन्होंने अपनी अभिव्यक्ति से पाठकों को अपनी ओर आकर्षित किया है। जीवन के प्रांरभिक दौर में सैन्य सेवा और वर्तमान में अध्यापन कार्य से जुड़े गुलिया जी में अनुशासित सिपाही और सुयोग्य शिक्षक के गुण का सुंदर समन्वय दिखाई पड़ता है। इस समन्वय की झलक इनके दोहों के कथ्य और शिल्प दोनों स्तर पर देखी जा सकती है। एक दोहा में अपने बचपन के दिनों को याद करते हैं-‘मुझे आज भी याद है, वो नन्हा संसार/बापू जब भी डांटते, मां लेती पुचकार।’ दूसरे को खुश देखकर जलने वालों पर कहते हैं-‘चलन मुझे संसार का, तनिक न आया रास/खुद दूजे को देखकर, होते लोग उदास।’ आज के समय में धर्म की आड़ लेकर राजनीति की जा रही है, राजनीतिज्ञों की चाहत कुर्सी की है, लेकिन वे आड़ राजनीति का ले रहे हैं। इस पर कवि कहता है-‘ साधु संत और मौलवी, लगे चाहने ताज/धर्म कर्म को छोड़कर, करें सियासत आज।’ इस तरह पूरी पुस्तक अच्छे दोहों से भरी पड़ी है। 96 पेज के इस सजिल्द पुस्तक को अयन प्र्रकाशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 200 रुपये है।
उदयपुर, राजस्थान के डाॅ. गोपाल राजगोपाल चिकित्सक हैं। मगर काफी समय से रचनारत हैं। मुख्यतः ग़ज़ल और दोहा लिखते हैं। पिछले दिनों इनका दोहा संग्रह ‘सबै भूमि गोपाल की’ प्रकाशित हुआ है। इनके दोहों में नये तेवर, सामाजिक यर्थाथता और दूर दृष्टि स्पष्ट रूप से जगह-जगह दिखाई देती है। कथ्य के साथ शिल्प को भी बेहद सादगी से मारक बनाने का काम कवि ने अपने दोहों में किया है। कवि अपने दोहों में समय का जो तीखा बोध उपस्थित करा रहा है वह बेहद सराहनीय है। सुबह के साथ नई उम्मीद और उर्जा का वर्णन कवि करता है, पुस्तके पहले ही दोहा में वह कहता है-‘किरणों में है आज कुछ, नई-नवेली बात/शुभ-शुभ होती आपको, देखे से परभात।’ जीवन की सच्चाई को कवि अपने एक दोहे में यूं बयान करता है-‘उम्र गुजारो फ्लैट में, रहो सुखी-आबाद/ना अपनी छत है यहां, ना अपनी बुनियाद।’ एक कटाक्ष ये भी है-‘मान लिया सरकार का, कुछ तो है आकार/लिक्खा देखा कार पर, जब भारत सरकार।’ इनका एक रोमांटिक दोहा भी उल्लेखनीय है-‘महकी रानी रात की, महका हर सिंगार/नाम लिया जब आपका, तब-तब उमड़ा प्यार।’ इस तरह पूरी किताब में एक से बढ़कर एक दोहे शामिल हैं। 116 पेज के इस पेपरबैक संस्करण को बोधि प्रकाशन ने प्रकाशित किया, जिसकी कीमत 120 रुपये है।
( गुफ़्तगू के दोहा विशेषांक में प्रकाशित)
1 टिप्पणियाँ:
वाह बहुत सुंदर बहुत बढ़िया टिप्पणी किया गया है वाह
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