रविवार, 10 दिसंबर 2017

तरह-तरह के फूल हैं इन किताबों में

                                                                     -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
                                               

मुजफ्फरपुर, बिहार के डाॅ. केबी श्रीवास्तव लंबे समय से लेखन में सक्रिय हैं। कविताओं के साथ ही कथा लेखन करते रहे हैं। हाल ही में उनकी कहानियों का संग्रह ‘पत्थर की आंख’ प्रकाशित हुआ है। पुस्तक में कुल 25 कहानियां सम्मिलित की गई हैं। इन कहानियों में सामाजिक जीवन के परिवेश का वर्णन अपने नज़रिए से लेखक ने किया है। कहानियों के ज़रिए यह बताने की कोशिश की गई है कि सच हमेशा विजयी होता है। लेखक पेशे से चिकित्सक है, जिसकी वजह से उसकी कहानियों में चिकित्सा से जुड़े संदर्भों का जिक्र सबसे अधिक है। अस्पताल में डाक्टरों-मरीजों की स्थिति और मेडिकल में एडमीशन के दौरान की स्थितियां इनकी कई कहानियों के विषय बने हैं। इस नज़रिए से इनकी कहानियां नए परिदृश्यों को पाठक के सामने रखती हैं। कुल मिलाकर लेखक के अपनी छोटी-छोटी कहानियों के ज़रिए समाज का ख़ाका खींचा है और बताया चिकित्सीय पेशे में किन-किन स्थितियों से गुजरना पड़ता है। 96 पेज की इस सजिल्द पुस्तक की कीमत 125 रुपये है, जिसे गुफ्तगू पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है।
जोधपुर, राजस्थान के रहने वाले खुरशीद खैराड़ी लंबे समय से रचनारत हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। ब्लाग और अन्य सोशल साइट्स पर भी सक्रिय हैं। ‘पदचाप तुम्हारी यादों की’ नाम से इनका ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुआ है। इनकी ग़ज़लों में जहां एक तरफ परंपरा की खुश्बू है, तो दूसरी तरफ जदीदियत का सलोनापन। दोनों की चीज़ें जगह-जगह ग़ज़लों में मिलने के कारण बेहद ख़ास हो रही हैं। इसके अलावा इनकी ग़ज़लों में छंद के कसाव के साथ उर्दू-हिन्दी के शब्द समान रूप से हैं। कुल मिलाकर एक बेहतरीन शायर के रूप में इस किताब के ज़रिए शायरी की दुनिया की धमक पेश करते हुए दिख रहे हैं खुर्शीद खैराड़ी। एक ग़ज़ल का मतला देखें -‘उंचाई का दंभ तजेगा अंबर इक दिन/आन लगेगा सर पर कोई पत्थर इक दिन।’ और फिर एक ग़ज़ल में कहते हैं-‘ सारा जग विपरीत गया/फिर भी सच तो जीत गया। फूल खिले फिर खुशियों के/ ग़म का मौसम बीत गया।’ भाग-दौड़ और परेशानी भरी दिनचर्या में इनकी ग़ज़लें नई उर्जा का संचार करती दिखती हैं, यही शायर की सफलता भी है। पुस्तक में कई ऐसी ग़ज़लों का सामना होता है। 96 पेज के इस पेपर बैक संस्करण को राजस्थानी ग्रन्थागार ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 150 रुपये है।
मशहूर पत्रकार प्रताप सोमवंशी की पुस्तक हाल ही में प्रकाशित हुई है। ‘इतवार छोटा पड़ गया’ नामक इस ग़ज़ल संग्रह में वर्तमान समय में आम आदमी के जीवन-यापन और उसकी समस्याओं का जिक्र जगह-जगह अपने अशआर के माध्यम से प्रताप सोमवंशी ने किया है। पुस्तक की पहली ग़ज़ल का मतला देखें -‘राम तुम्हारे युग का रावण अच्छा था/दस के दस चेह्रे सब बाहर रखता था।’ फिर एक और ग़ज़ल का मतला यूं है- ‘झूठ पकड़ना कितना मुश्किल होता है/सच भी जब साज़िश में शामिल होता है।’ इन दो ग़ज़लों के मतले से सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इनकी शायरी के परिदृश्य समाज की विडंबनाओं को रेखांकित हुए उनकी विसंगतियों पर प्रहार कर रहे हैं। शायद आज के सामाजिक परिदृश्य में ऐसी ही शायरी की आवश्यकता है। और फिर खुद ही अपनी शायरी के बारे में कहते हैं -‘ लायक कुछ नायलायक बच्चे होते हैं/शेर कहां सारे ही अच्छे होते हैं।’ एक शेर में अपने अनुभव का जिक्र भी करते हैं-‘तजुर्बे जीत जाते हैं बुजुर्गी काम आती है/कई मौकों पे शै कोई पुरानी काम आती है।’ हिन्दी शायरी का परिदृश्य हमेशा से ही सामाजिक रही है, उर्दू शायरी के मुकाबले यहां प्रेम-प्रेसंगों का जिक्र कम ही होता रहा है। प्रताप सोमवंशी इसी हिन्दी काव्य परंपरा के कवि हैं और इसी स्वभाव के अनुसार शायरी कर रहे हैं। मगर, इनकी शायरी में तमाम नए बिंब और परिदृश्य भी नज़र आते हैं, जो अन्य हिन्दी ग़ज़लकारों से अलग करते हैं। 144 पेज वाले इस पेपर बैक संस्करण को वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 150 रुपये है।
ग़ाज़ियाबाद की नीरजा मेहता लंबे समय से रचनारत हैं। कविताओं के अलावा गद्य लेखन भी करती रही हैं। आधा दर्जन से अधिक पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं। पिछले दिनों उनका काव्य संग्रह ‘मन दर्पण’ प्रकाशित हुआ है। आम जन-जीवन से जुड़ी हुई कविताओं के अलावा इस पुस्तक में जगह-जगज प्रेम-प्रसंगों का भी वर्णन अपने अंदाज़ में कवयित्री ने किया है। कहा जाता है कि आमतौर पर महिलााएं अपनी रचना में दुख-दर्द का वर्णन अधिक करती हैं। नीरजा में कविताओं में भी ऐसे परिदृश्य कई जगह दिखते हैं। ‘आंसू’ नामक शीर्षक की एक कविता कहती हैं- कभी खुशी का, कभी ग़म का/फरमान हैं आंसू/जब दिल में उठता है समुंद्र/एक दरिया बन/ज़ज्बात में बह जाते हैं आंसू।’ प्रेम प्रसंग का जिक्र करते हुए कहती हैं-‘तुम और मैं/ऐसे हैं जैसे/माला के चमकते मोती/जो रहते हैं/सदा मन रूपी प्रेम डोर से बंधे।’ और फिर कहती हैं - ‘मैं हाले दर्द/बताउं तो कैसे/ज़िन्दगी तुम बिन वीरान है/यह मैं जतलाउं कैसे।’ इसी तरह पुस्तक में जगह-जगह उल्लेखनीय कविताओं से सामना होता है। 104 पेज वाले इस सजिल्द पुस्तक को वाॅइस पब्लिकेशन्स ने प्रकाशित किया है। जिसकी कीमत 195 रुपये है।
जालंधर के बिशन सागर पिछले कई वर्षों से रचनारत हैं। लधुकथा, यात्रा संस्मरण, ग़ज़ल और नई कविता का सृजन करते रहे हैं। अब तक चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘समय की रेत पर’ उनका हालिया काव्य संग्रह है। जीवन के यर्थाथ मूल्यों को रेखांकित करती हुई कविताएं इस पुस्तक शामिल की गई हैं। कविताओं के माध्यम से मनुष्य को उसकी मनुष्यता याद दिलाने की कोशिश की गई है। बताया गया है कि मानव जीवन का क्या महत्व है, इसे कैसे व्यतीत करना बेहतर होगा। पुस्तक की पहली कविता में कहते हैं -‘अगर आज ही/ शाम तक/जाना पड़े ज़िन्दगी से वापिस/तो होगा कितना मलाल/कितने प्रियजनों से न मिल सका/न मांग सका माफी/उन कामों के लिए /जो मैंने जिन-स्वार्थ/ के लिए किए।’ फिर आगे एक कविता में आत्मिक प्रेम का वर्णन करते हुए कहते हैं-‘सोचता हूं/तुम आओगी तो/करेंगे/बहुत सी बातें/कुछ वर्तमान की बातें/पर नहीं करेंगे/उन रिश्तों की बातें/जिसका सफ़र केवल/जिस्स से जिस्म/तक ही होता है।’ इसी तरह अन्य कविताएं भी उल्लेखनीय हैं। 120 पेज वाले इस सजिल्द पुस्तक की कीमत 240 रुपये है, जिसे अयन प्रकाशन से प्रकाशित किया है।
शिमला के संजय ठाकुर का संबंध पत्रकारिता के साथ ही साहित्य जगत से भी है। विभिन्न अख़बारों के काम कर चुके हैं, वेबसाइट और ब्लाग पर सक्र्रिय हैं। हाल में ही इनका काव्य संग्रह ‘तिश्नाकाम’ प्रकाशित हुआ है। इस पुस्तक में ग़़ज़ल, रूबाई, क़तआ, नज़्म और गीत शामिल किए गए हैं। इनकी रचनाओं में दिल के जज़्बात, दुनियारी और ख़ाक हो रही इंसानियत का जिक्र किया गया है। कवि अपनी लेखनी से बताना चाहता है कि हर किसी को अपना नैतिक कर्तव्य अवश्य ही निभाना चाहिए, सच का साथ नहीं छूटना चाहिए। साहित्य से जुड़ा हर व्यक्ति शायद यही चाहता है, लेकिन ज़रूरी यह है कि दूसरों को उपदेश देने के साथ खुद भी उन पर अमल किया जाए। संजय ठाकुर की बातों से लगता है कि अवश्य ही वे खुद भी अमल करते होंगे। अपनी एक नज़्म में कहते हैं - ‘यह क्या इंसाफ-इंसाफ चिल्लाते हो/आखि़र ये इंसाफ़ कितने होते हैं/एक तो उनके हिस्से में चला गया/ अब तुम्हारे लिए कौन-सा बचा है/शायद तुम नहीं जानते/धागे में पिरो लिए जाने के बाद मोती/मोती नहीं रहता/’ इसी तरह अन्य रचनाओं से सामना इस किताब के पढ़ने के दौरान होता है। 120 पेज के इस सजिल्द पुस्तक को किताबघर पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 225 रुपये है।



राजस्थान के सवाईमाधोपुर के रहने वाले ए.एफ. नज़र मुख्यतः ग़ज़ल के शायर हैं। ये शायरी के विभिन्न आयाम से परिचित भी हैं। ‘सहरा के फूल’ नामक इनका ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुआ है। ग्रामीण क्षेत्र के रहने वाले हैं, इसलिए इनकी रचनाओं में गांव के वास्तविक परिदृश्य जगह-जगह दिखते हैं और ये अपनी में इंसानियत की बात भी उसी नज़रिए से सच्चाई के करते नज़र आते हैं। इनका एक शेर यूं है- ‘पहले जैसी बात कहां इन बेमौसम की फ़स्लों में /ख़ादों की भरमार ने मिट्टी का सौंधापन छीन लिया।’ और फिर वर्तमान दुनियादारी और उसकी विसंगतियों पर प्रहार करते हुए कहते हैं -‘ नई तहज़ीब दुनिया की मेरे घर तक नहीं पहुंची/खु़दा का शुक्र बेदर्दी मेरे दर तक नहीं पहुंची।’ इनकी रूमानी शायरी भी नए रंग में दिख रही है- ‘मेरे आने की तारीख़ें बराबर देखती होगी/वो हर शब सोने से पहले कलैंडर देखती होगी।’ इस तरह कुल मिलाकर इनकी शायरी नए तेवर के साथ वास्तविका का बखान करती हुई नज़र आती है। 88 पेज के इस पेपर बैक संस्करण को बोधि प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। जिसकी कीमत 100 रुपये है।
इंदौर के राजेश भंडारी बाबु काव्य रचना के प्रति सजग हैं। हिन्दी के साथ मालवी बोली में कविताओं का सृजन कर रहे हैं। पिछले दिनों इनकी मालवी कविताओं का संग्रह ‘पचरंगों मुकुट’ प्रकाशित हुआ। इनकी कविताओं में पारंपरिक बिंब दिखते हैं, जिनके जरिए समाज को बेहतर बनाने की बात कही गई है। जगह-जगह समाज में फैली विडंबनाओं को रेखांकित करते हुए इससे दूर होने की प्रेरणा कविताओं के माध्यम से दी गई है। इसके साथ ही कविताओं के माध्यम से प्रकृति का वर्णन भी बढ़िया ढंग से किया है, जिससे इनका प्रकृति प्रेम स्पष्ट दिखता है। एक कविता में कहते हैं-‘तू पाछी आईजा म्हारी चरकली रानी/सुनो हे धारा बिना म्हारो घर आंगन/सुना खेत खलिहान सुनो है म्हारो मन/चरकला का साथे आई जा ची ची करती।’ इसी तरह अन्य बिंब अलग-अलग कविताओं में दिखते हैंै। पुस्तक में जगह-जगह रेखाचित्र भी कविताओं अनुसार दिए गए हैं। 240 पेज की इस सजिल्द पुस्तक को राजेश भंडारी बाबु ने स्वयं प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 200 रुपये है।
(गुफ्तगू के अक्तूबर- दिसम्बर 2017 अंक में प्रकाशित)

3 टिप्पणियाँ:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (11-12-2017) को "स्मृति उपवन का अभिमत" (चर्चा अंक-2814) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

नीरजा मेहता 'कमलिनी' ने कहा…

मन दर्पण पुस्तक समीक्षा के लिए हार्दिक आभार व दिल से शुक्रिया।
नीरजा मेहता

Darshan Darvesh ने कहा…

Bahut badhia jankari....

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