सुप्रसिद्ध साहित्यकार ममता कालिया से डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव की बातचीत
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ममता कालियो से बातचीत करते डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव |
जवाब: (मुस्कुराते हुए) देखिए महिलाओं का परिवार तो दो बार बनता है। इसलिए मैं शादी से पहले से शुरू करूंगी। मेरे पिता विद्या भूषण अग्रवाल मूलरूप से मथुरा के थे। उनकी शिक्षा आगरा में हुई। अंग्रेजी उनका एक विषय था, लेकिन वो हिंदी के बहुत बड़े विद्वान थे। उन्होंने इलाहाबाद हिन्दी साहित्य सम्मेलन से साहित्य रत्न में गोल्ड मेडल प्राप्त किया था। मेरे चाचा भारत भूषण अग्रवाल भी हिंदी अंग्रेजी दोंनों के ही विद्वान थे। अतएव हमारे घर में ऐसा वातावरण था कि अंग्रेजी पढ़ो, लेकिन हिंदी न भूलो। उसी परंपरा में मेरा पालन-पोषण हुआ। मैं अलग-अलग शहरों में पढ़ी जैसे दिल्ली, नागपुर, मुंबई, पुणे वगैरह। अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ने के बावजूद मुझे घर में हिंदी ठोंक-ठोंक कर पढ़ाई गई। मेरी मां बिल्कुल बौद्धिक नहीं थीं, किंतु उन्होंने मेरी शिक्षा एवं स्वतंत्रता पर कभी कोई हस्तक्षेप नहीं किया न ही कभी मुझसे कोई घरेलू काम लिया। मैंने छोटी सी उमर में ही गांधी, नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद आदि की आत्मकथाएं पढ़ ली थी। पिता के संरक्षण में मैंने एम.ए किया फिर दिल्ली में दौलत राम काॅलेज में मुझे मेरे पहले साक्षात्कार से ही नौकरी मिल गई। फिर 1965 में जब मुझे रवि (रवीन्द्र कालिया) मिल गए तब से मेरी रचनात्मकता में समृद्धि आती चली गई।
सवाल: आप एक कवयित्री, कथाकार, उपन्यासकार तो हैं ही, आपने अनुवाद और संपादन कार्य भी किया है। अपने इस विविध रचनाकर्म में आप कैसे सामाजंस्य बैठा पाती हैं।
जवाब: इसका उपाय है कि जो चीज़ आपके सामने आ जाए उसे पूरे मनोयोग से करिए। हर विधा के अपने-अपने भाषागत, शिल्पगत पक्ष होते हैं। अमरकांत की रचनाओं का एक संकलन निकलना था, तो रवि ने मुझे संपादन कार्य में लगाया। संपादन का कार्य मुझे रुचिकर लगने लगा। काॅलेजों में पाठ्यक्रम की दृष्टि से मैंने कुछ अनुवाद कार्य भी किए। कविता, कहानी और उपन्यास मैं बराबर रचती रही हूं।
सवालः आपने ढेर सारी कहानियां और उपन्यास लिखे हैं। उपन्यास एवं कहानी के आपसी संबंधों के बारे में आप क्या समझती है?
जवाबः दोनों में काफी फर्क है। दोनों की कथा भूमि अलग-अलग है। कहानी कोई छोटी घटना या समस्या के एक पक्ष को लेकर लिखी जाती है या किसी एक खास ‘मूड’ (मनःस्थिति) मे रची जाती है। जबकि उपन्यास में काफी बड़ा फलक रखना पड़ता है। उपन्यास में तो लेखक पूरा जीवन ही उतार देते है। इसीलिए ‘गाथा’ शब्द का इस्तेमाल होता था। अगर कोई कम विषय या किसी चरित्र की कम जानकारी लेखक दें, तो ऐसे उपन्यास को पाठक रिजेक्ट कर देते हैं। उपन्यास लिखना कहानी लिखने से ज्यादा मुश्किल है, क्योंकि इसमें अनुशासन और धीरज चाहिए और लेखक में इतनी क्षमता भी होनी चाहिए कि वह विषयवस्तु को फैला सके। उपन्यास लिखने के तरीके भी अलग-अलग होते हंै। हम लोग मजाक करते थे कि नरेश मेहता एक पेड़ को देखकर भी पचहत्तर पन्ने लिख देते थे। हम लोग ऐसे उपन्यासकार नहीं है। हमारे उपन्यासों में वक्त तेजी से गुजरता है। क्योंकि आज के पाठक के पास इतना धैर्य नहीं है। पाठकों को घटनाक्रम में रफ्तार चाहिए। अतः हमें चाहिए कि ऐसा लिखें कि पाठक बोर न हों।
सवाल: आजकल असहिष्णुता का मुद्दा छाया हुआ है। कलाकार भी इस असहिष्णुता के शिकार रहे हैं। आपके क्या विचार हैं ?
जवाब: यह मुद्दा मुझे राजनीति से प्रेरित लगता है। यह तब शुरू होता है जब राजनीति विचार पर हावी हो जाती है। यदि आपको किसी के विचारों की मुखालफ़त ही करना है तो विचारों से ही करिए। साहित्य, कला, संगीत, ललित कला, नृत्य, विचार, बहस के लिए तो आपको सहिष्णुता की सख्त जरूरत है। राजनीति देखिए, प्रधानमंत्री के मुंह से बात निकली नहीं कि कार्यान्वित करने के लिए डंडे लेकर पहुंच गए, यह बहुत गलत बात है। अनेक शहरों में कलाकार को परेशान किया गया। आपको याद होगा एम. एफ. हुसैन की पेंटिग्स के ऊपर कालिख लगाई गई थी, उनकी आर्ट गैलरी जलाई गई थी। उनकी विश्व में इतनी शोहरत है, उनको देश छोड़कर जाना पड़ा। असहिष्णुता की यह प्रवृत्ति बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। मैं मानती हूं कि अगर आपके अन्दर सच का इतना भी शऊर नहीं रहा तो आप किस प्रकार का समाज बना रहे हैं। इस समाज में सबके लिए जगह होनी चाहिए।
सवालः आज भी पुरूषों पर आक्षेप का जो लेखन महिला लेखकों द्वारा किया जा रहा है, उस पर आपकी क्या सहमति असहमति है?
जवाब: पहली बात तो ये है कि स़्त्री विमर्श और स्त्री लेखन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। स्त्री लेखन में बहुत सी सामथ्र्य होने के बावजूद एक सीमा है कि लेखिकाएं अतिवाद में चली जाती हंै। ये एक किस्म का अतिवादी दृष्टिकोण है कि स्त्रीलेखन एकदम पुरूष विरोधी स्वर अपनाए और पुरूषविहीन समाज की कल्पना करें। आपको मैं बता दूं कि स़्त्री विमर्श के सबसे बड़े समर्थक, सहयोगी और पैरोकार तो पुरूष ही हैं। ये एक बहुत अस्वाभाविक स्थिति है, जिसमें स्त्री लेखन को एक अतिरंजित रूप में पेश किया जाए या एक अक्रामक तेवर अपनाया जाए। सच यह है कि लिखते समय हम यह भूल जाते है कि हम स्त्री हैं या पुरूष। क्योंकि एक कृति में स्त्री और पुरूष, दोनों ही पात्र दिखाने होते हैं। पुरूष पात्रों के साथ आप तब तक न्याय नहीं कर सकते जब तक कि पुरूषों के प्रति अपका रवैया एकदम संतुलित न हो। पुरूष और स्त्री एक दूसरे के पूरक हैं और दोनों को मिलकर रहना है तभी आगे की पीढ़ी संभव है।
सवाल: एक स्त्री होने के नाते क्या आपको साहित्य में किन्ही चुनौतियों का सामना करना पड़ा?
जवाब: सौभाग्यवश मुझे कभी इस प्रकार की चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा। मैंने जब गंभीर लेखन शुरू किया, तो उस समय देश के विभिन्न हिस्सों से निकलने वाली पत्रिकाओं ने मेरी रचनाओं को खूब प्रकाशित किया। धीरे-धीरे 1964-65 के आसपास कविता का वातावरण देहवादी हो गया था। इस समय जगदीश चतुर्वेदी, सौमित्र मोहन जैसे लेखकों को पता नहीं क्या हो गया कि देहवाद, देहमुक्ति, एवं यौन चेतना इनकी कविताओं के केंद्र में आ गए। लेकिन मैं ऐसे वातावरण से बची रही और सार्थक रचनाएं करती रही।
सवाल: अपने एक साक्षात्कार में बहुत पहले कुछ रचनाकारों को संदर्भित करते हुए कहा था कि ‘इनके चित्रण में नारी मादा की तरह पुरूषों की तलाश में घूमती रहती है’?
जवाब: दरअसल हमारे यहां ब्रिटिश कविता का एक एब्जर्ड आंदोलन चला था। उस दौरान एलन डिजबर्ग, पीटर और लाॅस्की जैसे कवि भारत आए थे। इन्होंने विभिन्न दुष्प्रचार भारत में किए। नशा और उन्माद को बढ़ावा दिया। इस कारण से उन दिनों कुछ रचनाकरों की रचनाओं का स्वरूप बिगड़ गया। मोना गुलाटी, सतीश जमाली जैसे लोग इस तरह के प्रभाव में आ गए।
सवाल: हिंदी-उर्दू में मेल-बेमेल को लेकर जो बहसें अदब की दुनिया में उठतीं रहतीं हैं, इसे आप किस रूप में देखती हैं?
जवाब: निस्संदेह हिंदी और उर्दू सगी बहनें हैं। एक को लहूलुहान किए बगैर दूसरी को अलग नहीं कर सकते। बोलते समय क्या हम ये ख़्याल रखते हैं कि कौन सा शब्द हिंदी का है और कौन-सा उर्दू का। इन भाषाओं को मिलाए बिना कविता, कहानी नहीं लिखी जा सकती, यहां तक कि आपस में गुफ़्तगू भी नहीं की जा सकती। इधर प्रतिक्रियावादी ताक़तें बहुत तेजी से उभरी हैं जो सत्ता को खुश करने के लिए इनके संबंधों को विवाद की तरह उठाते रहते हैं।
सवाल: हमारे साहित्य में प्रबुद्ध संपादकों की एक समृद्ध परंपरा रही है। समय के साथ संपादकों का चिंतन मात्र प्रबंधन कौशल तक सीमित होने लगा है। इस प्रवृत्ति को आप किस प्रकार देखती हैं ?
जवाब: देखिए आप जो बात कह रहे हैं , उस पाए के साहित्यकार अब संपादन में नहीं जा रहे हंै। आप देखिए गणेश शंकर विद्यार्थी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, माखन लाल चतुर्वेदी फिर, अज्ञेय, मनोहर श्याम जोशी जैसे साहित्यकार संपादन करते रहे। ये सब संपादक के साथ ही साथ सर्जक भी थे, अतः ये पत्रिका की सामग्री चयन से लेकर भाषा-भाव और शैलीगत पक्षों में हस्तक्षेप रखते थे। धीरे-धीर पत्रिकाओं के स्वामियों ने संपादक को प्रबंधन के कार्य में लगाना शुरू कर दिया, तब साहित्य के कम जानकार लेकिन बाजार संभाल लेने वाले लोग संपादक बनने लगे, इसी कारण यह नुकसानदेह प्रवृत्ति साहित्य में तेजी से उभरी है।
सवाल: आज के दौर में साहित्य और अख़बार में संबंध पर आपका क्या विचार है?
जवाब: अख़बार की इंच-इंच जगहों पर आज विज्ञापनों का कब्जा है। इसमें बाजारवाद का बड़ा हाथ है। एक समय था जब अखबार इतने पठनीय थे कि हमें रोजाना दो-दो घंटे अखबार पढ़ने में लग जाते थे, अब दस-पंद्रह मिनट में अखबार निपट जाता है। जहां तक साहित्य सामग्री के स्थान कम होते जाने का प्रश्न है, साहित्य तो हर जगह से कम होता जा रहा है। साहित्य के लिए पर्याप्त बजट ही नहीं बनाया जाता। जबकि अनावश्यक सामग्री, योजनाओं में पैसा व्यय किया जाता है। ऐसा लगता है कि साहित्य और पत्रकारिता के सघन, सार्थक रिश्ते को लगातार धकेला जा रहा है। एक जमाने हम लोग ‘जनसत्ता’ का इंतजार करते थे, ‘दिनमान’ में बडी अच्छी समीक्षएं आती थीं। सब धीरे-धीरे बंद हो गया। सहारा के ‘हस्तक्षेप’ में जरूर अच्छी सामग्री आती है, फिर भी वह काफी नहीं है।
सवाल: समाज द्वारा जहां दलित समाज बहिष्कृत रहा, वहीं महिलाएं तिरस्कृत रहीं। आपको क्या लगता है इन दोनों के बहिष्कार-तिरस्कार की पीड़ा समान है अथवा इनका अलग-अलग समाजशास्त्रीय पहलू हैं?
जवाब: इन दोनों विमर्शों में बहुत हद तक समानता है क्योंकि एक समय था जब स्त्री दलितों की भी दलित थी। जितने अधिकार या आजादी दलितों को प्राप्त थे उतने भी स्त्री को नहीं, अतः मेरे विचार से स्त्री विमर्श और दलित विमर्श एक जगह जाकर मिल जाते हंै। प्रश्न यह है कि आज स्त्री-विमर्श और दलित विमर्श कहां खड़े हैं। मुझे लगता है कि दलित चेतना को विकसित करने में उसका जो बौद्धिक तबका है, उसका बहुत बड़ा हाथ है। जैसे तुलसीराम की आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ पढ़कर दलितों के हालात का पता चलता है। वीर भारत तलवार जैसे गैर-दलित लेखकों ने भी आदिवासियों, दलितों पर बहुत ही सहानुभूतिपूर्वक लिखा है। समग्र रूप से डाॅ. अंबेडकर का तो महतीय योगदान है ही। इन सबका परिणाम दलितों के आत्मविश्वास के रूप में सामने आया। आज दलित अपनी जाति छुपाता नहीं है बल्कि गर्व से कहता है कि मैं दलित हूं। वही दूसरी ओर मुझे ऐसा लगता है कि स्त्री में अभी तक वह अपेक्षित चेतना नहीं आई है कि वह डटकर खड़ी रह सके।
सवाल: ममता कालिया आज के समाज में किन चुनौतियों को गंभीर मानती हैं ?
जवाब: हम एक हिंसक मानसिकता के समय में रह रहे हैं। हम एक दूसरे के अस्तित्व को काई मोल नहीं दे रहे हैं। आज स्वयं के अतिरिक्त हम किसी को नहीं पहचानते। हम लोगों को बोझ की तरह अपनाते हैं। समाज में एक दूसरे को जानने-समझने की कोई जिज्ञासा नहीं रही। रिश्तों में हम ठंडे होते जा रहे हैं। यह एक ऐसा खतरनाक संकेत है कि शीघ्र ही हम माता-पिता, पुत्र-पुत्री के रिश्तों को भी बोझ की तरह ढोएंगे। कितनी विचित्र बात है कि हम विचारों के लिए असहिष्णु हो गए हैं और अपराधों के लिए सहिष्णु। अब अपराध का स्तर यह है कि लड़कियों के साथ रेप ही नहीं गैंग-रेप होता है। यह हम कैसा समाज बना रहे हैं।
सवाल: अपनी समकालीन महिला रचनाकारों की रचना दृष्टि से आप अपनी रचनाधर्मिता को किस प्रकार जोड़ती या पृथक करती हैं?
जवाब: सभी अपनी-अपनी तरह से यथार्थ की पड़ताल करती हैं। समाज को देखने का सबका अपना नज़रिया है। मौजूदा समय में लेखिकाएं दोनांे तरह से लिख रहीं हैं, कुछ पीछे फ्लैश-बैक में जाकर अतीतजीवी किस्म की रचनाएं कर रही हैं, कुछ हैं जो आज के समाज की सच्चाई, समस्याओं को पकड़ना चाहती हैं। आज लेखिकाएं विविध विषय उठा रही हैं। इस दृष्टि से मृदुला गर्ग का ‘वसुधा कुटुम्ब’, चित्रा मुदगल का ‘नाला सोपारा पोस्ट बाक्स नं. 203’, मृणाल पाण्डेय का ‘पटरंगपुर पुराण’, अलका सरावगी का ‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’, नासिरा शर्मा ‘कागज की नाव’, अक्षयवट आदि उल्लेखनीय हैं। मुझे लगता है कि पुरूषों के लेखन से कहीं ज्यादा विविधिता तो स्त्रियों के लेखन में हैं क्योंकि वे जीवन से ज्यादा जुड़ी हंै और महिलाएं किसी भी विषय को उठाने से नहीं डरतीं। मेरे नवीनतम उपन्यास ‘कल्चर-वल्चर’ में कला, साहित्य और संस्कृति के बाजार को पैदा करने वाले माफियावाद आदि का चित्रण है। एक अन्य उपन्यास ‘सपनों की होम डिलीवरी’ में मैंने स्त्री-पुरूष संबंधों में तनाव के अलावा युवा पीढ़ी में नशे की समस्या को उठाया है।
सवाल: अपने जीवन साथी के रूप में रवीन्द्र कालिया जैसे व्यक्तित्व को आपने जिया। अपने जीवन में उनके होने को आप कैसे महसूस करती हैं और कालिया जी की भौतिक अनुपस्थिति को आप कैसे भर पाती हैं।
जवाब: हमारा रिश्ता बहुत जीवंत था। यह केवल पति-पत्नी का रिश्ता नहीं था, यह दो साथियों का, दो दोस्तों का रिश्ता था। लोग पति की पूजा तो करते हंै, लेकिन उन्हें दोस्त नहीं मानते। रवि से मेरी सब जरूरतें पूरी होती थीं-दोस्ती की, दुश्मनी की, बहस-मुबाहसे की प्यार-मोहब्बत की...........(भावुक हो गई) वो मेरे बहुत अच्छे सालाहकार भी थे। जहां बैठते थे हंसी ठहाके से वातावरण साकारात्मक कर देते थे। मेरे लिए उनकी भौतिक अनुपस्थिति स्वीकार करना वाकई बहुत कठिन काम है। वस्तुतः मैंने उनको अपने अन्दर बसाया हुआ है। मैं अभी आपसे बात कर रहीं हूं तब भी लग रहा है कि वो पीछे वाले कमरे में है, अभी तक मैंने उनको अनुपस्थित नहीं माना है। हम दोनों एक-दूसरे को लेखन की पूरी आजादी देते थे। आज तक हमने एक-दूसरे की रचनाएं प्रकाशित होने से पूर्व नहीं पढ़ी हंै। जनवरी 1965 में हम मिले थे और दिसम्बर 1965 में हमारी शादी हो गई। 2016 की जनवरी में ही वे संसार से चले गए।
सवाल: आजकल आपकेे अध्ययन कक्ष में क्या चल रहा है?
जवाब: अभी मैं ‘पापा’ उपन्यास पर काम कर रही हूं। जीवन में मुझे दो विलक्षण व्यक्तियों का साथ मिला। एक मेरे पापा (पिता) दूसरे रवि (पति)। ‘पापा’ उपन्यास एक ऐसे व्यक्ति के बारे में है, जो साहित्य की आर्दश आंखों से समाज को देखता है, परंतु समाज की विसंगतियों से दुःखी-परेशान होता है।
सवाल: आपको अपनी सबसे प्रिय रचना कौन-सी लगती है?
जवाब: इतनी प्रिय रचना तो अभी लिखी जानी है। हां, दो कहानियां हंै जो मैंने बडे़ मन से लिखी हैं, एक ‘आपकी छोटी लड़की ’ और दूसरी ‘लड़के’।
सवाल: पत्रिका ‘गुफ़्तगू’ के बारे में आपके क्या ख़यालात है?
जवाब-‘गुफ़्तगू’ नियाहत दिलचस्प और समय के साथ चलने वाली पत्रिका है। चाहे आपको अच्छे शेर तलाशनें हो या अच्छी कविताएं, यह दोनों में बहुत काम आती है। इसमें अन्य सामग्री भी बहुत उत्कृष्ठ है, इतनी अच्छी सामग्री की पहुंच सब तक होनी चाहिए। इसकी मार्केटिंग पर और ध्यान दिया जाना चाहिए। जैसे रेलवे स्टाॅल इत्यादि में भी इसकी उपलब्धता सुनिश्चित की जानी चाहिए। इस छोटी सी मैगजीन में साहित्य के क्षेत्र में बड़ा काम करने की क्षमता मौजूद है।
( गुफ्तगू के अप्रैल-जून: 2017 अंक में प्रकाशित )
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