शनिवार, 13 जुलाई 2013

पहले शेर पर अब्बा ने की थी पिटाई - बशीर बद्र


 बशीर बद्र इस दौर के ऐसे शायरों में शुमार किये जाते हैं, जिनकी मक़बूलियत लोगों के सर चढ़कर बोलती है। भारत के अलावा दूसरे मुल्कों में भी इनकी शायरी से प्यार करने वालों की कमी नहीं है। मुशायरों में इनकी मौजूदगी कामयाबी की जमानत हुआ करती है। इनके तमाम अश्आर मुहावरों की तरह लोगों को याद है। 15 फरवरी 1935 को अयोध्या में जन्मे बशीर बद्र का असली नाम सैयद मोहम्मद बशीर है। इन्होंने अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से स्नातक, स्नातकोत्तर और पीएचडी की। हिन्दी और उर्दू लिपी को मिलाकर लगभग डेढ़ दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें इमेज, आमद, लास्ट लगेज, आसमान, आहट, तुम्हारे लिये, आंच, उजाले अपनी यादों के, अफेक्शन, धूप की पत्तियां, हरा रिबन आदि प्रमुख हैं। शायरी में नये शब्दों के प्रयोग में ये अग्रणी रहे हैं।1996 में मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी ने उन्हें अखिल भारतीय मीर तक़ी मीर पुरस्कार दिया। 1999 में पद्मश्री और साहित्य अकादमी से नवाजा गया। पाकिस्तान से भी इनकी कई किताबें प्रकाशित हुई हैं। इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने उनसे बात की-
सवालः सबसे पहले आपको कब लगा कि आप शायर हैं ?
जवाबः बचपन में तकरीबन छ-सात साल की उम्र में शेर कहने का शौक़ हुआ। पहला शेर जो मुझे याद है और जिस पर अब्बा ने पिटाई भी की थी वो था-
    हवा चल रही है उड़ा जा रहा हूं/तेरे इश्क़ में, मैं मरा जा रहा हूं।   
सवालः हिन्दी पाठकों में ग़ज़ल को लोकप्रिय बनाने का श्रेय किसे देंगे?
जवाबः हिन्दी पाठकों में ग़ज़ल को पसंदीदा बनाने में ग़ज़ल के शायर, सिंगर, ग़ज़ल छापने वाले रिसाले सभी शामिल हैं। मुशायरे और कवि सम्मेलन की वजह से भी ग़ज़ल लोकप्रिय हुई।
सवालः दुनियाभर में आपके बहुत से शेर मशहूर हैं, मुहावरों की तरह इस्तेमाल किये जाते हैं, आप इसे किस रूप में देखते हैं?
जवाबः मैं इसे खुदा की मेहरबानी, करम और उसकी अता समझता हूं।
सवालः 21सदीं का सबसे मक़बूल शायर आप किसे मानते हैं?
जवाबः ये 22वीं सदी में मालूम होगा।
सवालः हिन्दी भाषा के कवि अब खूब ग़ज़लें लिख रहे हैं, आप इसे किस रूप में लेते हैं?
जवाबः  बहुत अच्छी बात है। मुझे बहुत खुशी हुई, हर ज़बान के कवि और शायर को ग़ज़ल लखना चाहिए। ग़ज़ल लिखने के मायने हैं कि उसके पास मोहब्बत भरा दिल है।
सवालः बार-बार यह बात सामने आ रही है कि ग़ज़ल की नफ़ासत, नज़ाकत और बह्र को जाने बिना ही हिन्दीभाषी लोग ग़ज़ल कह रहे हैं, जिसकी वजह से ग़ज़ल की दुगर्ति भी हो रही है?
जवाबः  जी हां, जो लोग ग़ज़ल की रूह को नहीं पहचान पाते वो दिल और दिमाग को छूने वाले शेर कह भी नहीं पाते।
सवालः नस्र की किस विधा को सबसे प्रभावशाली मानते हैं आप ?
जवाबः मैं तो ग़ज़ल का शायर हूं, फिर भी आप पूछ रहे हैं तो अफसाने, कहानियां और ड्रामे ये प्रभावशाली हैं। कोई एक नाम नहीं लिया जा सकता।
सवालः पाकिस्तान की शायरी भारत की शायरी से किस प्रकार अलग है, अलग है भी या नहीं ?
जवाबः पाकिस्तान और हिन्दुस्तान की शायरी में फ़कऱ् करना मुश्किल है। बस ये कहा जा सकता है कि हर मुल्क का शायर अपने आसपास अपने शहर अपने मुल्क और फिर दुनिया के हालात से मुतासिर होकर शायरी करता है और ख़्यालात का इज़हार करता है।
सवालः भारत में उर्दू की दयनीय हालत क्यों है?
जवाबः भारत में उर्दू मर नहीं रही है, मरी हुई उर्दू मर रही है। जिन्दा उर्दू तो ग्रो कर रही है, फैल रही है। 1985 में मैंने लिखा था कि पचास साल बाद 2035 में मेरे लिखे के बारे में बात करना, आज नहीं। तब तक उर्दू-हिन्दी-अंग्रेज़ी के हजारों लफ्ज़ों को उर्दू अपना लेगी। हम उर्दू में इंटरव्यू दे रहे हैं, आप हिन्दी में ले रहे हैं। यही फ़कऱ् है। वर्ना दोनों ज़बानें एक हैं। बुकिश लैंग्वेज मरेगी, आर्टिफिशियल लैंग्वेज मरेगी। हम ज़बान में शायरी करते हैं। उर्दू-हिन्दी एक है। जब मैं बोलता हूं तो भाषा शायरी की रहती है। मैं शायर की ज़बान की परवाह करता हूं, लिपि की नहीं। शायरी में सब भषाएं एक हैं।
सवालः अब तकरीबन हर उर्दू शायर की किताब हिन्दी में छप रही है, क्या अब उर्दू शायरों को पाठक नहीं मिल रहे हैं?
जवाबः  अब उर्दू और हिन्दी ज़बान जो दिल में उतर जाती है, वो एक है और शायर चाहता है कि उसकी बात आवाम तक पहुंचे। मेरी किबातें उर्दू, हिन्दी के अलावा पंजाबी, बंगाली, मद्रासी, फ्रंच, रशियन और कई दूसरी ज़बानों में छप रही हैं।
सवालः हिन्दी ग़ज़लकारों में सबसे बड़ा नाम दुष्यंत कुमार का कहा जाता है, आप इससे सहमत हैं?
जवाबः दुष्यंत कुमार ने जो ग़ज़ल के अश्आर लिखे वो ग़ज़ल के उसूलों पर सही उतरे इसलिए
उनको ग़ज़ल का कवि माना गया।
सवालः अगर शिल्प को छोड़ दिया जाए तो हिन्दी और उर्दू ग़ज़ल में क्या  फर्क  है?
जवाबः कोई फर्क नहीं है।
सवालः ये आम चर्चा है अदब के प्रति लोगों का रूझान कम हो रहा है, आप इसे किस रूप में लेते हैं ?
जवाबः मैं तो समझता हूं बढ़ रहा है। बस ज़रूरत है नये तालिबे इल्म को सही गाइड करने वालों की।
सवालः इलेक्ट्रानिक मीडिया के बूम से अदब पर क्या प्रभाव पड़ा है?
जवाब: इलेक्ट्रानिक मीडिया से तो बहुत फायदा हुआ। इधर मैं ग़ज़ल लिखता था और टीवी पर सुनाते ही सारी दुनिया में देखने वाले सुनकर मुझे ख़त और मैसेज भेज देते थे। यानी इंटरनेट पर आप बशीर बद्र की वेबसाइट देखकर नया पुराना सारा कलाम दुनिया के किसी भी शहर मे ंपढ़ सकते हैं। मेरे बेटे तैयब बद्र जो आईआईटी मद्रास में पढ़ रहे हैं, कहते हैं कि लाखों लोग रोज अब्बा आपकी वेबासाइट www.bashirbadra.com और www.irspbb.com खोलकर पढ़ रहे हैं।
सवाल: कहा जाता है कि अदब समाज का आईना है। आपको लगता है कि वर्तमान समय के शायर अपनी इस जिम्मेदारी को पूरा कर रहे हैं ?
जवाब: जी हां, शायर ने हमेशा जिम्मेदारी को महसूस किया है। और समाज सुधार के लिए आगे भी लिखते रहेंगे।
सवाल: कहा जाता है कि शायर जिन अलामतों का जिक्र अपनी शायरी में करते हैं, आमतौर पर उस पर खुद ही अमल नहीं करते हैं। क्या आपने यह महसूस किया है?
जवाब: आपका इशारा किन शायरों की तरफ है मुझे नहीं मालूम। 2008 ई. में अपनी बीवी डा. राहत बद्र के साथ हज बैतुल्ला की सआदत नसीब हुई। मदीन मुनव्वर में जहां मुझे ठहराया गया था उस कमरे की खिड़की से रौजा-ए-मुबारक का दीदार मैं मुस्तकिल कर सकता था। मुझे ये मेरा शेर अल्लाह सच कर दिखाया।
मुझे ऐसी जन्नत नहीं चाहिए।
जहां से मदीन दिखाई न दे।
चंद शेर और मुलाहिजा फरमाइए-
सात संदूकों में भरकर दफन कर दो नफ़रतें
आज इंसान को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत।
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में,
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में।
जिस दिन से मैं चला हूं मेरी मंजि़ल पे नज़र है,
आंखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा।
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,
न जाने किस गली में जि़न्दगी की शाम हो जाये।
सर पर ज़मी लेके हवाओं के साथ जा,
 आहिस्ता चलने वालों की बारी न आएगी।
(गुफ्तगू के जून-2013 अंक में प्रकाशित)

2 टिप्पणियाँ:

Unknown ने कहा…

सात संदूकों में भरकर दफन कर दो नफ़रतें
आज इंसान को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत।

तमाम उम्र मेरा दम इसी धुएं में घुटा
वो एक चिराग़ था मैंने उसे बुझाया था....बेहतरीन प्रस्तुति

Atiya Noor ने कहा…

बहुत उम्दा इंटरव्यू,इम्तियाज़ ग़ाज़ी साहब को बहुत मुबारक बाद

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