मंगलवार, 30 अगस्त 2011

बीमार हाकर को देखने उसके घर पहुंचे फ़िराक साहब


------ इम्तियाज़ अहमद गाज़ी ------
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं.
तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में,
हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं.


फ़िराक गोरखपुरी के ये अशआर साहित्य की दुनिया में मील के पत्थर की तरह हैं. साहित्य से जुडा हुआ हर व्यक्ति इन अशआर से अच्छी तरह से वाकिफ है.फ़िराक गोरखपुरी उर्दू अदब का ऐसा नाम है,जिसके जिक्र बिना हिन्दुस्तानी अदब का इतिहास कभी मुक़म्मल नहीं हो सकता.फ़िराक साहब ने पूरी जिंदगी अपनी शर्तों पर जी है और आज के चापलूस टाईप अदीबों के लिए नमूना पेश किया. आमतौर पर यह चर्चा है कि फ़िराक साहब अक्खड टाइप के इंसान थे,लोगों से बेअदबी करते थे. मगर हकीक़त ऐसा बिलकुल नहीं था.हर इंसान के लिए उनकी अलग भूमिका थी, वे नाफर्मानों के लिए अक्खड थे तो गरीबों-मजलूमों के लिए हमदर्द और अभिभावक की भूमिका में नज़र आते. उनके ख़ास शागिर्द रमेश चंद्र दिव्वेदी उर्फ शौक़ मिर्जापुरी एक घंटा का ज़िक्र करते हैं. बताते हैं- फ़िराक साहब के यहाँ अखबार पहुँचाने वाला हाकर काफी बुज़ुर्ग था , एक बार वह बीमार पड़ गया. जिसकी वजह से उसने तीन दिन तक अखबार नहीं दिया. चौथे दिन उसका लड़का अखबार लेकर पहुंचा. फ़िराक साहब ने उसे बुलाया और पूछा तीन दिन तक अखबार क्यों नहीं क्यों नहीं आया? वह बोला, मेरे अबा बीमार हैं और मैंने आपका घर नहीं देखा था, इसलिए आपके यहाँ अखबार नहीं दे पाता था. आज किसी तरह से आपके घर का पता चल पाया इसलिए इसलिए अखबार ले आया हूँ. यह बात सुनकर फ़िराक साहब खामोश हो गए.शाम को मुझे ( शौक़ मिर्जापुरी) को बुलाया और रिक्शे से वहाँ से तकरीबन दस किलोमीटर दूर गाडीवानटोला नामक मोहल्ले में स्थित उसके घर पहुँच गए.तक़रीबन एक घंटे तक उसके पास बैठे रहे, हाल-चाल पूछा, इलाज़ के लिए तीन सौ रुपए दिए और फिर वापस लौटे. अपने साथ नाफरमानी करने वालों को वे बर्दाश्त नहीं करते थे. एक घटना का ज़िक्र करते हुए साहित्यकार नन्दल हितैषी बताते हैं- फ़िराक साहब बीमार थे, अर्धनग्न अवस्था में लेटे थे.सोवियत संघ का एक प्रतिनिधिमंडल रसियन एम्बेसी दिल्ली के माध्यम से इलाहाबाद फ़िराक साहब के पास आया.प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य ने कहा, अपना कपड़ा ठीक करके सही तरीके से बैठ जाइए. इसपर फ़िराक साहब बिगड गए और गुस्से से बोले, यह अपना उब्बक-दुब्बक उठाओ और यहाँ से दफा हो जाओ. बोले, जब हमारी उम्र के होवोगे और हमारी तरह बीमार पड़ोगे तब तुम्हे पता चलेगा. मुझे चले हो ढंग सिखाने.नन्दल हितैषी बताते हैं कि इसके बाद रसियन प्रतिनिधिमंडल के लोगों ने उन्हें बहुत मनाया और इंटरव्यू के एवज में दिया जाने वाला चेक भी दिखाया, लेकिन फ़िराक साहब नहीं माने और उन्होंने अंततः इंटरव्यू नहीं दिया. एक बार फ़िराक साहब से नन्दल हितैषी ने पूछा- शायरी किस भाषा में कि जानी चाहिए. इसपर उन्होंने ग़ालिब का एक शेर सुनाया-
नुक्ताचीं है गमे दिल उनको सुनाये न बने
क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने

फिर बोले, क्या बने... बात... जहाँ... बात... बनाए.. न बने. यह जिस भाषा का शेर है उसी भाषा में शायरी कि जानी चाहिए. फ़िराक साहब तुलसी को सबसे बड़ा कवि मानते थे. उनके अनुसार भारत में चार बड़े कवि हुए हैं, तुलसी,ग़ालिब, सूर और फैज़.
रघुपति सहाय उर्फ फ़िराक गोरखपुरी का जन्म 28 अगस्त 1869 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में हुआ था.उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद आये और यहीं के होकर रह गए.फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में वे अंग्रेजी के प्रोफेसर बने. उन्होंने अनगिनत ग़ज़लें.रुबाईयाँ, कतअ,नज़्म आदि लिखे. गुले नगमा पर सन 1969 में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला. आज उर्दू के हाईस्कूल, इण्टरमीडियट से लेकर अनेक विश्वविद्यालयों के कोर्से में उनकी शायरी पढाई जाती है. कलम के इस सिपाही की एक लंबी बिमारी के बाद तीन मार्च 1982 को निधन हो गया. उनका शेर प्रासंगिक हो रहा है.
मौत इक गीत रात गाती थी, जिंदगी झूम-झूम जाती थी.
जिंदगी को वफ़ा की राहों में, मौत खुद रौशनी दिखाती थी.
( हिंदी दैनिक जनवाणी में 28 अगस्त 2011 को प्रकाशित)

2 टिप्पणियाँ:

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

नाज़िया जी फ़िराक पर अत्यंत सुंदर पोस्ट बधाई और शुभकामनाएं

Krishna Kumar Naaz ने कहा…

नाज़िया साहिबा, इस ख़ूबसूरत पोस्ट के लिये मुबारकबाद। अगर मुनासिब समझें तो इनकी जन्मतिथि ठीक कर लीजियेगा। जन्मतिथि २८ अगस्त १८९६ है, जबकि पोस्ट में १८६९ लिखा है।
- कृष्णकुमार ’नाज़’

एक टिप्पणी भेजें