ग़ज़ल-1
खुद को खुद ही निकाल के देखो।
ग़म का दरिया खंगाल के देखो।
तुमको सोना लगेगी ये मिट्टी,
इसको पैकर में ढाल के देखो।
दोस्ती दुश्मनी से भारी है,
मन से कांटा निकाल के देखो।
तुम भी तंहाइयों में तड़पोगे,
बात तुम मेरी टाल के देखो।
कौन कहता है इश्क काफ़िर है,
रोग ये खुद में पाल के देखो।
ग़ज़ल-2
मैं प्यार करूं तुमसे अगर कैसा लगेगा।
और दे दूं तुम्हें जानो-जिगर कैसा लगेगा।
फुर्कत के तसव्वुर का कुछ अंजाम बताओ,
बिन तेरे मुझे शामो-सहर कैसा लगेगा।
जो रूठ गई मुझसे अगर जाने तमन्ना,
रख दूंगा मैं कदमों में ये सर कैसा लगेगा।
पलकों ये जो रौशन हैं दिए या कि हैं आंसू,
बन जाएं छलक कर जो गोहर कैसा लगेगा।
दिल कहता है उस चांद को तू देख मोसलसल,
नज़रों का जो हो खत्म सफर कैसा लगेगा।
जिस दिन मेरे घर आवोगी दुल्हन की तरह तुम,
आने से तेरे ये मेरा घर कैसा लगेगा।
आंखों में तेरे हुस्न की तस्वीर है ग़ाज़ी,
हो जाए अगर तेरा बसर कैसा लगेगा।
ग़ज़ल-3
मैं हर कौम की रोशनी चाहता हूं।
खुदा की कसम दोस्ती चाहता हूं।
रहें जिसमें मां की दुआएं भी शामिल,
यकीनन मैं ऐसी खुशी चाहता हूं।
पुरानी रिवायत के रास्ते पे चलके,
ग़ज़ल में नई रोशनी चाहता हूं।
मुकद्दर बदलने का नुस्खा बताए,
मैं ऐसा कोई ज्यातिशि चाहता हूं।
मुझे लूटना गर उन्हें है गंवारा,
यूं लुटती हुई जिन्दगी चाहता हूं।
मोहब्बत में सबकुछ लुटा के भी ग़ाज़ी,
तेरे प्यार की रोशनी चाहता हूं।
9 टिप्पणियाँ:
दोस्ती दुश्मनी से भारी है,
मन से कांटा निकाल के देखो।
बहुत उम्दा ख़याल !
सुबहान अल्लाह!
ख़ुश आमदीद
उत्तम लेखन… आपके नये ब्लाग के साथ आपका स्वागत है। अन्य ब्लागों पर भी जाया करिए।
मेरे ब्लाग "डिस्कवर लाईफ़" जिसमें हिन्दी और अंग्रेज़ी दौनों भाषाओं मे रच्नाएं पोस्ट करता हूँ… आपको आमत्रित करता हूँ। बताएँ कैसा लगा। धन्यवाद...
आंखों में तेरे हुस्न की तस्वीर है ग़ाज़ी,
हो जाए अगर तेरा बसर कैसा लगेगा.
वाह वाह, बहुत खूब.
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हिन्दी ब्लॉगजगत के स्नेही परिवार में इस नये ब्लॉग का और आपका मैं ई-गुरु राजीव हार्दिक स्वागत करता हूँ.
मेरी इच्छा है कि आपका यह ब्लॉग सफलता की नई-नई ऊँचाइयों को छुए. यह ब्लॉग प्रेरणादायी और लोकप्रिय बने.
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शुभकामनाएं !
"हिन्दप्रभा" - ( आओ सीखें ब्लॉग बनाना, सजाना और ब्लॉग से कमाना )
बहुत ही अच्छी ग़ज़लें.धन्यवाद.
ब्लॉग देखने में भी बहुत सुंदर लग रहा है.
नाज़िया ग़ाज़ी जी
आदाब अर्ज़ !
ब्लॉग संसार में आपका स्वागत है …
मेरे पास गुफ़्तगू के एक - दो अंक डाक से कभी पहुंचे भी थे ।
अब नेट पर आपको देख कर बहुत अच्छा लगा ।
इम्तियाज अहमद ग़ाज़ी साहब
की ग़ज़लें पढ़ कर बेहद मसर्रत हुई ।
उन तक मेरा आदाब , नमस्कार पहुंचाएं ।
तीनों ग़ज़लें एक से बढ़ कर एक हैं ।
हर शे'र कोट करने लायक है ।
शस्वरं पर भी आपका हार्दिक स्वागत है , अवश्य आइए…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
बहुत अच्छी रचना । 3री ग़ज़ल में ऐसा कोई ज्योतिशि चाहता हूं। "ज्योतिशि" शब्द बहर को तोड़ रहा है।
हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें
very nice bhaigazi ji
पुरानी रिवायत के रास्ते पे चलके,
ग़ज़ल में नई रोशनी चाहता हूं।
sunder sher ke liye daad
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