सोमवार, 20 जनवरी 2025

हाईकोर्ट के क़ाबिले-कद्र अधिवक्ता फ़रमान नक़वी 

                                              -  डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

                                          

 मौजूदा समय में सय्यद फ़रमान अहमद नक़वी इलाहाबाद हाईकोर्ट के नामवर अधिवक्ताओं में से हैं। गरीब और असहाय लोगों के मुकदमों की पैरवी बिना फीस के करने के साथ ही परेशान हाल लोगों की मदद करने को लेकर भी ये काफी सक्रिय रहते हैं। इन्होंने कई ऐसे मुकदमों की पैरवी की है, जिसकी वजह से असहाय लोगों को काफी राहत मिली है। जय प्रकाश नारायण ने इमरजेंसी के समय जिस संस्था का गठन किया था, उसके प्रदेश अध्यक्ष से लेकर नेशनल एक्जीक्यूटिव में भी सय्यद नक़वी काम करते रहे हैं। इस समय बहुत चर्चित मामले ज्ञानवापी की भी पैरवी आप इलाहाबाद हाईकोर्ट में कर रहे हैं। कई अन्य सामाजिक संगठनों से भी जुड़े हुए हैं।



सय्यद फ़रमान अहमद नक़वी

    सय्यद फ़रमान अहमद नक़वी का जन्म 15 जुलाई 1954 को कोलकाता में हुआ है। वालिद मरहूम जनाब सय्यद मोहम्मद अहमद नक़वी और वालिदा मोहतरमा मरहूमा हयातुन्निसा से इनको बहुत अच्छे संस्कार मिले हैं, जिसकी वजह से इनके अंदर समाज सेवा की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है। किसी गरीब-असहाय की परेशानी की जानकारी मिलती है तो ये उसकी बढ़-चढ़कर सहयोग करते हैं। इनके वालिद सय्यद मोहम्मद नक़वी सरकारी नौकरी में थे, जिसकी वजह से सय्यद फ़रमान की अधिकतर शिक्षा उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले में पूरी हुई। वर्ष 1969 में फतेहपुर से ही हाईस्कूल और वर्ष 1971 में आपने इंटरमीडिएट किया है। वर्ष 1973 में फतेहपुर के महात्मा गांधी डिग्री कॉलेज से आपने स्नातक किया है। वर्ष 1979 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से एल.एल-बी. किए। इसके बाद फतेहपुर में जिला न्यायालय में वकालत का पंजीयन कराकर प्रैक्टिस शुरू कर दिए। वालिद और कुछ दूसरे लोगों की सलाह पर वर्ष 1982 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में पंजीयन कराकर यहीं पर वकालत शुरू कर दिए। प्रैक्टिस की शुरूआत इन्होंने खुद अपने ही दम  पर की, किसी को अपना गुरु नहीं बनाया, लेकिन वरिष्ठ वकीलों की सलाह समय-समय पर लेते रहे। 

  वर्ष 1991 में इन्हें उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से इलाहाबाद हाईकोर्ट में सरकारी वकील के रूप में नियुक्त किया गया। तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने इनकी क़ाबलियत को देखते हुए वर्ष 1995 तक इसी पद पर बनाए रखा। इसके साथ ही वर्ष 1991 से वर्ष 1999 तक भारत सरकार के अधिवक्ता के रूप में भी कार्यरत रहे। वर्ष 2019 में आप इलाहाबाद हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हो गए। फ़रमान नक़वी पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के प्रदेश अध्यक्ष रहे चुके हैं। इस संस्था की स्थापना आपातकाल के दौरान जय प्रकाश नारायण ने की थी। जनाब नक़वी वर्तमान समय में इस संस्था के नेशनल कार्यकारिणी के सदस्य हैं।

  सय्यद फ़रमान अहमद नक़वी ने कई महत्वपूर्ण मुकदमों की पैरवी की है, जो अपने आपमें बेहद ख़ास है। एक मामला पुलिस कस्टडी में एक दुकानदार की मौत का है। वर्ष 2004 में दरियाबाद के एक दुकानदार ने मेडिकल स्टोर के लिए बैंक से कर्ज़ लिया था। इस मामले में पुलिस उस दुकानदार को पकड़कर थाने ले गई। पुलिस कस्टडी में ही उस दुकानदार की मौत हो गई थी और दुकानदार के परिवार के पालन-पोषण का कोई साधन नहीं था। सय्यद नक़वी ने इस मामले का खुद ही संज्ञान लेकर हाईकोर्ट में मुकदमा दायर किया और दुकानदार के परिवार को मुआवजे के तौर पर 7.50 लाख रुपये दिलवाया। इसी तरह पुरामुफ्ती थाना के एक 24 वर्षीय लड़के को बमरौली रेलवे स्टेशन के पास से पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था, जिसकी जेल में ही मौत हो गई। सय्यद फ़रमान अहमद नक़वी ने इस लड़के का मुकदमा भी खुद लड़ा और परिवार वालों को हाईकोर्ट के जरिए 10 लाख रुपये का मुआवजा दिलाया। इसी तरह के कई अन्य मुकदमों की भी खुद ही पैरवी करके इन्होंने गरीब और असहाय लोगों को कोर्ट के जरिए न्याय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।

(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2023 अंक में प्रकाशित)


शनिवार, 18 जनवरी 2025

मिल्लत के मसीहा मौलवी आसिम बिहारी


                                                                  - डॉ. वारिस अंसारी  

     


                                         

 मौलवी अली हुसैन आसिम बिहारी साहब जंगे-आज़ादी का वह मोतेबर नाम है, जिसको आज़ादी का बुनियाद कहा जाए तो गलत नहीं होगा। क्योंकि इस पसे-मंज़र में महात्मा गांधी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, अब्दुल कय्यूम अंसारी व दीगर तमाम मुजाहिदीन-ए-आज़़ादी को पूरी दुनिया जानती है। लेकिन इनके साथ-साथ तमाम ऐसे जांबाज़ हुए हैं, जिन्होंने आज़ादी के लिए अपना तन, मन, धन सब कुछ कुर्बान कर दिया और यही लोग आज़ादी की बुनियाद हैं। इन्हीं में एक नाम मौलवी अली हुसैन आसिम बिहारी का भी नाम है। ज़रूरत इस बात की है कि इन मुजाहिदों के नाम भी तारीख (इतिहास) में शामिल होने चाहिए, जिससे आने वाली नस्लों को भी इन अज़ीम लोगों के किरदार के बारे में भी पता चल सके। 

   किताब ‘मौलवी अली हुसैन आसिम बिहारी’ में उनकी हयात व कारनामों पर रोशनी डाली गई है। एम डब्ल्यू. अंसारी लिखते हैं कि मौलवी साहब ने अपनी पूरी जिं़दगी कौम व मिल्लत और पसमांदा मुस्लिम समाज के लिए ही सर्फ की। उन्होंने मजदूरों, किसानों की आवाज़ उठाई। पसमांदा तबके की तालीम व तरबियत पर ज़ोर दिया। इस किताब में एम. ए हक़ मौलवी साहब के हुस्न सुलूक और किरदार के बारे में तहरीर करते हैं ‘किसी को माफ कर देना सबसे बड़ी कुर्बानी है जो हर किसी के बस की बात नहीं। बड़ी गोदाम में दो अफराद (दो व्यक्ति) की लड़ाई में सुलह कराने में मौलवी साहब को एक आदमी ने उनके सीने में कैंची से वार कर दिया। जहां से उसे जेल भेज दिया गया। ज़़ख्म गहरे होने की वजह से मौलवी साहब को कई हफ्ते अस्पताल में गुजारना पड़ा। मुजरिम मौलवी साहब का पड़ोसी था, मौलवी साहब उसकी माली हालात से भी वाकिफ थे, इसलिए वह उसकी बेवा मां की खामोशी से मदद करते रहे। जब वह मुजरिम जेल से एक साल बाद वापस आया तो मौलवी साहब के कदमों पर गिर पड़ा, माफी मांगी। कौम के इस हमदर्द ने उसे अपने सीने से लगा कर माफ कर दिया। 

  पूरी किताब में मौलवी साहब के किरदार के बारे में तेईस लोगों की तहरीरें हैं, जो कि कबीले-दीद व दाद हैं। हार्ड जिल्द के साथ 168 पेज की इस किताब को एम. डब्ल्यू. अंसारी ने मुरत्तिब (संपादित) किया है। सरे वरक की डिज़ाइनिंग सैयद असद अली वास्ती ने और किताब की कंपोजिंग अंसारी सबीहा अतहर ने किया है। न्यू प्रिंट सेंटर दरियागंज, नई दिल्ली से प्रकाशित इस किताब की कीमत सिर्फ 200 रुपए है।


 शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी की अदबी खि़दमात




 दुनिया-ए-अदब में मरहूम शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का नाम किसी तअरुफ (परिचय) का मोहताज नहीं है। उन्होंने इस दारे-फानी में 15 जनवरी 1935 से 25 दिसंबर 2020 तक यानी 85 बरस तक सफर किया। उन्होंने बालिग होने के बाद उर्दू अदब के लिए जो काम अंजाम दिया वह रहती दुनिया तक याद किया जाएगा। ‘नक़्श-ए-नव; (2020 दृ 2021) ने बड़े ही सलीके से उनकी सहाफत, शायरी और तनकीदनिगारी पर उनकी अदबी खिदमात को समोया है। दरअसल ‘नक़्श-ए-नव’ हमीदिया गर्ल्स डिग्री कालेज प्रयागराज ( इलाहाबाद यूनिवर्सिटी) का सालाना उर्दू जरीदह (पत्रिका) है, जिसकी संपादक मोहतरमा नासेह उस्मानी हैं, जबकि एज़ाज़ी मुदीर  प्रो. अब्दुल हक और उप संपादक मोहतरमा ज़रीना बेगम हैं। 

पूरे रिसालह में लगभग पच्चीस लोगों ने अपने इज़हार-ए-ख़्याल पेश किया है। जिसमें फ़ारूक़ी साहब की हयात और अदबी खिदमात पर रोशनी डाली गई है।  प्रो. सेराज अजमली, प्रो. असलम जमशेदपुरी, शाज़िया गुलाम अंसारी, डॉ. इब्राहिम अफसर, डॉ. अरशद जमील जैसे तमाम अदबी शख़्सियात की मुस्तनद राय मौजूद है। अपनी बात में रिसालह की संपादक नासेह उस्मानी कहती हैं-शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी आसमान-ए-उर्दू के ऐसे ताबनाक (रौशन) सूरज थे, जिसकी रौशनी रहती दुनिया तक कायम रहेगी। वह खुश अख़लाक और हमदर्दी का पैकर थे। वह इतनी बुलंदी पर होते हुए भी अपने अज़ीज़ो, रिश्तेदारों और अहबाब से बहुत ही खुश मज़ाजी से मिलते थे।’ रिसालह में डॉ. आसिम शानावाज़ शिबली ने एक बहुत ही खूबसूरत नज़्म ‘फ़ारूक़ी-नामा’ भी पेश की जो कि काबिले-तारीफ़ है। प्रो. अली अहमद फ़ातमी ने शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी की अकबर शानासी पर चर्चा करते हुए लिखा है कि ‘फ़ारूक़ी ने अकबर को दिमाग से कम बल्कि दिल से ज्यादा पढ़ा और समझा है। यूं तो वह एहतेशाम हुसैन और आल अहमद सुरुर से भी मुतासिर (प्रभावित) थे, लेकिन अकबर इलाहाबादी उनके दिलो-दिमाग में छाए रहे और यही दीवानगी उनकी नई तस्वीर पेश करती है।’ और आखिर में ज़रीना बेगम की नज़्म ‘खिराज-ए-अकीदत’ भी क़ाबिल-ए-दीद है। 

  यूं तो पूरा रिसालह पढ़ने काबिल है और नई नस्ल के तालिब ए इल्म के लिए तो बड़े ही काम का रिसालह है बहुत ही सादह और खूबसूरत कवर के साथ रिसालह 319 पेज पर मुश्तमिल है, जिसे उर्दू विभाग हमीदिया गर्ल्स डिग्री कॉलेज, प्रयागराज से प्रकाशित किया गया है, जब की कंपोजिंग शाजिया गुलाम अंसारी ने की है। रिसालह की कीमत सिर्फ 100 रुपए है।

( गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2023 अंक में प्रकाशित )

शुक्रवार, 17 जनवरी 2025

जंगे आज़ादी के सिपाही ड़ॉ. सय्यद महमूद 

                                                        - सरवत महमूद खान 

    ड़ॉ. सय्यद महमूद की गिनती गाजीपुर के महान विभूतियों में होती है, इनका जन्म वर्ष 1890 में ग्राम भीतरी में हुआ था। आपकी प्रारंभिक शिक्षा जौनपुर में पूरी हुई थी। इसके आगे की पढ़ाई क्वीन्स कालेज,वाराणसी और अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में सम्पन्न हुई। इसके बाद पढ़ाई के लिए इंग्लैंड चले गये, वहां से कानून की डिग्री प्राप्त करने के बाद जर्मनी गए। जर्मनी से ही इतिहास में पी.एच-डी. किए। आज़ादी आंदोलन के समय कांग्रेस द्वारा समय-समय पर जो नीति निर्धारण की जाती थी, उसमें इनकी अहम भूमिका होती थी। आपके पिता शेख मुहम्मद उमर बिहार के सिवान में कार्यरत थे। जौनपुर के खानकाहे रशीदीया से आप गहरी आस्था रखते थे। बचपन में ही नुरूद्दीनपुरा के प्रख्यात फकीर शेख मौलाना अब्दुल अलीम आसी गाजीपुरी के मुरीद बन गये थे। आपकी शादी बिहार के राष्ट्रवादी नेता मौलाना मजरूल हक की भतीजी से हुई थी।  


ड़ॉ. सय्यद महमूद

पढ़ाई पूरी करके भारत लौटकर इन्होंने पटना में वकालत शुरू किया। मगर, सन 1920 में गांधी जी के विचारों से प्रभावित होकर वकालत छोड़कर असहयोग एवं खिलाफत आन्दोलन में शामिल हो गए। अपनी प्रतिभा व प्रभावशाली भूमिका के चलते बिहार खिलाफत आन्दोलन के वजीरे आजम बनाये गये। इस पद पर रहते हुए पूरे भारत का भ्रमण किया। वर्ष 1922 बांकेपुर में अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ जोरदार भाषण दिया, जिसकी वजह से इन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। जेल से रिहा होने के बाद कांग्रेस के हर आयोजन में सक्रिय रूप से भाग लेने लगे। सन 1929 से 1934 तक कांग्रेस के महासचिव रहे। सन 1933 में मनोनीत सभापति के साथ कलकत्ता अधिवेशन में जाते समय गिरफ्तार कर लिये गये। सन् 1930 में सरकारी अनुमति से यरवादा जेल में सन्धिदूत द्वय श्री जयकर और ड़ा स्प्रेू गांधी जी से मिले और जो सन्धि शर्तें लिखी गई उसमें महात्मा गांधी और पंडित मोतीलाल नेहरू के साथ ड़ॉ. सय्यद महमूद के भी हस्ताक्षर थे। 30 और 31 अगस्त सन 1930 को मध्यस्थों ने नैनी जेल में मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू के साथ ड़ॉ. सय्यद महमूद की लम्बी एवं गहन वार्तालाप हुई, जिसके बाद ही समझौते का प्रारूप तैयार हुआ। 

  गांधी जी ने यरवादा जेल से 5 सितंबर 1930 को मध्यस्थों को पत्र लिखा कि पंडित मोतीलाल नेहरू, ड़ॉ. सय्यद महमूद और जवाहर लाल नेहरू ने जो सहमति भेजी है, उससे मैं और मेरे साथी सहमत हैं। हिन्दू-मुस्लिम सम्प्रदायिकता के साथ ही छुआछूत की बीमारी भी पूरे समाज में फैली हुई थी। इस समाजिक बुराई को दूर करने के लिए ड़ॉ महमूद ने सराहनीय प्रयास किया, इनके प्रयासों की प्रशंसा करते हुए गांधी जी ने 5 अक्टूबर सन 1933 को एक पत्र लिखा- ’प्रिय ड़ॉ. महमूद, मेरी कितनी इच्छा है कि अस्पृश्यता का यह समाधान हमे और अधिक एकता की दिशा में ले जाय। ईश्वर आपके प्रयत्न को सफल करे।’ ड़ॉ. सय्यद महमूद स्पष्ट वक्ता एवं पक्के वतन परस्त थे। सन 1948 में जमीयतुल उलेमाए हिन्द के इजलास में तत्कालीन उ. प्र के मुख्यमंत्री पं गोविंद बल्लभ पंत की मौजूदगी में एक ज्वलंत प्रश्न के उत्तर में ड़ॉ. सय्यद महमूद ने जोर देकर कहा कि ‘जो पाकिस्तान बनना देखना चाहते थे वह पाकिस्तान जा चुके। जो मुसलमान यहां हैं वह न केवल भारत के वफादार हैं बल्कि वह इस देश से उतना ही प्रेम करते हैं, जितना दूसरे लोग करते हैं।’

   सन 1936-37 में प्रान्तीय धारा सभा के चुनाव में मुस्लिम बहुल क्षेत्र से चुनाव जीतने के कारण ड़ॉ. महमूद श्रीकृष्ण सिहं की मंत्रीमंडल में शिक्षा मंत्री बनाये गये। इसी प्रकार 1945-46 के धारा सभा के चुनाव में जीत दर्ज कराकर मंत्रीमंडल में विकास मंत्री बनाये गये। आजादी के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू के मंत्रीमंडल में विदेश राज्यमंत्री बनाये गये थे। डॉ. महमूद साहित्यकार भी थे। आपने उर्दू और अंग्रेजी भाषा में दर्जनभर किताबे लिखी हैं। आप द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘कल का हिन्दुस्तान’ साहित्य जगत के लिए धरोहर है। ड़ॉ सैयद महमूद का इन्तकाल 28 सितंबर 1971 को दिल्ली में हुआ था। दिल्ली के मेहन्दीयान कब्रिस्तान मे आपको सुपुर्दे-ख़ाक किया गया है, जहां बड़े बड़े उलेमा, मुहद्दीसीन और मुजाहिदीन की भी कब्रें हैं।

(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2023 अंक में प्रकाशित)

सोमवार, 13 जनवरी 2025

समाजिक   सौहार्द   में   कविता   का   बहुत   बड़ा    रोल  है : आईएएस डॉ. अखिलेश मिश्र


डॉ. अखिलेश मिश्र

वरिष्ठ आईएएस डॉ. अखिलेश मिश्र वर्तमान के जाने-माने साहित्यकार हैं। मुशायरों में शिरकत करने के लिए इन्हें पूरे देश के अलावा दुबई, श्रीलंका, सिंगापुर और थाईलैंड समेत कई देशों में आमंत्रित किया जा चुका है। इनकी पुस्तक ‘यूं ही’ काफी लोकप्रिय है, ऑनलाइन बेस्ट सेलर में की जा चुकी है। उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के रहने वाले डॉ. अखिलेश मिश्र ने बी.एच.यू. से एम.एस-सी. करने के साथ ही पी.एच-डी. किया है। बिहार सरकार के कृषि विभाग में अल्पकालिक नौकरी से शुरुआत करने के बाद आप रजिस्ट्रार-लखनऊ विश्वविद्यालय लखनऊ; सीईओ खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड, उ.प्र.; विशेष सचिव, आईटी और  इलेक्ट्रॉनिक्स उ.प्र. सरकार रहने के साथ-साथ कई जिलों में जिलाधिकारी रहे चुके हैं। उच्च शिक्षा विभाग में विशेष सचिव पद पर कार्यरत हैं। वर्तमान में विशेष सचिव, उच्चतर शिक्षा विभाग, उ. प्र.  के महत्वपूर्ण पद पर लखनऊ में कार्यरत हैं। उपस्थित दर्शकों को मंत्रमुग्ध करने वाले,  कुशल प्रशासक के रूप में चुनाव प्रबंधन एवं दंगे रोकने में दक्ष, हरफन मौला आदरणीय डॉ. अखिलेश मिश्रा जी पर्यावरण प्रेमी  प्रशासनिक अधिकारी के साथ-साथ लोकप्रिय कवि एवं रामकथा वाचक भी हैं। डॉ. अखिलेश  मिश्रा जी का जन्म 27 जून 1965 को हुआ है। आपका गृह नगर जौनपुर, उत्तर प्रदेश है। आपने एम.एससी. एवं पीएच.डी. की उपाधि,  बी. एच. यू., वाराणसी से प्राप्त की।  जितनी कुशलतापूर्वक वो प्रशासनिक पदों पर कार्य करते हैं  उतनी ही कुशलता से वो सटीक एवं संवेदनशील काव्य का सृजन भी करते हैं।  प्रशासनिक पद पर रहने के कारण, देश और समाज  की परिस्थितियों पर खुलकर न बोल पाने की मजबूरियों के कारण, उनके संवेदनशील हृदय में उपजता उनका आक्रोश/घुटन/ वेदना, संवेदनशील कविताओं/ शायरी के रूप में निरंतर  प्रस्फुटित होता रहता है।अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने इनसे मुलाकात करके विस्तृत बातचीत की है। प्रस्तुत इस बातचीत के प्रमुख भाग। 


सवाल: आपने समय-समय पर विभिन्न विभागों में कार्य किया है। किस विभाग में कार्य करते हुए आपको सबसे अधिक रुचिकर लगा ?

जवाब: आप का प्रश्न बड़ा ही अच्छा है, और यदि ये पूछा जाय कि कौन सा रूप मुझे सबसे ज्यादा पसंद है तो इसका उत्तर, समय काल परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है। एक समय पर सारे रूप पसंद हो या सारी चीजें एक समय में की जा सकें, ऐसा हमेशा संभव नहीं होता। माहौल के अनुसार, हम लोगों की लिमिटेशन होती है। हम सब बहुत ज्यादा सरकार के पक्ष या विपक्ष में अथवा राजनीतिक परिस्थितियों या धार्मिक पहलू के अनुसार, सार्वजनिक रूप से अपने आपको पेश नहीं कर सकते। विभिन्न दृष्टिकोणों के अनुसार सब कुछ, हर जगह नहीं चल पाता है। अपनी लिमिटेशन/लिब्रिकेशन में, जिस चीज को जितना हम जी लेते हैं, उस समय वही अच्छा लगता है। इसका एक जवाब नहीं हो सकता है। समय काल और परिस्थिति के अनुसार कोई भी चीज कहीं ज्यादा अच्छी लगती है तो कहीं कम अच्छी।

सवाल: रिटायर्मेंट के बाद आप कौन सा रूप अपनाना चाहेंगे ?

जवाब:  इतना पहले से प्लानिंग करके मैं जीता नहीं हूं। हम लोग दिन-प्रतिदिन के आधार पर निर्णय करते हैं। बहुत लम्बी प्लानिंग कभी जिंदगी में, नहीं की है। न पुराने की कोई  चिंता रहती है न भविष्य की कोई फिक्र होती है।

सवाल: प्रशासनिक सेवा में रहते हुए, कविता या शायरी की तरफ आपका झुकाव कैसे हुआ,   शुरूआत कैसे हुई?

जवाब: प्रशासनिक सेवा के शुरूआती दौर में, नैतिक-सैद्धांतिक भावनाएं, हर प्रशासनिक अधिकारी के दिलो-दिमाग में भरी होती हैं। वह अपने आप को एक राजा की तरह देखता, सोचता है। नैतिक रूप से ईमानदार,  न्यायप्रिय व्यक्ति होता है, परंतु धीरे-धीरे परिस्थितियां, व्यक्ति पर हावी होने लगती हैं। तब अलग-अलग स्तर पर डायलूशन होने लगता है। कभी हम नैतिक रूप से अपने आप को कमज़ोर पाते हैं, कभी अन्य रूप में कमज़ोर पाते हैं, कभी व्यवस्था हमें कमज़ोर कर देती है। तो जब इन चीज़ों को, हम देखते हैं और  जहां पर, हम अपने आपको कमज़ोर पाते हैं तो वो कसमसाहट या छटपटाहट कविता के रूप में उभरकर आती है। खुशियां सामान्यतः कविता नहीं पैदा करती हैं, सामान्यतः दुख,  कविता पैदा करती है। चिंता या गम पैदा करती है जो आप नहीं कर पाए रहे हैं उसको कर लेने की इच्छा, वो आपके अंदर कविता पैदा करती है। व्यक्तिगत रूप से अगर कविता की बात करें तो समारोहों में चीफ गेस्ट बनते-बनते मैंने कविता सीखी। शुरूआती दौर में, मैं जब डिप्टी कलेक्टर था तो मेरी कलेक्टर एक महिला थी और सामान्यतः ऐसे कार्यक्रमों में वह नहीं जाया करती थी, तो सारे इलाके में इस दायित्व का निर्वहन मुझे ही करना पड़ता था। सामान्यतः वहां मैं अपने उद्बोधन में दूसरों की रचनाएं ही सुनाता था जैसे बच्चन जी की मधुशाला, वगैरह। जब-जब मैं मधुशाला सुनाता था तो अक्सर, युवा लोग मेरे फैन हो जाते थे। परंतु एक बार मंच पर डॉ हरि ओम पंवार जी ने मुझसे मंच पर ही कहा कि लगता है कि मधुशाला तुमने ही लिखी है, और आगे से मंच पर मेरे सामने आना तो अपनी लिखी कविता लेकर आना, नहीं तो मेरे सामने मंच पर मत आना। मेरठ का माहौल था मेरे सारे फैन थे, बड़े-बड़े कवि थे, मुझे बहुत खराब लगा कि कोई सार्वजनिक रूप से ऐसे हड़का दे। मैंने फिर सात-आठ लाईनों की एक कविता लिखी कि इस बार अगर हरि ओम पंवार जी मिल गए तो उनको सुनाऊंगा परंतु बहुत दिनों तक, हरि ओम पँवार जी से मुलाकात नहीं हुई। फिर बाद में एक समारोह में आमना-सामना हुआ तो मैंने उनको चार लाईनें सुनाई। कविता लिखने का यह प्रयास निरंतर जारी रहा और धीरे-धीरे मैं कविता लिखने लगा। फिर विदेश से भी मुझे कविता पाठ के लिए निमंत्रण मिलने लगा और एक कवि के रूप में, मैं स्थापित हो गया। अतः यह कह सकता हूं कि प्रशासनिक सेवा में आने के बाद ही मैंने कविता लिखना पढ़ना शुरू किया। उर्दू का लहजा मैने अपने आसपास के वातावरण से ही सीखा।


अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’, डॉ. अखिलेश मिश्र, नरेश कुमार महरानी और डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी।


सवाल: प्रशासनिक पद पर रहते हुए, विभिन्न सामाजिक परिदृश्यों पर प्रायः खुलकर नहीं बोल पाने के कारण कवि हृदय अक्सर कसमसाहट और बेचैनी का अनुभव करता होगा, इस परिस्थिति से आप कैसे निपटते हैं?

जवाब:  कोई भी बात कहने में, व्यक्तिगत रूप से मैं डरता नहीं था। कविता की अपनी एक विशेषता है कि कविता समझने वाले को ही चोट करती है। मेरी निर्भीकता तथा स्पष्टता पर, पहली बार जब पत्रकारों ने मुझसे कहा कि आप सुबह तक सस्पैंड हो जाओगे तब मैंने कहा कि अगर आप मेरे शब्दों को, घुमा-फिराकर लिखोगे तो सस्पैंड तो हो ही जाऊंगा, लेकिन सस्पैंड भी हो जाऊंगा तो क्यों हुआ, लोग जानेंगे तो कि ये कवि किस स्तर का है। मैं इस बात से कभी डरा नहीं और ये मेरा अनुभव है कि तमाम बड़े-बड़े दंगे जहां हो जाते हैं, वहां मेरे एक दो शेर ने वो काम कर दिया कि कोई दंगा नहीं हुआ। और मुझे याद है कि एक जगह मुस्लिम पापुलेशन बहुत अधिक थी। वहां पर लोगों ने कहा कि मियां अपने ख़्याल का आदमी है, शायरी करता है इसलिए अपने क्षेत्र में सब ठीक-ठाक रहना चाहिए और फिर कह देने मात्र से कोई बवाल नहीं करता था। इसी तरह हमारे हिंदू भाई भी होते थे, उनको मैं श्लोक वगैरह सुना दिया करता था तो भीड़ मेरे कंट्रोल में आ जाया करती थी। अगर यह नहीं होता तो गंभीर परिस्थितियों में, जितनी कठोरता, मुझे करनी पड़ी, उससे कहीं ज्यादा करनी पड़ती। मैं जिन क्षेत्रों में रहा हूं जैसे मेरठ, सहारनपुर, संभल आदि, ऐसे क्षेत्रों में पोस्टिंग होने की लिस्ट में मेरा नाम इसलिए ऊपर रहता था, कि जो बवाल होगा उसको मैं कुशलतापूर्वक निपटा लूंगा।

सवाल:  आप विषम परिस्थितियों, जैसे दंगा कंट्रोल करते समय या चुनाव संचालन आदि के दौरान, आपका व्यक्तित्व जितना दृढ़संकल्प और कठोर नजर आता है। कवि के रूप में आपका हृदय उतना ही कोमल नज़र आता है। परिस्थितिजन्य या समय की मांग के अनुसार अपने अंदर यह सामंजस्य या बदलाव आप कैसे लाते हैं।

जवाब: मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि कलेक्टर चुनाव संचालन में वरिष्ठ अधिकारी होता है। वह सही समय पर, सही तरीके से, सही निर्णय कर दे तो कोई बवाल नहीं होता है। ये मेरा व्यक्तिगत अनुभव है। सही समय पर सही प्लानिंग के साथ आपकी निष्पक्षता बहुत मायने रखती है। चुनाव में हमारे पास पावर बहुत रहती है और आपका उद्देश्य मात्र एक है कि चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न हो जाय तो फिर अगर थोड़ी अशांति भी फैले तो कोई दिक्कत नहीं।  आपका सर्वाेपरि उद्देश्य है, चुनाव संपन्न होना, तो चुनाव तो हो के रहेगा बाकी सारे विषय गौड़ हो जाते हैं। चुनाव होना है तो होना है। यूपी के हर कोने में चुनाव कराया है। एक-एक चीज़ नियमबद्ध है एक-एक लाइन लिखी हुई है। बहुत ज्यादा बुद्धी प्रयोग करने की ज़रूरत नहीं है। नियमों और दिशा-निर्देशों पर क्लेयरिटी होनी चाहिए, फिर डरना किस बात का है।

सवाल: आपने देश विदेश में आयोजित अनेक कवि सम्मेलन या मुशायरों में मंच से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया है, ऐसे किसी आयोजन के किसी खास संस्मरण के बारे में बताएं।

जवाब: मैं इमरान प्रतापगढ़ी के साथ हुए एक मुशायरे का जिक्र करना चाहूंगा। दुबई में एक प्रोग्राम हो रहा था उसमें हमारी शायरी और इमरान की शायरी में डिफ्रेंस था। मैं शायरी कर के गया और वो खड़ा हुआ। मेरी शायरी के बाद इमरान ने बोलना शुरू किया। बार बार अपनी शायरी में मेरा जिक्र किया कि इन्होंने यह कहा, इन्होंने ऐसा कहा और मैं यह कहना चाहता था। इमरान के फैन्स ने, जिन्होंने जब बार-बार मेरा नाम सुना तो उनमें से बहुत सारे लोगों ने यूट्यूब पर ढूंढ ढूंढ कर मेरा वीडियो बार बार देखा और सोशल मीडिया के द्वारा मेरे तथा मेरी शायरी के बारे में अच्छी तरह से जाना। तमाम लोग मुझसे मिलने आए। उनसे मैंने पूछा कि इतने लोग मुझे यहां कैसे जानते हैं तो उन्होंने बताया कि इमरान प्रतापगढ़ी ने आपका इतना अधिक जिक्र किया कि जिज्ञासावश लोगों ने सोशल मीडिया पर आपके वीडियो एवं रचनाएं ढूंढ-ढूंढ कर देखी, जिससे आप उनके जेहन मे बस गये। सऊदी जैसे देश में शायरी करना, बहुत मुश्किल काम है। अगर आपका एक लफ़़्ज़ गलत हो गया तो कोई भी कार्रवाई हो सकती है। यह मैं काफी पहले की बात बता रहा हूं। वहां काफी संभल के बोलना पड़ता है कि ऐसी कोई बात नहीं निकल जाय कि वहां की जो इंटलजेंसियां होती है वो आप पर कोई आरोप लगा दें।

सवाल:  मंचीय मुशायरों पर हो रही चुटकले बाजी दोअर्थी शब्दों के प्रयोग पर आप का क्या दृष्टिकोण है

जवाब:  हां, आप ठीक कह रहे हैं कि स्तर गिरता जा रहा है, ऐसा मैं मानता हूं,  लेकिन आज का युग ऐसा हो गया है कि किसी को शुद्ध घी खिला देने से आदमी बीमार पड़ जाता है। थोड़ा सा नमक मिर्च तो चलता है परंतु कभी-कभी उसमें जो फूहड़पन आ जाता है वो गलत है। उसमें मंचीय कवि या शायर भले ही वो चुटकुलेवाला क्रियेटर है उसका अपना एक सम्मान होना चाहिए। उसको अपने सम्मान को एक सीमा से नीचे नहीं गिराना चाहिए।  आर्गनाइजर को भी देखना चाहिए। अगर आप किसी भी कवि सम्मेलन के अर्थशास्त्र को देखें तो कुछ लोग ऐसे मिल जाते हैं, जो कहते हैं कि आप अमुक कवि को बुलाओ तो हम फंड की व्यवस्था कर देंगे। अगर दो अर्थी शब्द भी ओरिजनल है, क्रिएटिव है आदमी का, उसे सुना सकता है, बाकी अभद्रता की भी एक सीमा होनी चाहिए। सीमा के बाहर अभद्रता नहीं। किसी की खूबसूरती की तारीफ ज़रूरत से ज्यादा, एक जो लकीर होती है उससे आगे बढ़कर, अगर आपने थोड़ा सा गलत शब्द इस्तेमाल कर किया तो अश्लील हो जाएगी।

सवाल: वर्तमान दौर में जबकि छंदमुक्त कविताओं ने हिंदी साहित्य में अपनी मजबूत पकड़ बना ली है तब कविता की संरचना में छंदो की उपयोगिता पर आपका क्या विचार है ?

जवाब: छंद मुक्त कविता को मैं बहुत ज्यादा साहित्यिक नहीं मानता हूं। हालांकि छंदमुक्त में भी बहुत अच्छी कविताएं लिखी गई हैं, एक से एक अच्छी कविता लिखी गई हैं जैसे निराला की कविता- वह आता--

दो टूक कलेजे को करता, पछताता

पथ पर आता।

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,

चल रहा लकुटिया टेक’

निराला जी की यह कविता उच्चकोटि की साहित्यिक कविता है। अगर छंदमुक्त कविता बहुत उच्च कोटि की है तो चलेगी अन्यथा नहीं। मंच के सामने बैठे हुए आम श्रोताओं में से कुछ गीत समझते हैं, कुछ शायरी, गजल समझते हैं। छंदमुक्त कविता एकेडमिक दृष्टिकोण से तो ठीक है परंतु मंचीय दृष्टिकोण से अगर देखा जाय तो अगर छंदमुक्त कविता में व्यक्तिगत परफार्मेंस बहुत ज्यादा रहेगी तो ही चलेगी। छंदीय कविता तो सब के अंदर होता है। बिना गेयता के कविता बन ही नहीं सकती। कवि मूलतः एक गीतकार ही होता है। गा सके या न गा सके यह अलग बात है।

सवाल: समाज में मानवीयता और सौहार्द बनाए रखने में कविता/ग़ज़ल का क्या किरदार हो सकता है ?

जवाब:  बहुत बड़ा किरदार है और मैं एक लाइटर मोड में  यह भी कहना चाहूंगा कि हम सब लोग यह कहते हैं कि गंगा-जमुनी सभ्यता होना चाहिए तो हम प्रयासरत रहते हैं कि सभ्यता के विरोधी अपना काम न कर जाएं। हृदय को स्पर्श करके, मन को स्पर्श करके, सच्चाई को बयान करके, यह सौहार्द बना रहे और बहुत ज्यादा मामलों में यह सौहार्द बना भी रहता है। इसका एक पहलू यह भी है कि जब हम शांति सभा की मीटिंग करते हैं, अलग अलग स्थितियों में, तो आप देखिए कि दो लाइन में कही गई बात, कितना असर डालती है। अब तो विधानसभा, लोक सभा और हर लोक पटल पर शायरी का अपना एक महत्व हो गया है। कविता डिलीवर तो करती है, कनेक्ट भी करती है। समाजिक सौहार्द में कविता का बहुत बड़ा रोल है।

सवाल:  नौजवानों में हिंदी साहित्य के पठन-पाठन एवं सृजन के प्रति निरंतर घटते रुझान के संबंध में आपको क्या महसूस होता है ?

जवाब:  बड़ी विडंबना है कि हमने हिंदी साहित्य को अर्थशास्त्र से नहीं जोड़ा। हम इसको अर्निंग (धनोपार्जन) का स्रोत नहीं बना सके। अभी हमने एक यूनिवर्सिटी से रिक्वेस्ट किया था कि आप इवेंट मैनेजमेंट में कविता, शायरी, गजल को प्रेजेंटेशन में शामिल करते हुए, मंच संचालन आदि पर एक प्रोजेक्ट बनाएं और अगर देखा जाए तो इसमें बहुत अर्निंग स्कोप भी है। अगर हम किसी तरह से हिंदी साहित्य को अर्थशास्त्र (धनोपार्जन) से जोड़ दें, तो इसकी उपयोगिता स्वतः बढ़ जायेगी। हम खेल में एक अच्छे खिलाड़ी को रिजर्वेशन देते हैं परंतु एक साहित्यकार को नहीं। क्रिएटर (रचनाकार) को नहीं देते। अभी इस पर हम धीरे-धीरे जागरूक हो रहे हैं। जितने भी हमारे वेद, पुराण, पुरानी पुस्तकें हैं जिन पर आज विदेशों में रिसर्च चल रही है, उसको पढ़ाने के लिए ही अलग से व्यवस्था की जा रही है। चरक को पढ़ लीजिए तो बड़े बड़े डाक्टर फेल हो जाएं। साहित्य मे जो बात कह दी गई हैं वहां तक हमारा विज्ञान, आज की भाषाएं पहुंच नहीं सकती। फिर कमी कहां रह गई कि अभी भी हम इसको अर्थ से नहीं जोड़ पाए। जिस दिन साहित्य, अर्थ से जुड़ना शुरू होगा, लोग साहित्य पढ़ना शुरू करेंगे और इसके लिए कुछ करना पड़ेगा इसके लिए मौलिक सोच एवं कार्य चाहिए।


(गुफ़्तगू के अक्तूबर-2023 अंक में प्रकाशित)


शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

 गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2023 अंक में




4. संपादकीय  ( खुद का अचारण पहले ठीक करें )

5-6. देश के अधिकतर मीडिया संस्थानों ने बेचे हैं अपना इमान - अनिल भास्कर

7-9. मंच पर काबिज हैं कविता के हत्यारे - यश मालवीय

10. तपते रेगिस्तान पर पहली बारिश की फुहार - डॉ. मधुबाला सिन्हा

11-20. ग़ज़लें  (मुनव्वर राना, आबिद बरेलवी, डॉ. लक्ष्मण शर्मा ‘वाहिद’, अरविन्द असर, खुरशीद खैराड़ी, शादाब शब्बीरी, शैलेंद्र जय, सरफ़राज अशहर, डॉ. राकेश तूफ़ान, मासूम रज़ा राशदी, शिवसागर ‘सहर’, धर्वेन्द्र सिंह ‘बेदार’, नियाज़ कपिलवस्तुवी, नवीन माथुर पांचोली, डॉ. सगीर अहमद सिद्दी़क़ी, इंदु मिश्रा ‘किरण’, डॉ. शबाना रफ़ीक़, मंजुलशरण मनु, धीरेंद्र सिंह नागा, मधुकर वनमाली)

21-24. कविताएं  ( अंशु मालवीय, डॉ. वीरेंद्र कुमार तिवारी, मधुबाला सिन्हा, अरुणिमा बहादुर खरे, ऋतिका रश्मि, केदारनाथ सविता, सीमा शिरोमणि )

25-29. इंटरव्यू: सामाजिक सौहार्द में कविता का बहुत बड़ा रोल - डॉ. अखिलेश मिश्र

30-36. चौपाल: वर्तमान समय में मीडिया की भूमिका

37-42. तब्सेरा 21वीं सदी के इलाहाबादी, प्रीति धारा, अब और नहीं, रोजनामचा, राबर्ट गिल पारो

43-44. उर्दू अदब  मौलवी अली हुसैन आसिम बिहारी, नक़्श-ए-नव

45-46. गुलशन-ए-इलाहाबाद: फ़रमान अहमद नक़वी

47-48. ग़ाज़ीपुर के वीर: डॉ. सय्यद महमूद

49-53. अदबी ख़बरें

54-83. परिशिष्ट: कामिनी भारद्वाज

54. कामिनी भारद्वाज का परिचय

55. अंतर्मिहित उद्देश्यों को समाहित करती कविताएं - डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’

56-58. जीवन के विविध रंगों की चितेरी कामिनी -  रचना सक्सेना

59-60. विविध आयामों को दर्शाती कविताएं - शिवाजी यादव

61-83. कामिनी भारद्वाज की कविताएं

परिशिष्ट - 2: एस. निशा सिम्मी    84-113

84. एस. निशा सिम्मी का परिचय

85-86. कविताई में खुश्बू बिखेरता फूलों का गुलस्ता-  शिवाशंकर पांडेय

87. कोमल मनोभावों को प्रभावित करता काव्य - शगुफ्ता रहमान

88. खूबसूरत ख़्यालों से परिपूर्ण शायरी - साजिद अली सतरंगी

89-113. एस. निशा सिम्मी की कविताएं

114-144. परिशिष्ट-3: सम्पदा मिश्रा

114. सम्पदा मिश्रा का परिचय

115-116. खूबसूरती से उकेरी गई कविताएं - डॉ. मधुबाला सिन्हा

117-118.  सिलसिलेवार ढंग से अभिव्यक्त होती कविताएं- शैलेंद्र जय

119-121. कविताओं में मनन और चिंतन - नीना मोहन श्रीवास्तव

122-144. एस. निशा सिम्मी की कविताएं




रविवार, 15 दिसंबर 2024

चराग़-ए-अश्क़-ए-अज़ा कर्बला का नज़राना

                                                           - डॉ. वारिस अंसारी 


  

 शायरी की बहुत सी सिंफे हैं, लेकिन इन सिंफों में सबसे कठिन सिन्फ़ ही मर्सिया/नौहा है। मर्सिया कहने में ज़रा भी चूक हुई तो आप कुफ्र की हद में जा सकते हैं और शान-ए-अहले बैअत का भी ख़याल रखना है। डॉ. सय्यद ज़फर हसनैन ज़फर अहिरौलवी ने अपनी किताब ‘चराग़-ए-अश्क-ए-अज़ा’ में इस बात का पूरा ख़्याल रखा है। ज़फर अहिरौलवी में अपना क़लम चलाया तो चलाते ही चले गए। उन्होंने क़सीदा सलाम और नौहा ख़्वानी के वह जौहर दिखाए हैं, जो दूर-दूर तक देखने को नही मिलते। उन्होंने अशआर में सिर्फ काफ़िया पैमाई नहीं कि बल्कि हक़ीक़त को समोया है। उनके अशआर में दर्द है सोज़ है। उनके अशआर पढ़ने पर ऐसा लगता है कि कर्बला का वह दर्दनाक मंज़र नज़र के सामने है और दिल एक कर्ब में डूब जाता है। आंखों से आंसू जारी हो जाते हैं। ज़फर अहिरौलवी की शायरी में वह सारी खूबियां मौजूद हैं, जो एक शायर में होनी चाहिए। उनके यहां नफ़्स भी शराफ़त दर्दमंदाना दिल और खुश अखलाकी ख़ूब-ख़ूब देखने को मिलती है और ये सब इसलिए भी देखने को मिलेंगा क्योकि वह अहले-बैअत की मोहब्बत में गुरवीदह हैं। उनकी फिक्र में बड़ी बलन्दी है जो उन्हें दूसरे शायरों से मुनफ़रिद बनाती हैं। आइये उनकी इस किताब से कुछ अशआर भी मुलाहिजा करते चलें-

                  सज़दे के इंतेसाब में पर्दे के बाब में,

                  भाई का सर बहन की रेदा यादगार है।


                  ये पूछिए रसूल से सज़्दे के तूल से,

                  कितनी अज़ीम सिब्ते पयंबर की ज़ात है।


                  फर्श ए अज़ा पे होते हैं वह अंजुमन के लोग, 

                  देते है फात्मा को जो पुरसा खड़े खड़े।

                  

                  पानी को मुंह लगाते नही ज़िन्दगी में वह, 

                  जो खून से बनाते है काबा खड़े खड़े।


                  कर चुका काम जब अपना रगे गर्दन का लहू, 

                  मुस्कुराते हुए मैदान से असग़र निकलें।

पूरी किताब ‘चराग़-ए-अश्क़-ए-अज़ा’ में ऐसे एक बढ़कर एक बालातर अशआर मौजूद हैं जिनको पढ़कर दिल मोहब्बत ए अहले बैअत में ग़र्काब हो जाता है। इस हसीन तोहफे के लिए शायर काबिल-ए-मुबारकबाद हैं। खूबसूरत हार्ड कवर के साथ किताब में 306 पेज हैं जिसकी कीमत रुपये में नहीं बल्कि मरहूमा असग़री बेगम बिन्त ए सज्जाद हुसैन के ईसाल ए सवाब के लिए एक सूरह फातेहा है। किताब को मजहबी दुनिया इलाहाबाद से प्रकाशित किया गया है।


बच्चों की ज़हनी सलाहतों के अदीब शुजाउद्दीन 

  



अदीब होना ही अपने आप में एक कमाल है। खुदा की अनगिनत नेमतों में से ये भी एक अज़ीम नेमत है, लेकिन बच्चों का अदीब होना और भी बड़ा कमाल है। आज बच्चों के अदीब या शाइर इतने हैं कि उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। उर्दू अदब के इन चंद अज़ीम लोगों में शुजाउद्दीन शाहिद का नाम सबसे ऊपर है। शाहिद आज किसी परिचय (तअरुफ) के मोहताज नहीं हैं। बच्चों के अदब के साथ-साथ ग़ज़लगोई में भी उनका नुमाया नाम है। वह बच्चों के ज़हनी सलाहियतों को बखूबी समझते हैं और अपनी शायरी से हर उम्र के बच्चों को मुतास्सिर (प्रभावित) करने की सलाहियत रखते हैं। जिससे उनकी शायरी बच्चों के ज़हनो में हिफ्ज (कंठस्थ) हो जाती है। ‘आओ छू लें चांद सितारे’ नामक इनकी किताब बच्चों की नज़्मों का मजमूआ (संग्रह) है। जिसमें वह बच्चों की ज़ह्नी सलाहियतों को उजागर करते नजर आते हैं। वह अपनी नजरों में दुनियावी चीज़ों, साइंस, टेक्नोलोजी और दीनी तखलीक (रचना) से बच्चों के जेहन को तरो ताज़ा करते हैं।  आसान ज़बानी उनके नज़्मों की खास खूबी है। जिससे बच्चों को पढ़ने और समझने में आसानी होती है और बच्चे अपने आप को बोझिल भी नहीं महसूस करते। आइए उनकी नज़्मों से कुछ अशआर भी पढ़ते चलें- ‘बच्चों राकेट नाम है मेरा/उड़ना ख़ला में काम है मेरा/जब भी ख़ला में जाता हूं मैं/राज़ नए दिखलाता हूं मैं।’, ‘ये जो नद्दी नाले हैं/ जीवन के रखवाले हैं/ मेरी अम्मी कहती है/ये अमृत के प्याले हैं।’, ‘जहां अब्बू अम्मी को हम देखते हैं/ खुदा का करम ही करम देखते हैं।’ 

 शाहिद ये बात जानते हैं कि हमारे बच्चों को साइंस और टेक्नोलॉजी की बहुत ज़रूरत है इसी लिए वह ऐसी मौजूआती नज़्मों की तखलीक करते हैं। जिससे बच्चों की ज़हनी सलाहियत में इजाफा (बढ़ोत्तरी) होता रहता है और बच्चों का मनोरंजन भी। यही वजह है कि शुजाउद्दीन शाहिद की किताब ष्आओ छू लें चांद सितारेष् बच्चों के लिए अदबी दुनिया की नायाब किताब है। खूबसूरत बाइंडिंग के साथ इस किताब ने 104 पेज हैं। जो कि 2022 में जागृति आफसेट बाय कल्ला मुंबई से कंपोज हो कर न्यूज टाउन पब्लिशर्स मुंबई से शाया ( प्रकाशित) हुई है। किताब की कीमत सिर्फ 100 रुपए है।


आईना-ए-हयात है ‘हर्फ हर्फ आईना’




                  ज़िंदगी क्या है इस हकीकत का, 

                  होते -होते  शऊर    होता   है। 

  ये एक शे’र ही सरफराज़ हुसैन फ़राज़ की अदबी सलाहियातों को समझने के लिए काफी है कि उन्होंने समाज और रोज़ मर्रा की ज़िंदगी में आने वाले मसाइल को करीब से देखा और समझा है। ‘हर्फ-हर्फ आईना’ फ़राज़ का दीवान है। जिसको सुलैमान फ़राज़ हसनपुरी ने काफिया की हुरूफ ए तहज्जी से बड़े सलीके के साथ तरतीब दिया है। सरफराज़ हुसैन से मेरा कोई ज़ाती तअल्लुक नहीं और न ही मेरी उनसे कोई गुफ्तगू हुई। लेकिन उनका दीवान पढ़ कर दिल बाग-बाग हो गया। दीवान पढ़ कर ऐसा महसूस हुआ कि सचमुच फ़राज़ जैसे लोग ही उर्दू के सच्चे अलम्बरदार हैं, क्योंकि उर्दू के नाकेदीन से तो कोई उम्मीद वाबस्ता नहीं रही, वह जिसे चाहें आसमान की बुलंदी पर पहुंचा दें और जिसे चाहें ज़मीन के तह में दफ्न कर दें खैर.... जो सच है जिसके यहां अदबी सलीका है वह कहीं भी रहेगा अपनी चमक से दुनिया ए अदब को रौशन करता रहेगा। सरफराज़ हुसैन फ़राज़ ऐसे ही अदीब हैं जिनकी शायरी में मीर का दर्द, ग़ालिब की हुस्न सुलूकी और इकबाल की फिक्र भी मौजूद है। उनकी शायरी का लब ओ लहजा मुंफरिद है। उन्होंने अपनी ग़ज़लों में नए मौजूआत को भी बड़े सलीके से बरता है। उनकी शायरी में बनावट बिल्कुल नहीं है। वह इतनी सफगोई से शे’र कहते हैं कि उनका हर शे’र आईना नज़र आता है। आइए उनके कुछ अशआर भी मुलाहिज़ा करते चलें-

              आंखों का उनकी ख्वाब ये सच्चा नही हुआ। 

              बीमार उनका आज भी अच्छा नहीं हुआ। 


               रहते थे साथ मेरे रकीबों के जो कभी, 

               मुझ पर लूटा रहे हैं दिलो जान देखो आज। 


                सवालों में गड़बड़ जवाबों में गड़बड़।

               वो अब कर रहे हैं किताबों में गड़बड।़ 


                 सब हैं हमदर्द बस तुम्हारे ही, 

                 कोई भी अपना गमगुसार नही।ं 


                 इक नजूमी ने बताया है फ़राज़,

                 ख़्वाब में ज़र देखना अच्छा नहीं। 

 कुल मिलाकर इनका पूरा मजमूआ पढ़ने लायक है और ये दीवान यकीनन उर्दू अदब में एक इज़ाफ़ा है जो रहती दुनिया तक कायम रहेगा। 320 पेज के इस दीवान को खूबसूरत हार्ड जिल्द में बांधा गया है। रोशन प्रिंटर्स देहली से किताबत हुई और एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस दरिया गंज देहली से शाया (प्रकाशित ) किया गया है। दीवान में उम्दा किस्म के काग़ज़ का इस्तेमाल हुआ है जिसकी कीमत सिर्फ 400 रुपए है।


(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2023 अंक में प्रकाशित )


शनिवार, 14 दिसंबर 2024

 शोध करने वालों के लिए ख़ास किताब

                                                - अशोक अंजुम

           


                           

  यूं तो इम्तियाज अहमद गाज़ी के ख़ुद के लेखन के साथ-साथ अनेक पुस्तकें उनके संपादन में निकली हैं। अब उनकी एक नई किताब ‘21वीं सदी के इलाहाबादी’ नाम से प्रकाशित हुई है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है प्रस्तुत पुस्तक में इलाहाबाद की 106 उन प्रतिष्ठित हस्तियों का परिचय है, जिन्होंने वर्तमान में इलाहाबाद को एक विशेष पहचान दी। पुस्तक में संग्रहीत इलाहाबादी वे विशिष्ट व्यक्तित्व हैं जिनका या तो जन्म इलाहाबाद में हुआ है या जिनका कार्यस्थल इलाहाबाद रहा है। श्री गाज़ी ने किताब की भूमिका में स्पष्ट कर दिया है के 21 वीं शताब्दी से पहले के महत्वपूर्ण इलाहाबादी लोगों के बारे में पहले भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है, अतः इस किताब में सिर्फ़ उन लोगों को शामिल किया गया है जो 21वीं शताब्दी में हैं, या रहे हैं। जिन लोगों का निधन सन् 2000 से पहले हो चुका है उनको इस पुस्तक में नहीं रखा गया है।

 इम्तियाज अहमद गाज़ी स्वयं एक साहित्यकार हैं, विशेष रुप से उर्दू शायरी में अपना एक विशेष मुकाम रखते हैं, इसलिए लग सकता है कि इन्होंने इलाहाबाद के साहित्यकारों पर ही पुस्तक को केंद्रित रखा होगा, लेकिन वे साहित्यकार के साथ-साथ एक समर्थ पत्रकार भी हैं। इसलिए साहित्य के साथ संगीत, रंगमंच, चिकित्सा, फ़िल्म, खेल, पत्रकारिता, राजनीति आदि क्षेत्रों से चुने हुए विशिष्ट लोगों को भी इस पुस्तक में संजोया है। पुस्तक में साहित्यकारों की बात की जाए तो लक्ष्मीकांत वर्मा, अमरकांत, डॉ. जगदीश गुप्त, शम्सुर्रहमान फारुकी, सैयद अक़ील रिज़वी, डॉ मोहन अवस्थी, मार्कंडेय, नरेश मिश्र, अजीत पुष्कल, कैलाश गौतम, रामनरेश त्रिपाठी, दूधनाथ सिंह, हरीश चंद्र पांडे, डॉ ज़मीर अहसन, नीलकांत, फ़ज़्ले हसनैन, अली अहमद फातमी, श्रीप्रकाश मिश्र, नासिरा शर्मा, रमाशंकर श्रीवास्तव, यश मालवीय, रविनंदन सिंह, डॉ. नायाब बलियावी आदि के नाम आते हैं। कानून की दुनिया से न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त, न्यायमूर्ति गिरिधर मालवीय, वी.सी. मिश्र और एस.एम.ए. काज़मी आदि और राजनीति से केसरीनाथ त्रिपाठी, डॉ. नरेंद्र कुमार सिंह गौर, कुंवर रेवती रमन सिंह, श्यामाचरण गुप्ता, अनुग्रह नारायण सिंह आदि। शिक्षा जगत से डॉ जगन्नाथ पाठक, लाल बहादुर वर्मा। फिल्म जगत से अमिताभ बच्चन, समाज सेवा से स्वामी हरिचौतन्य ब्रह्मचारी, सरदार अजीत सिंह पप्पू, लक्ष्मी अवस्थी आदि हैं। चिकित्सा जगत से पद्मश्री डॉ राज बवेजा, डॉ. कृष्णा मुखर्जी, डॉ. एस एम सिंह, डॉ .तारिक महमूद, डॉ पीयूष दीक्षित, डॉ प्रकाश खेतान, डॉ राजीव सिंह वगैरह। संगीत की दुनिया से रवि शंकर, मनोज कुमार गुप्ता, डॉ. रंजना त्रिपाठी आदि। पत्रकारिता की दुनिया से वी. एस. दत्ता, सुशील कुमार तिवारी, धनंजय चोपड़ा, प्रेम शंकर दीक्षित, मुनेश्वर मिश्र, रामनरेश त्रिपाठी, मानवेंद्र प्रताप सिंह, शरद द्विवेदी आदि। रंगमंच से अतुल यदुवंशी, डॉ अनीता गोपेश और मूंछ नृत्य के लिए गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में अपना नाम दर्ज करा चुके राजेंद्र कुमार तिवारी उर्फ़ ‘दुकान जी’ हैं।

  खेल जगत की बात करें तो क्रिकेट से मोहम्मद कैफ, उबैद कमाल और यश दयाल, शतरंज से पी.के चट्टोपाध्याय, स्क्वैश से दिलीप कुमार त्रिपाठी, वालीबॉल से प्रभात कुमार राय, बैडमिंटन से अभिन्न श्याम गुप्ता, हॉकी से पुष्पा श्रीवास्तव, दानिश मुज्तबा, जिमनास्टिक से आशीष कुमार आदि हस्ताक्षर हैं। किताब को हर लिहाज से संपूर्ण तो नहीं कहा जा सकता, कुछ नाम छूट गए, शायर भाग-2 में इसकी पूर्ति संभव हो। लेखक ने बहुत ही श्रमसाध्य कार्य किया है, इसमें दो राय नहीं। इलाहाबाद पर शोध करने वालों के लिए यह पुस्तक निश्चित रूप से यह नायाब तोहफ़ा है। 

 अंत में किताब की भूमिका के अंतर्गत नासिरा शर्मा जी के शब्दों में कहूंगा कि- ‘इम्तियाज गाज़ी साहब खुद शायर हैं इसलिए उनके दिल में दूसरे लिखने वालों के लिए आदर और सम्मान है। क्योंकि वह पत्रकार भी हैं और संस्थापक ‘गुफ़्तगू’ हैं, तो पत्रकारिता भी उनके मिज़ाज में मौजूद है, जिसकी वजह से उन्होंने इस काम का बीड़ा उठाया। मुझे विश्वास है कि जल्द ही भविष्य में वह इलाहाबाद पर एक और अंदाज़ से कुछ नयी और ज़रूरी किताब सामने लाएंगे। मेरी शुभकामनाएं हमेशा की तरह इस बार भी उनके साथ हैं। 240 पेज की इस सजिल्द पुस्तक को गुफ्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 500 रुपये है।


इफ़को की सफलता के सूत्रधार की जीवनी

                                                         - अजीत शर्मा ‘आकाश’

         


                                     

  किसी लेखक द्वारा व्यक्ति विशेष के जीवन वृत्तान्त के साहित्यिक लेखन को जीवनी (बायोग्राफी) कहा जाता है। जीवनी में उस व्यक्ति विशेष के जीवन की वास्तविक कहानी होती है, जिससे पाठक को परिचित कराया जाता है। यह प्रामाणिक तथा सम्यक जानकारी पर आधारित होती है। इसमें उस व्यक्ति के गुण दोषमय व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति होती है। ‘संघर्ष का सुख’ शीर्षक पुस्तक उर्वरक उद्योग की ख्यातिलब्घ सहकारी संस्था ‘इफ़को’ की सफलता के सूत्रधार डॉ. उदय शंकर अवस्थी के जीवन कर्म पर केन्द्रित है, जिसके लेखक अभिषेक सौरभ हैं। इस पुस्तक में लेखक ने अवस्थी के निजी और पेशेवर जीवन को लिपिबद्ध करने का प्रयास किया है, जिसके अंतर्गत अवस्थी के जीवन की सभी छोटी-बड़ी घटनाओं एवं उनके संघर्षों का विस्तारपूर्वक चित्रण करते हुए उनके विषय में यथासम्भव सभी तथ्यों की जानकारी प्रदान की है। पुस्तक को सथनी से बनारस, मंज़िल की तलाश, सहकारिता के संग, इफ़को की कमान, इक्कीसवीं सदी, सशक्त सहकारिता का नया अध्याय, सहकारिता के शिखर पर इफ़को, नैनो उर्वरक, ज़माने से आगे, अनुभव एवं उपसंहार-इन 11 खण्डों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक खण्ड में अनेक उप खण्ड भी हैं। इसमें बताया गया है कि अवस्थी अपनी जीवन-यात्रा के दौरान सम्मुख आयी चुनौतियों का निर्भीकतापूर्वक सामना करते हुए किस प्रकार अपने कर्तव्य पथ पर निरन्तर आगे बढ़ते रहे हैं। राजीव गांधी से लेकर नरेन्द्र मोदी तक 9 प्रधानमंत्रियों तथा 36 मंत्रियों के शासन में सार्वजनिक क्षेत्र के मुख्य कार्यकारी अधिकारी एवं एक कुशल प्रबंधक के रूप में अवस्थी ने अपनी सम्पूर्ण क्षमता का प्रदर्शन किया है। वे 41 वर्ष की उम्र में भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के सबसे कम उम्र के सीएमडी बने। उनके विषय में बताया गया है कि वह जब एक बार कुछ करने का मन बना लेते हैं, तो चाहे परिस्थितियां कैसी भी विकट क्यों न हों, वे कभी पीछे नहीं हटते हैं। अपने कार्य-व्यवहार में उन्होंने सदैव सभी के प्रति पूर्ण निष्पक्षता एवं सद्व्यवहार का परिचय प्रदान किया। अपनी जानकारी एवं कुशल नेतृत्व क्षमता के बल पर वह कॉरपोरेट जगत में लीडर बने। अवस्थी के जीवन की अनेक उपलब्धियां हैं, जिनमें से प्रमुखतम उपलब्धि यह है कि उन्होंने 01 अगस्त, 2021 को विश्व का पहला नैनो उर्वरक ‘इफ़को नैनो-डीएपी (तरल)’ प्रस्तुत किया तथा 20 अक्टूबर, 2022 को पूरे विश्व के लिए इस क्रान्तिकारी उत्पाद का व्यावसायिक स्तर पर उत्पादन प्रारम्भ किया।

   अवस्थी के एक भाषण में व्यक्त किये गये विचारों से उनका जीवन-दर्शन एवं जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टि का परिचय प्राप्त होता है। इस भाषण के कुछ उल्लेखनीय अंश हैं- ‘‘एक साल बीतता है, दूसरा साल शुरू होता है। इस बीतने और शुरू होने के बीच एक कड़ी होती है। और वह कड़ी होती है हम लोगों का संकल्प, हमारा प्रयास, और लगातार उस संकल्प पर काम करने की इच्छा। यह इच्छाशक्ति ही है जो किसी देश को, किसी समाज को और किसी संस्था को ऊँचाई की तरफ़ ले जाती है। हमें सदैव सजग रहना है। हमें हर समय अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करते रहना है।......... हमारे सामने चुनौतियां और अवसर दोनों हैं।’’

 ‘राग दरबारी’ के रचनाकार और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित सुप्रसिद्ध कथाकार पद्मभूषण श्रीलाल शुक्ल जी अवस्थी के श्वसुर थे, जिनके 40 वर्षों के सान्निध्य से वह अत्यन्त प्रभावित रहे। अवस्थी को साहित्य एवं कला के प्रति भी अत्यन्त अनुराग था। उनके प्रयासों से इफ़को बोर्ड द्वारा श्रीलाल शुक्ल की स्मृति में 2011 में ‘श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफ़को साहित्य सम्मान’ की स्थापना की गयी। यह सम्मान प्रति वर्ष हिन्दी के एक ऐसे लेखक को दिया जाता है जिसकी रचनाओं में ग्रामीण और कृषि जीवन का चित्रण किया गया हो। इसमें पुरस्कार के तहत ग्यारह लाख रुपये की सम्मान राशि, प्रशस्ति-पत्र और स्मृति चिह्न प्रदान किया जाता है। पुस्तक के विषय में यह भी कहना है कि पुस्तक में जीवनीकार ने कुछ अन्य पक्ष को नज़रअन्दाज़ किया है, जिससे उसके चरित्र में कृत्रिमता सी परिलक्षित होती है। इसके अतिरिक्त कुछ अनावश्यक घटनाओं का विवरण प्रस्तुत करने से भी पाठक को कहीं-कहीं बोझिलता एवं उबाऊपन की अनुभूति होने लगने लगती है। जीवनीकार द्वारा यदि इन तथ्यों को दृष्टिगत रखा गया होता, तो पुस्तक में और अधिक रोचकता एवं स्वाभाविकता परिलक्षित होती। आशा है कि आगामी संस्करण में इन पक्षों पर भी ध्यान दिया जाएगा।

  पुस्तक के मध्य में उनके जीवन से सम्बन्धित अनेक फ़ोटो हैं, जिनमें राजीव गांधी से लेकर नरेन्द्र मोदी तक अनेक राजनेताओं तथा माननीय राज्यपाल, उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति, एवं अनेक मंत्रियों द्वारा तथा सर्वाेच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा उनकी उपलब्धियों के लिए सम्मानित एवं पुरस्कृत किये जाते हुए दर्शाया गया है। राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का मुद्रण, गेटअप एवं साज-सज्जा अत्यन्त उच्च कोटि की है। 294 पृष्ठों की इस सजिल्द पुस्तक का मूल्य 795 रूपये है।


 वर्तमान सामाजिक परिवेश की कहानियां


लेखक प्रमोद दुबे के कहानी-संग्रह ‘घोंसला’ में सामाजिक परिवेश से जुड़ी 44 कहानियां संग्रहीत हैं, जिनके माध्यम से विविध स्थितियों, परिस्थितियों एवं सामाजिक विसंगतियों का यथार्थ का चित्रण करने का प्रयास किया गया है। इनकी विषय वस्तु में सामाजिक कुरीतियों, गिरते हुए मानव मूल्यों एवं बिगड़ते हुए वर्तमान परिवेश को दर्शाने का प्रयास किया गया है और सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त अनेक विसंगतियों को पाठक के समक्ष लाने की चेष्टा की गयी है। एक अच्छे समाज के निर्माण हेतु कहानीकार द्वारा किया गया प्रयास इनमें परिलक्षित होता है।

 गद्य की अन्य विधाओं की भांति हिन्दी कहानी भी आधुनिक युग की देन है। साहित्य की इस रोचक विधा में अधिकतर पाठकों की रूचि होती है। कारण यह कि रूचिकर कथानक, अच्छे संवाद एवं आसपास के ही पात्र एवं उनका चरित्र चित्रण उन्हें भाता है। इसके अतिरिक्त कहानी एक ही बैठक में पढ़ ली जाती है, जबकि उपन्यास, आख्यानों एवं महाकाव्यों को पढ़ने के लिए अधिक समय की आवश्यकता होती है। लेकिन एक कुशल कहानीकार अपनी कहानी में पात्रों के माध्यम से वह सब कुछ कह जाता है, जो पाठक के मन को आनन्दित करता है। वह पाठकों को अपनी कहानी के साथ निरन्तर बांधे रखता है। संग्रह की भूमिका के अन्तर्गत लेखक का यह कथन कि ‘‘मुझे कहानी लेखन की विधा नहीं आती है।’’ उसे एक रचनाकार के दायित्व से मुक्त नहीं कर देता है। वास्तविकता तो यह है कि महान से महान रचनाकार को भी प्रारम्भ में लेखन विधा नहीं आती है, किन्तु समर्पित होकर स्वाध्याय तथा मनन-चिन्तन द्वारा अपनी विधा में अधिकाधिक ज्ञान अर्जित कर एक दिन वह महान रचनाकार बन जाता है।

 ‘घोंसला’ संग्रह की कहानियां विविध मनोभाव लिए हुए हैं, जिनमें मानवीय संवेदनाओं को स्पर्श करने का प्रयास किया गया है। कुछ कहानियां घटना प्रधान एवं चरित्र प्रधान हैं, तो कुछ वातावरण प्रधान एवं भाव प्रधान हैं। कहानियों के पात्र देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार निर्मित किये गये हैं। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘घोंसला’ पक्षियों और पर्यावरण की चिन्ता को लेकर लिखी गयी है। संग्रह की कहानियां आज के परिवेश तथा वातावरण की हैं जिनका कथानक रिश्तों में भ्रम, ज़िंदगी की कश्मकश, अत्यधिक महत्वाकांक्षा, परम्परागत वैवाहिक संस्था की कमियां, प्रेम विवाह का अनिश्चित भविष्य, अशिक्षा, जातिवाद और अन्तहीन संघर्ष जैसे विषयों को अपने में समेटे हुए हैं। विषयवस्तु समसायिक होने के कारण रूचिकर प्रतीत होती है। कुल मिलाकर सामाजिक विषयों को उठाने एवं समाज को जागृत करने के उद्देश्य से लिखी गयी ये कहानियाँ सराहनीय कही जायेंगी। संग्रह को पढ़ा जा सकता है। गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित 112 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 150 रूपये है।

सृजनात्मकता को उजागर करती कविताएं


डॉ. मधुबाला सिन्हा के ‘ढाई बूंद’ कविता-संग्रह में 41 रचनाएं सम्मिलित हैं, जिन में प्रमुख रूप से प्रेम के उदात्त मनोभावों को अभिव्यक्ति प्रदान करते हुए वर्तमान सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहलुओं को उभारने की चेष्टा की है। संग्रह की कविताएं सामान्य स्तर की हैं। वर्ण्य विषय की दृष्टि से इन रचनाओं में श्रृंगार एवं प्रणय, वर्तमान समाज का चित्रण, जीवन की अनुभूतियों तथा संवेदनाओं, सामाजिक यथार्थ एवं सामाजिक सरोकार, स्त्री के भीतर की कोमल भावनाएँ, तथा आम आदमी की व्यथा आदि को स्पर्श करते हुए दुख-दर्द एवं विषाद को भी समेटने का प्रयास किया गया है। रचनाओं में यत्र-तत्र जीवन में बिखरे हुए अन्य अनेक रंग भी सामने आते हैं। संग्रह की अधिकतर रचनाएँ संयोग एवं वियोग श्रृंगार विषयक हैं। 

 कविताओं में प्रेम के विभिन्न पक्षों, संबंधों, विसंगतियों तथा व्यक्त और अव्यक्त प्रेम की अभिव्यक्तियों का चित्रण किया गया है तथा वे समय एवं व्यक्ति के द्वन्द्व को उकेरती हुई समाज से संवाद एवं संघर्ष करती सी प्रतीत होती हैं। संग्रह की कुछ कविताओं के अंश प्रस्तुत हैं-दिल की बात/बहुत निराली/भरा हुआ/तो कभी है खाली (‘दिल’)। और मैं भी तो बह ही रही हूँ/नदी की तरह/जन्म जन्मांतर से (‘नदी’)। बिखरे दरके टूटे-फूटे/बदरंग लम्हों में/फिर से/जान भरना चाहती हूँ (‘जीना चाहती हूँ’)। साँप और सीढ़ी का खेल/खेल रही है/जिंदगी (‘खेल’)। बेटी/रात की रानी है/सुबह की मखमली हवा है/गुनगुनी धूप है/जाड़े की (‘बेटी’)। यह जो हम सब झेल रहे हैं/इसी को जीवन कहते हैं क्या (‘जीवन’)। रचनाओं में अधिकतर सरल एवं सहज शब्दों का प्रयोग किया गया है, किन्तु कहीं-कहीं भाषा एवं व्याकरण एवं वर्तनीगत अशुद्धियाँ परिलक्षित होती हैं। यथा, ख़्यालात, उष्मा, काट लिया कितने काले दिन, शोहरत की लालच, छलनामयी जीवन, सम्वेदनशीलता तथा तुम्हें के साथ तेरा का प्रयोग किया जाना आदि। अनेक स्थानों पर ‘न’ के स्थान पर ‘ना’ का प्रयोग किया गया है। कहा जा सकता है कि संकलन की रचनाएँ मनोभावों को व्यक्त करने में काफ़ी हद तक सफल रही हैं। महिला लेखन के क्षेत्र में कवयित्री का यह प्रयास स्वागत योग्य तथा सृजनशीलता सराहनीय है। सर्व भाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित 104 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 250 रूपये है।

लोकप्रिय फ़िल्म अभिनेत्री साधना की दास्तान



सुविख्यात लेखक प्रबोध कुमार गोविल से हिंदी जगत भली-भांति परिचित है। उपन्यास, कहानी संग्रह, संस्मरण एवं लघुकथाओं आदि की उनकी अनेक पुस्तकें पाठकों के समक्ष आ चुकी हैं। ‘‘ज़बाने यार मनतुर्की’’ सन 1960 के दशक की सर्वाधिक लोकप्रिय एवं विलक्षण प्रतिभाशाली फ़िल्म अभिनेत्री साधना की फ़िल्मी अभिनय-यात्रा एवं जीवन संघर्षों से पाठकों को परिचित कराने वाली उनकी एक अनूठी पुस्तक है। लेखक प्रबोध कुमार गोविल के अनुसार साधना की जीवनी सिंधी और अंग्रेज़ी भाषा में पहले प्रकाशित हुई थी, जिसके विषय में साधना ने कहा था- मैंने शोहरत, दौलत और चाहत हिन्दी से पाई है, मुझे अच्छा लगेगा अगर मेरी कहानी हिन्दी में आए। वर्ष 2015 में उनकी मृत्यु के पांच साल बाद उनकी ये इच्छा पूर्ण करने के लिए यह पुस्तक लिखी गयी। पुस्तक का शीर्षक ‘‘ज़बाने यार मनतुर्की’’ एक फ़ारसी कहावत ‘‘ज़बाने यारे मनतुर्की ओ मनतुर्की नमी दानम’’ का एक अंश है, जिसका अर्थ है, ‘‘मेरे दोस्त की ज़बान तुर्की है और में तुर्की ज़बान जानता नहीं’’। शीर्षक से यह ध्वनित होता है कि साधना के जीवन एवं उसके मनोभावों को उनके दर्शक, प्रशंसक तथा फ़िल्मी दुनिया के लोग समझ नहीं पाये।

 कथावस्तु के अनुसार पुस्तक को 19 शीर्षकों में विभक्त किया गया है, जिनके माध्यम से उनकी सम्पूर्ण कहानी कही गयी है। साधना (1941-2015) का पूरा नाम साधना शिवदासानी था। वर्ष 1960 में उनकी पहली ही फिल्म ‘लव इन शिमला’ सुपरहिट हुई। फ़िल्मों का यह दौर नरगिस और मधुबाला की लोकप्रियता के उतार का दौर था। वर्ष 1960 का फ़िल्मी दशक एक प्रकार से साधना के ही नाम था। ख़ूबसूरत और प्रतिभाशाली अभिनेत्री साधना के अभिनय की अवधि लगभग पन्द्रह साल रही। पुस्तक बताती है कि कोई लोकप्रिय कलाकार चोटी का फिल्मस्टार ऐसे ही नहीं बन जाता, बल्कि इसके लिए प्रतिभा, लगन और ज़ुनून की ज़रूरत होती है। वह नयी पीढ़ी की फ़ैशन आइकॉन बन गयीं। उनका केश विन्यास ‘साधना कट’ हेयर स्टाइल के रूप में शहर-शहर, बस्ती-बस्ती, गली-गली और घर-घर में लोकप्रिय हो गया। दरअसल साधना का माथा बहुत चौड़ा था उसे कवर किया गया बालों से, उस स्टाइल का नाम ही पड़ गया “साधना कट”। फ़िल्मों में पहना गया उनका चूड़ीदार पायजामा भी देश भर का फ़ैशन बन गया। साधना को थायरॉयड की बीमारी हो गयी थी, जिसके कारण वह अपने गले में बँधी पट्टी को छिपाने के लिए वह गले में दुपट्टा बाँध लेती थी। उस दौर की लड़कियों ने इसे भी फैशन के रूप में लिया था। साधना की मेकअप आर्टिस्ट पंडरी जुकर का साधना के बारे में कहना था, कि उन्हें मेकअप की ज़रूरत कहाँ थी ? वो तो वैसे ही दमकती थीं।

 पुस्तक में लिखा है कि अपनी सफल फ़िल्मों में साधना ने हिन्दी और उर्दू के मेल से उपजी एक ऐसी तहज़ीब का माहौल बनाया, जिसे अपने बोलने-चालने, पहनने-ओढ़ने में नयी पीढ़ी दिल से अपनाने लगी। संवाद अदायगी में उनकी आवाज़ का उतार-चढ़ाव, वाक्यों पर ज़ोर देने का तरीका भी उनकी पहचान बना। लेकिन, साधना का शुरुआती समय जितना शानदार था उनका अन्तिम समय उतना ही दुःख भरा था। पति आरके नय्यर की मृत्यु के बाद वह जिस घर में रहती थीं उस पर कोर्ट केस हो गया था। लम्बे संघर्ष के बीच 25 दिसंबर 2015 को साधना का निधन हो गया था। एक्ट्रेस के अंतिम संस्कार में भी कम ही लोग पहुंचे थे।

 सम्पूर्ण उपन्यास अत्यन्त सधी हुई एवं प्रवाहमयी भाषा एवं रोचक शैली में लिखा गया है। पढ़ते समय पाठकों के समक्ष साधना के जीवन से जुड़ी हर एक घटना सामने आती-जाती रहती है और पाठक उसमें डूब-सा जाता है। जिज्ञासा एवं कौतूहलवश वह एक के बाद दूसरा पन्ना पढ़ता जाता है। पुस्तक का मुद्रण एवं अन्य तकनीकी पक्ष उच्चकोटि का है। कवर पृष्ठ आकर्षक है। बोधि प्रकाशन, जयपुर द्वारा प्रकाशित 144 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 150 रुपये है।


 समाज और ज़िन्दगी की शायरी


 शुजाउद्दीन शाहिद के काव्य संग्रह ‘सौग़ात मोहब्बत की’ में उनकी ग़ज़लों के अलावा कुछ कविताएं और मुक्तक संकलित हैं, जो समाज की आज की स्थिति को दर्शाती हैं। रचनाओं का वर्ण्य विषय प्रमुखतः आज के जीवन की आपाधापी एवं भाग-दौड़, सामाजिक विसंगतियाँ, अन्तर्मन की पीड़ाएं एवं आज के सरोकार आदि हैं। साथ ही, प्रेम तथा श्रृंगार विषयक रचनाएं भी हैं। शायर की सोच से जुड़ी हुई शायरी अपने अन्दर और बाहर के दर्द को बयां करती है। इस काव्य संग्रह में रचनाकार ने वर्तमान युग की विसंगतियों को सामने लाने का प्रयास किया है। संग्रह की रचनाओं में वर्तमान युग की विसंगतियों एवं सामाजिक विडम्बनाओं को उकेरने का प्रयास किया गया है। जीवन में व्याप्त संत्रास, घुटन, वेदनाओं एवं अनुभूतियों को शब्द प्रदान किये गये हैं। श्रृंगार एवं प्रेम विषयक रचनाएं शायर के अन्तर्मन के भावों को प्रकट करती हैं। ग़ज़लों के कुछ उल्लेखनीय शेर प्रस्तुत हैं -‘बोलकर झूठ बच गये हम भी/ काम अपने ये सियासत आई।, ‘सुलगती आग का एहसास तो है/ धुआं क्यों जिस्म से उठता नहीं है।’, ‘एक ही घर में रहें बरसों मुलाकात न हो/ लोग इस शहर में ऐसे भी जिया करते हैं।’ कविताओं एवं नज़्मों में भी ज़िन्दगी के बारे में शायर की सोच उजागर होती है। कुछ प्रमुख अंश इस प्रकार हैं -‘ कतार बस की ट्रेनों में भीड़ क्या कहिये/ तुम्हारा शहर अजब सा शहर है क्या कहिये।’ (तुम्हारा शहर), ‘कितने चेहरे हैं मुस्कुराहट के/ मुस्कुराहट है रूह की ख़ुशबू।’ (मुस्कान)

ग़ज़ल-व्याकरण की दृष्टि से कुछ ग़ज़लों में ऐबे तनाफ़ुर, ऐबे शुतुरगुरबा के अतिरिक्त कहीं-कहीं क़ाफ़िया दोष तथा भरती के शब्द जैसे दोष हैं। वर्तनीगत एवं प्रूफ़ सम्बन्धी अशुद्धियों की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है। फिर भी, कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि काव्य संग्रह की रचनाएं सराहनीय हैं। पुस्तक पठनीय है। परिदृश्य प्रकाशन, मुंबई द्वारा प्रकाशित 104 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 125 रुपये मात्र है।


(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2023 अंक में प्रकाशित )


गुरुवार, 12 दिसंबर 2024

  अज़ीम देशभक्त थे शौकतउल्लाह अंसारी

                                           - सरवत महमूद खान 

                                   

शौकतउल्लाह अंसारी

  डॉ. शाह शौकतउल्लाह अंसारी का शुमार ग़ाज़ीपुर के ऐसे लोगों में होता है, जिन्होंन उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद भी अपना जीवन देश को आज़ाद कराने और देश के साथ जिले को विकसित कराने में लगा दिया। आज़ादी के बाद तुर्की के काउंसलर नियुक्त किये गये थे, फिर वियतनाम भेजा गया था। इसके बाद सूडान के राजदूत बनाये गये। उन्हे अंतरराष्ट्रीय कमीशन के चेयरमैन भी बनाया गया था। बाद में उन्हें उड़ीसा का राज्यपाल बनाया गया था, जीवन के अंतिम पल तक इसी पद पर कार्यरत थे। इन्होंने अंतिम दम तक हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए काम किया है। जिसकी वजह से पूरे देश में इनकी एक अलग पहचान है। वे शिष्ट, सदाचारी और अमनपसंद व्यक्तित्व के धनी थे। उनकी दानशीलता के किस्से शहर में मशहूर है। स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए इनको कई बार जेल जाना पड़ा था।

 डॉ. शौकत का जन्म 1908 में ग़ाज़ीपुर शहर के मियांपुर मुहल्ले में हुआ था। आप के वालिद अमजदुल्लाह अंसारी का शुमार गाजीपुर शहर के बहुत ही सम्मानित लोगों में होता था। इन्होंने अपने पुत्र शौकतउल्लाह को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए पेरिस (फ्रांस) भेज था। जहां से शिक्षा पूरी करके लौटने के बाद वे स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में शामिल हो गए। उन दिनों इनका पूरा ख़ानदान पहले से ही स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका में शामिल था। आप डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी (अध्यक्ष इंडियन नेशनल कांग्रेस 1927 ई) के भांजे थे। अपने बहुमुखी प्रतिभा एवं शीर्ष नेताओं से घनिष्ठ संबंध के कारण आपकी गणना वरिष्ठ नेताओं में होने लगी। मुस्लिम राष्ट्रवादी नेताओं में आपका शुमार किया जाता था।

  आपकी शादी 25 सितंबर 1936 को जोहरा अंसारी ( पुत्री नवाब असगर यार जंग) से हुई थी। जोहर अंसारी डॉ. मुख़्तार अहमद अंसारी की भतीजी थीं। हिन्दू-मुस्लिम एकता को कायम रखने और फिरकापरस्सती को खत्म करने के लिए उन्होंने ‘आल इंडिया मुस्लिम मजलिस’ का गठन किया। पंडित जवाहरलाल नेहरु से इनकी बहुत घनिष्ठता थी। नेहरू जी उन्हे अपने मंत्रिमंडल में शामिल करना चाहते थे। इसलिए रसड़ा लोकसभा क्षेत्र से 1957 में कांग्रेस का उम्मीदवार बनाया। उस समय इस लोकसभा सीट में गाजीपुर जनपद की दो विधानसभाओं कासिमाबाद और मुहम्मदाबाद का क्षेत्र भी शामिल था। इस चुनाव में डॉ. शौकत सरजू पाण्डेय (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ) से चुनाव हार गए थे। डॉ. शौकत ने धर्म-निरपेक्षता की एक मिसाल छोडी थी। कहा जाता है कि चुनाव प्रचार के दौरान जुमा की नमाज का वक़्त हो गया था, सहयोगीयों ने सुझाव दिया कि जुमे की नमाज भी अदा कर लीजिए साथ ही मस्जिद से लोगों वोट देने की अपील भी कर दीजिए। इस पर डॉ. शौकत ने कहा कि नमाज तो वह ज़रूर अदा करेंगे, लेकिन वोट की अपील नही करेंगे क्योंकि यह धर्म-निरपेक्षता के सिद्धांत के अनुरूप नहीं है।

 डॉ. शौकत वर्ष 1960 में वियतनाम और फिर सूडान के राजदूत बनाए गए और वहां से वापसी के बाद सन 1966 में उड़ीसा के राज्यपाल नियुक्त किए गए। 26 दिसम्बर 1972 को आपका दिल्ली में इंतिक़ाल हो गया था। जामिया मिल्लिया इस्लामिया की कब्रिस्तान में आपको सुपुर्दे-खाक किया गया था। इनके बडे पुत्र डॉ. वहजत मुख्तार अंसारी लंदन में रहते है, जबकि मंझले पुत्र सतवत मुख्तार अंसारी और छोटे पुत्र तलअत मुख्तार अंसारी अमेरिका के निवासी हैं। गाजीपुर में उनके निवास स्थान ‘शौकत मंजिल’ (मुहल्ला-मियांपुरा शहर गाजीपुर ) को उनकी पत्नी और लड़कों ने मदरसा दीनीया को दान कर दिया था, जो आज भी उन्ही के नाम से मन्सूब है।

( गृफ़तगू के जुलाई-सितम्बर 2023 अंक में प्रकाशित)


बुधवार, 11 दिसंबर 2024

कैंसर के मरीजों की सवो में तल्लीन डॉ. बी. पॉल थैलाथ

                                         - इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

       

डॉ. बी. पॉल थैलाथ।

                                  

 कैंसर बीमारी का नाम सुनते ही धड़कन बढ़ जाती है। दिल से यही आवाज़ निकलती है कि खुदा यह बीमारी किसी दुश्मन को भी न दे। दूसरी ओर ऐसी बीमारियों से लोगों को निजात दिलाने के लिए दिन-रात काम करते हैं पद्मश्री डॉ. बी. पॉल थैलाथ। इलाहाबाद के जिस कमला नेहरु अस्पताल में दाखिल होते ही मरीजों को देखकर शरीर सिहर उठता है, उसी अस्पताल में रोजाना ही डॉ. पॉल कई दर्जन मरीजों की जांच करके उनका इलाज करते हैं। उन्हें समझाते हैं, सांत्वना देते हैं और मरीजों के तीमारदारों को समझाते हैं कि कैसे कैंसर जैसी बीमारी से बचा जा सकता है। प्रतिदिन डॉ. पॉल का ऐसे ही बीतता है, लेकिन वो जरा भी पीछे नहीं हटते हैं। लोगों की सेवा में लगे रहते हैं। इसके साथ-साथ सामाजिक कार्यों के जरिए भी समय-समय पर लोगों को इस बीमारी से बचने के टिप्स देने वाली एक्टिविटी में शामिल होते हैं। डॉ. पॉल के मुताबिक सर्वाधिक कैंसर बीमारी होने का कारण अनियमित दिनचर्या और खान-पान है। तंबाकू का सेवन बंद करके, खान-पान सही करने के साथ दिनचर्या सही करके इस बीमारी से काफी हद तक बचा जा सकता है। डॉ. पॉल के मुताबिक बच्चेदानी में कैंसर का कारण महिलाओं की कम उम्र में शादी होना है। इसका ध्यान रखकर महिलाएं इस बीमारी से काफी हद तक बच सकती हैं। डॉ. पॉल की चिकित्सा सेवा को देखते हुए इन्हें ‘पद्मश्री’ से नवाजा जा चुका है।

 डॉ. पॉल का जन्म 18 सितंबर 1952 को कोच्ची, केरल में हुआ है। प्रारंभिक शिक्षा से लेकर हाईस्कूल और इंटरमीडिएट तक की शिक्षा इन्होंने त्रिवेंद्रम में हासिल किया है। इसके बाद इनका चयन एम.बी.बी.एस. के लिए हो गया। चंड़ीगढ़ मेडिकल कॉलेज से आपने एम.बी.बी.एस.  का कोर्स पूरा किया। इसी कॉलेज से इन्होंने एम.डी. भी किया है। चंडीगढ़ पीजीआई से आपने रेडियो थैरेपी और ओनकॉलोजी में पोस्ट ग्रेजुएशन किया है। मैनचेस्टर, इंग्लैंड के क्रिस्टी हॉस्पीटल, होल्ट एण्ड रेडियम इंस्टीट्यूट और रेडियम इंस्टीट्यूट से आपने एडवांस प्रशिक्षण लिया है। कई जगहों पर चिकित्सा सेवा करने के बाद इनकी नियुक्ति वर्ष 1985 में इलाहाबाद स्थित कमला नेहरु मेडिकल कॉलेज में हो गई। तभी से ये इसी कॉलेज में सेवारत हैं। कमला नेहरु हास्पीटल के अलावा ये रीजनल कैंसर सेंटर के रीजनल डायरेक्टर और कैंसर केयर सेंटर के चेयरमैन हैं। साथ ही पॉल हैरिस फेलो रोटरी इंटरनेशनल का भी संचालन करते हैं। इसके जरिए लोगों की सेवा करते हैं और उन्हें सही मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। कैंसर पर आधारित 75 से अधिक साइंटिफिक जरनल नेशनल और इंटरनेशनल स्तर पर प्रकाशित हो चुके हैं। इस पर काफी गंभीरता से कार्य कर रहे हैं।

 वर्ष 2000 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों इन्हें कैंसर केयर ऑफ इंडिया की तरफ से लाइफ टाइम अचीवमेंट एवार्ड प्रदान किया गया था। वर्ष 2002 में इंटरनेशनल फ्रेंडशिप सोसायटी की तरफ से इन्हें ‘राष्टीय गौरव एवार्ड’ और वर्ष 2007 में तत्कालीन राष्टपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम द्वारा इन्हें पद्मश्री से नवाजा जा चुका है। इसी तरह वर्ष 2016 में वर्ल्ड मेडिकल काउंसिल द्वारा इन्हें ‘एक्सीलेंस एवार्ड’ प्रदान किया जा चुका है।

  डॉ. पॉल के मुताबिक भारत में 58 फीसदी पुरुषों के मुंह, गले और फेफड़े में कैंसर होने का कारण धूम्रपान है। इसको लेकर जागरुकता फैलायी जा रही है, जिसका सकारात्मक असर भी सामने आने लगा है। युवा पीढ़ी अपेक्षाकृत धूम्रपान से दूर हो रही है। इनका कहना है कि लगभग 20 वर्ष पहले तक भारत की 37 फीसदी महिलाओं की बच्चेदानी में कैंसर होता था। 18 वर्ष से कम उम्र की बच्चियां जब मां बनती हैं, तो उनकी बच्चेदानी में कैंसर होने का ख़तरा बढ़ जाता है। इसको लेकर जागरुकता फैलायी गई। जिसका असर यह हुआ है कि अब भारत में मात्र 18 फीसदी महिलाओं की बच्चेदानी में कैंसर की शिकायतें आ रही हैं। डॉ. पाल का यह भी कहना है कि पंद्रह वर्ष पहले तक स्तन कैंसर के मामले में भारत तीसरे स्थान पर था और अब पहले स्थान पर आ गया है। महिलाओं द्वारा स्तनपान न कराने की वजह से ही यह बढ़ोत्तरी हुई है।

(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2023 अंक में प्रकाशित )


रविवार, 8 दिसंबर 2024

 गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2023 अंक में



धनंजय कुमार विशेषांक

4. संपादकीय  (अमेरिका में रहते हुए भी पूरी तरह भारतीय)

5-9. धनंजय कुमार का परिचय

10. कहीं ये न समझो, मैं हूं तुमसे दूर - कैलाश गौतम

11-12. धनंजय कुमार की ग़ज़लें अपने वक़्त का आईना- यश मालवीय

13-14. ग़ज़लों के रूप में मंज़रेआम पर फ़ायज़ - तलब जौनपुरी

15-16. बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी धनंजय कुमार- अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’

17. धनंजय कुमार की शायरी में जीवन का यथार्थ- डॉ. मधुबाला सिन्हा

18-19. कविताओं में चिंतन के विभिन्न सोपान - डॉ. शैलेष गुप्त ‘चीर’

20-21 साहित्यकार धनंजय कुमार की ग़ज़लें - शगुफ़्ता रहमान ‘सोना’

22-24. इंटरव्यू: धनंजय कुमार

25-33. धनंजय कुमार की क्षणिकाएं

34-90. धनंजय कुमार की कविताएं

91-154. धनंजय कुमार की ग़ज़लें

155-164. धनंजय कुमार के मुक्तक

165-175. धनंजय कुमार के संगम

176-182. तब्सेरा  (21वीं सदी के इलाहाबादी, संघर्ष का सुख, घोंसला, ढाई बूंद, ज़बाने यार मनतुर्की,  सौग़ात मोहब्बत की)

183-185. उर्दू अदब  (चराग़-ए-अश्क-ए-अज़ा, आओ छू लें चांद सितारे, हर्फ़-हर्फ़ आईना)

186-187. गुलशन-ए-इलाहाबाद (डॉ. बी. पॉल)

188-189. ग़ाज़ीपुर के वीर (डॉ. शौकतउल्भ्लाह अंसारी)

190-194. अदबी ख़बरें






शनिवार, 7 दिसंबर 2024

   एहसास का ज़खीरा ‘खलिश’

                                    - डॉ. वारिस अंसारी

                                       


 

कोई भी अदीब जब अदब (साहित्य) के सागर में गोता लगाता है तो वह कुछ न कुछ हासिल करके ही बाहर निकलता है। सबके अपने ख़्याल होते हैं। वक़्त की तरह अदीब का ज़ेहन भी नई तखलीक करने की कोशिश में रहता है और यही कोशिश उसे उसकी मंज़िल तक ले जाती है। दौरे हाज़िर में इसी तरह की कोशिश और मेहनत की बदौलत नई नस्ल की तखलीककार नाज़नीन अली नाज़ का नाम है, जो आज किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। नाज़नीन अली नाज़ का अदब से गहरा रिश्ता है। इन्होंने अपनी मेहनत से कई अदबी अवार्ड भी हासिल किए हैं। वह नस्री (गद्य) और शेरी (पद्य) दोनों विधा में महारत रखती हैं। इस वक़्त उनका नॉवेल ‘खलिश’ मेरे हाथ में है, जिसका मैंने पूरा मुताअला किया। निहायत ही सादा और आसान ज़बान में बहुत ही खूबसूरत नॉवेल है, जिसमें लफ्जों का बरताव बड़े सलीके से किया गया है। नावेल को इतने दिलचस्प अंदाज़ में लिखा गया है की पढ़ने वालों पर बोझ नहीं लगता और क़ारी (पाठक) एहसास के सागर में डूबता चला जाता है। 

   इस कहानी के अहम किरदार जीशान और रश्मि की पाक मोहब्बत को लव-जिहाद का नाम देकर उन्हें मौत की आगोश में सुला दिया जाता है और ज़ालिम इसे धर्म व समाज की हिफाज़त का नाम देते हैं। इस तरह कितनी मासूम मोहब्बतें मौत का शिकार हो रही हैं। नाज़नीन अली नाज़ ने यही दर्द ‘खलिश’ में लोगों के सामने उजागर किया है। पूरी नॉवेल को नाज़नीन ने चार हिस्सों में तकसीम किया है। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, इसके किरदार भी अपनी पहचान बदलते रहते हैं। इस तरह नाज़नीन ने समाजी मसाइल की तस्वीर पेश की है और उनका हल भी सवालिया अंदाज़ में किरदारों के तर्ज़े अमल को भी पेश किया। उनके सवाल सुनने में तो बड़े आम से लगते हैं, मगर सवालों की खूबी ये है क़ारी उन्हीं में अपने जवाब भी तलाश कर सकता है। 

   किताब की कम्पोजिंग अल्फ्रेड कंप्यूटर इलाहाबाद ने कम्पोज किया है, जिसकी स्कर्ट लाइन प्रिंटर्स प्रयागराज से छपाई हुई है। गुफ़्तगू पब्लिकेशन हरवारा, धूमनगंज प्रयागराज से प्रकाशित किया गया है। खूबसूरत सरे-वर्क और हार्ड जिल्द के साथ 152 पेज की किताब में अच्छे किस्म के काग़ज़ का इस्तेमाल किया गया है। जिसकी कीमत 200 रुपए है। उम्मीद करता हूं कि नाज़नीन अली नाज़ का ये नावेल खलिश समाज और अदब में नुमाया मुकाम हासिल करेगा।


अदब की नुमाया किताब ‘हर्फ हर्फ खुशबू’



 सरफराज़ हुसैन फ़राज़ पीपल सानवी (मुरादाबाद) आज किसी तअरुफ़ (परिचय) के मोहताज नहीं हैं। यूं तो शायरी खुदादाद सलाहियत का नाम है, लेकिन खुदा उन्हीं को कामयाबी करता है जो अपने काम के लिए कोशा रहते हैं। फ़राज़ की शायरी पढ़ कर कहीं भी ऐसा महसूस नहीं होता कि उन्होंने कहीं कोताही की है। बल्कि हर शे’र उनके जिंदादिली की गवाही देता नज़र आ रहा है। वह खुदा की ज़ात पर यकीन रखने वाले एक कामिल शाइर की सफ में हैं। उनकी ग़ज़लों में उस्तादाना झलक है। उन्होंने अपनी शायरी में इश्क-मोहब्बत के साथ-साथ रोज़मर्रा के मसाइल भी बयान किए हैं। उनकी शायरी में शगुफ्तगी, शीरी-बयानी, आसान अल्फाज़ और पढ़ने में रवानी है, जिससे क़ारी (पाठक) का मज़ा दोबाला हो जाता है। उनकी शायरी में मोहब्बत की कशिश भी है और ज़़माने के लिए पैगाम भी। कुल मिलाकर वह उम्दा किस्म की शायरी करते हैं जो कि उर्दू अदब के लिए मील का पत्थर साबित हो सकती है। आइए उनके कुछ खूबसूरत अशआर मुलाहिज़ा करते चलें-‘खिलता गुल मुरझा गया है, क्या हुआ, कैसे हुआ/कुछ तो बोलो बात क्या है ,क्या हुआ, कैसे हुआ।’,‘खून से लाल हैं अखबार खुदा खैर करे/सब हैं कातिल के तरफदार खुदा खैर करे।’, मैं भूल जाऊंगा जामो शराब की बातें/तुम्हारी आंखों की थोड़ी अता ज़रूरी है।’, ‘अपनी हर बात बता देता है पागल उनको/दिल ही कुछ ऐसा है नादान खुदा खैर करे।’ 

 मज़कूरा बाला अशआर उनकी शायराना हैसियत और अदबी दिलचस्पी की गम्माजी के लिए काफी हैं। बाकी पूरा दीवान ‘हर्फ हर्फ खुशबू’ पढ़ने लायक है। उनकी शायरी पढ़ कर नई नस्ल के शायर अदबी फायदा हासिल कर सकते हैं और अपने खयालात को भी वसीअ (बड़ा) कर सकते हैं। हार्ड जिल्द के साथ उनके दीवान में 320 पेज हैं। किताब को रोशन प्रिंटर्स देहली से किताबत करा कर एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस लाल कुआं देहली से शाया (प्रकाशित) किया गया है। किताब की कीमत सिर्फ 500 रुपए है।


  समाज का आईना ‘मुकद्दस यादें’



 यादें तो गुज़रे हुए दौर की होती हैं लेकिन जब ये यादें किसी शायर/ ाायरा से मंसूब (संबद्ध) हो जाएं तो तो उन यादों की पूरी कैफियत, पूरा रूप ही बदल जाता है। हिंदी का एक मशहूर मुहावरा है ‘जहां न जाए रवि वहां जाए कवि।’ इसी मुहावरा को अमली जामा पहनाया है मशहूर शायर व समाजी कारकुन डॉ. शबाना रफीक ने अपनी किताब ‘मुकद्दस यादें में। मुकद्दस यादें उनकी नज़्मों का मजमूआ(संग्रह) है। जिसमें कुछ नज़्में बाबहर (छंद युक्त) और कुछ आज़ाद (छंद मुक्त) हैं। उन्होंने इस किताब में गुज़रे हुए ज़माने को भी याद किया है और वक़्त के हालात को भी महसूस किया है और खूबसूरत मुस्तकबिल की ख्वाहिशमंद भी हैं। उनकी शायरी आसान और शीरीं ज़बान में है, जिसे आसानी के साथ पढ़ कर महसूस किया जा सकता है। ‘शीदाने वतन’, ‘ख्वाहिश’, ‘वक़्त की आवाज़’, ‘नया जहां’, ‘मां’ तमाम ऐसी नज्में हैं, जिनमें उन्होंने समाजी एकता को बढ़ाने की आरज़ू की है और साथ ही साथ वह खौफ, दहशत, मायूसी, बेइमानी के सख़्त खिलाफ भी हैं। वह मुल्क से मोहब्बत करने वाली वतन-परस्त शायरा हैं।  आइए उनकी वतन से मोहब्बत की एक झलक देखते हैं-‘अपने तिरंगे की इज़्ज़त बचा लीजिए/ मुल्क फिर सोने की चिड़िया बना दीजिए/मिटा कर बेवजह नफरतों को दिलों से/इंसानियत से दुनिया सजा दीजिए/घर में पूजा करें या सजदा करें/घर के बाहर खुद को हिंदोस्तानी बना लीजिए।’ 

 उनके अशआर किस बहर में हैं ये तो मुझे नहीं मालूम, लेकिन उनके ख़्यालात में किस कदर मुल्क की इज़्ज़त है, मुल्क के सर बुलंदी की तमन्ना है वह काबिले-तारीफ है। अल्लाह उनके जज़्बात सलामत रखे। इस किताब की एक बहुत बड़ी खूबी ये भी है कि ये हिंदी और उर्दू दोनों रसमुल खत में है, जिसे डॉ. शबाना ने अपनी मां को समर्पित किया है। हार्ड और खूब सूरत जिल्द व उम्दा किस्म के काग़ज़ पर सजाया गया है। किताब की कंपोजिंग छपाई घर ब्रह्म नगर कानपुर से हुई और रोशनी पब्लिकेशंस 110/138 बी, जवाहर नगर कानपुर से प्रकाशित हुई। 118 पेज के इस किताब की कीमत सिर्फ 200 रुपए हैं।


( गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2023 अंक में प्रकाशित )


शुक्रवार, 6 दिसंबर 2024

मुनव्वर राना के आंसुओं से तामीर हुआ एक जलमहल

                                                           - यश मालवीय

                           


 

  जनाब मुनव्वर राना को कई रूपों, कई रंगों, कई शक्लों और कई खुशबुओं में देखने-सुनने, गुनने और महसूस करने के मौके मिलते रहे हैं। ‘मुहाजिरनामा’ उनमें सबसे अलहदा, सबसे जुदा एक ऐसा शाहकार है, जिसे खुश्क आंखों से पढ़ा ही नहीं जा सकता। आंखें नम होती हैं तो होती चली जाती हैं, हालांकि की नींद की नदी सूख जाती है। रात और काली लगने लगती है। बेचैनी की करवटें, सूखता हलक, लबों की तरह कांपता थरथराता दिल, तकलीफ़ का उमड़ता समुंदर, टूटी कश्ती सा समय, दिशाओं में उड़ती रेत, धूल के बगूले, चितकबरा आसमान, धुंध में डूबे मंदिर और मस्जिद के गुंबद, कुहरों में खोती सच्चाई, असवाद में डूबी घाटियां, फूलों के उतरे चेहरे, कहीं नहीं पहुंचाती सड़कें, अंतहीन गलियां, मज़हब की कटी-बंटी तहरीरें, धुंधली तस्वीरें, चटख होते ज़ख़्मों का ज़खीरा, गुलाम होकर भी आज़ाद होने का वहम, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान यानी दोनों देशों का बेपनाह दर्द, हिस्सों में तक्सीम ज़िन्दगी, जे़ह्न से धड़धड़ाती हुई ट्रेन का गुजरना, घायल परिन्दे, चश्मे की टूटी कमानी, खाली रखा पानी का घड़ा, कम वाट के बल्ब के इर्द-गिर्द जाला पूरती मकड़ी, खिलौनों के लिए मचलता बचपन, मुफ़लिसी के दुपट्टे ओढ़े जवानी, बूढ़ी आंखों का मोतियाबिंद, रास्तों पर दौड़ता 440 वोल्ट का करंट, टुकड़े-टुकड़े पहाड़, खून में डूबी हरियाली, फूट-फूटकर रोती ऋतुएं, झरनों के पपड़ाए-सूखे होंठ, सियासत के कैबरे अथवा आइटम सांग, खिड़कियों दरवाजों के टूटे पल्ले, बुझे चूल्हे, रसोई से बाहर खेलती आग, झुलसते बादल, क्या-क्या नहीं कौंध जाता है मन में। बहुत पहले बचपन में पढ़ा ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित डाक्टर राही मासूम रज़ा का लेख। जी हां ! मैं भारतीय मुसलमान बोल रहा हूं। नए सिरे से जैसे जिन्दा हो जा रहा है। यह बात गर्व से अपने आप को हिन्दू मानने वाली समूची कौम के लिए बेहद शर्मनाक है। अपने ही मुल्क में शरणार्थी होने की पीड़ा से बढ़कर दूसरी कोई पीड़ा और क्या हो सकती है। मुनव्वर राना ने वास्तव में एक जेनुइन मुसलमान की आवाज़ अपनी संपूर्ण छटपटाहट और बेकली के साथ ‘मुहाजिरनामा’ मे पेश की है। यह उनके आंसुओं से तामीर हुआ एक ऐसा जलमहल कि दिल और दिमाग उसी में डूबते-उतराने लगते हैं।

 मैं उनके गद्य का भी गहरा शैदाई हूं। भूमिका के तौर पर लिखे अपने मास्टर पीस ‘हम खुद उधड़ने लगते हैं तुरपाई की तरह’ में वह लिखते हैं।

 इबादत का रिश्ता मज़हब से नहीं रूह से होता है। इसीलिए तो चिड़ियां लाउडस्पीकर का इस्तेमाल नहीं करतीं। सब की आवाज़ें एक लय और एक सुर में ढ़ल जाती हैं। वह दरख़्तों को अपना मुल्क समझती हैं, और मुल्क को इबादतगाह।

 या फिर तारीख वह सूदखोर साहूकार है जो सूद-ब्याज के साथ अपना कर्ज़ वसूल कर लेती है। या फिर गुर्बत चोंचलों से पनाह मांगती है। वह भी पत्थर में भगवान ढूंढ़ लेती है, वह किसी भी अंगोछे को जानमाज बना लेती है।

 खुद मुनव्वर के लिए, उनकी शायरी के लिए उनका अपना लिख गद्य बहुत बड़ी चुनौती है। उनके इन वाक्यांशों पर स्वनामधन्य बड़े-बड़े शायरों के दीवान निछावर किये जा सकते हैं। आज तक हम हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए यह मुश्किल पेश आती रही है कि महादेवी वर्मा जी पद्यकार बड़ी हैं या गद्यकार। मुनव्वर को पढ़ते हुए भी मुझे बारहा यह लगता है कि गद्य में वह अपने आपको समूचा उड़ेल देते हैं, शायरी में जैसे कुछ थोड़ा सा उनके अपने पास बचा रह जाता है, हालांकि अपने दिल को भीगे अंगरखे की तरह निचोड़ कर देने में वह यहां भी कोई कोताही नहीं बरतते, मसलन-

    जहां पर बैठकर बरसों किसी की राह देखी थी

    हम स्टेशन के रस्ते पे वो पुलिया छोड़ आए हैं।

  

    बसी थी जिसमें खुशबू मेरी अम्मी की जवानी की,

    वो चादर छोड़ आए हैं वो तकिया छोड़ आए हैं।

 

    मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं।

    तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं।

    

   सुना है अब फ़क़त उन्वान है वो इक कहानी का,

    हवेली में जो हम पीतल का घंटा छोड़ आए हैं।

   

    कई शहतूत के पत्तों पे ये तारीख़ लिक्खी है,

    कि हम रेशम उठा लाए हैं कीड़ा छोड़ आए हैं।

   

   वो ख़त जिस पर तेरे होठों ने अपना नाम लिक्खा था,

   तेरे काढ़े हुए तकिये पर रक्खा छोड़ आए हैं।

आंसुओं की स्याही से लिखी यह इबारतें कभी मिट नहीं सकतीं। इनमें अपने समय की सांसें हैं, एक सहता सहता सा अनसहता सा दर्द है और एक ऐसी कराह है, जिसमें करूणा का संगीत बहता है। कहीं-कहीं प्रार्थना के स्वर सुनाई देते हैं, सबेरे की अजान जैसे भटके हुए मुसाफ़िर को रास्ता दिखाती है। 


(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2023 अंक में प्रकाशित )