मंगलवार, 18 नवंबर 2025

 गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2025 अंक में



3.संपादकीय- प्रो. पुष्पिता अवस्थी पर यह अंक

4-13. विश्व-चेतना की कवयित्री पुष्पिता अवस्थी - प्रो. अर्जुन चौहान

14-17. भोजपत्र: सगुण एवं निर्गुण का संधिपत्र- डॉ. विवेक मणि त्रिपाठी

18-20. पुष्पिता अवस्थी की कहानियों में सांस्कृतिक गरिमा - डॉ. सरोज सिंह

21.दृश्य रचती हैं पुष्पिता अवस्थी - यश मालवीय

22-23. पुष्पिता अवस्थी होना आसान नहीं- डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

24-29. मानवीय संवेनाओं की कहानियां - डॉ. विशाला शर्मा

30-31. हम तुम्हें ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद करना सिखाएंगे- डॉ. धनंजय चोपड़ा

32-34. कविताओं की डोर से बंधा रहा हूं - अरुण अर्णव खरे

35-38. वैश्विक छवि की प्रतिमूर्ति प्रो. पुष्पिता अवस्थी - डॉ. वीरेंद्र कुमार तिवारी

39-41. डॉ. पुष्पिता की कविताओं में पूरी ताज़गी- शिवा शंकर पांडेय

42-44. अंतस की टीस को शब्दों में गढ़ती पुष्पिता - डॉ. संतोष कुमार मिश्र

45-47. विवशता और स्वेच्छा का अंतर बताता ‘छिन्नमूल’- डॉ. रूबीना शमीम ख़ान

48-49. परिभाषाओं से परे एक व्यक्तित्व - निरुपमा खरे

50-53. सूरीनाम के लिए विकीपीडिया है ‘अनुभव और अनूभूतियां’- डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’

54-55. हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा- डॉ. शहनाज़ जाफ़र बासमेह

56. अनंत आकाश की तरह वृहद रचना संसार- मनमोहन सिंह ‘तन्हा’

57-60. हिन्दुस्तानी प्रवासियों के संघर्ष की कहानी ‘छिन्नमूल’- रचना सक्सेना

61-62. उत्कृष्ठ प्रतिभाशाली कवयित्री पुष्पिता- शमा फ़िरोज़

63-65. देह है तो प्रेम है, परस्पर संवाद है- डॉ. प्रीता पंवार

66. चमत्कृत करती रचनाएं - मंजुला शरण

67-68. प्रेम और संवेदना की प्रतिमूर्ति पुष्पिता- प्रभाशंकर शर्मा

69-70. संवेदना और विचार की सशक्त अभिव्यक्ति- नरेश कुमार महरानी

71-77. इंटरव्यू: प्रो. पुष्पिता अवस्थी से अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ की बातचीत

78-133. पुष्पिता अवस्थी की कविताएं

134-137. मीडिया हाउस: 05 सितंबर 1920 से छप रहा ‘आज’-डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

138-139. 02 मई 1986 से छप रहा ‘आवाज़-ए-मुल्क’- डॉ.  इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

140-143. दास्तान-ए-अदीब: लक्ष्मीकांत वर्मा ने स्वतंत्रता सेनानी का पेंशन नहीं लिया - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

144-148. अदबी ख़बरें


गुरुवार, 13 नवंबर 2025

फ़ारसी में जन्मी ग़ज़ल का सफ़र सोशल मीडिया तक 

                                                                                        - आक़िब जावेद

     उर्दू ग़ज़ल की परंपरा विश्व साहित्य की सबसे समृद्ध और प्रभावशाली काव्य परंपराओं में से एक है। यह फारसी शायरी से उत्पन्न हुई और भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी अनूठी पहचान बनाई। उर्दू ग़ज़ल ने प्रेम, दर्शन, सामाजिक यथार्थ, और आध्यात्मिकता जैसे विविध विषयों को अपनी रचनाओं में समेटा है।

 फारसी में ग़ज़ल की शुरुआत 7वीं सदी में अरबी कविता से हुई, लेकिन इसे फारसी कवियों ने 10वीं सदी में परिष्कृत किया। फारसी शायरों जैसे रूदकी, हाफ़िज़, और सादी ने ग़ज़ल को प्रेम और रहस्यवाद का माध्यम बनाया। 12वीं-13वीं सदी में सूफी संतों और दिल्ली सल्तनत के कवियों के माध्यम से ग़ज़ल भारत पहुंची। अमीर खुसरो (1253-1325) को उर्दू-हिंदी ग़ज़ल का जनक माना जाता है, जिन्होंने फारसी और स्थानीय भाषाओं का मिश्रण कर इसे लोकप्रिय बनाया। 16वीं से 18वीं सदी में मुगल दरबारों में ग़ज़ल को संरक्षण मिला। इस दौर में वली दकनी (1667-1707) ने दकनी उर्दू में ग़ज़ल को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया, जिसे उर्दू ग़ज़ल की नींव माना जाता है। मीर तकी मीर, मिर्ज़ा ग़ालिब, और दाग़ देहलवी जैसे शायरों ने उर्दू ग़ज़ल को वैश्विक पहचान दी। ग़ालिब (1797-1869) ने ग़ज़ल में दर्शन, मानवीय भावनाओं, और जटिल विचारों को समेटकर इसे कालजयी बनाया।

अमीर खुसरो

 उर्दू ग़ज़ल एक निश्चित छंद (बह्र), रदीफ़, और क़़ाफिया पर आधारित काव्य रूप है। इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं। ग़ज़ल दो पंक्तियों (मिस्रा) के स्वतंत्र काव्य खंडों (शेर) से बनी होती है। प्रत्येक शेर अपने आप में पूर्ण विचार व्यक्त करता है, लेकिन सभी शेर एक थीम या भाव से जुड़े हो सकते हैं। प्रत्येक शेर की दूसरी पंक्ति के अंत में दोहराया जाने वाला शब्द या वाक्यांश को रदीफ़ कहा जाता है। रदीफ से ठीक पहले की ध्वनि, जो हर शेर में समान रहती है। उसे रदीफ़ कहा जाता है। ग़ज़ल का छंद, जो शब्दों की मात्रा और लय पर आधारित होता है। यह ग़ज़ल को संगीतमय बनाता है। सामान्य बहरों में बहर-ए-मुजारे, बहर-ए-मुतक़ारिब आदि शामिल हैं। इसे बह्र कहा जाता है। ग़ज़ल का अंतिम शेर, जिसमें शायर अपना तख़ल्लुस (काव्य नाम) शामिल करता है, उस शेर को मक़्ता कहा जाता है। मक़््ता से पहले का शेर को कभी-कभी इसे ‘हुस्न-ए-मक़्ता’ कहा जाता है, जो ग़ज़ल को नाटकीय या भावनात्मक चरम पर ले जाता है। उर्दू ग़ज़ल में फारसी, अरबी, और हिंदी-संस्कृत के शब्दों का मिश्रण होता है, जो इसे समृद्ध और लालित्यपूर्ण बनाता है।

वली दकनी

 उर्दू ग़ज़ल की परंपरा में विषयों की विविधता इसकी सबसे बड़ी ताकत है। ग़ज़ल का केंद्रीय विषय प्रेम है, जो दैहिक और आध्यात्मिक दोनों रूपों में व्यक्त होता है। प्रेमी-प्रेमिका का दुख, वियोग, और मिलन ग़ज़ल के प्रमुख भाव हैं। मीर की पंक्ति ‘दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है’ इसका उदाहरण है। सूफी परंपरा से प्रभावित ग़ज़लें ईश्वर, आत्मा, और विश्व के साथ एकता की बात करती हैं। ग़ालिब की ग़ज़लें अक्सर दार्शनिक और रहस्यवादी प्रश्न उठाती हैं। 19वीं सदी से ग़ज़ल में सामाजिक मुद्दे जैसे गरीबी, अन्याय, और बेरोजगारी भी शामिल होने लगे हैं। ग़ज़ल में प्रकृति के चित्रण का उपयोग प्रेम और दर्शन को व्यक्त करने के लिए होता है, जैसे चाँद, तारे, और फूल। विरह और दुखरू ग़ज़ल में व्यक्तिगत और सामूहिक दुख को गहराई से व्यक्त किया जाता है, जो इसे भावनात्मक बनाता है।

शेख़ सादी

  उर्दू ग़ज़ल भारतीय उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक धरोहर का अभिन्न हिस्सा है। इसने न केवल साहित्य बल्कि संगीत, सिनेमा, और सामाजिक चेतना को भी प्रभावित किया है। ग़ज़ल को मुशायरों (काव्य सभाओं) में प्रस्तुत करने की परंपरा ने इसे जन-जन तक पहुंचाया। मुशायरों में शायरों की तालियाँ और ‘वाह-वाह’ की गूंज ग़ज़ल की लोकप्रियता का प्रतीक है। उर्दू ग़ज़ल ने बॉलीवुड और ग़ज़ल गायकी को समृद्ध किया। जगजीत सिंह, गुलाम अली, और मेहदी हसन जैसे गायकों ने ग़ज़ल को वैश्विक मंच पर पहुँचाया। उर्दू ग़ज़ल ने हिंदू-मुस्लिम सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा दिया। इसमें हिंदी, संस्कृत, और स्थानीय बोलियों के शब्दों का समावेश इसे समावेशी बनाता है। समकालीन ग़ज़लें नारीवाद, पर्यावरण, और वैश्वीकरण जैसे नए विषयों को भी छू रही हैं, जिससे यह परंपरा जीवंत बनी हुई है।

हाफ़िज शिराजी

 उर्दू ग़ज़ल में अपना विशेष योगदान देने वालों में अमीर खुसरो ने ग़ज़ल को स्थानीय भाषा और सूफी विचारों के साथ जोड़ा। वली दकनी ने उर्दू में ग़ज़ल को लोकप्रिय बनाया, जिसे उर्दू का पहला शायर माना जाता है। मीर तक़ी मीर ने ग़ज़ल में व्यक्तिगत दुख और प्रेम को गहराई दी। उनकी पंक्तियाँ सादगी और भावुकता का प्रतीक हैं। मिर्ज़ा ग़ालिब ने ग़ज़ल को दार्शनिक और बौद्धिक स्तर पर ले गए। उनकी रचनाएं जटिल विचारों को सरल शब्दों में व्यक्त करती हैं। दाग़ देहलवी ने ग़ज़ल को सहज और संगीतमय बनाया, जो मुशायरों में लोकप्रिय हुआ। इक़बाल ने ग़ज़ल में राष्ट्रीयता और आध्यात्मिक जागृति के स्वर जोड़े। फै़ज़़ अहमद फै़ज़़ ने प्रगतिशील विचारों और सामाजिक क्रांति को ग़ज़ल में शामिल किया। अहमद फ़राज़ और गुलज़ार ने आधुनिक ग़ज़ल को प्रेम, सामाजिक मुद्दों, और सिनेमाई शैली से जोड़ा।

मीर तक़ी मीर

 सोशल मीडिया (जैसे ग्), यूट्यूब, और ऑनलाइन मुशायरों ने ग़ज़ल को युवाओं तक पहुँचाया। महिला शायर परवीन शाकिर, किश्वर नाहिद जैसी शायराओं ने नारीवादी दृष्टिकोण को ग़ज़ल में शामिल किया। भारत में ग़ज़लें हिंदी और उर्दू के मिश्रण में लिखी जा रही हैं। उर्दू लिपि और भाषा का घटता प्रचलन, खासकर युवा पीढ़ी में, ग़ज़ल की पहुँच को सीमित कर रहा है। साथ ही, व्यावसायिक साहित्य और मनोरंजन के दबाव में ग़ज़ल की गहराई कम हो सकती है। डिजिटल प्लेटफॉर्म, अनुवाद, और मिश्रित भाषा के प्रयोग से ग़ज़ल नई पीढ़ी तक पहुंच रही है। गुलज़ार और जावेद अख़्तर जैसे शायरों ने इसे सिनेमा और साहित्य में जीवित रखा है। 

मिर्ज़ा ग़ालिब

उर्दू ग़ज़ल की परंपरा एक जीवंत और बहुआयामी साहित्यिक धारा है, जो प्रेम, दुख, और आशा को कालजयी रूप में व्यक्त करती है। इसकी संरचनात्मक सुंदरता, भावनात्मक गहराई, और सांस्कृतिक समृद्धि इसे विश्व साहित्य में अनूठा बनाती है। समकालीन शायर इस परंपरा को न केवल जीवित रख रहे हैं, बल्कि इसे नए संदर्भों और पीढ़ियों तक ले जा रहे हैं। यह परंपरा अपनी लचीलापन और समावेशिता के कारण भविष्य में भी प्रासंगिक बनी रहेगी।


(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2025 अंक में प्रकाशित)


गुरुवार, 6 नवंबर 2025

जिंदगी से आशना कराती शबनम नक़वी की ग़ज़लें

                                                      - डॉ. वारिस अंसारी 

                                  


‘इंसानियत को दर्द का दरमां कहेगा कौन/अब आदमी को हज़रते इंसां कहेगा कौन।’ शबनम नकवी अदबी दुनिया का वह अजीम नाम है जिससे लगभग पूरी अदबी दुनिया आशना है। ‘कुछ गम-ए-जानां कुछ गम-ए-दौरां’ उनकी ग़ज़लों का मजमुआ (संग्रह) है । उपरोक्त शेर उनके संग्रह के पहली ग़ज़ल का मतला है जो कि इतना मुसब्बत और मुरस्सा (मज़बूत और मुकम्मल) है कि इसी मतला पर एक किताब लिखी जा सकती है। उन्होंने इस पूरी किताब में इंसानियत के दर्द को जबरदस्त तरीके से पेश किया है। उनकी गजलों में समाज की रंगीनियां और उतार चढ़ाओ को बड़े सलीके से ढाला है जो कि उनकी शख़्सियत (व्यक्तित्व) को दर्शाती हैं। उन्होंने कहीं भी ग़ज़ल की आबरू को मजरूह नहीं होने दिया। शबनम नक़वी ने समाज के साथ एक उम्र गुजारी है। उन्होंने एक ज़माना देखा था। जिंदगी के उतार चढ़ाओ से वह पूरी तरह वाकिफ थे। अपने आप को खूब बिखेरा भी है और समेटा भी है, रातों की नींदों को कुर्बान किया है । जिं़दगी को बहुत करीब से समझा और परखा है तब कहीं जा कर वह तमाम पहलुओं से वाकिफ हुए और इन्हीं तजर्बात को शेर की शक्ल में ढाला। शबनम नक़वी की शायरी रवायत के साथ साथ संजीदा असर भी रखती है यही वजह है कि उर्दू अदब में उनकी एक अलग पहचान है। आइए उनके चंद अशआर पढ़ते चलें-‘पी रहे हैं जिंदगी की धूप कितने प्यार से/दर्द जो बैठा हुआ है साया-ए-दीवार से।’, ‘हर कदम इम्तिहान है भाई/ हर जगह आसमान है भाई/ सब अदब को सजाए बैठे हैं/ सबकी अपनी दुकान है भाई।’, ‘उस एक शख्स को चाहा था टूट कर मैंने/ जो मेरे पास से गुज़रा है अजनबी बन कर।’ 

   पूरा संग्रह इस तरह के खूबसूरत अशआर से भरा पड़ा है । उनके अशआर में एक अलग तरह का एहसास है जो इंसान को सोचने पर मजबूर करता है । किताब ‘कुछ गम-ए-जानां कुछ गम-ए-दौरां को सैयद हामिद रिजवी ने तरतीब दिया है और कवर पेज को मजहर रायबरेलवी ने सजाया है। सन 2004 में प्रकाशित इस किताब में 144 पेज हैं। किताबत (कंपोजिंग)का काम कुर्बान अली ने अंजाम दिया है जिसको इदारा-ए-नया सफर इलाहाबाद (प्रयागराज) से प्रकाशित किया गया । हार्ड जिल्द के साथ किताब की कीमत 150 रुपए है ।

 ज़िंदगी से रुशनास कराती ‘नक़्श-ए-हाय ज़िंदगी’


   अदब के तमाम सिंफ हैं, जिसमें एक सिंफ है अफसाना निगारी। हक़ीक़त ये है कि अफसाना निगारी देखने पढ़ने में तो बहुत आसान महसूस होती है, लेकिन अफसाना का हक़ अदा करना उतना ही मुश्किल काम है। बहुत कम ऐसे लोग होते हैं जिनके अफसानों पर अदबी दुनिया को नाज़ होता है। अगर इन कम लोगों में रज़िया काज़मी का नाम लिया जाए तो ग़लत न होगा  रज़िया काज़मी का तअल्लुक़ इलाहाबाद से है, लेकिन वह अमेरिका में क़ायम पज़ीर हैं। वतन से दूर रह कर और अपनी मसरूफियात के बावजूद भी उन्होंने उर्दू अदब के लिए बड़ी कुर्बानियां दे रही हैं। उन्होंने कई शेरी और नसरी किताबें उर्दू दुनिया की दिया है। इस वक़्त मैं उनके अफसानों का मजमूआ (संग्रह) नक्श ए हाय जिंदगी के बारे में बात करूंगा। किताब के नाम से ही ज़ाहिर हो रहा है कि उन्होंने अदब में ज़िंदगी के लिए काम किया है। उनके अफसानों में रोज़ मर्रा के हालात, ज़िंदगी के उतार चढ़ाव और जद्दोजहद की खूबसूरत तस्वीरें नज़र आती हैं। उनके अफसानों में इंसानी जज़्बात और एहसासात को बड़े सलीके से पेश किया गया है। उनके अफसानों को पढ़ कर महसूस हुआ कि वह भेजा शब्दों के इस्तेमाल से गुरेज़ करती हैं। रज़िया के यहां शब्दों का चयन इस तरह किया गया है कि पाठक आसानी से पढ़ता चला जाये और उनके उस खयाल तक पहुंच जाए जो वह महसूस करती हैं। वह इंसानी दर्द को इस तरह कागज़ पर उकेरती हैं कि लोग सोचते भी हैं और उस दर्द की हक़ीक़त को महसूस भी करते हैं। उनके अफसानों में उनका लहजा , ज़बान (भाषा) और किरदार सब कुछ बिल्कुल अलग अंदाज़ में है। वह समाजी मसाइल, ऊंच नीच, लोगों का दुःख दर्द , खुशी सब कुछ बड़े ही दिलचस्प अंदाज़ में बयान करती हैं। आइए उनके एक अफसाना से चंद लाइने देखते चलें-‘ये वाकई एक ख़ास लड़की के ज़िंदगी की कहानी है लेकिन नाम से क्या होता है। आज हमारे समाज की हर लड़की शमीमा है। निचला तब्क़ा जिसे ऊंचे लोग छूने से भी कतराते हैं उनके दिन फिर गए लेकिन हमारे समाज में औरत की तक़दीर ज्यों की त्यों वही पहले जैसी रह गई।’

   उनकी किताब नक्श-ए-हाय ज़िंदगी दो हिस्सों में है। पहले हिस्से के अफसाने रज़िया के स्कूली ज़िंदगी के दिनों से वाबस्ता हैं जबकि दूसरे हिस्से में आम समाजी हालात पर मुश्तमिल अफसाने हैं। खूबसूरत हार्ड जिल्द के साथ 192 पेज की किताब को फरीद कंप्यूटर ग्राफिक्स करेली, इलाहाबाद से कंपोज़ कराया गया जिसे स्कॉट लाइन प्रिंटर्स प्रयागराज से छपा कर गुफ्तगू पब्लिकेशन से प्रकाशित किया गया है । किताब की क़ीमत मात्र तीन सौ रुपए है।


(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2025 अंक में प्रकाशित)


रविवार, 2 नवंबर 2025

पाकिस्तान न जाओ...

                                                                    - असग़र वजाहत

                                    



मैं लघु उपन्यास ‘चहारदर’ को लिखने के सिलसिले में अमृतसर की अजनाला तहसील में घूम रहा था.। रावी के इधर भारत था और उधर पाकिस्तान। एक गांव से गुजरते हुए कुछ दूरी पर पेड़ों के पीछे मस्जिद की मीनार दिखाई  देने लगी. मुझे बड़ी हैरानी हुई क्योंकि मेरी जानकारी के अनुसार इस इलाके में अब कोई मुसलमान नहीं बचा था सब पाकिस्तान चले गए थे।

 गाड़ी मोड़ कर हम लोग मस्जिद तक पहुंचे। मस्जिद बहुत साफ सुथरी और रंगी पुती थी। मस्जिद के बराबर खेत में एक किसान काम कर रहा था। उससे पता चला कि अब उस गांव में कोई मुसलमान नहीं है, लेकिन मस्जिद है और गांव वाले उसे अपने गांव की मस्जिद मानते हैं इसलिए उसकी पूरी देखभाल और सफाई होती रहती है। मैंने उससे पूछा, क्या इस इलाके में अब कोई मुसलमान नहीं रहता? उसने जवाब दिया की एक मुस्लिम परिवार है जो पाकिस्तान नहीं गया और पास के ही गांव में रहता है।

हम लोग उस गांव पहुंच गए. पूछने पर पता चला कि उस आदमी का नाम युसूफ है। गांव की बाजार में एक सरदार जी ने कहा यूसुफ उनका दोस्त है। वे हमें यूसुफ के घर तक ले जा सकते हैं। युसूफ से बातचीत होने लगी. मैंने दीगर सवालों के बाद पूछा, जब पूरे इलाके के सभी मुसलमान पाकिस्तान जा रहे थे तो तुम्हारा परिवार क्यों नहीं गया ?. 

 यूसुफ ने जवाब दिया कि उसके अब्बा जी सांप काटने का मंत्र जानते थे। गांव में अगर किसी को सांप काटता था तो वही मंत्र पढ़ कर ज़हर उतारते थे। इसलिए विभाजन के  समय गांव वालों ने बहुत विनती  करके और सुरक्षा का पूरा भरोसा दिला कर उन्हें पाकिस्तान जाने से रोक लिया था।


( गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2025 अंक में प्रकाशित )


शनिवार, 11 अक्टूबर 2025

सावन के महीने में निराला ने की बेटी की शादी

महामारी की वजह से पिता चले गए थे बंगाल, वहीं जन्मे थे निराला

परिवार उन्नाव का रहने वाला था, 1942 में इलाहाबाद आ गए

                                                                              - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

  सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की गिनती ऐसे साहित्यकारों में होती है, जिन्होंने अपना पूरा जीवन साहित्य को समर्पित कर दिया। वे सिर्फ़ लेखनी से ही कवि नहीं थे, बल्कि अपनी दिनचर्या और जीवन जीने के तरीके से भी कवि थे। उन्होंने जिस प्रकार का जीवन जिया है, वह आज के कवियों के लिए बेहरतरीन उदाहरण है। वैसे तो उनके बारे में बहुत सारी बातें प्रचलित हैं, तमाम लोगों ने बहुत लिखा-पढ़ा है। कई अन्य लोगों के अलावा डॉ. राम विलास शर्मा ने उन पर बहुत ही शोधात्मक कार्य भी किया है। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने भी निराला जी के बारे में बहुत कुछ लिखा है। लेकिन उनके व्यक्तिगत जीवन को लेकर बहुत सारी बातें प्रचलित हैं, जिनमें बहुत सी बातें सच हैं तो कुछ चीज़ें जोड़ दी गई हैं।

काव्यपाठ करते सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

 प्रपौत्र विवेक निराला ने खुद अपनी आखों से सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ को नहीं देखा, लेकिन परिवार और समाज में उनको लेकर हो रही बहुत सारी घटनाओं और बातचीत को सुनते रहे हैं। इन्होंने हमसे बहुत सारी बातें शेयर की हैं। एक घटना के बारे में विवेक निराला बताते हैं- एक बार राममनोहर लोहिया इलाहाबाद आए हुए थे। कॉफी हाउस में बैठकी के दौरान किसी ने उनसे निराला जी से मिलने को कहा। लोहिया जी ने उनसे मिलने से पहले पूरी रात निराला की कविताएं पढीं। फिर सुबह दारागंज स्थित उनके निवास पर मिलने पहुंचे। दरवाजे पर लोहिया जी पहुंचे तो निराला जी के पास बैठे लोगों ने उनको बताया कि लोहिया जी आए हैं। इस पर निराला जी ने पूछा- क्यों आए हैं? नेहरु जी तो नहीं आते हैं। इस पर लोहिया जी ने कहा- नेहरु जी नहीं आते हैं, इसीलिए मैं आपसे मिलने आया हूं। फिर बहुत देर तक दोंनों लोगों ने बात की।

मुंबई के फिल्मी कलाकारों के बीच सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और पृथ्वीराज कपूर।

वर्ष 1953-54 के कुंभ मेले में भगदड़ के दौरान काफी लोगों की मौत हो गई थी। इस घटना के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद इलाहाबाद आए थे। तब उनका निराला जी से मिलने का कोई प्रोटोकाल पहले से नहीं था। लेकिन राजेंद्र प्रसाद जी उनसे मिलने पहुंच गए। दारागंज की पतली गलियों से होते हुए एक दारोगा पहुंचा और उनसे बताया कि राष्ट्रपति जी आ रहे हैं। थोड़ी ही देर में राजेंद्र प्रसाद जी पहुंच गए। पहले से ही निराला जी के पास बहुत से लोग बैठे हुए थे। राष्ट्रपति को देखते ही लोग जाने लगे। इस पर निराला जी ने सबको रोका। पैदल ही संकरी गली से होते हुए राष्ट्रपति जी पहुंच गए। एक अधिकारी ने राष्ट्रपति की ओर इशारा करते हुए कहा कि-पहचाना इनको आपने ? निराला जी ने कहा-‘ये हमारे प्रसिडेंसी कॉलेज के मित्र हैं, इनको क्यों नहीं पहचानूंगा। लेकिन इन्हीं के नाम के एक राष्ट्रपति हैं, उनको मैं नहीं जानता।’

 निराला अपने परिवार के साथ बहुत कम रहे। उनकी पुत्री सरोज अपने ननिहाल में पली थीं। जब सरोज बड़ी हो गईं तो निराला जी की सास ने उनसे कहा कि बेटी की परवरिश तो मैंने कर दी है। अब शादी तुमको ही करनी है। निराला जी ने अपने कोलकाता के एक शिष्य के साथ बेटी सरोज की शादी तय कर दी। उन्होंने कोई कुंडली नहीं मिलाया, ‘सावन’ के महीने में उन्होंने शादी करने का फैसला किया। लड़की और लड़के के लिए निराला ने कपड़ा खरीद लिया, और फिर घर में ही शादी करने का निर्णय लिया। बिना कुंडली मिलाए सावन के महीने में शादी करने के फैसले पर पंडितों ने शादी कराने से मना कर दिया। इस पर निराला जी ने कहा-कोई बात नहीं मैं खुद शादी करा दूंगा। निराला जी ने शादी करा भी दिया।

एक कार्यक्रम में महादेवी वर्मा समेत अन्य साहित्यकारों के साथ निराला जी।

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के पिता उन्नाव (बैसवाड़ा) के रहने वाले थे और महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। वे मूल रूप से उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के गढ़ाकोला नामक गांव के निवासी थे। लेकिन महामारी से परेशान होकर जीविकोपार्जन के लिए मेदनीपुर, पश्चिम बंगाल चले गए। वहीं 1896 में निराला जी का जन्म हुआ। डॉ.रामविलास शर्मा के अनुसार निराला जी का जन्म 1899 में हुआ। निराला जी की शिक्षा हाईस्कूल तक हुई। बाद में हिन्दी, संस्कृत और बांग्ला का स्वतंत्र अध्ययन किया। पिता की छोटी-सी नौकरी की असुविधाओं और मान-अपमान का सामना करना पड़ा था। उन्होंने दलित-शोषित किसान के साथ हमदर्दी का संस्कार अपने अबोध मन से ही अर्जित किया। तीन वर्ष की अवस्था में माता का और बीस वर्ष का होते-होते पिता का देहांत हो गया था। अपने बच्चों के अलावा संयुक्त परिवार का भी बोझ निराला पर पड़ा। पहले महायुद्ध के बाद जो महामारी फैली उसमें न सिर्फ पत्नी मनोहरा देवी का, बल्कि चाचा, भाई और भाभी का भी देहांत हो गया। 1918 में स्पेनिश फ्लू इन्फ्लूएंजा के प्रकोप में निराला ने अपनी पत्नी सहित अपने परिवार के आधे लोगों को खो दिया।

निराला जी पर जारी किया गया डाक टिकट।

 सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने सबसे पहले महिषादल राज्य में 1918 से 1922 तक नौकरी की। उसके बाद संपादन, स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य की ओर प्रवृत्त हुए। 1922-23 में ‘समन्वय’ का संपादन किए। अगस्त 1923 में मतवाला के संपादक-मंडल में कार्य किए। इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय में उनकी नियुक्ति हुई जहाँ वे संस्था की मासिक पत्रिका ‘सुधा’ से 1935 तक जुड़े रहे। वर्ष 1942 में वे इलाहाबाद आ गए, यहीं दारागंज मे ंएक कमरे में जीवन के अंतिम समय तक रहे।

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के प्रपौत्र विवेक निराला, अशोक श्रीवास्तक ‘कुमुद’ और डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी।

उनकी पहली कविता ‘जन्मभूमि’ प्रभा नामक मासिक पत्र में जून 1920 में, पहला कविता संग्रह 1923 में ‘अनामिका’ नाम से छपा। पहला निबंध ‘बंग भाषा का उच्चारण’ अक्टूबर 1920 में मासिक पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुआ। उनकी पहली रचना ‘जन्मभूमि’ पर लिखा गया एक गीत था। लंबे समय तक निराला की प्रथम रचना के रूप में प्रसिद्ध ‘जूही की कली’ शीर्षक कविता, जिसका रचनाकाल निराला जी ने खुदं 1916 बतलाया था, वस्तुतः 1921 के आसपास लिखी गयी थी और 1922 में पहली बार प्रकाशित हुई थी। कविता के अलावा कथा साहित्य और गद्य की अन्य विधाओं में भी निराला ने खूब लेखन किया है। उनकी प्रकाशित प्रमुख कृतियों में अनामिका (1923), परिमल (1930), अप्सरा (1931), अलका (1933), लिली (1934), सखी (1935), गीतिका (1936), प्रभावती (1936), निरुपमा (1936), कुल्ली भाट (1938), तुलसीदास (1939), सुकुल की बीवी (1941), कुकुरमुत्ता (1942), बिल्लेसुर बकरिहा (1942), अणिमा (1943), चतुरी चमार (1945), बेला (1946), नये पत्ते (1946), चोटी की पकड़ (1946), अर्चना (1950), आराधना (1953) और गीत कुंज (1954) आदि हैं। 15 अक्तूबर 1961 को उनका निधन हो गया।

(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2025 अंक में प्रकाशित )   


सोमवार, 6 अक्टूबर 2025

 ‘छछंद के समय में छंदयुक्त शायरी करते हैं सोमनाथ’

डॉ. सोमनाथ शुक्ल की पुस्तक विमोचन के अवसर पर बोले यश मालवीय

‘शाम तक लौटा नहीं’ का विमोचन करते अतिथि।

प्रयागराज। आज ग़ज़ल विधा को लेकर एक तरह से अराजकता फैली हुई है। जिसे ग़ज़ल का क, ख, ग तक नहीं आता वह भी अपने को ग़ज़ल का बड़ा शायर कहने लगा है। ऐसे में डॉ. सोमनाथ शुक्ल का ग़ज़ल संग्रह ‘शाम तक लौटा नहीं’ बहुत सुखद अनुभव देता है। छछंद के माहौल में छंदयुक्त ग़ज़लों का सामने आना हमारे पूरे साहित्यिक समाज के लिए बहुत उल्लेखनीय और ख़ास है। डॉ. शुक्ल ने अपनी ग़ज़लों के माध्यम से बेहद शानदार नज़ीर पेश किया है। यह बात गुफ़्तगू की ओर से 05 अक्तूबर 2025 को सिविल लाइंस स्थित प्रधान डाक में डॉ. सोमनाथ शुक्ल की पुस्तक ‘शाम तक लौटा नहीं’ के विमोचन अवसर वरिष्ठ साहित्यकार यश मालवीय ने कही। उन्होंने कहा कि डॉ. सोमनाथ शुक्ल की ग़ज़लों को देखकर जहां खुशी का अनुभव होता है, वहीं यह भी कहना पड़ेगा कि हिन्दी ग़ज़ल अभी दुष्यंत कुमार तक ही पहुंची है, इसे अपने मीर, ग़ालिब अभी पैदा करना है।

 कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र ने कहा कि आज के भारतीय माहौल में डॉ. सोमनाथ शुक्ल ने शानदार ग़ज़लें कही हैं। इनकी ग़ज़लें आज के समाज को रेखांकित करने साथ ही सचेत भी करती हैं।

मंचासीन - डॉ. सोमनाथ शुक्ल, डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, मुनेश्वर मिश्र, यश मालवीय और नरेश कुमार महरानी

गुफ़्तगू के अध्यक्ष डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि डॉ. सोमनाथ शुक्ल ने ग़ज़ल की बारीकियों और छंद को सीखने के बाद ही ग़ज़लें लिखी हैं। जिसकी वजह से इनकी ग़ज़लों में व्याकरण संबंधी त्रुटियां नहीं हैं। अजीत शर्मा ‘आकाश’ ने कहा कि डॉ. सोमनाथ एक परिपक्व ग़ज़लकार हैं। आज ऐसी ही ग़ज़लें लिखे जाने की आवश्यकता है। डॉ. वीरेंद्र कुमार तिवारी ने कहा कि डॉ. सोमनाथ शुक्ल ने अपनी ग़ज़लों के माध्यम से मानवता से प्रेम करने को उल्लेखित किया है। गुफ़्तगू के सचिव नरेश कुमार महरानी ने कहा कि डॉ. सोमनाथ शुक्ल ने बहुत अच्छी ग़ज़लें कही हैं, इनकी प्रशंसा की जानी चाहिए।

डॉ. सोमनाथ शुक्ल ने कहा कि यह पुस्तक मेरी पहला प्रयास है। मैंने अपने तौर पर पूरी कोशिश की है कि समाज को सामने अच्छी ग़ज़लें पेश कर सकूं। किताब कैसी है यह आप लोगों को ही बताना है। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया।

दूसरे दौर में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। अरविन्द कुमार ंिसंह, विजय लक्ष्मी विभा, अनिल मानव, धीरेंद्र सिंह नागा, हकीम रेशादुल इस्लाम, संजय सक्सेना, शिबली सना, अफ़सर जमाल, शैलेंद्र जय, मंजूलता नागेश, मोहम्मद शाहिद सफ़र, हरीश वर्मा ‘हरि’, तहज़ीब लियाक़त, रचना सक्सेना, कविता श्रीवास्तव, एमपी श्रीवास्तव और शाहिद इलाहाबादी आदि ने कविताएं प्रस्तुत कीं। राजेश कुमार वर्मा ने सबके प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया।

कार्यक्रम के दौरान सभागार में मौजूद लोग।





सोमवार, 29 सितंबर 2025

 ग़ज़ल लेखन की दिशा में सार्थक प्रयास

                                                                   -अजीत शर्मा ‘आकाश’       

  


रचनाकार ‘ख़ुरशीद खैराड़ी के ग़ज़ल संग्रह ‘दुआएं बेअसर हैं’ में उनकी 90 ग़ज़लें संग्रहीत हैं, शिल्प की दृष्टि से गज़लकार ने इस विधा के मानदण्डों को पूरा करने का प्रयास किया है। क़ाफ़िया, रदीफ़ एवं बह्रों को लेकर सतर्कता एवं सावधानी का परिचय प्रदान किया गया है। उर्दू के कुछ कठिन शब्दों का भी प्रयोग किया गया है, पाठकों की सुविधा के लिए जिनका अर्थ ग़ज़ल के नीचे फ़ुटनोट में दिया गया है। कथ्य की दृष्टि से पुस्तक के वर्ण्य-विषय प्रेम-श्रृंगार, आज के युग की विडम्बना, सामयिक समस्याएं-भूख, ग़रीबी, भ्रष्टाचार, सियासत, अन्याय, उत्पीड़न, शोषण एवं अत्याचार का विरोध, जीवन की विसंगतियाँ, पीड़ाएं, चिन्ताएं और उनका समाधान इत्यादि हैं। पुस्तक का कथ्य हमारे समय के समाज के अनेक पहलुओं को स्पर्श करते हुए जीवन के प्रति आशावाद के दृष्टिकोण को भी प्रकट करता है। कुछ ग़ज़लों के कथ्य में आधुनिक बोलचाल एवं व्यवहार की झलक भी प्रतिबिम्बित होती है।

 पुस्तक में संग्रहीत कुछ ग़ज़लों के अंश इस प्रकार से हैंः-गुदगुदाती है हवा फागुन की/तेरा एहसास लिये बैठे हैं।......हिज्र की रात गुज़रती ही नहीं/एक लम्बी सी टनल लगती है।...... लियाक़त मेरी जानता है वो कामिल/मेरे ही मुताबिक़ मुझ रोल देगा।...... हाँ कठिन था मगर कट गया/ चलते-चलते सफ़र कट गया। सवाल पत्थर, जवाब पत्थर, चुका रहा है हिसाब पत्थर। ...... जाल गर्मी का बिछाया धूप ने/ जानलेवा ज़ुल्म ढाया धूप ने।...... हर इक बशर है परेशाँ हर इक जिगर बेकल/न शाम है न सवेरा निज़ाम काला है।’ ग़ज़ल-संग्रह में कर रहा, फ़क़त तू, वीर रानी, ढाल लिया, जैसे प्रयोगों के कारण ग़ज़लों में ऐबे तनाफ़ुंर एवं कहीं-कहीं तक़ाबुले रदीफ़ के दोष भी परिलक्षित होते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ स्थानों पर वर्तनीगत विशेषकर अनुस्वार सम्बन्धी अशुद्धियाँ भी हैं, जिन्हें प्रूफ़ रीडिंग के माध्यम से दूर किया जा सकता था। कुल मिलाकर ग़ज़ल विधा के विकास एवं उन्नयन की दिशा में रचनाकार द्वारा किया गया यह सृजन कार्य सराहनीय कहा जा सकता है। गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित 112 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 300 रूपये है।


‘पत्थर बोले देर तलक’ सराहनीय ग़ज़ल संग्रह


शायर अनुराग मिश्र ‘ग़ैर’ की पुस्तक ‘पत्थर बोले देर तलक' उनका दूसरा ग़ज़ल-संग्रह है, जिसमें उनकी 112 ग़ज़लें संग्रहीत हैं। संग्रह की इन ग़ज़लों में अत्यन्त संजीदगी से उन्होंने अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति करने का प्रयास किया हैं। कथ्य की दृष्टि से पुस्तक में संग्रहीत ग़ज़लें आधुनिक युगबोध, समसामयिक विषयों, आम आदमी की पीड़ाएं, वर्तमान समय की विडम्बनाएं, बढ़ते हुए शहरीकरण तथा गाँवों की तस्वीर, प्रकृति और पर्यावरण की चिन्ता, राजनैतिक गिरावट जैसे आधुनिक और सामाजिक बिन्दुओं को चित्रित करने के साथ ही सामाजिक सरोकारों की पैरवी भी करती हैं। ग़ज़लों में भारतीय जीवन के रंग तथा परम्पराओं को दर्शाते हुए मिथकों का प्रयोग भी किया गया है। इसके साथ ही इनमें प्रेम, श्रृंगार, रूमानियत की बात भी कही गयी है। भाषाई स्तर पर इन ग़ज़ल रचनाओं की भाषा गंगा-जमुनी तहज़ीब की सरल, सहज एवं बोधगम्य है। सामान्य बोलचाल के शब्दों के साथ ही पदचाप, परिमाप, क्षरण, नक़दीकरण, मधुप जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग किया गया है, तो रेंट, किचन, गिटार, मैथ, टॉपिक जैसे प्रचलित अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग भी है। हिन्दी मुहावरों का प्रयोग भी कहीं-कहीं है। पुस्तक में संग्रहीत ग़ज़ल-रचनाओं के कुछ उल्लेखनीय अंश प्रस्तुत हैं-

बहुत ख़ामोश रहती हैं हवाएँ/कटा जब से यहाँ बरगद पुराना।...... इक बड़ा हाशिया रह गया/जाने क्या अनलिखा रह गया।...... आऊँगा मैं इक दिन वापस/घर-दीवार सजाये रखना।...... मोबाइल से ख़त की लुटिया डूब गई/क़ासिद का भी अब नज़राना बन्द हुआ।...... कहूँ कैसे गया वो दूर मुझसे/अभी मुझमें वो थोड़ा-सा बचा है।

    ग़ज़ल-व्याकरण की दृष्टि से देखा जाए तो रचनाकार ने ग़ज़ल-विधा की मूलभूत शर्तों का भली-भाँति पालन किया है, तथा इस ओर अपनी विशेष सजगता का परिचय प्रदान किया है, तथापि कुछ रचनाएँ दोषयुक्त भी परिलक्षित होती हैं। यथा- ऐबे-तनाफ़ुर- मिसरे में किसी शब्द के अंतिम अक्षर की उसके बाद वाले शब्द के पहले अक्षर से समानता, यथा- कर$रहा, खेत$तेरे, हार$रहे, लग$गया, किस$सितारे, सुगम$मेरा, मगर$रात आदि। तक़ाबुले रदीफ़- ग़ज़ल के मतले के अतिरिक्त किसी और अन्य शेर के पहले मिसरे में अन्त में यदि ऐसी मात्रा (ध्वनि) हो जो रदीफ़ की मात्रा (ध्वनि) से मेल खाए तो शेर में तकाबुल-ए-रदीफैन का दोष आ जाता है। संकलन की ग़ज़ल सं0 3, 4, 21, 39, 43, 44 आदि में यह दोष है। ऐबे-शुतुरगुरबा- एक ही शे’र में जब किसी को दो संबोधन जैसे- ’आप और ’तुम’या ‘तुम’ और ‘तू’ दिए जाएँ तो यह शुतुरगुरबा दोष कहलाता है। पुस्तक की ग़ज़ल सं0 10, 17, 35, 44, 50, 53, 84, 112 आदि में यह दोष है। किसी भी हालत में रचनाकार को इससे बचना चाहिए। इसके अतिरिक्त ‘कि’, ‘दोस्तो’ जैसे भरती के शब्दो से भी बचा जाना चाहिए। भाषा-व्याकरण के अनुसार कर$के का प्रयोग अशुद्ध माना गया है।

 कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि अनुराग मिश्र ‘ग़ैर’ का यह ग़ज़ल संग्रह पठनीय एवं सराहनीय है। ग़ज़ल विधा को ऐसे संवेदनशील एवं सशक्त रचनाकारों से बहुत आशाएँ एवं अपेक्षाएँ रहती हैं। लिटिल बर्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित 130 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 360 रूपये है।


     दोहा सृजन का सार्थक प्रयास


 रीता सिवानी की पुस्तक ‘जीवन का उत्कर्ष’ उनके द्वारा लिखे गये दोहों का संग्रह है। संग्रहीत दोहे सामान्य कोटि के हैं, जिनका वर्ण्य विषय आध्यात्मिक, सामाजिक एवं समकालीन समयबोध है। आज के मानव में भौतिक सुख-समृद्धि की अत्यधिक चाहत, बढ़ता हुआ बाज़ारवाद, पर्यावरण और जीवन की चुनौतियों आदि को दोहों का वर्ण्य विषय बनाया गया है। साथ ही स्त्री-विमर्श के सामाजिक यथार्थ को भी दोहों में सम्मिलित किया गया है। पुस्तक में अधिकतर दोहे धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के लिखे गये प्रतीत होते हैं। देखने में दोहा-लेखन बहुत आसान प्रतीत होता है, किन्तु शिल्प की दृष्टि से इसे रचने में बहुत सावधानी बरतनी होती है। वस्तुतः काव्यशास्त्र के अनुसार दोहा चार चरणों का अर्ध सम मात्रिक शास्त्रीय छन्द है, जिसके पहले और तीसरे विषम चरणों में 13 तथा दूसरे और चौथे सम चरणों में 11 मात्राएँ होती हैं। सम चरण तुकांत होते हैं एवं इनका अंत दीर्ध लघु से होता है। प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंशः- भक्ति भाव से कीजिए, मन से उनका ध्यान/छप्पन भोगों के नहीं भूखे हैं भगवान।...... पॉलिथीन से हो रहा, है दूषित संसार/चलिए इसके त्याग पर हम सब करें विचार।......रंग हरा देता हमें, हरियाली का सार/सुखमय जीवन के लिए, हरा रखो संसार।......एक बार की हार से होना नहीं निराश/निश्चित होगी जीत भी, करते रहो प्रयास। ......अपने सुख की चाह में, अपनों से ही घात/बद से बदतर हो रही, रिश्तों की औक़ात।

 संग्रह का कथ्य विविधता लिए हुए है एवं इसका भाव पक्ष सराहनीय है। कुल मिलाकर दोहों के सृजन एवं विकास की दिशा में रचनाकार की सृजनशीलता एवं रचनाधर्मिता सराहनीय है तथा दोहा सृजन की दिशा में इसे एक सार्थक प्रयास कहा जा सकता है। गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित 220 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 200 रुपये है।


नव रचनाकारों के लिए उपयोगी पुस्तक


 ग़ज़ल-रचनाकारों को इस विशिष्ट विधा की सम्यक् जानकारी का होना आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य माना गया है, जिससे इस विधा के स्वरूप में विकृति का समावेश न होने पाये। पूर्व में इस विषय से सम्बन्धित हिन्दी भाषा में लिखी गयी पुस्तकों का नितान्त अभाव था, जिसके कारण हिन्दी में ग़ज़ल कहने वालों को विशेष कठिनाई का अनुभव होता था। बाद में इस बिन्दु को दृष्टिगत रखते हुए ग़ज़ल के शास्त्रीय स्वरूप की जानकारी रखने वाले लेखकों एवं शायरों द्वारा ग़ज़ल व्याकरण को लेकर हिन्दी भाषा में पुस्तकें लिखी गयीं, जो ग़ज़ल-लेखन सीखने वालों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई।

  अनुपिंदर सिंह अनूप की प्रस्तुत पुस्तक ‘ग़ज़ल का गणित’ ग़ज़ल व्याकरण से सम्बन्धित है। इसमें ग़ज़ल-लेखन की शुरूआत करने वाले नये रचनाकारों को बह्रें सीखने का तरीका बताने का प्रयास किया गया है। लेखक के अनुसार नये ग़ज़ल लेखकों के बह्रों के डर को कम करने के लिए यह आसान पुस्तक लिखी गयी है। इसके अन्तर्गत मशहूर फ़िल्मी गीतों या रिकार्डिड ग़ज़लों की धुन पर तथा गीत गुनगुनाकर या गा कर लिखना सिखाया गया है। इसके साथ ही बह्रों की नाप-तौल के लिए शेअरों की तक़तीअ करना भी बताया है। पुस्तक के प्रारम्भ में गुरू/लघु की जानकारी दी गयी है। ‘ग़ज़ल क्या है’ के अन्तर्गत क़़ाफ़िया-रदीफ़ आदि तकनीकी शब्दों की जानकारी है। ग़ज़ल की बह्र में प्रयुक्त होने वाली गिनती तथा बह्र क्या है, इस विषय में प्रारम्भिक जानकारी दी गयी है।

      पुस्तक के मुख्यांश में प्रचलित बह्रों के अन्तर्गत हज़ज, रमल, खफ़ीफ, मज़ारिआ, मुजतस, कामिल, रजज़, मुतकारिब, मुतदारिक जैसी बह्रों का संक्षिप्त सामान्य परिचय एवं इनमें रचित विभिन्न फ़िल्मी गीतों के उदाहरण दर्शाये गये हैं। अन्त में सम्बन्धित बह्र का उदाहरण देते हुए उसकी तक़तीअ/पड़ताल करने का तरीक़ा भी बताया गया है। लेखक ने विभिन्न शेरों के उद्धरणों के साथ ग़ज़ल के शास्त्रीय स्वरूप के विषय में संक्षिप्त जानकारी प्रदान करने का प्रयास किया है। इस दृष्टि से ग़ज़ल के नव रचनाकारों के लिए एतद् विषयक उपयोगी सामग्री इस आलेख में समाहित की गयी है। ग़ज़ल की बह्रों के विषय में भी पुस्तक के अन्तर्गत बताते हुए विस्तृत जानकारी के लिए अरूज़ या छन्द के किसी ग्रन्थ की सहायता लिये जाने हेतु भी कहा गया है। कुल मिलाकर नव ग़ज़लकारों के लिए ग़ज़ल का गणित पुस्तक को उपयोगी कहा जा सकता है। अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली द्वारा प्रकाशित 140 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 199 रूपये है।

(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2025 अंक में प्रकाशित )


शुक्रवार, 26 सितंबर 2025

साहित्यिक शहर में आना बेहद सुखद: हिमानी 

सात साहित्यकारों को मिला ‘हिन्दी साहित्य रत्न सम्मान’


‘गुफ़्तगू’ के नये अंक का हुआ विमोचन

प्रयागराज। प्रयागराज एक साहित्यिक शहर यह है। आज हिन्दी दिवस के अवसर पर यह आयोजन बेहद ख़ास और उल्लेखनीय है। इस साहित्यिक शहर में आना बेहद सुखद रहा है। मैं खुद एक साहित्यिक परिवार से हूं, मेरे पिता डॉ. हरिरथ भट्ट ‘शैलेष’ अपने समय के मशहूर साहित्यकार रहे हैं। उनकी मौजूदगी में मेंरे देहरादून शहर स्थित आवास पर काव्य गोष्ठियों का आयोजन होता रहा है। तब मैं कवियों की रचनाओं को बहुत ध्यान से सुनती थीं। यह बात 14 सितंबर की शाम सिविल स्थित ‘माता जी रसाई’ में ‘गुफ़्तगू’ द्वारा हिन्दी दिवस पर आयोजित सम्मान समारोह और कवि सम्मेलन-मुशायरा में मशहूर अभिनेत्री हिमानी शिवपुरी ने कही।

गुफ़्तगू के अध्यक्ष डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि हिन्दी दिवस के ख़ास मौके पर हिमानी शिवपुरी और राजेंद्र गुप्ता का प्रयागराज में आकर हमारे कार्यक्रम में शािमल होना पूरे प्रयागराज के लिए उल्लेखनीय है। इन कलाकरों द्वारा हमारे निवेदन को स्वीकार करना हमारे लिए गर्व की बात है।

‘हिन्दी साहित्य रत्न सम्मान’ प्राप्त करते डॉ. वीरेंद्र कुमार तिवारी

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे मशहूर अभिनेता राजेंद्र गुप्ता ने कहा कि प्रयागराज में इतना अधिक आकर्षण है कि यहां बार-बार आने का मन करता है। अभी 18 मई को ही गुफ़्तगू के कार्यक्रम में आया था, फिर आना और अच्छा लगा। हिन्दी दिवस पर हुआ यह कार्यक्रम बहुत ख़ास है।

‘हिन्दी साहित्य रत्न सम्मान’ प्राप्त करते डॉ. तारिक़ महमूद


‘हिन्दी साहित्य रत्न सम्मान’ प्राप्त करते शैलेंद्र जय

सिविल डिफेंस के चीफ वार्डेन अनिल कुमार उर्फ़ अन्नू भइया ने कहा गुफ़्तगू द्वारा लगातार साहित्यिक अलख जगाए रखना प्रयागराज की साहित्यिक पहचान को उल्लेखित करता है। शिक्षाविद् पंकज जायसवाल ने कहा हिमानी शिवपुरी और राजेंद्र गुप्ता का प्रयागराज में आना हमारे लिए बेहद सम्मान की बात है। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया। गुफ़्तगू के सचिव नरेश कुमार महरानी ने सबके प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया।

‘हिन्दी साहित्य रत्न सम्मान’ प्राप्त करते प्रभाशंकर शर्मा

दूसरे दौर मे कवि सम्मेलन और मुशायरे का आयोजन किया गया। अनिल मानव, धीरेेंद्र सिंह नागा, मंजुलता नागेश, अजीत शर्मा आकाश, शिबली सना, नीना मोहन श्रीवास्तव, संजय सक्सेना, रचना सक्सेना, हरीश वर्मा और हकीम रेशादुल इस्लाम ने कलाम पेश किया।

‘हिन्दी साहित्य रत्न सम्मान’ प्राप्त करतीं अर्चना जायसवाल ‘सरताज़’


‘हिन्दी साहित्य रत्न सम्मान’ प्राप्त करतीं मधुबाला गौतम


‘हिन्दी साहित्य रत्न सम्मान’ प्राप्त करते दयाशंकर प्रसाद शर्मा



गुरुवार, 4 सितंबर 2025

1865 में इलाहाबाद से छपना शुरू हुआ ‘दि पायनियर’

इंग्लैंड निवासी रूडयार्ड किपलिंग भी थे इस अंग्रेज़ी अख़बार के संपादक

आज़ादी के बाद इसे स्वदेशी काटन मिल के राजाराम जयपुरिया ने खरीदा

                                                                          - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

 देश को आज़ादी मिलने से पहले ही यहां से विभिन्न प्रकार के अख़बार छपने शुरू हो गए थे। अधिकतर अख़बार हिन्दी अथवा उर्दू में निकलते थे। इन्हें प्रकाशित करने वाले लोग भारतीय ही थे। इन अख़बारों को प्रकाशित करने का मुख्य उद्देश्य देश को आज़ाद कराना ही था। इसी वजह से कई बार अख़बारों को जबरदस्ती बंद भी कराया गया तो कई बार संपादकों और मालिकों को प्रताड़ित किया गया। कुछ संपादको को तो फांसी के तख़्ते पर भी लटका दिया गया था। इन्हीं सबके बीच अंग्रेज़ों का प्रतिनिधि अख़बार अंग्रेज़ी में ‘दि पायनियर’ नाम से निकला। जिसे निकालने वाले अंग्रेज़ ही थे। 

 दि पायनियर का लखनऊ स्थित प्राचीन कार्यालय जो अब वजूद में नहीं है।

पायनियर का शुभारंभ 1865 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के सामने ऐलनगंज मुहल्ले में हुआ था। इस अख़बार के संस्थापक जॉर्ज ऐलन थे, इन्हीं के नाम पर इस मुहल्ले का नाम ऐलनगंज पड़ा। तब इलाहाबाद (प्रयागराज) ‘युनाइटेड प्रॉविन्स’ की राजधानी था। वर्तमान समय का मोतीलाल नेहरु मेडिकल कॉलेज उस समय गवर्नर हाउस था। वर्तमान समय का माध्यमिक शिक्षा परिषद कार्यालय, महालेखाकार ऑफिस, पुलिस मुख्यालय आदि को मिलाकर एक बहुत ही बृहत् क्षेत्र में सचिवालय था। वर्तमान का स्वरूपरानी मेडिकल कॉलेज जेल और फांसीघर था। इसी वजह से पायनियर का शुभारंभ इलाहाबाद से किया गया। शुरू में यह अख़बार साप्ताहिक था, बाद में दैनिक हुआ। 

रूडयार्ड किपलिंग

 अंग्रेजी के मशहूर लेखक रुडयार्ड किपलिंग ‘पायनियर’ के संवाददाता और फिर बाद में संपादक बने थे। इन्होंने वर्ष 1887 से 1889 तक इस अख़बार का संपादन-कार्य किया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सर विंस्टन चर्चिल ने पायनियर अख़बार के लिए युद्ध का कवरेज किया था। बाद में विंस्टन चर्चिल इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बने थे। इन्होनें अपने कार्यकाल के दौरान इंग्लैंड के लिए बहुत सारे उल्लेखनीय कार्य किए हैं।

विंस्टन चर्चिल

 पायनियर अंग्रेज़ों का अख़बार था, जिसमें ज्यादातर आज़ादी के आंदोलन के खिलाफ ही ख़बरें छपती थीं। इससे गांधीजी काफी नाराज रहते थे। वरिष्ठ पत्रकार अभिलाष नारायण एक वाकया का जिक्ऱ करते हुए बताते हैं-‘आजादी के आंदोलन के दौरान ही महात्मा गांधी कोलकाता के लिए यात्रा कर रहे थे, तब सीधी ट्रेन नहीं होती थी। इलाहाबाद में चार-पांच घंटे रुकने के बाद दूसरी ट्रेन पकड़नी थी। गांधी जी इलाहाबाद स्थित पायनियर के कार्यालय पहुंच गए। संपादक से मिलकर अपनी शिकायत दर्ज़ कराई। इसे गंभीरता से लेते हुए तत्कालीन संपादक ने गांधी जी का विस्तृत इंटरव्यू लिया और उसे पूरा-पूरा प्रकाशित किया था।’ वर्ष 1872 से 1874 तक अल्फ्रेड पर्सी सिनेट ने इस अख़बार के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किए, जिसकी वजह से अंग्रेज़ी पाठकों के लिए पायनियर पहली पसंद बन गया। वर्ष 1887 से 1889 तक रुडयार्ड किपलिंग ने इस अख़बार का शानदार तरीके से संपादन किया। ये अंग्रेज़ी के बडे़ लेखक माने जाते हैं।

 वर्ष 1921 में इस अख़बार का कार्यालय लखनऊ स्थानांतरित कर दिया गया। यहां से मशीन को उखाड़कर लखनऊ ले जाकर सेट करना था। इसमें एक सप्ताह का समय लगना था। इसे देखते हुए एक सप्ताह का एडवांस अख़बार छाप लिया गया था। तब जाकर छपाई की मशीन लखनऊ में स्थानांतरित की गई। इसके बाद दिल्ली में भी अख़बार का कार्यालय खुल गया। 

 वर्ष 1947 में देश के आज़ाद होने के बाद अंग्रेज़ जब इंग्लैंड जाने लगे तब स्वदेशी काटन मिल के मालिक राजाराम जयपुरिया ने इस अख़बार को खरीद लिया। अख़बार पहले से ही चर्चित था। जयपुरिया के हाथ में आने के बाद और अच्छा चलने लगा। इस अख़बार के पहले भारतीय संपादक डॉ. सुरेन्द्र नाथ घोष बने। क्वात्रा, के पी  अग्रवाल, सोमनाथ सप्रू, आदर्श कुमार वर्मा, सोलोमन जैसे पत्रकार इसके संपादक रहे हैं। इन लोगों के कार्यकाल में अख़बार ने खूब तरक्की की।

 विनोद मेहता

अख़़बार की सफलता को देखते हुए राजाराम जयपुरिया ने इसी कंपनी से हिन्दी में ‘स्वतंत्र भारत’ अख़बार निकाला। दोनों ही अख़बार चलने लगे। लखनऊ में विधानसभा मार्ग पर ही पॉश इलाकें में इसका बहुमंज़िला कार्यालय बन गया। राजाराम जयपुरिया के बाद उनके बेटे शिशिर जयपुरिया ने अख़बार चलाना शुरू किया। वर्ष 1984 में इसका कार्यालय वाराणसी में भी खोला गया। पहले पायनियर यहां से शुरू हुआ, बाद में ‘स्वतंत्र भारत’ भी छपने लगा। वाराणसी के लहरतारा में खुद की प्रिंटिंग मशीन भी लग गई। इसी समय इलेक्ट्रॉनिक टाइपिंग मशीन बाज़ार में आ गई थी, इस अख़बार के ऑफिस में भी यह मशीन लगा दी गई। उधर, वाराणसी से ‘स्वतंत्र भारत’ शुरू होने के साथ ही अख़बार की आर्थिक हालत खराब होनी शुरू हो गई। इसकी वजह से कुछ ही समय के बाद यहां के दोनों अख़बारों के संस्करण बंद हो गए। सिर्फ़ ब्यूरो ऑफिस रह गए। 

चंदन मित्रा।

अख़बार की आर्थिक हालत लगातार खराब होने लगी तो शिशिर जयपुरिया ने एल एम  थापर को अख़बार बेच दिया। थापर ने दिल्ली के साथ मुंबई से भी अख़बार लांच कर दिया। लेकिन, मुंबई में ज्यादा दिन अख़बार नहीं चला और मुंबई ऑफिस बंद कर देना पड़ा। अब अख़बार का हेड ऑफिस दिल्ली कर दिया गया। थापर के समय वरिष्ठ पत्रकार विनोद मेहता और चंदन मित्रा इसके मुख्य संपादक बनाए गए। कुछ ही दिनों में अख़बार घाटे में आ गया। थापर ने स्वतंत्र भारत अख़बार बेच दिया। थापर ने पायनियर को भी बंद करने का निर्णय ले लिया। चंदन मित्रा ने किस्त पर यह अख़बार थापर से खरीद लिया। धीरे-धीरे अख़बार पटरी पर आ गया। अच्छे ढंग से चलने लगा। 01 अक्तूबर 2010 को चंदन मित्रा ने हिन्दी में भी पायनियर लांच कर दिया। इस दौरान चंदन मित्रा भारतीय जनता पार्टी से जुड़ गए। भाजपा ने बारी-बारी से इनको दो बार राज्यसभा भी भेजा। बाद में चंदन मित्रा ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए। लेकिन ममता बनर्जी ने इन्हें राज्य सभा नहीं भेजा।

पायनिर अख़बार के बारे में बातचीत करते बाएं से- अभिलाष नारायण, डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी और अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’

 वर्ष 2021 में चंदन मित्रा का देहांत हो गया। वर्तमान समय में अंग्रेज़ी पायनियर की प्रधान संपादक शोबोरी गांगुली हैं। इस समय नई दिल्ली और लखनऊ से अंग्रेज़ी पायनियर निकल रहा है। इसके साथ ही भोपाल, भुवनेश्वर, रांची, रायपुर, चंडीगढ़, देहरादून, हैदराबाद और विजयवाड़ा में इसके फ्रेंचाइजी संस्करण हैं।

(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2025 अंक में प्रकाशित)


शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

किताबों का कोई विकल्प नहीं, इनसे बेहतर कोई दोस्त नहींः डॉ. सरोज सिंह 

 डॉ. सरोज सिंह वर्तमान में सीएमपी डिग्री कॉलज में हिन्दी की विभागाध्यक्ष हैं। हिन्दी साहित्य की विद्वान शिक्षक, प्रखर विचारक तथा अपने विचारों को स्पष्ट तथा सटीक रूप से रखने वाली गंभीर आलोचकं है। साहित्य सृजन के लिए आपको अब तक सर्जनपीठ शिखर सम्मान, महादेवी वर्मा सम्मान, नेशनल बिल्डर एवार्ड, शान-ए-इलाहाबाद सम्मान आदि से विभूषित किया जा चुका है। आपका जन्म कलकत्ता में हुआ। प्रारंभिक जीवन कलकत्ता में व्यतीत होने के कारण, आपकी एम फिल तक की शिक्षा कलकत्ता के बांग्लाभाषी विद्यालयों तथा कलकत्ता विश्वविद्यालय से हुई। एस एस जालान गर्ल्स कालेज, कलकत्ता में दो साल तक पढ़ाने, एवं केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक, बैंक में राजभाषा अधिकारी जैसे विभिन्न पदों पर कार्य कर चुकी हैं। आपने डीफिल की उपाधि, इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय से प्राप्त की। हिंदी भाषा में मध्यकालीन साहित्य, स्त्री विमर्श आलोचना तथा हिंदी गद्य साहित्य पर आपकी विशेषज्ञता है। अब तक आपकी लिखी चार पुस्तकों तथा दो संपादित पुस्तकों सहित नवासी (89) शोध आलेख प्रकाशित हो चुके हैं।अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने इनसे, इनके शैक्षिक, साहित्यिक जीवन के साथ-साथ स्त्री विमर्श तथा हिंदी भाषा संबंधित विभिन्न मुद्दों पर विस्तृत बातचीत की है। प्रस्तुत है इस बातचीत पर आधारित प्रमुख अंश- 

डॉ. सरोज सिंह

सवाल: आपकी प्रारंभिक शिक्षा कहां हुई, और हिंदी भाषा तथा हिन्दी साहित्य में आपका रुझान कब, क्यों और कैसे हुआ?

जवाब: मेरा जन्म कलकत्ता महानगर में हुआ और पूरी प्रारंभिक शिक्षा हायर सेकेंडरी, सेकेंडरी, ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन और एम फिल तक की हमारी शिक्षा कलकत्ता में ही हुई। मेरी मां मुझे, साइंस पढ़ाकर डॉक्टर बनाना चाहती थी लेकिन मेरा उसमें कोई रुझान नहीं था। बचपन से लिट्रेचर पढ़ने का बहुत शौक था। मैंने हिन्दी, इतिहास, शिक्षाशास्त्र और एक भाषा के रूप में इंग्लिश लेकर स्नातक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में (पूरी यूनिवर्सिटी में फर्स्ट क्लास फर्स्ट) पास की। बीए में मेरी शादी हो गई लेकिन मेरे पति एवं घर वालों का पूरा सपोर्ट मुझे मिलता रहा। कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम ए  (गोल्ड मेडल) तथा बीएड किया। मेरे पिताजी भी स्वयं टीचर थे और उनका यह मानना था कि लड़कियों के लिए टीचिंग से बेहतर कोई और जॉब नहीं होती है। मैंने सन 1993 में इलाहाबाद में इंटरव्यू दिया और मेरी पोस्टिंग सीएम पी डिग्री कालेज इलाहाबाद में हुई और 1 फरबरी 1994 में मैंने ज्वाइन कर ली। 

सवाल: साहित्य, समाज में व्याप्त सम्वेदनाओं को उभार कर समाज के सामने प्रदर्शित करने का एक सशक्त माध्यम है, इस कथन से आप कहां तक सहमत हैं?

डॉ. सरोज सिंह का इंटरव्यू मोबाइल में रिकार्ड करते अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’।

जवाब: साहित्यकार, एक सामाजिक प्राणी की तरह अपने आस-पास तमाम तरह की गतिविधियों को घटित होते, देखता रहता है और वहीं से वो अपना कच्चा माल इकट्ठा करता है। लेकिन वो कोई पत्रकार नहीं है कि यथाशीघ्र या यथानुसार वो वस्तुस्थिति और घटनाक्रम को, रिपोर्ट की तरह प्रस्तुत कर दे। साहित्यकार किसी भी पहलू को बहुत सम्वेदना के साथ प्रस्तुत करता है। इतिहास या किसी घटना को भी, अगर कोई साहित्यकार, कहानी या उपन्यास में प्रस्तुत करता है तो उसमें उसकी अपनी सम्वेदना भी होती है। जैसे प्रेमचन्द ने कृषक और महिलाओं पर बहुत लिखा है। बहुत सारी महिलाओं ने भी अपने ऊपर बहुत कुछ लिखा है। लेकिन जब प्रेमचन्द के साहित्य को आप पढ़ते हैं तो ये लगता है कि वो सहानुभूति से उत्प्रेरित होकर लिख रहे हैं। जब आप कृषक जीवन के बारे में कहानी पूस की रात, गोदान या आप प्रेमाश्रम पढ़ते हैं तो पूरे पूर्वांचल के भारतीय समाज का परिदृश्य, आपके सामने उपस्थित होता है। हम और आप अक्सर इन दृश्यों को देखते हैं लेकिन कथाकार, जमींदार के शोषण के तरीके, शोषण-चक्र, तमाम सामाजिक बंधन और कृषक की नियति को अपनी पारखी दृष्टि से कुशलतापूर्वक व्यक्त करता है। जिसके बीच वो मरजाद के लिए अपनी मर्यादा के लिए हमेशा व्याकुल रहता है। उन सभी को सम्वेदना के साथ वो प्रकट करता है। वो घटना को ज्यों का त्यों प्रकट नहीं करता है और यही साहित्यकार की खूबी होती है कि जब वह किसी भी विषय को पकड़ता है तो वो उसको बड़ी ही  सम्वेदना के साथ प्रस्तुत करता है। स्त्रियां अगर स्त्री संबंधित किसी चीज को लिखेंगी तो उसमें स्वानुभूति होगी ये लगेगा कि वो स्त्री है और स्त्री की पीड़ा को उसके दुख-दर्द को, उसकी तकलीफ को ज्यादा महसूस कर सकती है। पुरूष वैसा महसूस नहीं कर सकता है।  स्वानुभूति और सहानुभूति है लेकिन साहित्यकार की  अनुभूति, सम्वेदना उससे अलग है वो उसको लेखक या रचनाकार बनाती है और रचना को कालजयी बनाती है।

सवाल: आधुनिक साहित्य एवं मध्यकालीन साहित्य में मुख्य अंतर क्या है ?

जवाब: मध्यकाल को हम लोग दो भागों, पूर्व मध्य काल और उत्तर मध्य काल में बांटते हैं। पूर्व मध्यकाल को हम भक्तिकाल और उत्तर मध्यकाल को रीति काल कहते हैं। पूरा का पूरा भक्तिकाल परिवेश, भक्ति आंदोलन से जुड़ा था। वहां जाति, धर्म,वर्ण,संप्रदाय का कोई भी स्वरूप नहीं था। वो एक तरह से जन आंदोलन था। लोक जागरण था लेकिन परिवेश सामंती था। सामंती परिवेश की जो आम नियति होती है, उसकी वो पीड़ा सभी वर्ग के लोग झेल रहे थे लेकिन वहां कोई बंधन नहीं था। धीरे-धीरे जब विकास क्रम की ओर हम आते हैं तो रीति काल में देखते हैं कि जो वहां भक्ति का स्वरूप था चाहे वो सूफियों की या संतो की या सगुण संप्रदाय के कवियों की भक्ति हो, वो धीरे-धीरे लौकिकता को ग्रहण कर रही थी। जो अलौकिक राम और कृष्ण थे वो लौकिक धरातल पर आ गए थे। वहां स्त्री का भी जो शृंगारिक चित्रण हो रहा था, वो बहुत मांसल्य, दैहिक चित्रण हो रहा था। वो उस समय के राजाओं को तो मुग्ध  कर, उनकी वासना की तृप्ति कर रहा था लेकिन आम जनता के लिए कोई उपयोगी नहीं था। जहां भक्तिकाल आम जनता, आम मनुष्य के लिए प्रेरक था; वहां रीति काल केवल कलापक्ष की दृष्टि से आगे बढ़ रहा था। अगर हम कुछ कवियों को छोड़ दें तो उसमें कहीं न कहीं जीवन का पक्ष छूट रहा था। लेकिन जब हम रीति मुक्त कवियों घनानंद, आलम, आदि को देखते है तो वहां जीवन एवं व्यक्तिकता के साथ-साथ, सामाजिकता का भी स्वरूप देखने को मिलता है। लेकिन जब आधुनिकता का प्रारंभ हुआ तब वहां सबसे बड़ा कार्य नवजागरण का हुआ, पुनर्जागरण हुआ। पुनर्जागरण उन सारी सुप्तावस्था से जागरण का काल था। मध्यकाल से  धीरे-धीरे आगे की ओर अग्रसर होकर अंग्रेजी काल में हमारे देश की तमाम प्रगति के साथ-साथ हमारी मानसिक प्रगति भी हुई। सती विवाह, बाल विवाह, विधवा विवाह, जैसे तमाम तरह के समाज सुधार हुए तो आधुनिकता का समावेश हुआ। साथ-साथ, भाषा के स्तर पर भी हमको बहुत बड़ा परिवर्तन देखने को मिलता है। मध्यकाल की भाषा मूल रूप से अवधी या ब्रज भाषा थी लेकिन आधुनिक काल में आते आते भारतेंदु युग, द्विवेदी युग के प्रारंभ तक ब्रज भाषा का  प्रभाव तो रहता है लेकिन बाद में खड़ी बोली अपना स्थान ग्रहण कर लेती है और खड़ी बोली का स्वरूप अपने विराट और विशाल कलेवर में दिखाई देने लगता है। धीरे धीरे उसी सोपान पर आगे चलकर, भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, समकालीन कविता और आज हम जहां पर है वो इसी आधुनिकता के ही कारण  है। धीरे धीरे उसका प्रभाव भाषा, शैली, प्रवृत्तियों और विशेषताओं के स्तर पर भी बदलता चला गया। जहां मध्यकाल में नारी के स्वरूप पर तुलसीदास कहते है।

ढोल गँवार शूद्र पशु नारी,

ये सब ताड़न के अधिकारी।

तो रीति काल में घनानंद कहते हैं-

रावरे रूप की रीत अनूप, नयो नयो लागत ज्यौं ज्यौं निहारियै।

त्यौं इन आँखिन बानि अनोखी अघानि कहूँ नहिं आनि तिहारियै।।

बिहारी या केशव नारी का अलग चित्रण करते हैं लेकिन जब आप आधुनिक काल में आते हैं, तो प्रसाद कहते हैं-

नारी तुम केवल श्रद्धा हो,

विश्वास-रजत-नग पगतल में।

पीयुष-स्रोत-सी बहा करो,

जीवन के सुन्दर समतल में।

इस तरह से साहित्य में क्रमिक बदलाव दिखाई देता है।

सवाल: साहित्य में पितृसत्ता के विरोध और स्त्री विमर्श को आप किस तरह देखती हैं?

जवाब: यह सामान्य कथन है कि समाज में पितृसत्ता का बहुत हस्तक्षेप रहता है और पितृसत्ता ने ही स्त्रियों के लिए समाजिक रूढियां तथा बंधन बनाए हैं। स्त्रियों को यह तथा पुरूष को यह करना चाहिए। मगर विचार किया जाए तो पितृसत्ता का पोषक, स्त्री एवं पुरूष दोनों ही हो सकते हैं। अत: हम केवल पुरूष को ही इसके लिए, हर जगह, दोष नहीं दे सकते। मेरे विचार से स्त्री-पुरूष दोनों ही समाज के लिए बहुत जरूरी हैं। एक के अभाव में समाज का निर्माण नहीं हो सकता और इसी लिए दोनों का अन्योन्याश्रित संबंध है। हम अगर केवल पितृसत्ता का विरोध करते रहें और ये सोचें कि पितृसत्ता का पोषक केवल पुरूष है तो मुझे अपने पिता, पति से घृणा होगी और तत्पश्चात अपने बेटे से भी घृणा होगी। एक बार मान लेते है कि स्त्री, पिता से घृणा कर सकती है, पति को भी छोड़ सकती है, लेकिन पुत्र मोह को नही छोड़ पाती। अतरू पुरूष हमारा विरोधी नहीं है। हमारे देश में बंगाल या नार्थ ईस्ट में बहुत से मातृसत्तात्मक समाज हैं। मेरी परवरिश बंगाल में हुई  है। मैंने वहां देखा कि वहां बेटियों  का बहुत मान है। वहां बहु को भी बहुमाँ, बेटी को भी बेटीमाँ कहते हैं। वो माँ शब्द उनके लिए इतना पवित्र है कि वहां समाज में, मातृसत्तात्मक रूप है।

पितृसत्ता से मेरा केवल इतना विरोध है कि जो उसकी रूढ़ियां या मान्यताएं कहती हैं कि लड़कियों को यह करना चाहिए और लड़को को यह करना चाहिए, उन मान्यताओं को मैं अस्वीकार करती हूँ। आज कोई ऐसा काम नहीं है जो लड़के कर सकते हैं और लड़कियां नहीं कर सकती। क्या खाना बनाना, झाड़ू-पोछा, बरतन मांजना केवल लड़कियों का काम है। ये लड़कों का काम नहीं है। बड़े बड़े होटलों में जो खानसामे, बाबर्ची, शेफ पुरूष होते हैं वो, महिलाओं से बेहतर, लाजवाब और लज़ीज खाना बनाते हैं। अतरू कोई काम, पुरूष या स्त्री विशेष का नहीं होता, जनाना और मर्दाना नहीं होता। वो हम सबके कार्य होते हैं। मैं आज जहां खड़ी हूं उसके पीछे भी किसी न किसी पुरूष का ही सहयोग था। मेरे पिता ने, अगर मुझे पढ़ाया नहीं होता, इतना सोचने-समझने की शक्ति तथा अवसर नहीं दिया होता, तो आज मैं जहां पर हूँ वहां कभी भी नहीं पहुँच पाती और दूसरा अगर मेरे पति ने, मुझे इतना सहयोग न दिया होता कि मैं, बिना रोक-टोक के अपने अनुसार पढ़ूं-लिखूं  तो मैं इतना आगे नहीं बढ़ पाती और इसमें मेरे बच्चों का भी बहुत योगदान है। अतरू सफलता में कहीं न कहीं पूरे परिवार का योगदान रहता है।

सवाल: कामकाजी महिलाओं के लिए घर और ऑफिस के कार्यों को संतुलित रख कर पारिवारिक तथा सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करना बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य है ?

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से अवार्ड प्राप्त करतीं डॉ. सरोज सिंह

जवाब: आपका प्रश्न बहुत वाजिब है। दोनों ही क्षेत्रों में किसी भी महिला के लिए, अपने आपको बेहतर साबित करना बहुत मुश्किल होता है। अगर आपको समाज और घर वालों के बीच, दोनो जगह स्थान बनाना है तो आपको दोनों में सामंजस्य बैठाना होगा। जब आप अपने पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति करेंगे तो मानसिक रूप से, अपने घर की ओर से, संतुष्ट रहेंगे। किसी को आप के प्रति कोई असंतोष नहीं होगा। जब आप संतुष्ट होकर घर से निकलेंगे तब आप, अपने आपको, बाहर भी बेहतर साबित कर सकते हैं। स्त्रियों को इतना समझना होगा कि जो कामकाजी महिलाएं हैं, उनको घर-बाहर, दोनों के बीच संतुलन बनाना होगा। यह नहीं कि हम नौकरी कर रहे हैं तो हम घर के कार्य का बहिष्कार कर दें। घर की मालकिन-गृहस्वामिनी भी तो हम ही हैं।  हम पति की कमाई पर, अधिकार के साथ-साथ, अपनी जिम्मेदारियों का कितना निर्वहन करते हैं ? वो हमें अपने अंदर झांकना होगा। उसकी पूर्ति करना होगा। जब हम उसकी पूर्ति कर लेंगे, तो जब हम अपने कॉलेज में आएंगे, तो विद्यार्थियों को बेहतर से बेहतर शिक्षा दे सकेंगे। आप महसूस कीजिए कि जो पढ़ी लिखी महिलाएं, तीस-चालीस साल की उम्र तक नौकरी नहीं करती हैं, उनके अंदर उदासीनता की भावना, फ्रस्ट्रेशन आ जाता है किषपढ़ाई का कोई उपयोग नहीं हो रहा है। मैं अपने विद्यार्थियों, खासकर लड़कियों को बहुत प्रोत्साहित करती हूँ कि बेटा तुम्हारे ऊपर जो जिम्मेदारी है, उसका निर्वहन करो। समझ लो कि तुम नवदुर्गा हो। कर्मयोगी की तरह जितना कार्य करोगी उतनी तुम्हारी शक्ति भी बढ़ेगी। 

सवाल: एक सामान्य कथन है कि साहित्य रचना आपको आत्मिक सुख एवं प्रसिद्धि तो प्रदान कर सकती है परंतु आपकी क्षुधा पूर्ति हेतु आजीविका का साधन नहीं हो सकती है ?

जवाब: आपका प्रश्न इसलिए बहुत सही है कि हिंदी हमारी मातृभाषा है और खासकर यह हिंदी प्रदेशों की समस्या है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, झारखंड, छत्तीसगढ क्षेत्रों में हिन्दी भाषा-भाषी बहुत हैं और उन्हे लगता है कि हिंदी हमारी मातृभाषा है इसलिए हम सब कुछ कर सकते हैं। मगर देखा जाए तो  हिंदी में ज्यादातर वर्तनी की अशुद्धियां और उच्चारण दोष, इन्हीं प्रदेशों के लोग करते हैं। अगर आप इससे बाहर निकलकर देखें तो अन्य जगहों में, हिंदी भाषा के प्रति बहुत रुझान है। मैं बंगाल में, पैदा हुई। वहां पढ़ी-लिखी। मुझे पता नहीं था कि उस समय हिन्दी में क्या स्कोप हो सकता है। लेकिन अभिरूचि थी तो मैंने उसमें बेहतर किया। आज मैं जिस मुकाम पर हूँ, वो हिन्दी की वजह से ही संभव हुआ है। चार नौकरी छोड़ने के पश्चात, यह मेरी पांचवी नौकरी है। अगर मैं हिन्दी के अलावा कोई और विषय पढ़ रही होती तो शायद मुझे इतनी नियुक्तियां नहीं मिलती। मेरा यह मानना है कि जो भी विषय आप पढ़िए उसको अपना 100ः दीजिए। आप अगर हिन्दी पढ़ रहे हैं तो उसको इतना बेहतरीन बनाइये कि लोग आपसे सीख लेकर हिंदी की ओर अग्रसर हों। बच्चों को प्रयोजनमूलक हिन्दी पढ़ाते समय, हम लोग बताते हैं कि हिन्दी की उपयोगिता तब ही है जब हिंदी में आप दक्ष हों। 

सवाल: नौजवानों में हिंदी साहित्य के पठन-पाठन एवं सृजन के प्रति निरंतर घटते रुझान तथा परिणामस्वरूप प्रिंट मीडिया के निरंतर क्षय के संबंध में आप सोचती हैं ?

जवाब: आज की युवा पीढ़ी, प्रिंट मीडिया से एकदम दूर होती जा रही है। हम लोग के जमाने में पुस्तकें ही पढ़ने का एकमात्र सहारा थीं और पुस्तकालय माध्यम था। पुस्तकालय मे जाकर या किताबें खरीदकर हम लोग पढ़ते थे। आजकल की पीढी के अंदर धैर्य की कमी है। वो चाहते हैं कि कम से कम समय में, ज्यादा से ज्यादा ज्ञान प्राप्त हो जाय और इस सूचना-प्रौद्योगिकी के युग में, गूगल सर्च कर, उसी के माध्यम से पढ़ाई करते हैं। उनको पीडीएफ चाहिए। सब कुछ उनको परोसा हुआ चाहिए। उनको कुछ बनाना नहीं है। पुराने दौर में, अपने नोट्स बनाकर फिर पढ़कर, हम लोग परीक्षाएं देते थे। आजकल के बच्चों का रुझान ही उस ओर नहीं है कि अध्यन और गहन अध्यन कैसे किया जाता है। वो सतही ज्ञान अर्जित करते हैं। इसी वजह से भविष्य में, किसी के पास रोज़गार होता है और किसी के पास रोज़गार नहीं होता। मेरा ये मानना है कि प्रिंट मीडिया का, किताबों का आज भी कोई विकल्प नहीं है। 

सवाल: आजके बदलते दौर में, साहित्यिक विकास में सोशल प्लेटफॉर्म को आप किस तरह से देखते हैं।

जवाब: मैं, सोशल मीडिया की विरोधी नहीं हूँ। इससे आपके ज्ञानार्जन के साथ-साथ आपके समय का दुरूपयोग भी कहीं न कहीं होता है। जो समय आप पठन-पाठन में देना चाहते हैं, वो समय, सोशल मीडिया पर चौटिंग में चला जाता है। पहले आप जो  पूरा-पूरा वाक्य लिखते थे, उसको अब एकदम संक्षिप्त करते चले जा रहे हैं। अगर अंग्रेजी में हववक लिखते थे तो अब  हक लिखने लगे हैं। बहुत बदलाव हो गए हैं और इस बदलती दुनिया मे इससे न तो आपका भाषा ज्ञान रह जाता है और न आपकी बौद्धिक क्षमता उजागर हो पाती है। 

सवाल: आजकल के दौर में साहित्य रचना हेतु नवीन महिला साहित्यकारों के लिए आपका क्या संदेश हैं?

जवाब: महिला साहित्यकारों के लिए, मेरा ये मुख्य रूप से संदेश है कि वे केवल अपने बारे में या अपने लोगों के बारे में या अपने जीवन के ही बारें में न सोचें, अपने साथ-साथ आसपास की दुनिया में उनके अलावा भी बहुत सारी मजदूर, कृषक, दलित, शोषित स्त्रियां है। तमाम देवदासियों के साथ-साथ वेश्यालयों की समस्यायें है। उनकी परिस्थितियों-समस्याओं को देखें, चिंतन-मनन करें। इन सब चीजों को भी उनको देखने की जरूरत है। और अगर इनको, वो एक मुद्दे के तौर पर अपने साहित्य में इस्तेमाल करेंगी तो शायद आजकल के स्त्री लेखन से कल का स्त्री लेखन बेहतर दिखाई देगा।

(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2025 अंक में प्रकाशित)