शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

किताबों का कोई विकल्प नहीं, इनसे बेहतर कोई दोस्त नहींः डॉ. सरोज सिंह 

 डॉ. सरोज सिंह वर्तमान में सीएमपी डिग्री कॉलज में हिन्दी की विभागाध्यक्ष हैं। हिन्दी साहित्य की विद्वान शिक्षक, प्रखर विचारक तथा अपने विचारों को स्पष्ट तथा सटीक रूप से रखने वाली गंभीर आलोचकं है। साहित्य सृजन के लिए आपको अब तक सर्जनपीठ शिखर सम्मान, महादेवी वर्मा सम्मान, नेशनल बिल्डर एवार्ड, शान-ए-इलाहाबाद सम्मान आदि से विभूषित किया जा चुका है। आपका जन्म कलकत्ता में हुआ। प्रारंभिक जीवन कलकत्ता में व्यतीत होने के कारण, आपकी एम फिल तक की शिक्षा कलकत्ता के बांग्लाभाषी विद्यालयों तथा कलकत्ता विश्वविद्यालय से हुई। एस एस जालान गर्ल्स कालेज, कलकत्ता में दो साल तक पढ़ाने, एवं केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक, बैंक में राजभाषा अधिकारी जैसे विभिन्न पदों पर कार्य कर चुकी हैं। आपने डीफिल की उपाधि, इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय से प्राप्त की। हिंदी भाषा में मध्यकालीन साहित्य, स्त्री विमर्श आलोचना तथा हिंदी गद्य साहित्य पर आपकी विशेषज्ञता है। अब तक आपकी लिखी चार पुस्तकों तथा दो संपादित पुस्तकों सहित नवासी (89) शोध आलेख प्रकाशित हो चुके हैं।अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने इनसे, इनके शैक्षिक, साहित्यिक जीवन के साथ-साथ स्त्री विमर्श तथा हिंदी भाषा संबंधित विभिन्न मुद्दों पर विस्तृत बातचीत की है। प्रस्तुत है इस बातचीत पर आधारित प्रमुख अंश- 

डॉ. सरोज सिंह

सवाल: आपकी प्रारंभिक शिक्षा कहां हुई, और हिंदी भाषा तथा हिन्दी साहित्य में आपका रुझान कब, क्यों और कैसे हुआ?

जवाब: मेरा जन्म कलकत्ता महानगर में हुआ और पूरी प्रारंभिक शिक्षा हायर सेकेंडरी, सेकेंडरी, ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन और एम फिल तक की हमारी शिक्षा कलकत्ता में ही हुई। मेरी मां मुझे, साइंस पढ़ाकर डॉक्टर बनाना चाहती थी लेकिन मेरा उसमें कोई रुझान नहीं था। बचपन से लिट्रेचर पढ़ने का बहुत शौक था। मैंने हिन्दी, इतिहास, शिक्षाशास्त्र और एक भाषा के रूप में इंग्लिश लेकर स्नातक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में (पूरी यूनिवर्सिटी में फर्स्ट क्लास फर्स्ट) पास की। बीए में मेरी शादी हो गई लेकिन मेरे पति एवं घर वालों का पूरा सपोर्ट मुझे मिलता रहा। कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम ए  (गोल्ड मेडल) तथा बीएड किया। मेरे पिताजी भी स्वयं टीचर थे और उनका यह मानना था कि लड़कियों के लिए टीचिंग से बेहतर कोई और जॉब नहीं होती है। मैंने सन 1993 में इलाहाबाद में इंटरव्यू दिया और मेरी पोस्टिंग सीएम पी डिग्री कालेज इलाहाबाद में हुई और 1 फरबरी 1994 में मैंने ज्वाइन कर ली। 

सवाल: साहित्य, समाज में व्याप्त सम्वेदनाओं को उभार कर समाज के सामने प्रदर्शित करने का एक सशक्त माध्यम है, इस कथन से आप कहां तक सहमत हैं?

डॉ. सरोज सिंह का इंटरव्यू मोबाइल में रिकार्ड करते अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’।

जवाब: साहित्यकार, एक सामाजिक प्राणी की तरह अपने आस-पास तमाम तरह की गतिविधियों को घटित होते, देखता रहता है और वहीं से वो अपना कच्चा माल इकट्ठा करता है। लेकिन वो कोई पत्रकार नहीं है कि यथाशीघ्र या यथानुसार वो वस्तुस्थिति और घटनाक्रम को, रिपोर्ट की तरह प्रस्तुत कर दे। साहित्यकार किसी भी पहलू को बहुत सम्वेदना के साथ प्रस्तुत करता है। इतिहास या किसी घटना को भी, अगर कोई साहित्यकार, कहानी या उपन्यास में प्रस्तुत करता है तो उसमें उसकी अपनी सम्वेदना भी होती है। जैसे प्रेमचन्द ने कृषक और महिलाओं पर बहुत लिखा है। बहुत सारी महिलाओं ने भी अपने ऊपर बहुत कुछ लिखा है। लेकिन जब प्रेमचन्द के साहित्य को आप पढ़ते हैं तो ये लगता है कि वो सहानुभूति से उत्प्रेरित होकर लिख रहे हैं। जब आप कृषक जीवन के बारे में कहानी पूस की रात, गोदान या आप प्रेमाश्रम पढ़ते हैं तो पूरे पूर्वांचल के भारतीय समाज का परिदृश्य, आपके सामने उपस्थित होता है। हम और आप अक्सर इन दृश्यों को देखते हैं लेकिन कथाकार, जमींदार के शोषण के तरीके, शोषण-चक्र, तमाम सामाजिक बंधन और कृषक की नियति को अपनी पारखी दृष्टि से कुशलतापूर्वक व्यक्त करता है। जिसके बीच वो मरजाद के लिए अपनी मर्यादा के लिए हमेशा व्याकुल रहता है। उन सभी को सम्वेदना के साथ वो प्रकट करता है। वो घटना को ज्यों का त्यों प्रकट नहीं करता है और यही साहित्यकार की खूबी होती है कि जब वह किसी भी विषय को पकड़ता है तो वो उसको बड़ी ही  सम्वेदना के साथ प्रस्तुत करता है। स्त्रियां अगर स्त्री संबंधित किसी चीज को लिखेंगी तो उसमें स्वानुभूति होगी ये लगेगा कि वो स्त्री है और स्त्री की पीड़ा को उसके दुख-दर्द को, उसकी तकलीफ को ज्यादा महसूस कर सकती है। पुरूष वैसा महसूस नहीं कर सकता है।  स्वानुभूति और सहानुभूति है लेकिन साहित्यकार की  अनुभूति, सम्वेदना उससे अलग है वो उसको लेखक या रचनाकार बनाती है और रचना को कालजयी बनाती है।

सवाल: आधुनिक साहित्य एवं मध्यकालीन साहित्य में मुख्य अंतर क्या है ?

जवाब: मध्यकाल को हम लोग दो भागों, पूर्व मध्य काल और उत्तर मध्य काल में बांटते हैं। पूर्व मध्यकाल को हम भक्तिकाल और उत्तर मध्यकाल को रीति काल कहते हैं। पूरा का पूरा भक्तिकाल परिवेश, भक्ति आंदोलन से जुड़ा था। वहां जाति, धर्म,वर्ण,संप्रदाय का कोई भी स्वरूप नहीं था। वो एक तरह से जन आंदोलन था। लोक जागरण था लेकिन परिवेश सामंती था। सामंती परिवेश की जो आम नियति होती है, उसकी वो पीड़ा सभी वर्ग के लोग झेल रहे थे लेकिन वहां कोई बंधन नहीं था। धीरे-धीरे जब विकास क्रम की ओर हम आते हैं तो रीति काल में देखते हैं कि जो वहां भक्ति का स्वरूप था चाहे वो सूफियों की या संतो की या सगुण संप्रदाय के कवियों की भक्ति हो, वो धीरे-धीरे लौकिकता को ग्रहण कर रही थी। जो अलौकिक राम और कृष्ण थे वो लौकिक धरातल पर आ गए थे। वहां स्त्री का भी जो शृंगारिक चित्रण हो रहा था, वो बहुत मांसल्य, दैहिक चित्रण हो रहा था। वो उस समय के राजाओं को तो मुग्ध  कर, उनकी वासना की तृप्ति कर रहा था लेकिन आम जनता के लिए कोई उपयोगी नहीं था। जहां भक्तिकाल आम जनता, आम मनुष्य के लिए प्रेरक था; वहां रीति काल केवल कलापक्ष की दृष्टि से आगे बढ़ रहा था। अगर हम कुछ कवियों को छोड़ दें तो उसमें कहीं न कहीं जीवन का पक्ष छूट रहा था। लेकिन जब हम रीति मुक्त कवियों घनानंद, आलम, आदि को देखते है तो वहां जीवन एवं व्यक्तिकता के साथ-साथ, सामाजिकता का भी स्वरूप देखने को मिलता है। लेकिन जब आधुनिकता का प्रारंभ हुआ तब वहां सबसे बड़ा कार्य नवजागरण का हुआ, पुनर्जागरण हुआ। पुनर्जागरण उन सारी सुप्तावस्था से जागरण का काल था। मध्यकाल से  धीरे-धीरे आगे की ओर अग्रसर होकर अंग्रेजी काल में हमारे देश की तमाम प्रगति के साथ-साथ हमारी मानसिक प्रगति भी हुई। सती विवाह, बाल विवाह, विधवा विवाह, जैसे तमाम तरह के समाज सुधार हुए तो आधुनिकता का समावेश हुआ। साथ-साथ, भाषा के स्तर पर भी हमको बहुत बड़ा परिवर्तन देखने को मिलता है। मध्यकाल की भाषा मूल रूप से अवधी या ब्रज भाषा थी लेकिन आधुनिक काल में आते आते भारतेंदु युग, द्विवेदी युग के प्रारंभ तक ब्रज भाषा का  प्रभाव तो रहता है लेकिन बाद में खड़ी बोली अपना स्थान ग्रहण कर लेती है और खड़ी बोली का स्वरूप अपने विराट और विशाल कलेवर में दिखाई देने लगता है। धीरे धीरे उसी सोपान पर आगे चलकर, भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, समकालीन कविता और आज हम जहां पर है वो इसी आधुनिकता के ही कारण  है। धीरे धीरे उसका प्रभाव भाषा, शैली, प्रवृत्तियों और विशेषताओं के स्तर पर भी बदलता चला गया। जहां मध्यकाल में नारी के स्वरूप पर तुलसीदास कहते है।

ढोल गँवार शूद्र पशु नारी,

ये सब ताड़न के अधिकारी।

तो रीति काल में घनानंद कहते हैं-

रावरे रूप की रीत अनूप, नयो नयो लागत ज्यौं ज्यौं निहारियै।

त्यौं इन आँखिन बानि अनोखी अघानि कहूँ नहिं आनि तिहारियै।।

बिहारी या केशव नारी का अलग चित्रण करते हैं लेकिन जब आप आधुनिक काल में आते हैं, तो प्रसाद कहते हैं-

नारी तुम केवल श्रद्धा हो,

विश्वास-रजत-नग पगतल में।

पीयुष-स्रोत-सी बहा करो,

जीवन के सुन्दर समतल में।

इस तरह से साहित्य में क्रमिक बदलाव दिखाई देता है।

सवाल: साहित्य में पितृसत्ता के विरोध और स्त्री विमर्श को आप किस तरह देखती हैं?

जवाब: यह सामान्य कथन है कि समाज में पितृसत्ता का बहुत हस्तक्षेप रहता है और पितृसत्ता ने ही स्त्रियों के लिए समाजिक रूढियां तथा बंधन बनाए हैं। स्त्रियों को यह तथा पुरूष को यह करना चाहिए। मगर विचार किया जाए तो पितृसत्ता का पोषक, स्त्री एवं पुरूष दोनों ही हो सकते हैं। अत: हम केवल पुरूष को ही इसके लिए, हर जगह, दोष नहीं दे सकते। मेरे विचार से स्त्री-पुरूष दोनों ही समाज के लिए बहुत जरूरी हैं। एक के अभाव में समाज का निर्माण नहीं हो सकता और इसी लिए दोनों का अन्योन्याश्रित संबंध है। हम अगर केवल पितृसत्ता का विरोध करते रहें और ये सोचें कि पितृसत्ता का पोषक केवल पुरूष है तो मुझे अपने पिता, पति से घृणा होगी और तत्पश्चात अपने बेटे से भी घृणा होगी। एक बार मान लेते है कि स्त्री, पिता से घृणा कर सकती है, पति को भी छोड़ सकती है, लेकिन पुत्र मोह को नही छोड़ पाती। अतरू पुरूष हमारा विरोधी नहीं है। हमारे देश में बंगाल या नार्थ ईस्ट में बहुत से मातृसत्तात्मक समाज हैं। मेरी परवरिश बंगाल में हुई  है। मैंने वहां देखा कि वहां बेटियों  का बहुत मान है। वहां बहु को भी बहुमाँ, बेटी को भी बेटीमाँ कहते हैं। वो माँ शब्द उनके लिए इतना पवित्र है कि वहां समाज में, मातृसत्तात्मक रूप है।

पितृसत्ता से मेरा केवल इतना विरोध है कि जो उसकी रूढ़ियां या मान्यताएं कहती हैं कि लड़कियों को यह करना चाहिए और लड़को को यह करना चाहिए, उन मान्यताओं को मैं अस्वीकार करती हूँ। आज कोई ऐसा काम नहीं है जो लड़के कर सकते हैं और लड़कियां नहीं कर सकती। क्या खाना बनाना, झाड़ू-पोछा, बरतन मांजना केवल लड़कियों का काम है। ये लड़कों का काम नहीं है। बड़े बड़े होटलों में जो खानसामे, बाबर्ची, शेफ पुरूष होते हैं वो, महिलाओं से बेहतर, लाजवाब और लज़ीज खाना बनाते हैं। अतरू कोई काम, पुरूष या स्त्री विशेष का नहीं होता, जनाना और मर्दाना नहीं होता। वो हम सबके कार्य होते हैं। मैं आज जहां खड़ी हूं उसके पीछे भी किसी न किसी पुरूष का ही सहयोग था। मेरे पिता ने, अगर मुझे पढ़ाया नहीं होता, इतना सोचने-समझने की शक्ति तथा अवसर नहीं दिया होता, तो आज मैं जहां पर हूँ वहां कभी भी नहीं पहुँच पाती और दूसरा अगर मेरे पति ने, मुझे इतना सहयोग न दिया होता कि मैं, बिना रोक-टोक के अपने अनुसार पढ़ूं-लिखूं  तो मैं इतना आगे नहीं बढ़ पाती और इसमें मेरे बच्चों का भी बहुत योगदान है। अतरू सफलता में कहीं न कहीं पूरे परिवार का योगदान रहता है।

सवाल: कामकाजी महिलाओं के लिए घर और ऑफिस के कार्यों को संतुलित रख कर पारिवारिक तथा सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करना बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य है ?

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से अवार्ड प्राप्त करतीं डॉ. सरोज सिंह

जवाब: आपका प्रश्न बहुत वाजिब है। दोनों ही क्षेत्रों में किसी भी महिला के लिए, अपने आपको बेहतर साबित करना बहुत मुश्किल होता है। अगर आपको समाज और घर वालों के बीच, दोनो जगह स्थान बनाना है तो आपको दोनों में सामंजस्य बैठाना होगा। जब आप अपने पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति करेंगे तो मानसिक रूप से, अपने घर की ओर से, संतुष्ट रहेंगे। किसी को आप के प्रति कोई असंतोष नहीं होगा। जब आप संतुष्ट होकर घर से निकलेंगे तब आप, अपने आपको, बाहर भी बेहतर साबित कर सकते हैं। स्त्रियों को इतना समझना होगा कि जो कामकाजी महिलाएं हैं, उनको घर-बाहर, दोनों के बीच संतुलन बनाना होगा। यह नहीं कि हम नौकरी कर रहे हैं तो हम घर के कार्य का बहिष्कार कर दें। घर की मालकिन-गृहस्वामिनी भी तो हम ही हैं।  हम पति की कमाई पर, अधिकार के साथ-साथ, अपनी जिम्मेदारियों का कितना निर्वहन करते हैं ? वो हमें अपने अंदर झांकना होगा। उसकी पूर्ति करना होगा। जब हम उसकी पूर्ति कर लेंगे, तो जब हम अपने कॉलेज में आएंगे, तो विद्यार्थियों को बेहतर से बेहतर शिक्षा दे सकेंगे। आप महसूस कीजिए कि जो पढ़ी लिखी महिलाएं, तीस-चालीस साल की उम्र तक नौकरी नहीं करती हैं, उनके अंदर उदासीनता की भावना, फ्रस्ट्रेशन आ जाता है किषपढ़ाई का कोई उपयोग नहीं हो रहा है। मैं अपने विद्यार्थियों, खासकर लड़कियों को बहुत प्रोत्साहित करती हूँ कि बेटा तुम्हारे ऊपर जो जिम्मेदारी है, उसका निर्वहन करो। समझ लो कि तुम नवदुर्गा हो। कर्मयोगी की तरह जितना कार्य करोगी उतनी तुम्हारी शक्ति भी बढ़ेगी। 

सवाल: एक सामान्य कथन है कि साहित्य रचना आपको आत्मिक सुख एवं प्रसिद्धि तो प्रदान कर सकती है परंतु आपकी क्षुधा पूर्ति हेतु आजीविका का साधन नहीं हो सकती है ?

जवाब: आपका प्रश्न इसलिए बहुत सही है कि हिंदी हमारी मातृभाषा है और खासकर यह हिंदी प्रदेशों की समस्या है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, झारखंड, छत्तीसगढ क्षेत्रों में हिन्दी भाषा-भाषी बहुत हैं और उन्हे लगता है कि हिंदी हमारी मातृभाषा है इसलिए हम सब कुछ कर सकते हैं। मगर देखा जाए तो  हिंदी में ज्यादातर वर्तनी की अशुद्धियां और उच्चारण दोष, इन्हीं प्रदेशों के लोग करते हैं। अगर आप इससे बाहर निकलकर देखें तो अन्य जगहों में, हिंदी भाषा के प्रति बहुत रुझान है। मैं बंगाल में, पैदा हुई। वहां पढ़ी-लिखी। मुझे पता नहीं था कि उस समय हिन्दी में क्या स्कोप हो सकता है। लेकिन अभिरूचि थी तो मैंने उसमें बेहतर किया। आज मैं जिस मुकाम पर हूँ, वो हिन्दी की वजह से ही संभव हुआ है। चार नौकरी छोड़ने के पश्चात, यह मेरी पांचवी नौकरी है। अगर मैं हिन्दी के अलावा कोई और विषय पढ़ रही होती तो शायद मुझे इतनी नियुक्तियां नहीं मिलती। मेरा यह मानना है कि जो भी विषय आप पढ़िए उसको अपना 100ः दीजिए। आप अगर हिन्दी पढ़ रहे हैं तो उसको इतना बेहतरीन बनाइये कि लोग आपसे सीख लेकर हिंदी की ओर अग्रसर हों। बच्चों को प्रयोजनमूलक हिन्दी पढ़ाते समय, हम लोग बताते हैं कि हिन्दी की उपयोगिता तब ही है जब हिंदी में आप दक्ष हों। 

सवाल: नौजवानों में हिंदी साहित्य के पठन-पाठन एवं सृजन के प्रति निरंतर घटते रुझान तथा परिणामस्वरूप प्रिंट मीडिया के निरंतर क्षय के संबंध में आप सोचती हैं ?

जवाब: आज की युवा पीढ़ी, प्रिंट मीडिया से एकदम दूर होती जा रही है। हम लोग के जमाने में पुस्तकें ही पढ़ने का एकमात्र सहारा थीं और पुस्तकालय माध्यम था। पुस्तकालय मे जाकर या किताबें खरीदकर हम लोग पढ़ते थे। आजकल की पीढी के अंदर धैर्य की कमी है। वो चाहते हैं कि कम से कम समय में, ज्यादा से ज्यादा ज्ञान प्राप्त हो जाय और इस सूचना-प्रौद्योगिकी के युग में, गूगल सर्च कर, उसी के माध्यम से पढ़ाई करते हैं। उनको पीडीएफ चाहिए। सब कुछ उनको परोसा हुआ चाहिए। उनको कुछ बनाना नहीं है। पुराने दौर में, अपने नोट्स बनाकर फिर पढ़कर, हम लोग परीक्षाएं देते थे। आजकल के बच्चों का रुझान ही उस ओर नहीं है कि अध्यन और गहन अध्यन कैसे किया जाता है। वो सतही ज्ञान अर्जित करते हैं। इसी वजह से भविष्य में, किसी के पास रोज़गार होता है और किसी के पास रोज़गार नहीं होता। मेरा ये मानना है कि प्रिंट मीडिया का, किताबों का आज भी कोई विकल्प नहीं है। 

सवाल: आजके बदलते दौर में, साहित्यिक विकास में सोशल प्लेटफॉर्म को आप किस तरह से देखते हैं।

जवाब: मैं, सोशल मीडिया की विरोधी नहीं हूँ। इससे आपके ज्ञानार्जन के साथ-साथ आपके समय का दुरूपयोग भी कहीं न कहीं होता है। जो समय आप पठन-पाठन में देना चाहते हैं, वो समय, सोशल मीडिया पर चौटिंग में चला जाता है। पहले आप जो  पूरा-पूरा वाक्य लिखते थे, उसको अब एकदम संक्षिप्त करते चले जा रहे हैं। अगर अंग्रेजी में हववक लिखते थे तो अब  हक लिखने लगे हैं। बहुत बदलाव हो गए हैं और इस बदलती दुनिया मे इससे न तो आपका भाषा ज्ञान रह जाता है और न आपकी बौद्धिक क्षमता उजागर हो पाती है। 

सवाल: आजकल के दौर में साहित्य रचना हेतु नवीन महिला साहित्यकारों के लिए आपका क्या संदेश हैं?

जवाब: महिला साहित्यकारों के लिए, मेरा ये मुख्य रूप से संदेश है कि वे केवल अपने बारे में या अपने लोगों के बारे में या अपने जीवन के ही बारें में न सोचें, अपने साथ-साथ आसपास की दुनिया में उनके अलावा भी बहुत सारी मजदूर, कृषक, दलित, शोषित स्त्रियां है। तमाम देवदासियों के साथ-साथ वेश्यालयों की समस्यायें है। उनकी परिस्थितियों-समस्याओं को देखें, चिंतन-मनन करें। इन सब चीजों को भी उनको देखने की जरूरत है। और अगर इनको, वो एक मुद्दे के तौर पर अपने साहित्य में इस्तेमाल करेंगी तो शायद आजकल के स्त्री लेखन से कल का स्त्री लेखन बेहतर दिखाई देगा।

(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2025 अंक में प्रकाशित)

          


शनिवार, 23 अगस्त 2025

 गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2025 अंक में 




3. संपादकीय- मंच का साहित्य से कोई संबंध नहीं

4-6.मीडिया हाउस: 1865 से इलाहाबाद में छपना शुरू हुआ ‘दि पॉयनियर’-डॉ. इम्तियाज़  अहमद ग़ाज़ी

7-9. फ़ारसी में जन्मी ग़ज़ल का सफ़र सोशल मीडिया तक - आक़िब जावेद

10-12. दास्तान-ए-अदीब: सावन के महीने में निराला ने की बेटी की शादी-डॉ.इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

13-18. इंटरव्यू: डॉ. सरोज सिंह

19-23. चौपाल: साहित्यकार का मूल धर्म क्या है ?

24-30. ग़ज़लें  मनीष शुक्ल, बसंत कुमार शर्मा, रज़ा मोहम्मद ख़ान, अरुण शर्मा साहिबाबादी, अरविन्द असर, मनमोहन सिंह ‘तन्हा’, शमा फ़िरोज़, कुमार विशू, कैलाश मंडेला, साजिद अली सतरंगी, मीना माहेश्वरी ‘माही’, आक़िब जावेद, शशिभूषण मिश्र ‘गुंजन’, मजूलता नागेश)

31-39. कविताएं: (यश मालवीय, डॉ. सरिता सिंह, डॉ. प्रिया सूफी, विनोद कुमार विक्की, नरेश कुमार महरानी, डॉ. शबाना रफ़ीक़, सीमा शिरोमणि, कृष्ण कुमार निर्वाण, धीरेंद्र सिंह नागा)

40. संस्मरणः पाकिस्तान न जाओ - असग़र वजाहत

41. लधुकथाः कुत्तो से सावधान - डॉ. प्रमिला वर्मा

42-45. तब्सेरा: दुआएं बेअसर हैं, पत्थर बोले देर तलक, जीवन का उत्कर्ष, ग़ज़ल का गणित

46-47. उर्दू अदब: कुछ ग़मे जानां कुछ ग़मे दौरां, नक़्शे हाय ज़िन्दगी

48-49. ग़ाज़ीपुर के वीर: सच के लिए लड़ने वाले कुबेरनाथ- सुहैल ख़ान

50-52.अदबी ख़बरें


53-85. परिशिष्ट-1: डॉ. मीरा रामनिवास वर्मा

53. डॉ. मीरा रामनिवास वर्मा का परिचय

54-56. संवेदनशील और उत्कृष्ट भावनाओं का प्रवाह- डॉ. रामावतार सागर

57-59.  जीवन अनुभव और सामाजिक सरोकार की कविताएं - डॉ. आदित्य कुमार गुप्त

60-61. विविधताओं का अनमोल ख़ज़ाना- शिवाशंकर पांडेय

62-85. डॉ. मीरा रामनिवास वर्मा की कविताएं


86-115. परिशिष्ट-2: तबस्सुम आज़मी

86. तबस्सुम आज़मी का परिचय

87-88. मन मोहन लेेने वाली शायरी- अरविन्द असर

89-90. तबस्सुम आज़मी के अशआर के नई ताज़गी- शैलेंद्र जय

91-92. सबसे अलग अंदाज़ की शायरी- शमा ‘फ़िरोज़’

93-115. तबस्सुम आज़मी की ग़ज़लें


116-148. परिशिष्ट-3: निरुपमा खरे

116. निरुपमा खरे का परिचय

117-118. निरुपमा खरे के काव्य में व्यक्त स्त्री-विमर्श- डॉ. शहनाज़ जाफ़र बासमेह

119-121. भला क्या सज़ा मुरर्कर करूं मैं - जगदीश कुमार धुर्वे

122-123. सामाजिक संवेदना का सुगम आभास- शिवाजी यादव

124-148. निरुपमा खरे की कविताएं


शनिवार, 16 अगस्त 2025

रूबाई को नहीं मिली ख़ास अहमीयत

                                                                     - डॉ. अमीर हमज़ा

                                             


 

तमाम मुबाहिसा और तन्क़ीद के बावजूद बहुत से ऐसे शायर सामने आए हैं, जिन्होंने अपनी शिनाख़्त रुबाई की शायरी के तौर पर बनाई है। चन्द मशहूर शायर ऐसे भी हुए कि उनका असल मैदान सुखन कुछ और था साथ ही रुबाई पर भी तवज्जो सर्फ की। तो वहां भी रुबाई ने तरक्की पाई। जदीदियत के दौर में भी चन्द ऐसे शोरा थे जो ख़ामोशी से रुबाई की जानिब अपनी तवज्जो मरकूज किए रहे। इसके बाद ग़ज़लों के साथ रुबाई कशीर शोरा के यहां नजर आती है। फिर भी यह कहा जाता है कि रुबाई उमूमी तौर पर जगह नहीं बना पाई। इसकी वजह साफ है कि हमारे यहां ग़ज़ल की इतनी ज्यादा तरबियत हुई कि यहां के शोरा ग़ज़ल के फ्रेम में इज़हार के आदि हो चुके हैं। रुबाई के फ्रेम में जब कुछ कहना चाहते है तो अक्सर यह मजबूरी के शिकार हो जाते हैं। बहुत ही कम वसी रुबाइयां निकल कर आती हैं जो रुबाई के सामने मेयार पर उतरती हैं और ग़़ज़़ल के मुकाबले में नज़्म के शायरों ने रुबाई पर बेहतर काम किया है। मिसाल के तौर पर ‘अनीस’, ‘दबीर’, जोश व फिराकश् को देख सकते हैं। अनीस व दबीर मरसिया के अच्छे शायर थे। उनके यहां आप अच्छी रुबाइयां इसलिए पाते हैं, क्योंकि रुबाई में एक मुख्तसर नज़्म की मुकम्मल खुसूसियत पाई जाती है। जबकि ग़ज़ल के दो मिसरों की रुबाई के चारों मिसरों तक फैलाया और खुसूसी तौर पर तीसरी मिसरे को गुरेज के तौर पर लाना ग़ज़ल के शायरों के लिए बहुत मुश्किल होता है। ऐसे में अक्सर महसूस होता है कि एक ही मौजू पर रुबाई की बियत में है। ऐसी रुबाई भी कसरत से मिलती है। जिनके पहले मिसरे को आखिरी और आखिरी को पहला मिसरा किए जाने पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। ऐसे में रुबाई की रूह खत्म हो जाती है और वह बस रुबाई के चार मिसरे बनकर रह जाते हैं। 

 रुबाई के मुतआलिक अजहान में भी पियोस्त कर दिया गया है। इसके मौजुआत मख्सूस हैं और इस्लाह नफ्स व तसव्वुफ के मौजुआत ज्यादा बढरते जाते है लेकिन क्या ऐसा ही है हमें तो नहीं लगता है बल्कि यह तो एक ऐसी सिन्फ सुखन रही है, जिसे मकतूबाती हैसियत भी हासिल रही है। जो ग़ालिब के यहां भी नजर आती है। फारसी के शायरों पर नज़र डालें तो ख़्वाजा अब्दुल्ला अंसारी, फरीदुद्दीन अतार, मौलवी जलालुद्दीन इराकी, किरमानी शाह, नियामतुल्लाह वगैरह ने इरफानी व अखलाकी रुबाइयां कही हैं। रूदकी, अमीर मअनी, अनवरी ख्वाजा, सआदी वगैरह इश्किया मदहिया,व अखलाकी सूफियाना रुबाइयां कही हैं। ऐसे में उर्दू में रिवायत कहां से आ गई कि रुबाई में ज्यादातर तसव्वुफ अख्लाक की बातें की जाती है। इन मौजुआत को तय कर देने में रुबाई के साथ कुछ अच्छा नहीं हुआ बल्कि नाकदीन व मुहत्तीन ने उर्दू रुबाई के साथ एक किस्म का सौतेला बरताव किया कि रुबाई का फन अलग है तो उसके मौजुआत भी अलग हों। इस से ऐसा हुआ कि मौजुआत सिमट कर रह गए और नुकसान ये हुआ कि कोई भी शायर जो रुबाई कहने पर कादिर है, इसकी तरबियतख्वाह किसी भी माहौल में हुई हो वह अखलाकी व सूफियाना रुबाई कहने की कोशिश करता है। क्या मौजू के लिहाज से ये अन्साफ या दरुस्त हो सकता है ? बिल्कुल भी नही लेकिन अब अक्सर देखने को मिल रहा है कि शायर का तअल्लुक और तसव्वुफ का दूर-दूर का न हो और वह तालिमात तसव्वुफ से वाकिफ भी न हो फिर भी अपनी रुबाईयों में इसको शामिल करने की कोशिश में रहता है। आखिर ऐसा इसलिए कि इसके जहन में यह बात बैठा दी गई है की रुबाई के अहम मौजुआत यही हैं, लेकिन जब रुबाईयों के मजमूए का मुतआला करेंगे तो आप चौंक जाएंगे की कई ऐसी मजमूए हैं, जिनमें हम्द है न ही नात व मनकब। शायद ऐसा इसलिए हुआ कि किसी आलोचक ने लिख दिया होगा कि रुबाई का तअल्लुक खानकाह और मजामीन खानकाह से ज्यादा है तो बाद के भी सारे नाक़दीनकारों पर यकीनन असर पड़ा और मौजुआत सिमट कर रह गए।

 उर्दू रुबाई के विषय की बात की जाए तो माज़ी से लेकर आज तक इसमें इस्लाही मजामीन बा-कसरत बढ़ते गए हैं। शायर का तअल्लुक किसी भी गिरोह से हो, लेकिन जब रुबाई के लिए कलम संभालता है तो वह खुद को उसमें ढालने की भरपूर कोशिश करता है। इसी तरीके से हर एक के यहां जिं़दगी और मौत के मजामीन मिल जाएंगे। अब तो रुबाईयों का चलन बहुत ही कम हो गया बल्कि, अब तो तसव्वुफ के पैमाने में भी पेश करने वाला कोई रुबाई गो नही रहा। 

 फलसफा ज़िन्दगी को जिस उम्दा वह तरीके से अनीस व दबीर ने पेश किया है बाद में यकीनन वह क़ाबिले-तारीफ़ है। इन्हीं की रिवायत को हाली और अकबर ने आगे बढ़ाया। यहां सोचने की बात यह है कि हाली का मैदान अकबर से बिल्कुल अलग हैं और अकबर संजीदा के साथ तन्ज-मजाह के भी हामिल हैं। लेकिन रुबाई में दोनों एक ही रंग में नजर आते हैं। और दोनों इस्लाही रुबाई कहते हैं। उर्दू में रुबाई को नई शिनाख्त देने में जोश और फिराक का किरदार बहुत अहम है। फिराक के मजामीन महदूद रहे हैं। लेकिन इन्होंने रुबाई के लिए वह दरीचा लाकर दिया जो रुबाई की रिवायत में तसव्वुर भी नही किया जा सकता था। जोश ने उर्दू रुबाई को मौजुआत से मालामाल किया, यहां तक उन्होंने क़सीदा के मौजुआत को भी रुबाई में कलमबंद किया। जोश के रग-रग रुबाइयां बसी हुई है। वह अपनी हर फिक्र सोच को रुबाई के पैकर में ढालने का हुनर रखते हैं। उनके कामयाब होने की वजह यह भी थी कि वह मशरकी शेरी क़ायनात से वाक़िफ़ थे। ख़य्याम का उन्होंने नकल नहीं किया है बल्कि अपनी रुबायों को उनकी नज़र किया है, जिससे समझ सकते हैं कि उन्होंने खुद को एक अलमदार के तौर पर पेश करने की कोशिश की है। उन्होंने इस्लाही व सूफियाना रुबाई की जानिब तवज्जो नही की। बल्कि वह जिस बागी जहन के मालिक थे उसी बगियाना तेवर में रुबाइयां कही हैं। जिसे उर्दू को खातिर ख्वाह फायदा हुआ। अलबत्ता उनके कुछ नजरियात यक़ीनन मजहब इस्लाम के खिलाफ़ थे, लेकिन उनकी जो रुबाइयां फितरत निगारी शबाब और इन्कलाब के मौजुआत पर है, उनका कोई सानी नहीं है। 

 उर्दू में रुबाई की मजबूत रिवायत होने के बावजूद अब भी अदबी महफिलों में रुबाई पर बात करते हुए अजहनियत का एहसास होता है। फन से लेकर तनकीद व तजुर्बा तक रुबाई  में बहुत ही कुछ लिखा जा रहा है। यूनिवर्सिटियों में काम हो रहे हैं। अब वैसी कोई बात नहीं रही जैसा की पिछली सदी की आखिरी दहाइयों में थी कि न रुबाईगो शोरा थे और न ही रुबाई पर कुछ लिखा जा रहा था।

  यह बात हक़ीक़त है कि रुबाई तहक़ीक़ व तनक़ीद की दुनिया में सलाम सन्देलवी और फरमान फतेहपुरी के बाद रुक सी गई थी। इस फन पर बिल्कुल भी बात नहीं हो रही थी। जदीदियत के दौर में  अगरचे शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी खुद रुबाईयां कह रहे थे। लेकिन उस वक़्त भी जितना फिक्शन और नज़्म व गजल पर लिखा गया, वह किसी और सिरन्फ को नसीब नहीं हुआ। लेकिन फिर भी इस बीच जितनी भी किताबें मंज़रे-आम पर आई सब ने मक़बूलियत हासिल की। इस बीच कई किताबें ऐसी आई जिनका तअल्लुक सिर्फ़ फन रुबाई से था। इनमें सिर्फ रुबाई की बहसों को जेरे बहस लाया गया था। मिसाल के तौर पर सैयद वहीद अशरफ, नावक हमजापुरी। इसी दरमियान मौजूआई सतह पर दो अहम किताबें भी मंजरे-आम पर आयीं, जिनमें से एक उर्दू रुबाई में तसव्वुर की रिवायत डॉ. सलमा किबरी की और दूसरी किताब डॉ. याहिया की। उर्दू रुबाई हिंदुस्तानी तहज़ीब की यह दोनों किताबें मौजुआती सतह पर सामने आती हैं, लेकिन जिस तरह से दीगर असनाफ में पूरे एक अहद के तख्लीककारों की खिदमात का एतराफ किया गया है, जैसे आज़ादी के बाद उर्दू अफसाना, नावल, ग़ज़ल और शायरी वगैरह ऐसा कुछ रुबाई के साथ देखने को नहीं मिलता है। बल्कि इस किस्म की किताब शुरू में ही सलाम सुंदेल्वी और फरमान फतेहपुरी की थी, जिनमें रुबाई फन के साथ रुबाई गो शोरा पर असर अंदाज तहरीरें हैं। बाद में ऐसी कोई किताब मजारे आम पर नहीं आई। अभी हाल में ही खुशबू परवीन की ‘बयां रुबाई’ मंजरेआम पर आई है। जिसमे गुजिश्ता पचास बरस के शोअरा पर तजुर्बाती गुफ्तगू शामिल है। आज भी रुबाई के मुतालिक यह हालत है की मजमूए साया हो जाते हैं और कहीं पर गुफ्तगू भी नहीं होती है। ऐसे में तखलीक कार इस सिन्फ की आबयारी कैसे कर सकते हैं। जबकि फिंक्शन और ग़ज़ल, नज़्म पर तासुराती व तबसिराती के साथ फलसफियाना मजामीन की कसरत देखते हैं। 

(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2025 अंक में प्रकाशित )


बुधवार, 13 अगस्त 2025

बेहतरीन शायरी का नमूना ‘मरकज़े नूर’

                                                                  - साहिर दाऊद नगरी

                                                          


 

‘मरकजे़ नूर’ नामक किताब के शायर हकीम ज़ियाउद्दीन इलाहाबादी की है। इनके इंतिक़ाल के बाद डॉ. इमादुल इस्लाम और हकीम रेशादुल इस्लाम ने मिलकर इसका संकलन किया और प्रकाशित कराया है। हकीम ज़ियाउर्रहमान ज़िया फरीदी का संबंध मेडिकल और हिकमत और उर्दू अदब से रहा है। आप को अंग्रेज़ी ज़्ाुबान का अधिक ज्ञान नहीं था, लेकिन इस ज़्ाुबान को अपनी ज़रूरत के हिसाब से इस्तेमाल किया। आप की शायरी में पाई जाने वाली अवामी बेदारी, क़ौम के उज्जवल भविष्य की आहट अपने ऊरुज की दिशा में अग्रसर देखी जा सकती है। इनकी शायरी की ख़ासियत जानने के लिए ये अशआर काफी हैं -

अल्लाह से दुआ है हर वक़्त ज़िया की, 

हो जाये क़ौम सारी खुश काम रफ़्ता-रफ़्ता।

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गुज़र रही है जो मुझ पर तुम्हें ख़बर क्या है,

मेरे मज़ाके तमन्ना से तुम कहाँ वाक़िफ़।

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जुनूने इश्क़ में हर वक़्त हूं मैं अपने मरकज़ पर,

फक़त होशे जुनूँ रखती है अब दीवानगी मेरी।

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नहीं उज्रे तकसीर इस दिल को कोई,

मगर हक़ बजानिब सज़ा चाहता है।

हकीम ज़ियाउद्दीन का लिखने का अंदाज़ अपनी तरह का वाहिद तरहदार है। इश्क़िया मिजाज़ और हुस्न पसंद तबीअत का मतलब यह हर्गिज़ नहीं कि संसार के रंग का असल सबब क़रार दिये गये जिंसी इम्तियाज़ात की तश्हीर की जाये। हकीम ज़िया इन्सानी मूल्यों के कद्रदाँ और उनकी पासदारी के मजबूत मुहाफिज़ थे। इन्होंने हिकमत के सहारे अवाम के दिलों में न सिर्फ जगह बनाई बल्कि उनका किरदार उनकी तश्रीह व तफसीर (व्याख्या) था। मौलाना व हकीम और डॉ. की सूरत में एक मानव सेवा के जुनून से भरे शख़्स ने अपनी नेकी सच्चाई, हमदर्दी, खुलूस और मुहब्बत से अपने पराये के दिलों को मुसख्ख़र किया हुआ था। उनके पास से कोई शख़्स मायूस होकर नहीं लौटता था किसी भी जे़हन और ज़ौक और मेयार का शख़्स उन से मिलता, मुहब्बत और इख़्लास का प्रतीक बने दिखते। वैसे भी उनके जीवन का अंदाज़ शरीअत के अहकाम की तबलीग़ एवं प्रसार का और डॉक्टर होने के नाते दिल में भलाई का जज़्बा लिये हुए थे।

एहसास मेरे साहिबे दरमाँ का देखिये

जो दर्द ही को बाइसे तसक़ीं बना गया

. . .

कूएं क़ातिल में सितम की बारिशें होने लगीं

बैठने पाये न जे़रे साया दीवार हम

हकीम ज़ियाउद्दीन इलाहाबादी मरहूम को ज़िया फरीदी के नाम से भी कम शोहरत न मिली बल्कि हक़ीक़त जानंे तो कुछ लोग उन्हें ज़िया फरीदी और कुछ हकीम ज़िया के नाम से पुकारा करते थे। इस किताब के बारे में डॉ. मुहम्मद सलीम, शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी, प्रोफेसर अब्दुल हक़, अली अहमद फातिमी, डॉ. शफक़त आज़मी, अख़्तरुल वासे, शबनम हमीद, शमीम हनफ़ी, अजय मालवीय, डॉ. मुहम्मद इलयास आज़मी, रफ़ीक़ एजाज़ी, मुनव्वर राणा, डॉ. सालिहा सिद्दीक़ी, मुहम्मद अब्दुल क़दीर और शाकिर हुसैन तिश्ना प्रतिक्रिया व्यक्त की है, जिसमें शायर की ख़ासियत का बखूबी जिक्र किया है। किताब हकीम ज़ियाउद्दीन एडवांसमेंट एजूकेशनल वेलफेयर सूसायटी इलाहाबाद (प्रयागराज) के द्वारा अपलाइड बुक्स से प्रकाशित कराई गई है। 160 पेज की सजिल्द किताब की कीमत 300 रुपये है।


(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2025 अंक में प्रकाशित )


बुधवार, 6 अगस्त 2025

प्रेमचंद के कहने पर हिन्दी में लिखने लगे उपेंद्रनाथ 

 मुंबई जाकर कई फिल्मों के लिए भी लिखे पटकथा और डॉयलाग

फै़ज़, साहिर, मोहन राकेश, जाफरी आदि का होता था आगमन

                                                                                - डॉ. इम्तियाज अहमद ग़ाज़ी

उपेंद्रनाथ अश्क

  उपेंद्रनाथ अश्क का परिवार जालंधर, पंजाब का रहने वाला था। वे वर्ष 1940 के दशक में इलाहाबाद आए और यहीं के होकर रह गए। इलाहाबाद के खुशरूबाग रोड पर स्थित उपेंद्रनाथ अश्क के घर पर बड़े-बड़े साहित्यकारों का जमावड़ा लगता था। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, अली सरदार जाफ़री, साहिर लुधियानवी, सज्जाद ज़हीर, मोहन राकेश, राजेंद्र यादव आदि लोग अक्सर ही इलाहाबाद आते तो इन्हीं के यहां रुकते। लगभग रोज शाम को साहित्यकारों का जमावड़ा होता। उपेंद्रनाथ अश्क ने कहानी, उपन्यास, एकांकी, कविता और आलोचना आदि का लेखन किया है। हिन्दी के अलावा उर्दू में भी उनकी कई किताबेें छपीं। उन्होंने तीन कुल शादियां की थीं। पहली पत्नी का नाम शीला था। दूसरी पत्नी का एक महीने में ही देहांत हो गया था। तीसरी पत्नी कौशल्या थीं। कौशल्या से ही पुत्र नीलाभ थे, जो जाने-माने साहित्यकार थे और बीबीसी रेडियो के लिए उन्होंने पत्रकारिता भी की थी। पहली पत्नी शीला के पुत्र उमेश थे, उमेश के पुत्र श्वेताभ हैं। श्वेताभ ने अपने दादा अश्क के साथ काफी समय बिताया है। आज वे प्रकाशन का काम कर रहे हैं।

उपेंद्रनाथ अश्क, साहिर लुधियानवी, अन्य और नीलाभ। इस तस्वीर में साहिर लुधियावनी का इंटरव्यू ले रहे हैं नीलाभ।

श्वेताभ बताते हैं कि मेरी सौतेली मां कौशल्या बहुत ही समझदार और कुशल महिला थीं। उन्होंने पूरे परिवार को बहुत ही सलीक़े से समेट रखा था। उनके लालन-पालन को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वे सौतेली हैं। श्वेताभ अपने दादा अश्क साहब के बारे में बताते हैं कि वे सुबह पांच बजे ही उठ जाते थे, चाय खुद ही बनाते थे। पूरा परिवार उन्हीं का बनाया हुआ चाय पीता था। दादी कौशल्या ने ‘नीलाभ प्रकाशन’ की नींव डाली थी। वह हिन्दी की पहली महिला प्रकाशक थीं। इलाहाबाद के सिविल लाइंस में इसका कार्यालय है। नीलाभ प्रकाशन का काम तो बंद हो गया है, लेकिन वह कार्यालय अपनी जगह पर अब भी मौजूद है। वहां कार्यालय की बाहरी दीवार पर नीलाभ प्रकाशन अब भी लिखा हुआ पढ़ा जा सकता है। उस प्रकाशन की जिम्मेदारी नीलाभ पर ही थी। बाद में नीलाभ अपने हिस्से का मकान बेचकर दिल्ली चले गए थे। बाद में वहीं उनका देहांत हो गया।

 श्वेताभ बताते हैं कि ‘जब मैं 15 वर्ष का था, परिवार में आर्थिक तंगी हुई तो ख़ासतौर पर मुझे दादाजी ने पुस्तक मेलों में किताब लेकर बेचने का काम शुरू कराया था। वर्ष 1980 में गुवाहाटी में पुस्तक मेला लगा तो दादाजी ने वहां के लोगों से बात करके मुझे वहां किताबें बेचने के लिए भेजा। वहां काफी किताबें बिकीं, जिससे कई महीने का खर्च निकला। वहीं कुछ किताबों के आर्डर भीे मिले। गुवाहाटी से इटानगर किताबें लेकर जाने का न्यौता मिला। वहां के मेले में भी काफी किताबें बिकीं। इस तरह का काम मै करता रहा।’

तत्कालीन प्रधाममंत्री का अभिवादन करते उपेंद्रनाथ अश्क।

14 दिसंबर 1910 को जन्में उपेंद्रनाथ जब 11 साल के थे, तभी से उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था। शुरू में वे उर्दू में लेखन करते थे। उनकी पहली उर्दू कविता लाहौर के अख़बार ‘दैनिक मिलाप’ में छपी थी। उनकी पहली हिन्दी कहानी खंडवा से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘कर्मवीर’ में छपी थी, इस पत्रिका के संपादक माखन लाल चतुर्वेदी थे। उन्होंने अपने लेखन की शुरूआत में ही दोहा का भी सृजन किया था। छात्र जीवन में ही इनका लधु कथा संग्रह ‘नौ रतन’ प्रकाशित हो गया था। शुरू में कुछ दिनों तक एक स्कूल में अध्यापन किए, उसके बाद पत्रकारिता से जुड़ गए। लाला लाजपत राय के अख़बार ‘वंदे मातरम्’ के लिए उन्होंने रिपोर्टिंग की, उसके बाद दैनिक ‘वीर भारत’ और साप्ताहिक अख़बार ‘भूचाल’ से जुड़ गए। इनका दूसरा लधुकथा संग्रह ‘औरत की फितरत’ नाम से छपा, इस किताब की भूमिका मुंशी प्रेमचंद ने लिखी थी। अश्क साहब शुरू में सिर्फ़ उर्दू में ही लेखन करते थे। प्रेमचंद के कहने पर उन्होंने हिन्दी में लेखन शुरू कर दिया। लेकिन, पहले वे उर्दू में लिखते, फिर उसे हिन्दी मेे करते।

 1944 में प्रोडक्शन कंपनी फिल्मिस्तान के लिए संवाद और पटकथा लिखने के लिए वे मुंबई चले गए। इन्होंने शशधर मुखर्जी और निर्देशक नितिन बोस के साथ मिलकर काम किया।  उन्होंने संवाद, कहानी और गीत लिखे और यहां तक कि दो फिल्मों में अभिनय भी किए। ये फिल्में थीं-‘मजदूर’ जिसका निर्देशन नितिन बोस ने किया था और ‘आठ दिन’ जिसका निर्देशन अशोक कुमार ने किया था। मुंबई में रहते हुए, अश्क साहब इप्टा से जुड़ गए और उन्होंने अपने सबसे प्रसिद्ध नाटकों में से एक ‘तूफान से पहले लिखा’ जिसे बलराज साहनी ने मंच के लिए तैयार किया था।1948 में वे इलाहाबाद लौट आए।

बाएं से अफ़सर जमाल, डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी और श्वेताभ।

 उनके पांच उपन्यास प्रकाशित हुए हैं। जिनमें ‘सितारों का खेल’ हिन्दी में, ‘गिरती दीवार’, ‘गरम राख’, ‘बर्ॉंइं-बॉंईं आंख’ और ‘शहर में घूमता आईना’ उर्दू में हैं। नाटकों की आठ पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, जिनके नाम ‘जय पराजय’, ‘स्वर्ग की झलक’, ‘लक्ष्मी का स्वागत’, ‘कैद’, ‘उड़ान’, ‘अलग-अलग रास्ते’, ‘छठा बेटा’ और ‘अजो दीदी’ हैं। ये सभी किताबें पहले उर्दू में फिर हिन्दी में छपीं। इसके अलावा उनके दो कविता संग्रह और दो संस्मण की पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।

 मुंबई के वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार रवीन्द्र श्रीवास्तव संस्मरण संग्रह लिख रहे हैं, जिसका नाम ‘5, खुशरोबाद रोड के वाशिंदे’ है। 5, खुशरूबाग रोड में ही उपेंद्रनाथ अश्क रहते थे। इसी मकान में श्वेताभ रहते हैं। आज भी ‘उपेंद्रनाथ अश्क’ नेम प्लेट लगा हुआ है।



(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2025 अंक में प्रकाशित)   


शुक्रवार, 1 अगस्त 2025

 सुलझे स्वभाव के होते हैं डॉक्टर: न्यायमूर्ति शैलेंद्र

‘गुफ़्तगू’ के 24वें स्थापना दिवस पर ‘डॉक्टरों को समर्पित एक शाम’

कार्यक्रम के दौरान सभागार में मौजूद लोग।

प्रयागराज। साहित्यिक संस्था ‘गुफ़्तगू’ की तरफ से 24वें स्थापना दिवस की पूर्व संध्या पर 20 जुलाई की शाम सिविल लाइंस स्थित बाल भारती स्कूल में ‘डॉक्टरों को समर्पित एक शाम’ का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के दौरान मुख्य अतिथि इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति क्षितिज शैलेंद्र ने कहा कि मेरा जब भी डॉक्टरों से संपर्क हुुआ, लगा यह वर्ग बहुत ही सुलझा हुआ होता है। कितनी भी अधिक भीड़ हो या कितनी बड़ी बीमारी हो डॉक्टरों को कभी मैंने उलझते हुए नहीं देखा। यह एक बहुत बड़ी क्वालिटी होती है। समाज के अन्य बुद्धिजीवी वर्ग में इतने सुझले हुए लोग बहुत कम ही मिलते हैं। बहुत से ऐसे अधिवक्ता होते हैं, जिनके जिम्मे अधिक मुकदमे हों, या मुअक्किल की तरफ से लापरहवाही बरती जाती है, तब बहुत से अधिवक्ता उलझ जाते हैं, मगर डॉक्टर कभी नहीं उलझते। आज के ‘गुफ़्तगू’ के कार्यक्रम में डॉक्टर कवियों रचनाएं सुनकर बहुत ही सुखद एहसास हुआ है। 

न्यायमूर्ति क्षितिज शैलेंद्र

  गुफ़्तगू के अध्यक्ष डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि प्रयागराज में डेढ़ दर्जन से अधिक ऐसे डॉक्टर हैं, जो लोगों का इलाज करने के साथ ही बहुत अच्छी शायरी भी करते हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए गुफ़्तगू के 24वें स्थापना दिवस की पूर्व संध्या पर ‘डॉक्टरों को समर्पित एक शाम’ का आयोजन किया गया है।

अपनी कविताएं प्रस्तुत करते डॉ. प्रकाश खेतान।
 कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे न्यायमूर्ति अशोक कुमार ने कहा कि डॉक्टरों में साहित्य का बोध होना बहुत ही अनुकरणीय है। जिस चिकित्स के अंदर संवेदना होगी, कल्पना होगी वही काव्य की रचना भी कर सकता है। आज डॉक्टरों की कविताएं सुनकर एहसास हो गया कि बहुत से चिकित्सक संवेदनशील हैं। इनके अंदर कविता रचने की जबरदस्त क्षमता है।

डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

कवि सम्मेलन के दौरान डॉ. प्रकाश खेतान, डॉ. अबुललैस, डॉ. अरविन्द सिंह, डॉ. पंकज त्रिपाठी, डॉ. तारिक महमूद, डॉ. सी.एम. पांडेय, डॉ. एस.सी. गुप्ता, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, डॉ नईम साहिल, डॉ. कमलजीत सिंह और डॉ. खुरशीद आलम ने कविताएं प्रस्तुत कीं। संचालन मनमोहन सिंह ‘तन्हा’ ने किया।

डॉ. पंकज त्रिपाठी

इस दौरान प्रभाशंकर शर्मा, नीना मोहन श्रीवास्तव, अनिल मानव, शिवाजी यादव, अफ़सर जमाल, डॉ. वीरेंद्र तिवारी, शैलेंद्र जय, दयाशंकर प्रसाद, राज जौनपुरी, मधुबाला गौतम, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’, राम नारायण श्रीवास्तव, मंजु लता नागेश, डॉ. एस.एम. अब्बास, डॉ. गौहर इक़बाल अािद मौजूद रहे।